लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।
ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए।