@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

शाह ईरान द्वारा वृक्षारोपण का मुहूर्त

रान के बादशाह का किस्सा जिसे फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में जगह दी, मैं अपने वायदे के मुताबिक कल आप के पेश-ए-नजर नहीं कर सका था। लेकिन आज कोई बाधा नहीं है। तो देर किस बात की? शुरू करते हैं ....

रान के प्रसिद्ध बादशाह शाह अब्बास ने कहीं अपने महल मेंबगीचा लगाने की आज्ञा दी थी और इस काम के लिए एक दिन भी नियत कर चुका था। बादशाही बागवान भी मेवे के कुछ वृक्षों के लिए एक उचित स्थान चुन चुका था। परन्तु बादशाही ज्योतिषी ने नाक-भौं चढ़ा कर कह दिया कि यदि सायत निकाले बिना वृक्ष लगा दिए जाएंगे तो कदापि नहीं फूलेंगे-फलेंगे। बादशाह शाह अब्बास ने नजूमी की बात मान कर सायत निकालने को कहा तोउस ने पाँसा आदि डाला और अपनी पुस्तक के पृष्ठ उलट-पलट कर हिसाब लगाया और कहा कि नक्षत्रों के अमुक अमुक स्थानों में होने के कारण जान पड़ता है कि दूसरी घड़ी के बीतने के पहले ही वृक्ष लगा दिए जाएँ।

बादशाही बागवान जो नजूमियों तथा ज्योतिषियों से कुछ पूछना व्यर्थ समझता था इस समय उपस्थित नहीं था। अतः इस के बिना ही कि उस के आने की प्रतीक्षा की जाए, गड्ढे खुदवाए गए और बादशाह ने अपने हाथों से वृक्षों को स्थान स्थान में लगा दिया।  ताकि पूर्व स्मृति की रीति पर कहा जाए कि ये वृक्ष स्वयं शाह अब्बास ने अपने हाथों लगाए थे। इधर बागवान जो अपने समय पर तीसरे पहर आया तो वृक्षों को लगा हुआ पा कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। और यह विचार कर के कि वे उस क्रम से नहीं लगाए गए हैं जैसे उस ने विचारा था, जिस से उसे उन के पोषण में सुभीता रहता। उस ने सभी पौधों को उखाड़ कर उन की जगह मिट्टी डाल कर रख दिया। रात भर वृक्ष इसी तरह रखे रहे। 


ज्योतिषी से किसी ने जा कर यह बात कह दी। इस का परिणाम यह हुआ कि वह बादशाह के पास जा कर बागवान की इस कार्यवाही के लिए बुरा-भला कहने लगा। अपराधी बागवान को उसी समय बुलाया गया। बादशाह ने उस से अत्य़न्त क्रोध के साथ उस से कहा - "तू ने यह क्या हरकत की कि जिन दरख्तों को हम ने नेक सायत निकलवा कर अपने हाथ से लगाया था उन को ही उखाड़ डाला। अब क्या उम्मीद है कि इस बाग का कोई दरख्त फल लाएगा, क्यों कि जो नेक सायत थी वह तो गुजर गई और फिर नहीं आ सकती।"


बागवान एक स्पष्टवादी गँवार मुसलमान था। नजूमी की ओर तिरछी दृष्टि डाल कर बोला -"अरे! कमबख्त बदशकुनी,जरा ख्याल तो कर कि यही तेरा नजूम है कि जो दरख्त तेरे कहने से दोपहर को लगाए गए थे वे शाम से पहले ही उखड़ गए?" शाह अब्बास आकस्मिक रूप से मजेदार बात सुन कर एकदम हँस पड़ा। और ज्योतिषी की तऱफ पीठ कर के वहाँ से चला गया।

कुंडली मिलान

ल की पोस्ट में मैं ने वायदा किया था कि आज ईरान के बादशाह के साथ घटी घटना जिस का वर्णन फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में किया है आप को बताउंगा। लेकिन कल की पोस्ट पर नीरज रोहिल्ला की बहुत सच्ची टिप्पणी आई है जो फिर से पेशे नज़र है-

दिनेशजी,
इस पोस्ट को लिखने के लिये बहुत आभार।
जब हम बच्चे थे तो अक्सर ही पुरानी पीढी के लोगों से सुनने को मिल जाया करता था कि हमारी तो जनमपत्री है ही नहीं या फ़िर बिना पत्री मिलाये ही विवाह हो गया। मेरे माता पिता का विवाह बिना जन्मपत्री मिलाये हुआ जिसका ताना आज भी दोनो एक दूसरे को मौके-बेमौके देते रहते हैं कि अगर पहले पत्री मिला ली होती तो दोनो बच जाते, वैसे पत्री उनकी आज तक नहीं बनी है।

लेकिन आज के दौर में विवाह के दौरान इस जन्मपत्री और कुंडली साफ़्टवेयर ने आतंक मचा रखा है। लडका/लडकी देख लिया, परिवार की पूरी खबर है, सब कुछ बढिया है लेकिन अरे ये क्या पत्री नहीं मिल रही है। कौन समझाये कि पहले जब विवाह सम्बन्ध मात्र किसी समबन्धी की सलाह पर बन जाते थे तो शायद पत्री का मिलान मन को संतोष देता होगा लेकिन...खैर जाने दीजिये...

इसके अलावा संगीताजी ने भी पहले फ़लित ज्योतिष के बारे में कई भ्रमों को दूर किया और कहा कि गत्यात्मक ज्योतिष अधिक वैज्ञानिक है। भाई, ग्रहों की गणना तो पहले भी गति के आधार पर होती चली आ रही है, उसमें नया क्या है? लेकिन हां, उससे पहले शायद गत्यात्मक ज्योतिष के आधार पर किसी ने शेयर बाजार, क्रिकेट मैच की पहली और दूसरी ईनिंग और सरकारों की भविष्यवाणी शायद ही इतने वैज्ञानिक तरीके से की हो। संगीताजी: असहमति के लिये पहले से ही माफ़ी मांग लेता हूँ, इसे व्यक्तिगत द्वेष कतई न समझा जाये।   

ब इस टिप्पणी के बाद मैं एक और ही किस्सा आप के सामने रख रहा हूँ -

न दिनों मैं अपनी बेटी के लिए जीवन साथी की खोज में हूँ। मुझे पता लगा कि मेरी ही बिरादरी के परिचित व्यक्ति के बारे में मुझे पता लगा कि उस का पुत्र है जो मेरी पुत्री का जीवन साथी हो सकता है। मैं ने उसे टेलीफोन किया। उस ने तुरंत जन्म की तारीख, स्थान और समय चाहा, मैं ने उसे बता दिया। चार मिनट बाद ही उस का फोन आ गया कि कुंडली नहीं मिली। नाड़ी दोष है और ब्राह्मणों में तो इस दोष के कारण विवाह हो ही नहीं सकता। मैं ने उसे त्वरित जवाब के लिए धन्यवाद दिया। उस ने यह भी बताया कि वह छह सौ कुंडलियाँ मिला चुका है लेकिन एक भी नहीं मिली।  

मैंने उस से पूछा कि हमारी बिरादरी में  तीस साल पहले तक कुल साढ़े चार सौ परिवार थे। जिन में से  कम से कम आधे जन्मपत्रिका बनाने , देखने और कुंडलियाँ मिलाने का व्यवसाय ही किया करते थे। वे बिरादरी के बाहर और स्वगोत्रीय विवाह नहीं किया करते थे। इस का अर्थ है कि उन्हें साढ़े चार सौ परिवारों में से स्वगोत्रीय परिवारों को त्याग देने पर लगभग तीन सौ परिवारों  में ही अपने पुत्र या पुत्री के लिए जीवनसाथी तलाशना होता था। फिर उन की जन्म कुंडलियाँ कैसे मिलती थीं? 


ह निरुत्तर था। लेकिन मैं ने उसे  बताया कि वे जन्म कुंडलियाँ नहीं देखते थे। वे परिवार और उन के सदस्यों को देखते थे और विवाह कर देते थे। मैं ने कल बताया था कि मेरे दादाजी, नानाजी, पिताजी, मामाजी, चाचा जी, मौसाजी आदि ज्योतिष का काम करते थे। लेकिन इन में से किसी का भी विवाह जन्मकुंडली मिला कर नहीं हुआ था और सभी विवाह सफल विवाह थे।  जन्म कुंडलियाँ मिलाने का जो फैशन आज कल  ज़नून की तरह चल निकला हैष उस से किसी का भला नहीं हो रहा है, अपितु  विवाह संबंधों में अड़चनें ही पैदा हो रही हैं। अभी लोगों के हाथ में कम्प्यूटर नए नए आए हैं और जन्म पत्रिका और कुंडली मिलाने के  असल और पायरेटेड सोफ्टवेयर मुफ्त में उपलब्ध हैं। अब जो काम पहले नजूमी और ज्योतिषी किया करते थे वे खुद करने लगे हैं। लेकिन जब अड़चनें बहुत बढ़ने लगेंगी और  खूब नाप-तौल कर कुंडली मिलाने के बाद भी विवाह असफल होने लगेंगे तब यह फैशन जल्दी ही तिरोहित होने वाला है। इस लिए लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। जन्मकुंडलियाँ बनाना और मिलाना बंद कर देना चाहिए। पैदाइश की तारीख और स्थान तक तो ठीक है लेकिन समय तुरंत ही विस्मृत कर देना चाहिए।  
ईरान के बादशाह का किस्सा फिर कल पर ...

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

नज़ूमियत

दादाजी, पिताजी, नानाजी, मामाजी, मौसाजी, चाचाजी सभी अंशकालिक ज्योतिषी रहे हैं। मुझे भी स्कूल जाने की उम्र के पहले राशियों, ग्रहों, नक्षत्रों, महिनों आदि के नाम। गिनती और पहाड़ों के साथ रटने पड़े। बारह की उम्र होते होते पंचांग देखना सिखाया गया। फिर जन्मपत्रिका बनाना और पढ़ना सिखाने का समय आ गया। जहां तक काल गणना का मामला था। यह सब पूरी तरह वैज्ञानिक लगता था और सीखने में आनंद आता था। लेकिन जब फलित का  चक्कर शुरू हुआ तो हम चक्कर खा गए। किसी राशि का क्या स्वभाव है यह कैसे जाना गया? सूर्य सिंह राशि का ही स्वामी क्यों है और चंद्रमा कर्क राशि का ही क्यों? बाकी सभी ग्रह दो दो राशियों के स्वामी क्यों हैं? ये राहु और केतु आमने सामने ही क्यों रहते हैं? ये किसी राशि के स्वामी क्यों न हुए? फिर प्लूटो और नेप्च्यून का क्या हुआ? इन का उत्तर मुझे ज्योतिष सिखाने वालों के पास नहीं था। आज तक कोई दे भी नहीं सका। हमारी ज्योतिष की पढ़ाई वहीं अटक गई। फलित ज्योतिष केवल अटकल लगने लगी जो वास्तव में है भी। पर मेरे बुजुर्गों में एक खास बात थी कि ज्योतिष उन की रोजी-रोटी या घर भरने का साधन नहीं था। दादाजी दोनों नवरात्र में अत्यन्त कड़े व्रत रखते थे। मैं ने उस का कारण पूछा तो बताया कि ज्योतिष का काम करते हैं तो बहुत मिथ्या भाषण करना पड़ता है, उस का प्रायश्चित करता हूँ। मैं ने बहुत ध्यान से उन के ज्योतिष कर्म को देखा तो पता लगा कि वे वास्तव में एक अच्छे काउंसलर का काम कर रहे थे। अपने आप पर से विश्वास खो देने वाले व्यक्तियों और नाना प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त लोगों को वे ज्योतिष के माध्यम से विश्वास दिलाते थे कि बुरा समय गुजर जाएगा, अच्छा भी आएगा। बस प्रयास में कमी मत रखो। लेकिन आज देखता हूँ कि जो भी इस अविद्या का प्रयोग कर रहा है वह लोगों को उल्लू बनाने और पिटे पिटाए लोगों की जेब ढीली करने में कर रहा तो मन वितृष्णा से भर उठता है। अब वक्त आ गया है कि इस अविद्या के सारे छल-छद्म का पर्दा फाश हो जाना चाहिए।

सा नहीं है कि इस अविद्या का पर्दा-फाश लोग पहले नहीं करते थे। हर युग में नजूमियों की कलई खोलने वालों की कमी नहीं रही है। मैं ने पिछले दिनों आप को बताया था कि मैं चार नई किताबें खरीद कर लाया हूँ। इन दिनों उन में से एक 'बर्नियर की भारत यात्रा' पढ़ रहा हूँ। फ्रेंक्विस बर्नियर नाम के ये महाशय एक फ्रेंच चिकित्सक थे और शाहजहाँ के अंतिम काल तथा औरंगजेब के उत्थानकाल में भारत में बादशाही दरबार के नजदीक रहे। वे 12 वर्ष तक औरंगजेब के निजि चिकित्सक रहे। उन्हों ने अपनी इस किताब में कुछ मनोरंजक किस्से नजूमियत के बारे में लिखें हैं।  शाहजहाँ के कैद हो जाने और औरंगजेब के गद्दीनशीन हो जाने के बाद के दिनों की बात करते हुए वे लिखते हैं .....

..... एशिया के अधिकांश लोग ज्योतिष के ऐसे विश्वासी हैं कि उन की समझ में संसार की कोई ऐसी बात नहीं जो नक्षत्रों की चाल पर निर्भर न करती हो और इसी कारण वे प्रत्येक काम में ज्योतिषियों से सलाह लिया करते हैं। यहाँ तक कि ठीक लड़ाई के समय भी जब कि दोनों ओर के सिपाई पंक्तिबद्ध खड़े हो चुके हों, कोई सेनापति अपने ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाए बिना युद्ध नहीं आरंभ करता, ताकि कहीं ऐसा न हो कि किसी अशुभ लग्न में लड़ाई आरंभ कर दी जाए। बल्कि ज्योतिषियों से पूछे बिना कोई व्यक्ति सेनापति के पद पर भी नियुक्त नहीं किया जाता। बना उन की आज्ञा के न तो विवाह हो सकता है, न कहीं की यात्रा की जा सकती है, बल्कि छोटे छोटे काम भी उन से पूछ कर किए जाते हैं, जैसे लौंडी गुलाम खरीदना या नए कपड़े पहनना इत्यादि। इस विश्वास ने लोगों को ऐसे कष्ट में डाल रखा है और इस के ऐसे ऐसे बुरे परिणाम हो जाते हैं कि मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि अब तक लोग कैसे पहले ही की तरह इस विषय में विश्वासी बने हुए हैं क्यों कि सरकारी या बेसरकारी, प्रकट या अप्रकट, कैसा ही प्रस्ताव हो उस से ज्योतिषी को सूचित करना आवश्यक होता है।

ह घटना जिस का मैं उल्लेख करना चाहता हूँ यह है कि खास बादशाही मुसलमान ज्योतिषी (नजूमी) अकस्मात जल में गिर पड़ा और डूब कर मर गया। इस शोकजनक घटना से दरबार में बड़ा विस्मय फैला और इन नजूमियों की प्रसिद्धि में जो कि भविष्य की बातें जानने वाले माने जाते हैं बहुत धक्का लगा। यह व्यक्ति सदैव बादशाह और उस के दरबारियों के लिए मुहुर्त निकाला करता था। अतएव उस के इस तरह प्राण दे देने से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा अभ्यस्त विद्वान जो वर्षों तक दूसरे के भविष्य मे होने वाली अच्छी अच्छी बातें बतलाता हो उसी आपत्ति से जो स्वयं उस पर आने वाली थी परिचित न हो सका? इस पर लोग यह कहने लगे कि यूरोप में जहाँ विद्या की बहुत चर्चा है ज्योतिषियों और भविष्यवादियों को लोग धोखेबाज और झूठा समझते हैं और इस विद्या पर विश्वास नहीं करते, वरन यह जानते हैं कि धूर्त लोगों ने बड़े आदमियों के दरबार तक पहुँचने और उन को अपना ग्राहक बनाने के लिए यह ढंग रच रखा है। 

न्हीं दिनों ईरान की एक और ऐसी ही घटना का भी बर्नियर ने उल्लेख किया है, लेकिन उस का उल्लेख कल, आज वैसे ही पोस्ट बहुत लंबी हो गयी है।   

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

विश्वसनीय सरकारें अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

सोमवार सुबह 5.55 की ट्रेन से बेटी पूर्वा को जाना था। अलार्म बजा तो हम तीनों की नींद छूट गई। पूर्वा अपनी तैयारी करने लगी और उस की माँ उस के लिए नाश्ता बनाने में जुट गई। मैं फिर से सो गया। मुझे फिर पाँच बजे जगाया गया, कॉफी का प्याला सामने था। मैं ने उसे पिया और फिर मैं भी तैयार हो गया। साढ़े पाँच हम घर से निकले। पत्नी जी ने दूध लाने की बाल्टी भी साथ रख ली। पूर्वा की ट्रेन को रवाना कर हम छह बजे स्टेशन से चले और सीधे दूध वाले के यहाँ। वहाँ अंधेरा छाया हुआ था। रोड लाइटस् बंद हो चुकी थीं और अभी सुबह होनी शेष थी। हम ने दूध वाले के यहाँ कोई हलचल न देख सोचा अभी वह सो कर उठा ही नहीं है। हम अपनी कार में ही बैठे रहे। कुछ देर बाद दूध वाले के डेरे में कुछ रोशनी दिखाई दी। शायद चूल्हा सुलगाया गया था। हम उस के डेरे की ओर बढ़े तो दिखाई दिया कि वह कुछ दूध निकाल भी चुका था। उस ने बताया कि दो एक ग्राहक दूध ले कर जा भी चुके हैं। उस के यहाँ सामने दुहा दूध लेने वाले आते हैं इसलिए वह ग्राहक आने पर ही दूध निकालता है। वह इधर उधऱ के काम करता रहा। कुछ देर में एक ग्राहक और आया तब उस ने एक भैंस दुहना आरंभ किया। 

म दूध लेकर घर पहुंचे तो शरीर में थकान थी।  हुआ यूँ था कि मैं ने सुबह स्टेशन जाने के पहले पैर पर चोट के स्थान पर मल्हम लगा कर पट्टी कर ली थी। कुछ अधिक कस गई तो पैर दर्द करने लगा था। मैं फिर से बिस्तर पर लेट लिया। नौ बजे उठ कर निपटना आरंभ किया और ग्यारह बजे अदालत के लिए निकल पड़ा।  घुटने के एमसीएल की चोट में दर्द निवारक के सिवा कोई दवा नहीं होती है। असली दवा तो विश्राम है जो उस दिन कम मिला था। जल्दी में दवा लेना भूल गया। तो दर्द दिन में बढ़ता रहा। शाम को आया तो बहुत पीड़ा थी। मैं ने तुरन्त दर्द निवारक ली और लेट गया। कुछ देर बाद दर्द से छुटकारा मिला। रात को अचानक गैस सिलेंडर की गैस दगा दे गई। अपने एक कनिष्ठ को कहा तो उस ने गैस की व्यवस्था की। उस के बाद काम करने का मन न किया। ब्लाग अनवरत पर लिखने का मन होते हुए भी कुछ न लिखा और  तीसरा खंबा पर भी। जल्दी ही सोने चला गया। इस तरह रात को पूरे आठ घंटों का विश्राम मिल गया। सुबह उठा और पैर जमीन पर रखे तो एक दम ठीक थे। ऐसा लगा चोट पूरी तरह दुरुस्त हो गयी थी। अखबार में खबर थी दैनिक बिजली कटौती ग्यारह से एक के स्थान पर आज से आठ से दस बजे तक होगी। आठ बजने ही वाले थे। कुछ देर में बिजली चली गयी। अब काम तो हो नहीं सकता था। इसलिए आराम से निबटते रहे। आज दर्द नहीं था तो दर्द निवारक नहीं लिया बल्कि साथ रख लिया कि दर्द होने लगा तो अदालत में ही ले लिया जाएगा। अदालत में कुछ चलना फिरना हुआ तो हलका दर्द होने लगा। लेकिन मेरी चाल अन्य दिनों की अपेक्षा ठीक थी। फिर भी मैं ने दर्द निवारक ले ही ली। 

दालत से लौट कर कुछ विश्राम किया तो दर्द बिलकुल नहीं रहा। अभी भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट हुआ कि चोट अब ठीक हो रही है। यदि वास्तव में कुछ दिन पैर को अधिक आराम दिया जाए घुटने पर कम से कम जोर डाला जाए तो बिलकुल ठीक हो लेगी। मेरी कोशिश यही रहेगी जिस से मैं जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकूँ। 

शाम को खबर थी कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह सेना प्रमुख वी.के.,सिंह की उम्र संबंधी याचिका को निरस्त करने का आदेश वापस लेगी क्यों कि वह आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत लगता है,  सरकार ने तय किया है कि वह अपने आदेश को वापस नहीं लेगी और सेना प्रमुख की उम्र का विवाद न्यायालय को तय करने देगी। मुझे सरकार का यह रवैया ठीक नहीं लगा अपितु इस में सरकार के अहंकार की झलक दिखाई दी। आखिर जो निर्णय सरकार स्वयं कर सकती है उन्हें वह न्यायालयों पर क्यों छोड़ देती है। आखिर कानून और तथ्यों की रोशनी में जो निर्णय न्यायालय कर सकते हैं उन निर्णयों को सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत के न्यायालयों की सब से बड़ी पक्षकार सरकारें ही हैं। यदि सरकार स्वयं कानून के अनुसार तथ्यों के आधार पर उचित और न्यायपूर्ण निर्णय करने लगे तो अदालतों में काम का बोझ एकदम चौथाई कम हो सकता है। यदि वैसी स्थिति में भी सरकार के निर्णय को कोई चुनौती देता है तो न्यायालय तथ्यों और कानून की प्रारंभिक जाँच के आधार पर वैसी याचिकाओँ का निपटारा कर सकता है जिस में न्यायालयों का बहुत समय बच सकता है और सरकार भी अधिक विश्वसनीय हो सकती है। लेकिन लगता है वैसी सरकारें बनना अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही होगा


सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह की जन्मतिथि से सम्बन्धित विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय अंतिम रूप से क्या निर्णय देता है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। उस से पूर्व 30 दिसंबर को रक्षा मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जनरल की उस याचिका को निरस्त कर दिया जिस में उन की जन्मतिथि को सेना के रिकार्ड में 10 मई 1950 के स्थान पर 10 मई 1951 दर्ज करने का निवेदन किया गया था। सेना के रिकार्ड में उन की दोनों तिथियाँ उन की जन्मतिथि के रूप में दर्ज हैं। उन की जितनी भी पदोन्नतियाँ हुई हैं उन पर विचार करते समय उन की जन्मतिथि 10 मई 1951 ही मानी गई थी। पिछले शुक्रवार को जनरल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल से पूछा कि क्या सरकार अपने 30 दिसंबर के निर्णय को वापस लेना चाहेगी? क्यों कि वह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों के विपरीत प्रतीत होता है। अटार्नी जनरल ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वे इस संबंध में सरकार से निर्देश प्राप्त करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन से स्पष्ट है कि सेना प्रमुख की शिकायत पर निर्णय करने के पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया।  
किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की शिकायत पर आदेश करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करना, उसे अपने पक्ष के समर्थन में सबूत और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का प्रमुख अंग है। यदि देश की सरकार सेना प्रमुख की शिकायत का निस्तारण भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन किए बिना करती है तो इस से यह संदेश जाता है कि सरकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की परवाह नहीं करती।
किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्णय करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना महत्वपूर्ण जनतांत्रिक अधिकार है इस अधिकार की अवहेलना करना सरकार के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है कि वह व्यवहार में जनतांत्रिक भी है अथवा नहीं। पिछले दिनों भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए जाने के लिए जन-लोकपाल कानून को बनाने के लिए अन्ना टीम द्वारा किए गए जनान्दोलन पर सरकार की ओर से जोरो से यह प्रश्न उठाया गया था कि आखिर अन्ना टीम क्या है जिस की बात पर सरकार विचार करे। वे किस प्रकार से सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात पर जोर दिया गया था कि केवल चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग ही सही जन प्रतिनिधि हैं।
लेकिन चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद, विधानसभा और अन्य निकायों में पहुँच जाने से इन जनप्रतिनिधियों को किसी भी तरह के निर्णय जनता पर या जनता की इकाई किसी एक व्यक्ति पर अपना निर्णय थोप देने का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन के द्वारा किए गए निर्णय साम्य, न्याय के सिद्धान्तों पर खरे उतरने चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि देश में चुनी हुई सरकारें जनतांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रही है। वर्ना स्थिति यह बनती जा रही है कि चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त सरकार बना लेने को ऐसा माने जाने लगा है जैसे सरकार को पाँच वर्ष तक देश में तानाशाही चलाने का  अधिकार मिल गया है।
म इस घटना को इस परिदृश्य में भी देख सकते हैं कि यदि सरकार सेना प्रमुख को सुनवाई का अवसर प्रदान न कर के देश के सभी नियोजकों को यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारियों की शिकायतों पर निर्णय के लिए उन्हें सुनवाई का अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  नियोजक कर्मचारियों पर अपनी मनमानी चला सकते हैं। यदि ऐसा संदेश नियोजकों तक पहुँचता है तो वे तो ऐसी मनमानी करने को तैयार बैठे हैं। वैसे भी देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारी के विरुद्ध यदि कोई अन्याय हो और वह न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका का रुख पकड़े तो उस मामले को नियोजक बरसों तक लटकाने में सफल रहते हैं। नियोजक मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में समर्थ हैं जब कि इस के विपरीत एक कर्मचारी में इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सर्वोच्च न्यायालय के किसी साधारण वकील से सलाह लेने की शुल्क अदा कर सके।
स मामले की सुनवाई विधिवत सुनवाई करने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह संकेत दे कर सही ही किया है कि देश में सभी नियोजकों को किसी भी कर्मचारी की शिकायत पर निर्णय करने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होगा और उसे अपने पक्ष के समर्थन में सुनवाई का अवसर देना होगा।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

ब्लाग पर फिर से वापस ..

प्ताह के अंतिम दिन अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ बाजार जाना पड़ा। वहाँ के काम निपटाते निपटाते ध्यान आया कि अदालत में कुछ काम हैं जो आज ही करने थे। मैं शोभा को घर छोड़ अदालत पहुँचा। काम मामूली थे आधे घंटे में हो लिए। तब ध्यान गया कि आज मौसम कुछ बदला बदला है। हवा झोंकों में चल रही थी और रह रह कर उन के साथ ही टीन की छतों पर गिरे पतझर के पत्ते धूल मिट्टी लिए नीचे गिर रहे थे। हवा में न गर्मी थी और न ही चुभोने वाली शीतलता, बस सुहानी लग रही थी। अब लगा कि वसंत ने न केवल आंगन में आ जमा है अपितु नृत्य भी कर रहा है।  फिर फागुन याद आया, उसे आने में भी बस तीन दिन शेष हैं। मुझे यह भी ध्यान आया कि यही फरवरी-मार्च के माह चिकित्सकों के लिए कमाई के माह कहे जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे सब सावधानियाँ स्मरण करता रहा जो इस मौसम में बरतने को बुजुर्ग कहा करते थे। अदालत में काम शेष न रहा तो आलस सा आने लगा, कुछ उबासियाँ भी आईं। मैं ने विचारा कि अब वापस घर के लिए प्रस्थान करना चाहिए। तभी मुझे अपना कनिष्ठ पुष्पेंद्र मिल गया। वह भी घर लौटने को था। हम दोनों अदालत से बाहर निकल अपने अपने वाहनों की ओर जा ही रहे थे कि वहाँ हमें एक पुस्तक प्रदर्शनी वाहन दिखाई दिया। पुष्पेंद्र ने सुझाव दिया कि कुछ पुस्तकें देखी जाएँ।
म दोनों वाहन में घुसे। यह नेशनल बुक ट्रस्ट का वाहन था। पुष्पेंद्र ने पूरे वाहन में चक्कर लगाया। वह कोई पुस्तक चुन नहीं पा रहा था। मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जिस में आजादी की लड़ाई के मुकदमों का उल्लेख था। उस ने उसे ही चुन लिया फिर एक और पुस्तक चुनी और वह वाहन से नीचे उतर गया। कुछ पसंदीदा पुस्तकें मुझे दिखाई दीं, लेकिन वे मेरे पास पहले ही थीं। आखिर मैं ने कुल चार पुस्तकें चुनीं। विपिन चंद्रा की 'साम्प्रदायिकता' एक प्रवेशिका', 'अलबरूनी-भारत', 'बर्नियर की भारत यात्रा' और 'चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण'। पुस्तकों के दाम चुका कर वाहन से नीचे उतरा तो पुष्पेंद्र गायब था। आखिर मैं भी अपने वाहन से घर चला आया। रास्ते भर सोच रहा था कि इन चार पुस्तकों की खरीद की सूचना को यहाँ अपने ब्लाग पर छोड़ कर मैं अपने ब्लाग लेखन में आए विराम को तोड़ सकता हूँ।
पिछले अगस्त से ही अनवरत पर ब्लाग लेखन कुछ धीमा हुआ था। इस का कारण मेरी अतिव्यस्तता रही। लेकिन दिसंबर आते आते तो उस पर विराम ही लग गया जब मुझे अचानक 'हर्पीज जोस्टर' का सामना करना पड़ा। बीमारी का यह सिलसिला ऐसा चला कि अभी तक न रुक सका है। तीन सप्ताह हर्पीज का सामना किया। बाद में तेज जुकाम सर्दी हुई, फिर दाँत का दर्द और अब कोई बीस दिनों पहले अचानक अपनी ही गलती से बाएँ पैर के घुटने के पास स्थित मीडियल कोलेट्रल लिगामेंट चोटिल हो गया। यह एक गंभीर चोट है। मुख्य चिकित्सा कम से कम एक माह का पूर्ण विश्राम। पर एक सामान्य भारतीय के लिए यह कहाँ संभव है. फिर वकील के लिए तो बिलकुल संभव नहीं। वह इतना विश्राम करे तो वह तो शायद जीवित बच जाए, लेकिन उस के मुवक्किलों के तो प्राण ही निकल जाएँ। तो बंदा भी नित्य ही अपने घुटने पर मल्हम और आयोडेक्स लगा, पट्टी बांध, ऊपर एक नी-गार्ड चढ़ा कर, कम से कम एक गोली दर्द निवारक पेट के हवाले कर अदालत जा रहा है। वापस लौटने पर कम से कम एक डेढ़ घंटा बिस्तर पर बिताने के बाद ही इस हालत में आता है कि वह कुछ और काम कर सके। फिर भी इतना तो कर ही सकता है कि कुछ पढ़ लिख सके और ब्लाग पर आप से बतिया सके। तो आज से तय कर लिया है कि नित्य नहीं तो दो दिन में कम से कम एक दिन तो ब्लाग पर बातचीत होगी ही।

रविवार, 1 जनवरी 2012

शक्ति, जिस से लुटेरे थर्रा उठें

अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!

भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी। 

सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है। 

ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी। 

नता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
नगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना  यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।