@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वर्ना सुखा दूंगा

रविवार, 4 दिसंबर 2016

वर्ना सुखा दूंगा

ˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍ एक लघुकथा
रामचन्दर कई दिन से कमान पर तीर चढ़ा कर समन्दर को ललकार रहा था।
-देख! सीधाई से रस्ता दे दे वर्ना सुखा दूंगा।

समन्दर था कि उस पर कोई असर ही नहीं हो रहा था। वह तो पहले की तरह लहर लहर लहरा रहा था। न तो उसे रामचन्दर दिखाई दे रहा था, न उस के साथ के लोग। रामचन्दर की आवाज तो लहरों की आवाज में दबी जा रही थी।

अचानक कहीं से बाबा तुलसी आ निकला। रामचन्दर के कानों में गाने की आवाज पहुँची........
-विनय न मानत जलधि जड़ गए कई दिन बीत ......

रामचन्दर के हाथों से तीर छूट गया। समन्दर का पानी सूखने लगा। हा हाकार मच गया। समंदर के जीवजंतु मरने लगे। कुछ ही घंटों में समंदर की तलहटी दिखाई देने लगी। ऐसी ऊबड़ खाबड़ और नुकीले पत्थर, बीच बीच के गड्ढों में बदबू मारता कीचड़। इंसान और बन्दर तो क्या उड़ने वाले पंछी भी अपने पैर वहाँ न जमा सकें।

रामचन्दर माथा पकड़ वहीं चट्टान पर बैठ गया।

लंका का रस्ता भी न मिला, लाखों की हत्या और गले बंध गई।


  • दिनेशराय द्विवेदी

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