@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नेता
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शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।

मंगलवार, 7 जून 2011

सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा?

जमा अच्छा लगाया गया था। हर काम लाजवाब था। बड़ा मैदान बुक था, योग शिक्षा के लिए। वहीं अनशन होना था। वायु मार्ग से बाबा राजधानी पहुँचे। सत्ता के चार-चार नवरत्नों ने अगवानी की। बहुत मनाया। पर कसर रह गई। पाँच सितारा में फिर मनौवल चली। क्या बात हुई? क्या सहमति बनी किसी को नहीं बताया। बताया तो सिर्फ इतना कि अनशन होगा। अनशन हुआ तो दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर फोन घनघनाते रहे। शाम को जय हो गई। सत्ता ने ज्यादातर मांगे मान ली हैं। शामियाना उल्लास से भर गया। तब सत्ता ने बताया कि जय तो कल ही हो गई थी। बाबा ने दोपहर तक अनशन और दो दिन तप करने का वायदा किया था। वायदा नहीं निभाया। लिखित चिट्ठी पढ़ दी गई। बाबा बैक फुट पर आ गए। संफाई पर सफाई देते रहे। कहते रहे -सत्ता ने उन के साथ धोखा किया। बाबा के सिर मुंढाते ही ओले पड़े। बाबा ने जनता का विश्वास खोया। बाबा ने को राजनीति का पहला सबक मिला। सत्ता के विश्वास से जनता का विश्वास बड़ा है। उसे जीतने की जल्दी में अनशन पर डट गए। जनता का  विश्वास तो जा ही चुका था। अब सत्ता का विश्वास भी गया।

नता जब विश्वास करती है तो आँख मूंद कर करती है। लेकिन जब उस का विश्वास टूटता है तो फिर से वापस वह विश्वास करे। यह आसान नहीं है। जनता का विश्वास हटते ही, सत्ता ने अपनी नंगई दिखाई। आधी रात के बाद हमला हुआ। पुलिस बाबा तक पहुँचे उस से पहले ही बाबा जनता के बीच कूद पड़े। पर देर हो चुकी थी। जनता भी घिरी पड़ी थी। कितना ही प्रयास किया। कपड़े बदले, वेष बदले पर पकड़े गए और सत्ता ने उन्हें उसी बदले वेष में राजधानी के बाहर कर दिया। सरकार के इस बेवकूफी और बर्बर तरीके की आलोचना आरंभ हो गई। जो जो सरकार से खार खाए बैठा था। वही उस के खिलाफ बोलने लगा। बाबा समझे उनको समर्थन है। वे राजधानी के अंदर नहीं तो परकोटे के बाहर बैठने चले। पर जिस ने जनता का विश्वास खोया, जिस ने सत्ता का विश्वास खोया। उसे कोई कैसे पनाह दे? सो बाबा वापस अपने घर लौटा दिए गए। अब वे वापस विश्वास जीतने बैठे हैं। लेकिन दुबारा विश्वास जीत पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा। यह सब से बड़ा योग है जिसे बाबा को अभी सीखना शेष है। 

रकार सिर्फ अपने आकाओं की सगी होती है। लेकिन आका तभी तक उसे पालते हैं जब तक वह जनता को भ्रम में रख पाती है। जनता के विश्वास को झटका देते ही सरकार ने बाबा पर हमला बोला। वह भी इस बेवकूफी के साथ कि बाबा के साथ-साथ जनता भी चपेट में आई। सरकार कहती है कि बाबा ने वादा तोड़ा। योगकक्षा के लिए अनुमति ले कर अनशन किया। अनुमति रद्द कर दी। उन्हें हटाना जरूरी था। हम मान सकते हैं कि उन्हें हटाना जरूरी था। लेकिन वहाँ इकट्ठे लोगों का क्या कसूर था? या तो वे योग कक्षा में आए थे, या फिर अनशन पर बैठने, या फिर दिन भर की पगार कमाने। उन पर लाठी की जरूरत क्या थी। उस के पास  दिल्ली और केंद्रीय सत्ता की ताकत थी। पाँच हजार जवानों ने मैदान को घेरा था। अंदर निहत्थे लोग थे, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे। क्या जरूरत थी उन्हें जबरन वहाँ से हटाने की? आप के पास माइक भी जरूर रहे होंगे। आप के पास निकट ही सैंकड़ों बसें भी खड़ी थीं। उन्हें भी लगाया जा सकता था। घेरने के बाद यह घोषणा भी की जा सकती थी कि रामलीला मैदान का जमाव अवैध घोषित कर दिया गया है। वहाँ आयोजन की अनुमति रद्द कर दी गई है। सब वहाँ से हट जाएँ। सरकार ने उन्हें वापस उन के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी है। जो स्टेशन जाना चाहे स्टेशन तक पहुँचाया जाएगा। जो बस स्टेंड जाना चाहे उसे बस स्टेंड पहुँचाया जाएगा। जब तक लोगों के घर जाने का साधन न हो जाए तब तक उन के ठहरने खाने की व्यवस्था कर दी गई है। घिरे हुए लोगों को समय देते कुछ सोचने का। निहत्थे बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे क्या कर लेते? 

र सरकार ने जनतंत्र का पाठ सीखा ही कहाँ है? तिरेसठ सालों में भी अंग्रेजों की विरासत ही ढोई जा रही है। उन्हीं का मार्ग नजर आता है। सरकार को जनता चार बरस तक कहाँ दिखाई देती है? वह तो सिर्फ चुनाव के साल में नजर आती है। सरकार को सिर्फ बाबा दिखाई दिए। उन को हवाई जहाज में बिठा कर उन के घर पहुँचाया। जनता दिखाई देती तो उसे पहुँचाते। सरकार सोचती है कि जनता में दिमाग नहीं होता। वह कभी सोचती नहीं। लेकिन वह सोचती भी है और जब वक्त आता है तो कर भी गुजरती है। जनता तो उस के पीछे जाएगी जो उस की बात करेगा और जो विश्वसनीय होगा। वह धोखा खाएगी तो फिर नया तलाश लेगी। लेकिन वह सोचेगी भी और करेगी भी। कोई विश्वास के काबिल न मिला तो अपने अंदर से पैदा कर लेगी। जब वह अपने अंदर से अपना नेता पैदा कर लेगी तब? सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा? देर भले ही हो, पर किसी दिन यह जरूर होगा।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जनतन्तर-कथा (1) : हरारत होने लगी

हे, पाठक!

यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है।  कुछ मैं  कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं।  पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है।  एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं।  वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं।  सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है।  होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है,  पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है।  लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं।  दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें।  जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं।  शायद नहीं ही होते हैं।  तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं।  इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं।  इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।

हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है।  बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है?  जरा मेरा हाथ तो देखो जी।  बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है।  वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है।  फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो।  अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है।  इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।


हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है।  वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है।  अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या  बेड पर लंबायमान।  जूते भी नहीं खोलता।  उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है।  बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए,  जूते भी नहीं खोले?  कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है।  बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है।  बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।


हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम।  लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है।  कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती  हरी थी।  हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई।  उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे।  मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा।  मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया।  बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं।  पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल।  मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं।  पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं।  फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी।   फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था।  तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं।  मैंने कार बाएँ कर ली।  पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं।  हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया।  तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं।  मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था।  सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।


हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी।  पार्किंग में कोई जगह खाली न थी।  कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया।  सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं।  हम काम में लग गए।  दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए।  बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची।  मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो?  टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक।  फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....