हे, पाठक!
अगला दिन राजधानी में मतदान का दिन था। सूतजी सनत के साथ दिन भर राजधानी में मतदान के नजारे करते रहे। राजधानी में अधिक उत्साह दिखाई नहीं दिया। राजधानी में अनेक महत्वपूर्ण राजनेता अपने अपने क्षेत्र छोड़ कर मतदान करने पहुँचे। माध्यम दिन भर उन के चित्र दिखाते रहे। बैक्टीरिया दल के मुखिया की बेटी जो सारे चुनाव परिदृश्य में जो साड़ी पहने भारतीय महिला की छवि परोसती रही, मतदान के दिन अपने जीवनसाथी के साथ नए फैशन की पोशाक में दिखाई दी। जैसे दौड़ में भाग लेने आई हो। सूत जी ने सनत से कहा, "तुम्हारा मीडिया की मुख्य खबर आज यह पोशाक बनने वाली है।" राजधानी का दूसरा बड़ा समाचार यह भी था कि चुनाव कराने कराने वाले विभाग के मुखिया का नाम ही मतदाता सूची से अन्तर्ध्यान हो गया। हड़कम्प मचा तो तत्काल किसी दूसरी सूची में उन का नाम तलाश कर उन का मत डलवा दिया गया। संभवतः उन्हें अहसास हुआ हो कि आम मतदाता का क्या हाल होता होगा?
हे, पाठक!
उधर बैक्टीरिया दल के मुखिया के बेटे के श्री मुख से आपत्कालीन मसाला बत्ती की तारीफ सुनी तो दल के गायकों ने एक स्वर से राग दरबारी में कोरस आरंभ कर दिया। राजकुमार तो मात्र जिन का साथ चाहता था उन्हें बताना चाहता था कि उन के पास बैक्टीरिया दल के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं है। पर कोई पड़ोसी की मसाला बत्ती की तारीफ करे तो घर की लालटेन को तो भभकना ही था। उधर दो पत्तियों की तारीफ हुई तो दक्खिन में सूरज उगते उगते बादलों की ओट चला गया। रैली स्थगित हो गई। मसाला बत्ती अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो उठी, उसने दाँत बर्राए और सफाई दी कि देखिए हमरी सरकार गठबंधन की हैं, उसे छोड़ कर कइसे जा सकत हैं। अइसे तो हमरा घर बार ही बरबाद नहीं न हो जाई। हम कहीं नहीं जा रहे हैं। इस से अभिनय से जिन की त्योरियाँ चढ़ी थीं वापस यथा स्थान आ गईं। उधर वायरस दल में भी हलचल हो चली सारे छत्रप एक साथ एक ही यान में इकट्ठा किए। घोषणा की गई कि हमारा यान भरा भरा है और अब चलने ही वाला है। हम चल ही देते जो पाँचवा दौर बीच में पहाड़ सा न खड़ा होता। मसाला बत्ती जिस से सब से अधिक दूर भागती थी उसी मरदुआ ने उस का हाथ पकड़ कह दिया- जे हमरी साथी हैल देखो हम एकई सीट मैं धँसे हैं साथ साथ। मसाला बत्ती ने वहाँ भी दाँत बर्रा दिए। फोटू खिंच गए। क्या फोटू था? बहुतों को तुरंत बरनॉल की जरूरत पड़ गई। वायरस दल में शीतलता की लहर दौड़ पड़ी। लगा जैसे बहुत सारे वातानुकूलक एक साथ चला दिए गए हों। मन फुदकने लगा, पुष्पवर्षा होने लगी, प्रशस्तिगान के स्वर ऊँचे हो गए।
हे, पाठक!
मसाला बत्ती वापस घर पहुँची तो पड़ोसी पूछने लगे -यह क्या हुआ ? तुम तो कहती थी जहाँ वह मरदुआ होगा तुम फटकोगी भी नहीं, जहाँ वह होगा हम उस देहरी पर नहीं चढेंगी। मरदुआ ने सब के सामने तुम्हारा हाथ पकरा, तुमने सारी बत्तीसी दिखा दी।
मसाला बत्ती बोली -हम क्या करती? हमें थोड़े ना पता था, मरदुआ उधर जा धमकेगा। हम ने तो बुलाया नहीं था। मरदुआ पिच्छे से आ धमका टप्प से बइठ गवा हमरी बगल में अउर हमरा हाथ पकर कै ऊँचा कर दीन, ऊपर से फोटू भी खींच रहीन। अब हम सब के सामने रोने तो बैठने से रहीं। फिर रिस्तेदारी देखीं। हम कुछ कहतीं तो रिस्तेदारी न बिगड़ती। हमरा घर ही दाँव पे न लग जाता। मसाला बत्ती कहते कहते रुआँसी हुई तो
देख कर लालटेन को तसल्ली हुई गई, उस का भभकना बंद हुआ गया। वह फिर से जलने लगी पर तब तक लालटेन का गोला काला पड़ गया था। रोशनी अंदर ही घुट रही थी।
हे, पाठक!
इस सारे प्रहसन को देख सनत ने सूत जी से पूछा -इस का अर्थ क्या हुआ, गुरूवर?
सूत जी बोले -इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से। इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।
-गुरूवर! समझ गया, सब समझ आ गया। दुकानों को मतलब है कि उन के पास इतना माल सजा रहे कि ग्राहक बाहर से न सटक ले। पर इस बार समझ नहीं आ रहा कि कौन महापंचायत को वरेगा? जनता किस को इस लायक समझेगी? -सनत ने फिर प्रश्न किया। इस प्रश्न को सुन कर सूत जी को हँसी आ गई। बोले -एक दो दिन में इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें मिल जाएगा। अभी कुछ प्रतीक्षा करो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
14 टिप्पणियां:
हे ज्ञानश्रेष्ठ, इन क्षणभँगुर आवत जावत नट व नटनियों पर आप पर्याप्त मसि व्यय कर चुके,
अब त्राहिमाम के असफ़ल जाप से दुःखार्त जन की सुधि लेय ।
उनकी पीड़ा का यदि कोई श्रवण भर कर ले, यही उनका सँतोष है ।
पीड़ा को सह , उपजे सँतोष व निराश आशाओं पर जीवित रहने के अनोखे सुख के प्रसँग का समावेश कर, हे ज्ञानश्रेष्ठ !
सही है जनतंतर कथा।
आज भी मोहक रही जनतंतर कथा.
जब तेल खतम होने लगे तो भभकना लाजमी है।
ये जनतंतर कथा तो गजब है
सूत जी बोले - "इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से। इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।"
सूत जी ने निहितार्थ बता दिया । धन्यवाद ।
लगता है अब आखिर भभका आगया है.
रामराम.
बस एक दो दिन की प्रतीक्षा ही है अब :)
कर ही लेते हैं इन्तजार एक दो दिन!! :)
जनतँत्र की नई कथा
सच का पर्दाफाश करती हुई
विलक्षण है !
हैरत होती है कि आम जनता
सब कुछ जान कर भी
इन्हीँ लोगोँ को क्योँ सतारुढ होने के हक्क मेँ,
मतदान करती है ?
कोई विकल्प नहीँ ? :-(
- लावण्या
... रोचक कथाएँ !!!!
अब तो बस प्रतीक्षा है !
होना क्या है ? वाही ढाक के तीन पात. काठ के पट्ठे २७२ सीट पर खड़े ही नहीं हो रहे इस डर से कि टाँगे न टूट जायें. टूटेंगी तो तब न, जो होंगी. ऐसे में मशाल्चियों के संग रहना तो बदा ही है.
जनतंतर कथा अच्छा सामयिक व्यंग्य है
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