शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।
गनीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?
भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?
उत्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?
गनीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?
भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?
उत्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?