26 मार्च, 2009 से इस चिट्ठे पर जनतन्तर कथा चल रही थी। पाठकों ने इसे पसंद किया इस बीच इस चिट्ठे के पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई। इस कथा की जन्म-कथा बहुत मामूली है। अचानक विचार आया कि देश में आम चुनाव हैं और देश की सरकार चुनी जा रही है। इस बीच जनतंत्र और चुनाव को संदर्भ बना कर कुछ लिखा जाए। बस यूँ ही मौज में आरंभ हुई इस जनतन्तर कथा की दो कड़ियों के बाद ही अनायास गणतंत्र बनने से ले कर इन चुनावों तक का इतिहास इस में प्रवेश कर गया। इतिहास के इस प्रवेश से मुझे भी पुस्तकों में जाना पड़ा। फिर अनायास पौराणिक पात्र सूत जी इस कथा में चले आए। मैं ने जब इस कथा को टिपियाना आरंभ किया था तो मैं अपनी उंगलियों को नियंत्रित कर रहा था। लेकिन जब सूत जी का पदार्पण हुआ और पीछे पीछे सनत चला आया तो नियंत्रण मेरी उंगलियों से निकल गया। सूत जी का व्यक्तित्व कुछ इस प्रकार का था कि वे मेरी उंगलियों को नियंत्रित करने लगे और कथा मेरे नियंत्रण से स्वतंत्र हो कर स्वयमेव अपना मार्ग निर्धारित करने लगी।
अंत में जब राजधानी में मंत्रीमंडल की पहली खेप ने शपथ ग्रहण कर ली तो राजधानी में सूत जी के रुकने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। वे अगले दिन ही राजधानी से नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर गए। जनतंतर कथा वहीं अवसान हो गई थी। लेकिन अंतिम आलेख में कुछ ऐसा गुजरा कि एक टिप्पणी पर प्रति टिप्पणी और एक अन्य चिट्ठे पर प्रत्युत्तर में लिखे गए आलेख ने इस कथा को और आगे बढ़ाया। सनत ने सूत जी से संपर्क किया और वीडियो चैट के माध्यम से कथा आगे बढी़। मेरे कम्यूटर पर यह सुविधा अब तक नहीं थी लेकिन इसी बीच वह भी स्थापित हो ली। इसे सूत जी की कृपा ही कही जानी चाहिए।
इस कथा के अंत में एक बात स्थापित हुई कि दुनिया वर्तमान में उस दौर में है कि परिवर्तन चाहती है। परिवर्तन कैसा होगा और कैसे होगा? इसे परिस्थितियाँ निर्धारित करेंगी। लेकिन मनुष्य एक सजग प्राणी है। और परिस्थतियों के निर्माण में अपनी एक भूमिका भी अदा करता है। इसलिए दुनिया का भविष्य बहुत कुछ मनुष्य की वर्तमान गतिविधियों पर भी निर्भर करता है। इस कारण से हमें वर्तमान और भविष्य के लिए विमर्श में रहना चाहिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के रहना चाहिए। विमर्श का मुख्य तत्व विचार हैं जो प्रत्येक मनुष्य की अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। यही परिस्थितियाँ आग्रह भी उत्पन्न करती हैं। लेकिन जब हम सब का उद्देश्य एक अच्छी, सुंदर, आपस में प्रेम करने वाले मनुष्यों की दुनिया की स्थापना हो तो। आग्रहों के बावजूद भी एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना आवश्यक है, विमर्श तभी जारी रह सकता है। यदि कभी आवेश में कोई एक गलती कर बैठे तो इस का अर्थ यह नहीं कि दूसरे उस से भी बड़ी, वैसी ही गलती करें।
बात खिंचती जा रही है। वैसे तो जनतन्तर कथा के अंतिम आलेख पर भी दो टिप्पणियाँ ऐसी हैं कि सूत जी को को फिर से कष्ट दिया जाना चाहिए था। पर एक तो वे सनत से कह चुके हैं कि वे वीडियो चैट कम पसंद करते हैं और प्रश्नों के समाधान के लिए सनत स्वयं नैमिषारण्य आए। लेकिन बेचारा सनत वह एक समाचार पत्र का साधारण संवाददाता है, इतने शीघ्र उसे अवकाश नहीं मिल सकता है कि वह नैमिषारण्य जाए। सूत जी भी दो माह में थक चुके हैं और कुछ विश्राम करना चाहते हैं। यह दिनेशराय द्विवेदी भी कुछ इधर उधऱ की बातें करना चाहता है जो इस जनतन्तर कथा के दो माह के प्रसवकाल में उस से छूट गई हैं और इस के लिए इस चिट्ठे पर स्थान चाहता है। सूत जी नैमिषारण्य में हैं और सनत भी पास में ही लखनऊ में है। दोनों अमर पात्र हैं, वे कभी कभी इस चिट्ठे पर अवश्य ही लौटेंगे। पाठक उन की प्रतीक्षा कर सकते हैं।
अभी मैं दो टिप्पणियों के बारे में बात करना चाहता हूँ। पहले तो अभिषेक ओझा की टिप्पणी कि मरकस बाबा सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम क्यों लगते हैं?। मेरी राय में मरकस बाबा के दर्शन के बारे में अधिक धारणाएँ उन के सच्चे अनुयायी होने का दम भरने वाले लोगों, समूहों और दलों के व्यवहार पर आधारित है। मुझे लगता है कि किसी के भी व्यक्तित्व, कृतित्व और दर्शन के बारे में हमारी धारणा स्वयं उन के साहित्य और दर्शन का अध्ययन कर बनानी चाहिए। जिस से हम स्वयं किसी निर्णय पर पहुंच सकें। स्वयं अनुभव की गई और दूसरे से सुनी हुई बात में बहुत अंतर होता है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में सुनी हुई को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, अपितु देखी हुई और अनुभव की हुई को ही स्वीकार किया जाता है। अंत में यह कि विवाद के भय से कभी भी जिज्ञासा को दबाना नहीं चाहिए। चाहें तो व्यक्तिगत रूप से भी इन जिज्ञासाओं को शांत कर सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ही ऐसा किया जाए तो उस का लाभ बहुत लोगों को एक साथ मिलता है।
जहाँ तक शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर की जिज्ञासाओं का प्रश्न है वे स्वयं समझदार हैं। राज्य की भूमिका का प्रश्न बहुत बड़ा है। उस का उत्तर देने के लिए एक स्वतंत्र श्रंखला की आवश्यकता हो सकती है। इस का उत्तर सूत्र रूप में देना उचित नहीं है। जहाँ तक श्रमजीवी जनता के भाग के आशीर्वाद का प्रश्न है तो इस का उत्तर तो फैज़-अहमद "फैज़" ने बहुत ही सुंदर रीति से अपने इस गीत में दिया है। यह उन की जिज्ञासा को अवश्य शांत करेगा। आप सब इस गीत को सुनें ........
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हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं, यहां सागर सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........
जो खून बहे, जो बाग उजड़े, जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का, हर गूंचे का, हर ईंट का बदला मांगेगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, हम बांट बराबर खाएंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
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