पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।" पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
इन सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।
खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था।
हम बहुत बहस करते हैं। लेकिन ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।
19 टिप्पणियां:
गलियां, ये बात सही है कि पुरुष अधिसंख्यक रूप में इनका प्रयोग करते देखे जाते हैं पर महिलायें भी इनके प्रयोगसे अछूती नहीं हैं. जो भी महिलाएं गालियाँ देतीं हैं वे खुद माँ, बहिन की गली देतीं हैं.
कारण गाली देने का क्या है पर आपका कहना सही है कि शोध की आवश्यकता है.
वैसे अब पुरुष-महिला का नाम लेकर कोई चर्चा छेड़ो तो जो मिले वही गाली. चर्चा ही गा...ली...गाली
द्विवेदी सर,
बड़ा ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने...देश में सौ कोस पर हवा-पानी के साथ भाषा में भी बदलाव आना शुरू हो जाता है...यौनिक गालियों की भी ज़ुबान बदल जाए लेकिन भाव वही रहता है...ये सब कुछ ऐसा रचा-बसा हुआ है कि आप चाह कर भी इससे मुक्ति नहीं पा सकते...अनपढ़ों की तो बात छोड़ दीजिए...पढ़े लिखे भी आपे से बाहर होने पर एक से एक फक्कड़ तौलते नज़र आते हैं...बैंडिट क्वीन फिल्म में यौनिक गालियों का इतना खुल कर प्रयोग किया गया था कि हॉल में बैठना भी असहज हो गया था...
रही बात पुरुष-नारी विमर्श को लेकर तनातनी की तो ये रह-रह कर ब्लॉग जगत में दिखती रहती है...मेरा मत यही है कि पुरुष और नारी को तराजू के समान पलड़ों की तरह देखना चाहिे...न कोई हल्का, न कोई भारी...उच्चतर समझने का बोध जहां भी आएगा, वो समस्या पैदा करेगा...अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी...
जय हिंद...
सर जी, गालियों की अभिव्यक्ति सामर्थ्य को कम करके नहीं आँक सकते ! मैं साहसपूर्वक कह सकता हूँ कि क्रिया विशेष के ऎसे विकृत सँबोधन, मानव जीवन शैली का अनिवार्य तत्व है । बोले तो.. मेन्टल कैथारिसिस याकि तिरस्कृत भावों का मानसिक स्खलन ....
शायद इसीलिये इनकी सम्प्रेषण शक्ति भी तत्काल प्रभाव छोड़ती है, पर वैचारिक बहस में इसकी गुँजाइश तलाशने वालों को मैं ’ शब्द-कँगाल’ से अधिक का महत्व नहीं देता ! बकिया खुशदीप ठीकै उचारिन कि स्त्री पुरुष विमर्श में अपने को दूसरे के ऊपर देखने की अहमन्यता ने नारी-पुरुष के बीच महत्ता का बन्दरबाँट मचा रखा है !
गालियों का कुछ नहीं हो सकता. समाज का ये भी हिस्सा हैं. भले ही कितना ही नागवार क्यों न गुजरता हो गाली-गलौज.
मैंने तो भारत के अनेक समाजों के बहुतेरे परिवारों में महिलाओं द्वारा अपने ही बच्चों को हरामी शब्द लगा कर पुकारते सुना है?
असहज हो पूछे जाने पर 'बताया' जाता है कि यह तो मैं लाड़ से बुला रही थी!!
तो वे किसे गाली दे रहीं थी?
मेर ख़्याल से गालियों का प्रादुर्भाव जब से हुआ है उसकी मंशा पुरूषों को चोट पहुँचाना ही है, अब चाहे वह एक बेहद आम हो गई गाली 'साला' ही क्यों ना हो।
वैसे जब भी महिलाओं द्वारा गालियाँ दी जाती हैं तो उनकी मौलिकता देखते ही बनती है :-)
बी एस पाबला
इस बारे में मैंने कभी पोस्ट लिखी थी-गालियों का सामाजिक महत्व । कुछ और पोस्टें हैं:गाली की जरूरत है , गालियाँ मजेदार होतीं हैं??,गालियों का शिक्षाशास्त्र
nice
गालियों में कही गयी बात बहुत सम्प्रेश्नीय होती है और तत्क्षण इच्छित प्रभाव डालती हैं -पर पहले आप चर्चा शुरू करे न!
एक ऐसा भी समाज होता है जहाँ गालियाँ बोल चाल का हिस्सा हैं वहां गालियाँ बोलने सुनने पर कोई सोचता नहीं कि सामने वाले ने क्या कहा. बस यूँ समझ लीजिये मुहावरों कि तरह इस्तेमाल करने वाला एक वर्ग भी है !
दिवेदी साहब,
अभी वक्त लगेगा, हिन्दी साहित्य का ब्लॉग-जगत अपने शैशव काल में विचरण कर रहा है !
अब क्या कहें? हमारे इधर तो आदमी दो गाली खुद को देता है उसके बाद दूसरे को देता है. अब आप ही बताईये क्या करें?
रामराम.
dदिवेदी जी ये बेकार विषय है। आज शायद इस स्थिति मे बहुत सुधार हो चुका है। मुझे तो ऐसी गालियाँ सुने हुये जमाना बीत गया । पहले जरूर गाँव मे बहुत बार् आम सुनाई देती थी। जैसे जैसे लोग पढ लिख रहे हैं सुधार हो रहा है। मुझे तो यही लगता है। अपना घर इन से शुरू से ही मुक्त है। धन्यवाद
आदरणीय द्विवेदी जी. आप की अदालत में मुजरिम हाज़िर है :)
मेरी टिप्पणी पर बात चली है तो बता दूं कि मेरी टिप्पणी चिट्ठा चर्चा में लगी थी जो सुजाता जी की उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया थी कि जब पुरुष गाली दे सकता है तो महिला क्यों गाली नहीं दे सकती? मेरा कहना था कि गाली ही क्यों, सिगरेट भी पी सकती है, शराब भी और पुरुष की तरह रेड लाईट...। इसका आशय यह था कि गिरावट में भी क्या स्त्री पुरुष का मुकाबला करेगी? जैसा कि आपने ठीक ही कहा कि मुद्दा विषय से दूर चला गया। केंद्र में मुद्दा नहीं ‘कोई cmpershad ’ आ गया। बात दूर तक जाती देख कर मैंने चिट्ठा चर्चा में क्षमा भी मांग ली थी। शायद बात आई गई हो गई... पर नहीं, एक बार फिर रचनाजी ने उस टिप्पणी का लिंक पुनः चिठाचर्चा पर हाल ही में दिया। बात को आगे नहीं बढाते हुए मैंने उसे इग्नोर कर दिया।
विषय अपनी जगह है और मेरा प्रश्न भी- नारी पुरुष के मुकाबिल किस हद तक गिरना चाहती है। क्या ‘नारी’ के पास इसका उत्तर है... या केवल पुरुष को केवल कोसने का ही कार्य करती रहेंगी??
यदि वह गाली तक ही रुकना चाहती तो यह भी स्पष्ट कर दे ॥
गालियां तो हमारे भारत ओर पाकितान मै बहुत तरह तरह की है, जिन्हे सुन कर ही शर्म आ जाये, लेकिन निकालने वाले बहुत ढंग से ओर दुसरे की गाली को सुन कर टीका कर जबाब देते है, पहले मै याहो मेसेंजर पर जाता था, दिल्ली को पंजाब के ना० १ ओर २ पर कई बार गया, जहा पंजाब मै एक तरफ़ भारतीया ओर दुसरी तर्फ़ पाकितानीयो की गालिया.... दिल्ली के पेज पर एक लडकी जिस का नाम पता नही राम राम केसी केसी गर्म ओर मिर्ची के भी तेज गालिया... लेकिन अब तो इन गालियो ने समाज मै भी इज्जत पा ली है मैने कई भारतीया चेनलो पर अगरेजी मै गाली गलोच करते अभिनेताओ को ओर अन्य लोगो को देखा है जो एक दुसरे को हरामी कहने से भी नही शरमाते.
आप ने बहुत सुंदर विषय चुना है
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"गाली बोले तो.. मेन्टल कैथारिसिस याकि तिरस्कृत भावों का मानसिक स्खलन .... "
आदरणीय द्विवेदी जी,
डॉ० अमर कुमार जी ने गालियों के कारण व जरूरत को ऊपर दी गई पंक्ति में पूर्णता में परिभाषित कर दिया है... मुँह से भले ही गाली न दे इन्सान... पर जब अपनी हार हो रही हो... या मन का न हो रहा हो... या लगता हो कि मेरे साथ अन्याय हो रहा है... तो देखियेगा अपनी-अपनी विचार प्रक्रिया का विश्लेशण कर के... गाली खुदबखुद निकलती है... अब यह आप के मुँह से बाहर आती है या नहीं... यह आपके व्यक्तित्व, सामाजिक स्थिति, शिक्षा और परिवेश पर निर्भर करता है...
बात दूर तक जाती देख कर मैंने चिट्ठा चर्चा में क्षमा भी मांग ली थी। शायद बात आई गई हो गई... पर नहीं, एक बार फिर रचनाजी ने उस टिप्पणी का लिंक पुनः चिठाचर्चा पर हाल ही में दिया। बात को आगे नहीं बढाते हुए मैंने उसे इग्नोर कर दिया।
गोदियाल जी ने एक पोस्ट लिखी हैं जिसमे आप कि तारीफ़ मे और मेरी बुराई मे कहा गया हैं कि आप कि पोस्ट नारी शिक्षा पर हैं और मेरी टिप्पणी वहाँ निराशा जनक हैं और मुझे कोई अधिकार नहीं हैं आप जैसे वरिष्ठ , सम्मानित ब्लॉगर जो सीनियर सिटिज़न हैं और अवकाश प्राप्त हैं के ब्लॉग पर इस प्रकार कि तिपनी देने का । सो मैने अपनी पोस्ट मे गोदियाल जी को वो लिंक दिखाये हैं जिनकी बिना पर मैने वो टिप्पणी आप कि पोस्ट पर दी थी ।
आप कि पोस्ट नारी को शिक्षित करने कि बात कर रही हैं और मेरा कमेन्ट था कि "बात सो प्रतिशत आप की सही हैं पर जब शिक्षित हो जायेगी तो वो अपनी शिक्षा को केवल जनसंख्या की समस्या के लिये ही नहीं उपयोग मे लायेगी । फिर वो सशक्तिकरण की बात करेगी , बराबरी की बात करेगी । अपने पहनावे पर टीका टिप्पणी नहीं सहेगी जो आपके सो कोल्ड भारतीये सभ्यता और संस्कारों के हिमायतियों को नहीं हज़म होगी । शिक्षा के अपने "दुर्गुण " भी हैं । वो हमारे अन्दर एक जागरूकता ला टी हैं और २०१० मे नारी जागरूकता किसी कोई नहीं चाहिये क्युकी नारीत्व के साथ जागरूकता का क्या सम्बन्ध हैं ??? और बराबरी तो किसी कोई भी पसंद नहीं होती नारी की सो उसको अशिक्षित रखना ही सबके हित मे हैं"
ये कमेन्ट आप कि सुजाता के ऊपर अभद्र टिप्पणी को बेक ग्राउंड मे रख कर ही किया गया था कि जब आप ब्लॉग जगत कि सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी महिला ब्लॉगर { डॉ सुजाता , दिली विश्विद्यालय मे अध्यापिका हैं } को इतना अभद्र केम्न्त दे सकते हैं तो नारी को शिक्षित करने का आवाहन ना ही दे ।
और एक बात क्षमा माँगने से मात्र आप कि गिल्ट ख़तम होती हैं ना कि अपराध कम होता हैं । आप कि hypocracy बिलकुल साफ़ दिखती हैं कि पढे लिखे महिला को गाली दो और बेपढ़ी लिखी को पढने कि पैरवी करो ।
आप मुझे इग्नोर कर सकते हैं पर मे गोदियाल जी कि पोस्ट को क्यूँ कर इगनोरे करू जहां मेरा कमेन्ट करने के अधिकार पर ही आपति हैं क्यों कि आप सम्मानित जो हैं ।
वैसे सम्मानित कैसे बना जाता हैं कभी इस पर भी विवेचना हो अनूप और जब एक पोस्ट लगाए तो कृपा कर सन्दर्भ मे नारी ब्लॉग पोस्ट का भी लिंक दे दिया करे ।
एक वार्ड बॉय ने रेप किया , सात साल कि सजा काट कर बारी होगया , Aruna Shanbaug, आज भी २५ सालो से कोमा मे हैं
आप सब लोग कभी जरुर सोच कर देखे कि क्यूँ महिला ब्लॉगर कम सक्रियाए होती जा रही हैं । कभी उनसे समय हो तो पूछे क्या बीतती हैं आप के अभद्र टिप्पणी से उन पर ।
नारी पुरुष के मुकाबिल किस हद तक गिरना चाहती है।
ये भ्रम आप का हें कि नारी , पुरुष से मुकबला करती हैं । नारी बात करती हैं क्षमता के आधार पर , संविधान के आधार पर सामान अधिकार कि और बाकी ये नारी को सोचने दे उसको कितना उठाना और गिरना हैं क्युकी नारी के पास एक दिमाग हैं जो ईश्वर का दिया है
पूरा वाकिया पढ़कर अजीब-सा मन हो गया।
मैं तो ऐसे प्रोफेशन से ताल्लुक रखता हूं जहां बात-बात पे गाली निकालना अनिवार्य माना जाता है, लेकिन क्या करूं कमबख्त ग्यारह साल होने को आये अपने इस प्रोफेशन में आजतक ईडियट से ऊपर जा नहीं पाया....यैनिक गालियां तो उफ़्फ़्फ़!
Very nice.
Let's consider this.
If you are from north India then lets never ever use Bhenchod, Maachod Chootiya etc..
Dick, Cock, Pussy, Bitch, bastard and the worst of all Cunt all censored.
By taking away freedom of expression, i highly doubt you will encourage greater sensitivity. I respect your sentiments but its an extremely slippery slope.
I don't see how i am trivialising a ghastly crime by using the word rape in the context of a non criminal activity. Maybe i am mature enough to understand the difference, just like i knw WWE isn't real.
I am a big fan of freedom of expression and don't care much for political correctness. I find that leads to more problems in the long run.
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