अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!
भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी।
सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है।
ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी।
जनता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
जनगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।