सर्वत्र लूट मची है। जिसे जहाँ अवसर मिल रहा है लूट रहा है। कोई लूट नहीं पा रहा है तो खसोट ही रहा है। बहुत सारे ऐसे भी हैं, जो न लूट पा रहे हैं और न खसोट पा रहे हैं। उन में से कुछ मसोस रहे हैं, अपने मन को कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें इस बात का संतोष है कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे इस से बचने के प्रयत्न में शामिल हैं और दुःखी हैं कि वे बच नहीं पा रहे हैं। इन दुःखी लोगों में से बहुत से ऐसे भी हैं जो इसके विरुद्ध लड़ाई के ख्वाब देखते हैं लेकिन सपना तो सपना है वह अक्सर सच नहीं होता। उसे सच करने के लिए पहले बहुत से ऐसे ही सपना देखने वालों को इकट्ठा करना पड़ता है। काम बहुत मेहनत का है, इसलिए सपने को सपना रहने देते हैं। सपना देखना क्या बुरा है, नींद में देखो या फिर जागते कुछ तो राहत देता ही है। कुछ ऐसे भी हैं जो इस सपने को सच करने के लिए जुट पड़ते हैं। बहुत हैं जो अपनी-अपनी जगह जुटे पड़े हैं, इस विश्वास से कि कभी तो यह लड़ाई परवान चढ़ेगी, इस लूट खसोट से मुक्ति मिलेगी।
सब जानते हैं, हमारा तंत्र पूंजीवादी है। पूंजीपति इस के स्वामी हैं, वे महान हैं, उन्हों ने सामंती तानाशाही से लड़ाई लड़ी और जनतंत्र लाए। लोगों को वोट डालने का अधिकार मिला। लोग खुश हैं कि वे वोट डालते हैं और सरकार चुनते हैं, भले ही उन्हें चुनने के लिए वही भले लोग मिलते हैं जो लूट-खसोट में सब से आगे हैं। पर इस से क्या जनतंत्र तो है, वोट तो है, कोसने की आजादी तो है, कोसने से काम नहीं चलता तो गालियाँ देने की आजादी तो है और चाहिए भी क्या, दो जून की रोटी वह तो इस देश में किसी के द्वारे हाथ फैलाने से मिल जाती है। यदि साधारण तरीके से न मिले तो कुछ तरकीब अपनाई जा सकती है। कटोरे में सोमवारी या मंगलवारी देवी-देवता की तस्वीर रख कर मांगी जा सकती है। और रिफाइंड तरीका भी है, आप किसी रंग के कपड़े पहनें गले में कुछ मनकों वाली माला डालें फिर दो जून के भोजन का इंतजाम हो ही जाएगा। किसी जमीन पर कब्जा कर वहाँ कोई मूर्ति या मजार बना डालें, फिर तो मौज है। कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। लोग खुद चल के आएंगे, न केवल दो जून की रोटी की व्यवस्था करेंगे बल्कि साथ में धुआँ उड़ाने और पिन्नक में पड़े रहने का इंतजाम भी कर देंगे। और भी अनेक मार्ग हैं, आप सब जानते हैं।
बहुत से लोगों को ये रास्ता पसंद नहीं। वे दो जून की रोटी नहीं मांगते, वे काम मांगते हैं। काम मिल जाता है तो न्यूनतम मजदूरी मांगते हैं। न्यूनतम मजदूरी मिल जाती है तो जीने लायक वेतन मांगते हैं, वह भी मिल जाता है तो महंगाई का भत्ता मांगते हैं। उस के बाद न जाने क्या क्या मांगते हैं। ये लोग भी सपने देखते हैं और उन के लिए लड़ते भी हैं। जो काम देता है, सब से पहले उसी से लड़ते हैं। उन्हें सपने के रास्ते में सब से पहले वही दिखता है। जब लड़ते हैं तो रास्ते में पुलिस आती है, सरकारी अफसर आते हैं, नेता आते हैं। वे इन सब से लड़ नहीं पाते लड़ाई हार जाते हैं। सपने भूल जाते हैं, फिर काम करने लगते हैं। लेकिन सपने तो सपने हैं फिर आने लगते हैं। वे फिर इकट्ठे होते हैं, फिर लड़ते हैं। इस बार उन की लड़ाई कुछ बेहतर होती है। वे कुछ हासिल करते हैं, लेकिन कानून सामने आ जाता है, वे लड़ाई हार जाते हैं। कानून से कैसे लड़ें? कानून तो चुने हुए लोग बनाते हैं जिन्हें वे ही चुनते हैं। वे दूसरे लोग चुनना चाहते हैं जो उन के लिए कानून बनाएँ। वे कोशिश करते हैं, कुछ को बदल भी लेते हैं। पर जिन्हें बदलते हैं, वे उन का साथ नहीं देते। चुने जाने पर, चुने हुए लोग बदल जाते हैं। वे भी वैसे ही हो जाते हैं जैसे बदले जाने के पहले वाले थे।
अब वे सोचने लगते हैं, चुनाव से क्या फायदा, वे अब वोट डालने नहीं जाते। उन में से कुछ को मनाया जाता है, कुछ को कुछ ले-दे कर, कुछ को खिला-पिला कर पटाया जाता है। उन में से कई वोट डालने चले जाते हैं। वोट डालते हैं, और पछताते हैं। कई वोट डालने नहीं जाते। लगातार सपने देखते हैं, आपस में मिलते हैं, इकट्ठा होते हैं, वोट का तोड़ ढूंढते हैं। आप ने कहीं देखा है ऐसे लोगों को? हो सकता है आप ने उन्हें देखा हो, या हो सकता है नहीं देखा हो। मैं ने उन्हें देखा है, अपने ही आस-पास। जहाँ जाता हूँ वहाँ मिल जाते हैं। आप जरा तलाश करेंगे और मेरी नजर से देखेंगे तो आप को भी दिख जाएंगे। जब दिखने लगेंगे तो बहुत दिखेंगे, छोटे-छोटे समूहों में। आप इन्हें देखने की कोशिश तो करें। मैं तो देख रहा हूँ, कुछ इधर हैं इस मुहल्ले में, कुछ उधर हैं उस मुहल्ले में, कुछ कारखानों में हैं तो कुछ मंडियों और बाजारों में, कुछ खेतों में हैं तो कुछ खलिहानों में हैं। आप देखिए तो सही, एक बार पहचान लेंगे तो सर्वत्र दिखाई देंगे। सब जुटे हैं, अलग-अलग छोटे-छोटे समूहों में वोट का तोड़ तलाशने में। मैं भी सपना देखने लगता हूँ। ये समूह आपस में मिल रहे हैं, मिल कर बड़े हो रहे हैं। एक न एक दिन तोड़ ढूंढ ही लेंगे। मैं भी निकल पड़ता हूँ सपने को हकीकत बनाने में जुट जाता हूँ। तो, भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?
16 टिप्पणियां:
आपका ही स्वप्न हम सब भारतीयों के मन में पनपे, वही श्रेयस्कर।
सपने अक्सर सच नहीं हो पाते। वोट की राजनीति का जो स्वरूप अभी चल रहा है उसका तोड़ तो खोजना ही पड़ेगा। सौ में से पन्द्रह वोट पाने वाला उन सभी सौ का प्रतिनिधि बन जाता है- भाग्य विधाता। ऐसा इसलिए है कि बाकी पचासी में से चालीस वोट नहीं डालते और पैंतीस का वोट दर्जनों हिस्सों में बँट जाता है। आजकल जो होशियार उम्मीदवार हैं वे अपने पन्द्रह वोटों का जुगाड़ जाति-धर्म का उन्माद बढ़ाकर आसानी से कर लेते हैं। इसके बाद वे सीना ठोंककर बाकी पचासी की ऐसी-तैसी करते हैं।
भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप इस बहुत बड़े फ्रॉड पर टिका है जिसे तोड़ना शायद असंभव के करीब है।
भाई जान आदाब सुबह उठते ही बहतरीन सच जान्ने को मिला मज़ा आ गया बधाई हो ..और हाँ भिया रमेश जेन सिरफिरा जी ने आपके लियें सामग्री भेजी है रोज़ अदालत जा रही है लेकिन आपसे मुलाक़ात नहीं होने के कारण आप तक नहीं पहुँच पाई है आज भी काम बंद है ..अगर आप ना मिले तो में बसते पर दे दूंगा ...एक बार फिर तथ्यात्मक और रचनात्मक लेख के लियें बधाई ...अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
वोट तो मैंने भी नहीं डाला इस बार। डालना भी नहीं चाहता। बस आवश्यकता है सब में यही सपने हों।
हम सभी येही स्वप्न देखे... सार्थक पोस्ट...
प्रवीण जी से सहमत.
नेताओं के सपने...
देश की सब जेलें एसी,बार, ऑडिटोरियम, जिम से सुसज्जित कर दी जाएं, न जानें कब नेताजी का नंबर आ जाए...
चालीस साल से पार्टी में मेवा खाने के बाद अब पुत्र-पुत्री को भी इस सेवा के लिए चुनाव का टिकट दिया जाए...(मुरली देवड़ा ने रास्ता दिखा ही दिया है खुद मंत्री की सीट खाली कर पुत्र मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनवा कर)
जय हिंद...
जिधर देखो उधर झपाटा !!!
ये दुनिया ही सबसे बड़ी किलर और दुनिया ही सबसे बड़ी झपाटा। आम इंसान के सारे के सारे मासूम ख्वाबों का कबाड़ा इसी ने तो कूट दिया है अंकलजी। अब और क्या देखना बाकी रहा जब आप सब कुछ दिखा ही चुके।
मैं सोच रहा हूं कि ऊपर की किस टिप्पणी से सहमति जता कर निकल जाऊं! अपनी बात कहने का मन नहीं है! :(
वाह बहुत ही सुन्दर
हम सभी येही स्वप्न देखे... सार्थक पोस्ट...
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
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सब ही यही सपने देखते हैं...मगर हाय!
वाह बहुत ही बेहतरीन ,सार्थक लेख/काश ये सपना हम सभी भारतियों का बन जाए और ये वोट की राजनीति ख़त्म हो जाए /तो इस देश के हालत काफी कुछ सुधर जाए /इतने अच्छे लेख के लिए बधाई आपको /
गुरुवर जी, बहुत सुन्दर आलेख. श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के कथन से पूर्ण सहमत हूँ. लेकिन अंतिम दो लाइनों से असहमत हूँ और प्रेरणा अर्गल से भी सहमत हूँ. बड़े सपने देखने के बाद प्रयासों की भी जरुरत होती है और उसके बहुत कुछ खोना भी पड़ता है. मोह और माया के साथ भौतिक वस्तुओं का भी त्याग और बलिदान करना पड़ता है.
प्रचार सामग्री:-दोस्तों/पाठकों, http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/SIRFIRAA-AAJAD-PANCHHI/ यह मेरा नवभारत टाइम्स पर ब्लॉग. इस को खूब पढ़ो और टिप्पणियों में आलोचना करने के साथ ही अपनी वोट जरुर दो.जिससे मुझे पता लगता रहे कि आपकी पसंद क्या है और किन विषयों पर पढ़ने के इच्छुक है. नवभारत टाइम्स पर आप भी अपना ब्लॉग बनाये.मैंने भी बनाया है. एक बार जरुर पढ़ें.
बहुत सटीक आलेख है, पर कुछ उपाय नही दिखता.
रामराम.
कश यह स्वप्न सब देखें और वोट का तोड़ भी ढूँढने का प्रयास करें
sahi kaha aapne...
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