@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वे देेर तक हाथ हिलाते रहे

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

वे देेर तक हाथ हिलाते रहे


___________________ लघुकथा




हिन को शाम को जाना था। छुट्टी का दिन था। वह स्टेशन तक छोड़ने जाने वाला था।

तभी कंपनी से कॉल आ गई। नए लांचिंग में कुछ प्रोब्लम है। फोन पर सोल्व नहीं हो सकी। कंपनी जाना पड़ा। बहिन को मकान मालिक को किराया नकद में देना है, पर नोटबंदी के युग में नकदी इत्ती तो नहीं। बहिन ने सिर्फ जिक्र किया था। यह भी कहा था कि वह खुद जा कर लेगी। भाई ने सोचा कहाँ परेशान होती रहेगी। उसने इधर उधर से थोड़ा इन्तजाम किया।

बहिन के घर से निकलने का समय हो गया। वह निकल ली। भाई ने देखा वह कोशिश करे तो बहिन के पास स्टेशन तक पहुँच सकता है। कैब बुक की और उसे तेजी से चलाने को कहा।

ट्रेन छूटने के ठीक कुछ सैकंड पहले वह प्लेटफार्म पर पहुँच गया। बहिन उसी की राह देख रही थी। भाई को देखते ही उस की आँखें चमक उठीं। भाई ने कुछ भी कहने के पहले जेब से नोट निकाले और बहिन को थमाए।

-तो तू इस लिए लेट हो गया? मैं ने तो पहले ही कहा था। मैं कर लूंगी।
-नहीं लेट तो मैं इसलिए हुआ कि कंपनी का काम देर से निपटा। वर्ना नोट तो मैं ने पहले ही कबाड़ लिए थे।

तभी ट्रेन चल दी। बहिन कोच के दरवाजे में खड़ी हाथ हिलाने लगी, और भाई प्लेटफार्म पर खड़े खड़े। दोनों के बीच दूरी बढ़ती रही। दोनों एक दूसरे की आंखों से ओझल हो गए। फिर भी दोनों देर तक हाथ हिलाते रहे।

कोई टिप्पणी नहीं: