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शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

यह महज असहिष्णुता नहीं है.. अरुन्धति रॉय


सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए मिले राष्ट्रीय सम्मान को (नेशनल अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले) लौटाते हुए अरुंधति रॉय यहां उन सब बातों को याद कर रही हैं जिन पर हमें नाज करना चाहिए और उन सब पर भी, जिन पर हमें शर्म आनी चाहिए और जिन के खिलाफ उठ खड़े होना चाहिए.

हालांकि मैं इसमें यकीन नहीं करती कि सम्मान हमारे किए गए कामों का पैमाना हैं, लेकिन मैं लौटाए जा रहे सम्मानों की बढ़ती हुई तादाद में सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए मिले राष्ट्रीय सम्मान (नेशनल अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले) को शामिल करना चाहूंगी, जो मुझे 1989 में मिला था।  मैं यह साफ भी करना चाहूंगी कि मैं इसे इसलिए नहीं लौटा रही हूं कि उस सबसे मैं ‘हिल’ गई हूं जिसे मौजूदा सरकार द्वारा फैलाई जा रही ‘बढ़ती हुई असहिष्णुता’ कहा जा रहा है।  सबसे पहले, अपने जैसे इंसानों को पीट-पीट कर मारने, गोली मारने, जलाने और सामूहिक कत्लेआम के लिए ‘असहिष्णुता’ एक गलत शब्द है। दूसरे कि हमारे सामने जो आने वाला था, उसके काफी आसार हमारे पास पहले से थे – इसलिए भारी बहुमत से डाले गए उत्साही वोटों के साथ सत्ता में भेजी गई इस सरकार के आने के बाद से जो कुछ हुआ है, उससे मैं हिल जाने का दावा नहीं कर सकती। तीसरे, ये खौफनाक हत्याएं एक कहीं गहरी बीमारी के ऊपर से दिखने वाले आसार भर हैं।  जो लोग जिंदा हैं, जिंदगी उनके लिए भी जहन्नुम है। पूरी की पूरी आबादी, दसियों लाख दलित, आदिवासी, मुसलमान और ईसाई खौफ की एक जिंदगी में जीने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं और कुछ पता नहीं कि कब और कहां से उन पर हमला हो जाए।
ज हम एक ऐसे मुल्क में रह रहे हैं, जहां नए निजाम के ठग और कारकुन ‘गैरकानूनी हत्याओं’ की बात करते हैं, तो उनका मतलब एक काल्पनिक गाय से होता है जिसको मारा गया है – उनका मतलब एक सचमुच के इंसान की हत्या से नहीं होता। जब वे अपराध की जगह से ‘फोरेंसिक जांच के लिए सबूतों’ की बात करते हैं तो उसका मतलब फ्रिज में रखे गए खाने से होता है, न कि पीट पीट कर मार दिए गए इंसान की लाश से। हम कहते हैं कि हमने ‘तरक्की’ की है, लेकिन जब दलितों का कत्ल होता है और उनके बच्चों को जिंदा जलाया जाता है, तो आज कौन ऐसा लेखक है जो हमले, पीट-पीट कर मारे जाने, गोली या जेल से डरे बिना आजादी से यह कह सकता है कि ‘अछूतों के लिए हिंदू धर्म सचमुच में खौफ की एक भट्टी है’ जैसा बाबासाहेब आंबेडकर ने कभी कहा थाॽ कौन सा लेखक वह सब लिख सकता है, जिसे सआदत हसन मंटो ने ‘चचा साम के नाम’ में लिखा थाॽ यह बात मायने नहीं रखती कि जो कहा जा रहा है उससे हम सहमत हैं कि नहीं। अगर हमें आजादी से बोलने का हक नहीं है, तो हम एक ऐसा समाज बन जाएंगे, जो बौद्धिक कुपोषण का शिकार, बेवकूफों का राष्ट्र होगा। इस पूरे उपमहाद्वीप में नीचे गिरने की होड़ मची हुई है – और यह नया भारत बड़े जोशोखरोश के साथ इसमें शामिल हुआ है। यहां भी अब भीड़ को सेंसरिशप का जिम्मा दे दिया गया है.
मु
झे इससे खुशी हो रही है कि मुझे (अपने अतीत में किसी वक्त का) एक राष्ट्रीय सम्मान मिल गया है, जिसे मैं लौटा सकती हूं, क्योंकि यह मुझे इस मुल्क के लेखकों, फिल्मकारों और अकादमिक दुनिया द्वारा शुरू की गई सियासी मुहिम का हिस्सा बनने की इजाजत देता है, जो एक तरह की विचारधारात्मक क्रूरता और सामूहिक समझदारी पर हमले के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। अगर हम अभी उठ खड़े नहीं हुए तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर देगा और बेहद गहराई में दफ्न कर देगा। मैं यकीन करती हूं कि कलाकार और बुद्धिजीवी जो अभी कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ, और उसकी तारीख में कोई मिसाल नहीं मिलती। यह भी सियासत का एक दूसरा तरीका है. इसका हिस्सा बनते हुए मुझे बहुत फख्र हो रहा है और इतनी शर्म आ रही है उस सब पर जो आज इस मुल्क में हो रहा है।
खिर में: 

ताकि सनद रहे कि मैंने 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान को ठुकरा दिया था जब कांग्रेस सत्ता में थी इसलिए कृपया मुझे कांग्रेस-बनाम-भाजपा की पुरानी घिसी-पिटी बहस से बख्श दीजिए। बात इससे काफी आगे निकल चुकी है शुक्रिया।
...अनुवाद: रेयाज उल हक.

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

प्रगतिशील होने का पाखंड !

राष्ट्रवादी ढोंगी विकास के नारों की खाल ओढ़ प्रगतिशील नहीं हो सकता।


-भँवर मेघवंशी

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“भाई मैं जंतर मंतर में भरोसा नहीं करता, मैं लोकतंत्र पर भरोसा करता हूँ और यही मेरा जन्तर मंतर और ताबीज़ है “ यह शब्द भारत के चक्रवर्ती सम्राट नरेंद्र मोदी के है जो उन्होंने बिहार चुनाव प्रचार के दौरान मधुबनी में आयोजित एक रैली में लोगों से कहे .इससे पूर्व भी वे बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की इस बात के लिए आलोचना कर चुके है कि उन्होंने किसी तांत्रिक से मुलाकात की है .प्रधानमन्त्री मोदी ने लालू प्रसाद ,नितीश कुमार के महागठबंधन को महास्वार्थबंधन कहते हुए उसे भी जंगलराज व जन्तर मंतर राज से नवाजा .मोदी ने यह भी कहा कि लोग मुसीबत पड़ने पर बाबाओं के पास जाते है .उनका पूरा ईशारा नितीश कुमार व उनके सहयोगियों पर था कि वे कितने दकियानूसी विचार वाले है जो अब भी बाबा लोगों और तांत्रिकों के पास जाते है तथा यंत्र तंत्र में यकीन करते है जबकि दूसरी तरफ मोदी एक आधुनिक विकास पुरुष है जो इन अंधविश्वासों पर भरोसा नहीं रखते है ,वे वैज्ञानिक ,तार्किक और प्रगतिशीलता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता है.

सवाल यह है कि क्या वाकई मोदीजी इन सब बातों को नहीं मानते है , क्या उन्हें ज्योतिष ,तंत्र - मन्त्र और गंडे ताबीज़ एवं अंगूठियों से परहेज़ है ? क्या वे बाबा लोगों से दूर रहते है ? हालाँकि मोदीजी के भाषण के तुरंत बाद ही एक ज्योतिषी बेजान दारूवाला ने उनकी कलई यह दावा करके खोल दी कि मोदी ज्योतिष में यकीन करते है और उन्होंने मोदी की हस्तरेखा देख कर भविष्यवाणी भी की थी .बेजान दारूवाला ने अपने कथन के समर्थन में एक फोटो भी शेयर किया है जिसमे वे मोदी का हाथ पढ़ रहे है .हालाँकि यह बहस और विवाद का विषय हो सकता है कि बेजान की भविष्यवानियाँ कितनी सही साबित हुयी मगर इतना तो तय है कि मोदी ज्योतिष में यकीन भी करते है और हस्तरेखाविदों के समक्ष हाथ भी फैलाते रहते है .

ना केवल बेजान दारूवाला बल्कि देश भर के कई अन्य तांत्रिकों ,ज्योतिषियों और सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी करने वाले लोगों की मोदी जी निरंतर सेवा लेते रहे है .लोकसभा चुनाव के दौरान मुझे राजस्थान के भीलवाड़ा शहर में रहने वाले तंत्र ज्योतिषी प्रह्लाद राय सोमाणी ने बताया था कि उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ज्योतिषीय विचार विमर्श एवं तंत्र विद्या के ज़रिये भविष्य जानने के लिए अहमदाबाद बुलाते रहते है तथा अपने राज काज के व्यस्ततम समय में से वक़्त निकाल कर दो दो घंटे तक चर्चा करते है .मैंने जिज्ञाषावश उन तंत्र ज्योतिषी सोमाणी से पूंछा कि आपकी जानकारी क्या कहती है मोदी के बारे में ? उनका कहना था कि यह आदमी एक बार पार्टी अध्यक्ष बनेगा और बाद में सर्वोच्च पद तक पंहुच जायेगा .हालाँकि ठीक वैसा तो बिलकुल भी नहीं हुआ क्योंकि बिना राष्ट्रीय अध्यक्ष बने ही मोदी प्रधानमंत्री बन गए ,मगर फिर भी तंत्र ज्योतिषी प्रह्लाद राय सोमाणी का मोदी बहुत एहतराम करते रहे है और उनकी सलाहियत पर चलते भी रहे है .आश्चर्य की बात है कि वही मोदी अचानक अब ज्योतिष और तंत्र विद्या के विरोधी हो गए है !

इतना ही नहीं मोदी अपने सार्वजानिक जीवन में सदैव ही बाबाओं की कृपादृष्टि के भी मोहताज़ रहे है ,सारा देश जानता है कि वे आशाराम जैसे ढोंगी बाबा के बेहद नजदीकी रहे है ,योग व्यवसायी बाबा रामदेव से उनकी करीबियत किससे छुपी हुयी है ? हाल ही में उनके गुरु स्वामी दयानंद महाराज का निधन होने का समाचार देश के मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज़ रही है .इसके अलावा भी बाबाओं की उर्वरक धरती गुजरात के मुख्यमंत्री रहते वे अक्सर भांति भांति के बाबाओं के चरणों में नत मस्तक नज़र आते रहे है .अब भी उनकी पार्टी और मंत्रिमंडल में बाबा ,स्वामी और साध्वियां भरे पड़े है .फिर भी वे पूरी ढिठाई से अपने विरोधियों पर निशाना साधते है उन्हीं कर्मो व कुकर्मों के लिए, जिनमें वे स्वयं आकंठ लीन है .

उनकी एक वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी स्मृति जुबिन ईरानी अपने पति के साथ मंत्री बनाए जाने के बाद भीलवाड़ा के ही कारोई गाँव के भृगु संहिता के आधार पर भविष्य बांचने वाले बुजुर्ग पंडित नाथूराम के पास हाथ दिखाने और टोने टोटके करवाने आई थी ,जिस पर देश व्यापी हंगामा मच चुका है .मोदी जी की पार्टी की अधिकृत मान्यता रही है कि ज्योतिष एक विज्ञान है ,जिसे विश्वविद्यालयों में पढाया जाना चाहिए .इस सबके बावजूद भी प्रधानमंत्री मोदी का प्रगतिशील होने का पाखंड समझ से परे है .पर अब यह स्थापित तथ्य है कि जो बातें उनके आचरण के ठीक विपरीत होती है ,उन झूठों को भी वे पूरी सह्ज़ता से बोल लेते है .इसी पाखंडी चरित्र के चलते देश में अविश्वास का मौहाल बनता जा रहा है .आज हर कोई जानता है कि जो मोदी कहते है ,करते उसके ठीक विपरीत है .वे जिन बातों और वादों के सहारे सत्तारूढ़ हुए है ,उन्हें विस्मृत किया जा चुका है .विकास का भुलावा दे कर सत्ता में आये मोदी व्यवहार में विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ते दिखाई पड़ रहे है .विचार और व्यवहार (कथनी और करनी) का यही अंतर मोदी को देश में अब तक का सबसे बौना प्रधानमंत्री साबित करता है ,जो चुनाव जीत कर भी अब तक देश का भरोसा नहीं जीत पाए है .
{लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं}

शनिवार, 24 अक्टूबर 2015

पुरस्कार वापसी से उठे सवालों के जवाब : अब सवाल पूछने की बारी हमारी है -अनिल पुष्कर

जिन लोगों ने यह सवाल पूछा है कि १९८४ के दंगों में पुरस्कार क्यूँ नहीं लौटाए? हाशिमपुरा दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? बाबरी मस्जिद ढहाने में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? मुम्बई सीरियल ब्लास्ट में मारे गये लोगों पर पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? २००२ के गुजरात दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? मुजफ्फरनगर दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? आखिर दादरी और कल्बुर्गी की हत्या, पानसरे की हत्या, दाभोलकर की हत्या ने ही इन लेखकों को क्यूँ अतिआक्रोश से भर दिया आदि आदि.

उनके लिए यही कहना है :

१९८४ के दंगों के खिलाफ लिखने वाले सबसे अधिक लेखकों के नाम ढूँढिये और देखिये कि उनमें धर्मनिरपेक्ष लेखक अधिक हैं, जनवादी लेखक अधिक हैं, प्रगतिशील लेखक भरे पड़े हैं. इसके साथ ही दक्षिणपंथी लेखकों का भी इस मामले में कटाक्ष, कटु आलोचना वाला लेखन खूब हुआ है. १९९१ में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद जिन लेखकों ने इसकी तर्कपूर्ण आलोचना की है उनके नाम भी देखने चाहिए उनमें दक्षिणपंथी लेखक कितने थे? इसका भी खुलासा किया जाना चाहिए.

१९९२ बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हिन्दुत्ववादी ताकतों के साथ खड़े लेखकों ने क्या आलोचना की है? और यह भी देखिये कि फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट से लेकर जनसमुदाय और अल्पसंख्यकों की खुली हत्याओं के खिलाफ भी प्रगतिशील, वाम और जनवादी लेखकों ने अखबार के पन्ने भर दिए थे.

मुम्बई बम काण्ड में एक बार फिर से दक्षिणपंथी लेखकों का हुजूम उमड़ा था. हिंदुत्व का जहर इन लेखकों ने झाग-झाग उगला था. मगर कोई तार्किक बहस नहीं छेड़ी.

२००२ के गुजरात दंगों में कितने दक्षिणपंथी लेखकों ने इसके विरोध में अखबारों से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखा? इसका जवाब क्या हिन्दुत्ववादी राजनीति से प्रेरित लेखक दे सकेंगे? जबकि इस मामले के खुलासे से लेकर हर तरह की जांच की मांग प्रगतिशील खेमे के लेखकों ने की थी. जनवादी ताकतों ने इसे देश की धर्मनिरपेक्षता पर हमला बताया था. वाम लेखकों, ताकतों ने फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट सबके सामने रखी थी. मुफ्फरनगर दंगों में शामिल समाजवादी पार्टी और दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले दल का सच भी वामपंथी लेखकों ने ही किया था. प्रगतिशील और जनवादी ताकतों ने इस मामले में भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार पर सवालों की बौछार की थी.

दाम्भोलाकर की हत्या, काल्बुर्गी की हत्या, पान्सारे की ह्त्या ने जनसमुदाय और लेखकों में इतना गुस्सा भर दिया कि अब जुल्म की इन्तेहाँ हो गई. केवल प्रतिरोध में सवाल पूछने के अलावा भी जनसमुदाय के भीतर जो गुस्सा भरा था उसे संसद के कानों तक ले जाना जरूरी हो गया था. यह प्रतिरोष का गांधीवादी तरीका है. जिसमें कोई हंगामा, कोई शोर-शराबा, कोई उपद्रव कोई आन्दोलन अब तक सड़कों पर इस कद्र कहर बरपाते हुए नहीं किया गया है कि इस हंगामें से जनता में लेखकों के लिए संवेनशील होने की बजाय अराजकता पैदा हो.

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, पांचजन्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लाइब्रेरी और गुरुघंटाल धर्म गुरुओं की असहिष्णु प्रव्ह्नों से अधर्म फ़ैल रहा हो, आतंकवादी शक्तियाँ मजबूत हो रही हों, अराजकता बढ़ रही हो वहां इनको रोकना और संकटपूर्ण अवरोशों का सामना करना जरूरी हो जाता है. अपने हिंदुत्वावादी एजेंडे से बाहर निकलकर जिन लेखकों ने इस सत्य को देखने की कोशिश की है. उन सभी को यह प्रोटेस्ट गांधी की याद दिलाता है. एक तरफ दक्षिणपंथी ताकतें, हिंदुत्वावादी ताकतें, साम्प्रदायिक ताकतें देश में हिन्दू-मुसलमान के बीच जहर बो रहा है दूसरी तरफ इस जहर से पैदा होने वाली महामारी और उसके कारण जिनकी हत्याएं की गई हैं उनसे बचने के उपाय शांतिपूर्ण तरीके से खोजे जा रहे हैं. अभी तो यह आन्दोलन अपनी पहली अवस्था में है. दूसरी अवस्था आये इसके पहले ही हिंदुत्ववादी ताकतों को यह सन्देश जा चुका है कि अगर अब भी लेखकों की हत्याएं नहीं रुकीं, अब भी अल्पसंख्यकों की हत्याएं नहीं रुकीं, अब भी एश में अमन चैन का वातावर्ण नहीं बनाया गया तो यह प्रतिरोष अपने जनवादी तरीकों के साथ जनता के साथ पूरी ताकत से इन सत्ताधीशों और हत्यारों से लड़ने के लिए तैयार है.

जिस देश में लेखकों की हत्याएं होंगी उस देश में अगर विरोध होगा तो बिलकुल इसी तरह होगा. और होना भी चाहिए. यह लोकतंत्र है. जहां हत्याओं के खिलाफ बोलने का हक़ हर किसी को है. अगर लेखक मारा जाएगा तो लेखक ही उसके खिलाफ पहली आवाज़ लाएगा यह तो हत्या की राजनीति करने वालों ने देख लिया. मगर इनके चेहरों पर डर और शिकस्त हत्या के बाद शिकन की जरा भी लकीर नहीं है. बल्कि गांधीवादी शांतिपूर्ण प्रतिरोध से घबराकर ऊल जुलूल बयान दे रहे हैं.

कोई बताये मुझे कि अब तक पूर्व की सरकारों ने कितने दक्षिणपंथी लेखकों की हत्याएं करवाई हैं? कितने हिन्दुत्ववादी लेखकों को सरेआम गोलियों से भूना गया? कितने संघी विचारकों को चौराहे पर घसीटकर बेइज्जत करके हत्या की गई है. कितने दंगाई राजनीतिज्ञों को जनता के बीच दौडाकर मरा डाला गया? अगर यह सब कुछ अब तक नहीं हुआ तो इसकी वजह क्या है? कभी सोचा है.

इसकी वजह है जनवादी ताकतें अपने विरोधियों की हत्याएं नहीं करतीं. प्रगतिशील ताकतें अपने विरूद्ध उठी आवाजों का गला नहीं घोंटते. एक संवेदनशील लेखक कभी किसी विरोधी लेखक की हत्या का षड्यंत्र नहीं रचता.

जाहिर है आपको अपने एक सवाल का जवाब मिल गया होगा. अगले रोज़ अगले सवाल का जवाब दिया जाएगा. मगर शर्त एक ही है जिस लेखक की हत्या हुई है, क्या उसे हमको वापस लौटा सकोगे? अगर नहीं तो फिर आगे हत्या का विचार मन से निकाल दो वरना गुस्साई भीड़ अगर तुम्हारे इशारे पर अख़लाक़ की हत्या कर सकती है तो कल को यही गुस्साई भीड़ तुम्हारी गर्दन तक भी पहुँच सकती है. लोकतंत्र में हर तरफ सुरक्षा है हर तरफ खतरा है. बशर्ते लोकतंत्र के सब्र का इम्तेहान न लेना वरना केवल लेखक इस देश में इतना ताकतवर है कि वह तुम्हें देश-निकाला भी दे सकता है.

और एक बात सवाल जितने भी आये हैं वह अब तक तुमने पूछे हैं तुम यानी हत्या की राजनीति करने वाले न्र-पिशाच, तुम यानी दंगों की राजनीति करने वाले दंगाई, मरने वालों की मृत्यु-कथा बांछ्ते मौत के सौदागर, तुम तुम और तुम सभी को अब कुछ सवालों के जवाब देने अभी बाकी हैं. इन्तजार करो बहस तो अब शुरू हुई है. कितनी देर ठहर सकोगे. जुल्म सहने वाले तो युगों युगों से धैर्यपूर्वक चुपचाप दम साधकर खड़े हैं. उनकी एक सांस का वार भी झेलना तुम्हारे लिए भारी पड़ेगा.

अरे, जो हत्यारे अपने ही लेखक कार्यकर्ता श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर नियोगी तक की साजिश करके हत्या कर दें वो भला किसी और के सगे कहाँ होंगे. वजह सिर्फ व्यक्तिगत हित साधकर दक्षिणपंथ की राजनीति के साथ मिलकर हत्यारे लोगों की हत्याएं करते हैं.

अनिल पुष्कर
 -पोस्ट डॉक फेलो, इलाहाबाद

रविवार, 27 सितंबर 2015

भगतसिंह आज भी भारत की जनता के मार्गदर्शक हैं - शैलेन्द्र चौहान

“सोये हुए शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो” 

गत सिंह को भारत के सभी विचारों वाले लोग बहुत श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं। वे उन्हें देश पर कुर्बान होने वाले एक जज़बाती हीरो और उनके बलिदान को याद करके उनके आगे विनत होते हैं। वे उन्हें देवत्व प्रदान कर तुष्ट हो जाते हैं और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। असल में भगत सिंह क्या थे, क्या चाहते थे, उनका आज़ादी का सपना कैसा था, उनका विज़न क्या था और सर्वोपरि वे आम आदमी को कहां प्रतिष्ठित करना चाहते थे यह जानना आवश्यक नहीं समझते। क्या हम इस दृष्टि से भी भगत सिंह को देख सकते हैं?
भगत सिंह ने कहा था- ‘वे (अंग्रेज) सोचते हैं कि मेरे शरीर को नष्ट कर, इस देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी गलतफहमी है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, लेकिन वे मेरी आंकाक्षाओं को दबा नहीं सकते।’ सचमुच बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक हमारे देश में न अंग्रेज सुरक्षित रह सके और न ही भगत सिंह के विचारों व आकांक्षाओं को दबाया जा सका। इतिहास साक्षी है कि ‘मृत भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक’ साबित हुए और उनके क्रान्तिकारी विचारों से तत्कालीन नौजवान पीढ़ी ‘मदहोश’ और ‘आजादी एवं क्रान्ति के लिए पागल’ होती रही। वह लाठियां-गोलियां खाती रही और शहीदों की कतारें सजाती रही। 

 
लेकिन 1947 के बाद के भारत की तस्वीर नितांत अलग दिखने लगी। और आज सब कुछ न केवल पूंजीवाद की भेंट चढ़ चुका है बल्कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का भारत के भविष्य का असल सपना भी धूमिल हो गया है। 1947 के सत्ता हस्तान्तरण के बाद जनता के व्यापक हिस्से को लगा था कि देश व उनके जीवन की बदहाली रूकेगी और समृद्धि व खुशियाली का एक नया दौर शुरू होगा। लेकिन मात्र कुछ सालों में ही यह अहसास हो गया कि जो दिल्ली की गद्दी पर बैठे हैं वे उनके प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने देश व जनता के विकास की जो आर्थिक नीतियां अपनाईं और उनका जो नतीजा सामने आया, उससे साफ पता चल गया कि वे बड़े जमीन्दारों व बड़े पूंजीपतियों के साथ-साथ साम्राज्यवाद के भी हितैषी हैं। उनका मुख्य उद्देश्य मिहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को लूटना है और शोषक-शासक वर्गों की तिजोरियां भरना है।

भगत सिंह देश के विकास की इस प्रक्रिया को अच्छी तरह समझते थे। तभी तो उन्होंने कहा था कि ‘कांग्रेस जिस तरह आन्दोलन चला रही है उस तरह से उसका अन्त अनिवार्यतः किसी न किसी समझौते से ही होगा।’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘यदि लॉर्ड रीडिंग की जगह पुरूषोत्तम दास’ और ‘लार्ड इरविन की जगह तेज बहादुर सप्रू’ आ जायें तो इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उनका शोषण-दमन जारी रहेगा। उन्होंने भारत की जनता को आगाह किया था कि हमारे देश के नेता, जो शासन पर बैठेंगे, वे ‘विदेशी पूंजी को अधिकाधिक प्रवेश’ देंगे और ‘पूंजीपतियों व निम्न-पूंजीपतियों को अपनी तरफ’ मिलायेंगे। ‘उन्होंने यह भी कहा कि ’निकट भविष्य में बहुत शीघ्र हम उस वर्ग और उसके नेताओं को विदेशी शासकों के साथ जाते देखेंगे, तब उनमें शेर और लोमड़ी का रिश्ता नहीं रह जायेगा।’

सचमुच ‘आजाद भारत’ के विकास की गति इसी प्रकार रही है। 1947 में 248 विदेशी कम्पनियां हमारे देश में कार्यरत थीं, जिनकी संख्या आज बढ़कर करीब 15 हजार हो गई है। आज विदेशी पूंजी एवं भारतीय दलाल पूंजी का गठजोड़ अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। खासकर, 1991 के बाद उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया चली उससे हमारे देश के शासक वर्गों का असली साम्राज्यवाद परस्त चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो गया। आज औद्योगिक क्षेत्र के साथ-साथ कृषि व सेवा क्षेत्रों में भी विदेशी पूंजी का ‘अधिकाधिक प्रवेश’ हो रहा है। करोड़ों रू. का लाभ अर्जित करने वाली ‘नवरत्नों’ समेत दर्जनों सार्वजनिक कम्पनियों का विनिवेशीकरण किया जा रहा है और उनके शेयरों को मिट्टी के मोल बड़े-बड़े पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, सिंचाई, व्यापार, सड़क, रेल, हवाई व जहाजरानी परिवहन, बैंकिंग, बीमा व दूरसंचार आदि सेवाओं का धड़ल्ले से निजीकरण किया जा रहा है और इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में 74 से 100 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी लगाने की छूट दे दी गई है। कृषि, जो आज भी देश की कुल आबादी के कम से कम 65 प्रतिशत लोगों की जीविका का मुख्य साधन बना हुआ है, को मोन्सेन्टो व कारगिल जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का चारागाह बना दिया गया है।

‘निगमीकृत खेती’, बड़ी-बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं एवं ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ के नाम पर बड़े पैमाने पर किसानों व आदिवासियों की जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सुपूर्द की जा रही है। पहले ये कम्पनियां खेती में खाद, बीज, कीटनाशक दवाओं व अन्य कृषि उपकरणों की आपूर्ति करती थीं, अब कृषि उत्पादों के खरीद व व्यापार में भी वे अहम् भूमिका निभा रही हैं। आज कृषि समेत हमारी पूरी अर्थव्यवस्था विश्व बैंक, आई.एम.एफ. व विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के चंगुल में बुरी तरह फंस गई है। नतीजतन, लाखों कल-करखाने बंद हो रहे हैं, दसियों लाख मजदूरों-कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और विगत 20 सालों में करीब 5 लाख किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। और जब किसान-मजदूर व जनता के अन्य तबके अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष छेड़ते हैं, तो उन पर लाठियां व गोलियां बरसाई जाती हैं और उनकी एकता को खंडित करने के लिए धार्मिक उन्माद, जातिवाद व क्षेत्रवाद को भड़काया जाता है।

जाहिर है कि साम्राज्यवादी वैश्वीकरण व लूट-खसोट के इस भयानक दौर में भगत सिंह के विचार काफी प्रासंगिक हो गये हैं। खासकर, साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्गों के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए एक क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण व क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उनके विचारों को जानना और उन्हें आत्मसात करना आज क्रान्तिकारी समूहों का फौरी दायित्व हो गया है।

अपने बयानों और लेखों में भगत सिंह ने क्रान्ति की अवधारणा एवं क्रान्तिकारी संग्राम में विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने कहा कि अगर कोई सरकार जनता को मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का आवश्यक दायित्व बन जाता है कि वह न केवल ऐसी सरकार को समाप्त कर दे, बल्कि वर्तमान ढांचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने हेतु उठ खड़ी हो। उन्होंने क्रान्ति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।… क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो, तथा एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों में उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।’ यह बयान उन्होंने सेशन अदालत में तब दिया था जब जज ने उनसे क्रान्ति का मतलब पूछा था। इस बयान से स्पष्ट होता था कि क्रान्ति के बारे में उनका दृष्टिकोण कितना व्यापक था।

क्रान्ति में जनता के विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में भी उनका दृष्टिकोण काफी साफ था। वे ऐसी क्रान्ति करना चाहते थे ‘जो जनता के लिए हो और जिसे जनता ही पूरी करे’, और जिसका मतलब ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा राजनीतिक सत्ता पर कब्जा’ करना हो। इस तरह भगत सिंह का यह दृष्टिकोण माओ की इस उक्ति से मेल खाती है कि जनता और केवल जनता ही क्रान्ति की प्रेरक शक्ति होती है। भगत सिंह क्रान्ति में किसानों-मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका को बखूबी समझते थे। वे कहते थे कि ‘गांवों के किसान और कारखानों के मजदूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं।‘ खासतौर पर वे श्रमिकों की भूमिका पर जोर देते थे। उन्होंने कहा कि ‘साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने का भारत के पास एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है।’ इसी सन्दर्भ में वे क्रान्ति के बाद ‘सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता’ की स्थापना करना चाहते थे।

वे नौजवानों को भूमिका को भी अच्छी तरह समझते थे। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन के घोषणापत्र में यह कहा गया कि ‘देश का भविष्य नौजवानों के सहारे है। वही धरती के बेटे हैं। उनकी दुःख सहने की तत्परता, उनकी वेखौफ बहादुरी और लहराती कुर्बानी दर्शाती है कि भारत का भविष्य उनके हाथ सुरक्षित है।’ इन वर्गों व समूहों के अलावा भगत सिंह ने ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ शीर्षक लेख में बुद्धिजीवियों, दस्तकारों व महिलाओं को भी संगठित करने पर जोर दिया। साथ ही, उन्होंने ‘कांग्रेस के मंच का लाभ उठाने’, ‘ट्रेड यूनियनों में काम करने एवं उन पर कब्जा जमाने’ और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों (यहां तक कि सहकारिता समितियों) में गुप्त रूप से काम करने का दिशा-निर्देश दिया। भगत सिंह ने अपने अनेक लेखों व वक्तव्यों में साम्राज्यवाद व खासकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दमनकारी चरित्र के बारे में चर्चा की है, लेकिन लाहौर षड़यन्त्र केस से सम्बन्धित विशेष ट्रिब्यूनल के समक्ष 5 मई, 1930 को दिये गए बयान में उन्होंने साम्राज्यवाद की एक सुस्पष्ट व्याख्या की है। इस बयान में कहा गया- ‘साम्राज्यवाद एक बड़ी डाकेजनी की साजिश के अलावा कुछ नहीं है। साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों एवं कानूनों को कत्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकांड भी आयोजित करते हैं। अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते हैं।… शान्ति व्यवस्था की आड़ में वे शान्ति व्यवस्था भंग करते हैं।’ खासतौर पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि ‘ब्रिटिश सरकार, जो असहाय और असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गई है, गुण्डों, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों की टोली है, जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सब प्रकार की शक्तियां जुटाई हुई हैं। शांति-व्यवस्था के नाम पर यह अपने विरोधियों या रहस्य खोलने वालों को कुचल देती है।’

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि भगत सिंह साम्राज्यवाद को मनुष्य व राष्ट्र के शोषण की चरम अवस्था एवं लूट-खसोट, अशान्ति व युद्ध का स्रोत मानते थे। उनकी यह व्यख्या साम्राज्यवाद की वैज्ञानिक व्याख्या के काफी करीब है। क्रान्तिकारी खेमों के बीच भारत के पूंजीपतियों के चरित्र को लेकर काफी विवाद है। कुछ संगठन व दल इसे ‘स्वतंत्र पूंजीपति वर्ग’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं, तो कुछ इसे ‘दलाल’ व ‘राष्ट्रीय पूंजीपतियों’ के वर्ग में विभाजित करते हैं। इसी तरह कुछ इसे ‘साम्राज्यवाद के सहयोगी’ एवं ‘आश्रित वर्ग’ के रूप में भी चिह्नित करते हैं। लेकिन भगत सिंह व उनके साथियों ने इसके समझौता परस्त व घुटना टेकू चरित्र को काफी पहले पहचान लिया था। ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के घोषणा-पत्र (जिसे मुख्यतः भगवतीचरण बोहरा ने लिखा था) में साफ शब्दों में कहा गया- ‘भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है-एक तरफ से विदेशी पूंजीवाद का और दूसरी तरफ से भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनैतिक नेताओं का ‘डोमिनियन’ स्वरूप को स्वीकार करना भी हवा के इसी रूख को स्पष्ट करता है।

धार्मिक अंधविश्वास व कट्टरपंथ ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में एक बड़े बाधक की भूमिका अदा की है। अंग्रेजों ने धार्मिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक दंगे करवाये और जनता की एकता को खंडित किया। 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का व्यापक प्रचार शुरू किया। खासकर, 1924 में कोहट में भीषण व अमानवीय हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तो सभी प्रगतिशील व क्रान्तिकारी ताकतों को इस विषय पर सोचने को मजबूर होना पड़ा। भगत सिंह ने मई, 1928 में ‘धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम’ शीर्षक एक लेख लिखा जो ‘किरती’ में छपा। इसके बाद उन्होंने जून, 1928 में ‘साम्प्रदायिक दंगे और उसका इलाज’ शीर्षक लेख लिखा। अन्त में गदर पार्टी के भाई रणधीर सिंह (जो भगत सिंह के साथ लाहौर जेल में सजा काट रहे थे) के सवालों के जबाब में भगत सिंह ने 5-6 अक्तूबर, 1930 को ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक काफी महत्वपूर्ण लेख लिखा।

इन लेखों में उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न किया। उन्होंने कहा कि ‘ईश्वर पर विश्वास रहस्यवाद का परिणाम है और रहस्यवाद मानसिक अवसाद की स्वाभाविक उपज है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं से प्रश्न किया कि ‘सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, शोषण, असमानता, दासता, महामारी, हिंसा और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता?’ उन्होंने माक्र्स की विख्यात उक्ति को कई बार दुहराया – ‘धर्म जनता के लिए एक अफीम है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं व राजनीतिज्ञों पर आरोप लगाया कि वे अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक दंगे करवाते हैं। उन्होंने अखबारों पर भी आरोप लगाया कि वे ‘उत्तेजनापूर्ण लेख’ छापकर साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं। उन्होंने इसके इलाज के बतौर ‘धर्म को राजनीति से अलग रखने’ पर जोर दिया और कहा कि ‘यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहें अलग-अलग ही रहें।’ उनका दृढ मत था कि ‘धर्म जब राजनीति के साथ घुल-मिल जाता है, तो वह एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र के जीवित अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ता है, जनता के हौसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुंधला बनाता है, असली दुश्मन की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनःस्थिति को कमजोर करता है और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साजिशों की आक्रमणकारी यातनाओं का लाचार शिकार बना देता है।’

आज जब हमारे देश में राजसत्ता की देख-रेख में बाबरी मस्जिद ढाही जाती है और गुजरात जैसे वीभत्स जनसंहार रचाये जाते हैं, तब भगत सिंह की इस उक्ति की प्रासंगिकता सुस्पष्ट हो जाती है। जातीय उत्पीड़न के सम्बन्ध में भगत सिंह ने अपना विचार मुख्य तौर पर ‘अछूत-समस्या’ शीर्षक अपने लेख में व्यक्त किया है। यह लेख जून, 1928 में ‘किरती’’ में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त अनुसूचित जातियों को ‘अछूत’ कहा जाता था और उन्हें कुओं से पानी नहीं निकालने दिया जाता था। मन्दिरों में भी उनका प्रवेश वर्जित था और उनके साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था। उच्च जातियों, खासकर सनातनी पंडितों द्वारा किए गए इस प्रकार के अमानवीय व विभेदी व्यवहार का उन्होंने कड़ा विरोध किया। उन्होंने बम्बई काॅन्सिल के एक सदस्य नूर मुहम्मद के एक वक्तव्य का हवाला देते हुए प्रश्न किया- ‘जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी इन्कार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते-तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकार की मांग करो।’

छुआछूत के व्यवहार पर भी आपत्ति जाहिर करते हुए कहा- ‘कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है, हमारी रसोई में निःसंग फिरता है। लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।’ जब हिन्दू व मुस्लिम राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूत्र्ति के लिए ‘अछूतों’ को धर्म के आधार पर बांटने लगे, और फिर उन्हें मुस्लिम या ईसाई बनाकर अपना धार्मिक आधार बढ़ाने लगे, तो उन्हें काफी नाराजगी हुई। उन्होंने अछूत समुदाय के लोगों का सीधा आह्वान किया- ‘संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो, दूसरे के मुंह की ओर मत ताको।’ लेकिन साथ ही साथ, उन्होंने नौकरशाही से सावधान करते हुए कहा- ‘नौकरशाही के झांसे में मत पड़ना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चहती है। यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है।’ इसी सिलसिले में उन्होंने उनकी अपनी ताकत का भी अहसास दिलाया। उन्होंने कहा- ‘तुम असली सर्वहारा हो। तुम ही देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो।’ भगत सिंह का यह आह्वान काफी मूल्यवान है-खासकर ऐसे समय में, जब आज भी क्रान्तिकारी ताकतें दलितों पर होने वाले जातीय व व्यवस्था जनित उत्पीड़न के खिलाफ कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पा रही हैं। भगत सिंह आज भी भारतीय जनता के मार्गदर्शक हैं।

शनिवार, 5 सितंबर 2015

डरे न कोई जमना तट पर

सहसमुखी विषधर जब कोई
जमना जल पर काबिज हो ले
उधर पड़े ना पाँव किसी का
जमना तट वीराना हो ले

बच्चे खेलें जा कर तट पर
भय न उन को कोई सताए
खेल खेल में उछले गेंद
सीधी जमना जल में जाए

तब बालक कोई जा कूदे
जमना में हलचल मच जाए
लगे झपटने विषधर उस पर
नटखट बालक हाथ न आए

गाँव गाँव के सब नर नारी
डरें सभी अरु काँपें थर थर
भाग भाग कर होएँ इकट्ठा
पड़े साँप भारी बालक पर

बालक चपल साँप से ज्यादा
चढ़ बैठे विषधर के फण पर
नाच नाच कुचले फण सारे
लगे उसे बस एक घड़ी भर

विवश विषधर सरपट भागे
पीछा छोड़े जमना जल का
हो जाएँ निर्भय तटवासी
जल निर्मल हो फिर जमना का

जब भी अहम् कुण्डली मारे
फुफकारे जब कोई विषधर
डरे न कोई जमना तट पर
चपल हैं बालक इस धरा पर
  •  दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 29 अगस्त 2015

राखी - "हम सब साथ साथ हैं"

राखी स्नेहपूर्ण मृदुल त्यौहार है। एक युग था जब इसे रक्षा के त्यौहार के रूप में मनाया जाता था। लेकिन उस रूप में उस का महत्व तभी तक रह सकता है जब कि समाज में रक्षक और अरक्षित दोनों हों और रक्षा का दायित्व निभाने को तैयार हों। राखी को भाई-बहन के मधुर सम्बन्धों से भी जोड़ कर देखा जाता है। लेकिन उन का संबंध तो सहोदरता का है जो ऐसा स्थाई संबंध है कि तोड़े भी नहीं टूट सकता है। फिर एक धागे में ऐसा क्या है जो उन्हें अपने दायित्वों कर्तव्यों का बोध करा दे?

जब हम बहन द्वारा भाई को राखी बांधे जाने की बात करते हैं तो सहज ही उस मूल्य का शिकार हो जाते हैं जो यौनिकता के आधार पर मनुष्य मनुष्य में भेद करता है। यौनिकता के आधार पर स्त्री रक्षिता हो जाती है और पुरुष रक्षक। यौनिकता के आधार पर किया जाने वाला यह भेद समाज से मिटना चाहिए। यौनिकता अपने स्थान पर है लेकिन उस के आधार पर सामाजिक भेद की समाप्ति जरूरी है।

बहनें राखी बांधती हैं और भाई बंधवाते हैं और बहिन को अच्छी से अच्छी भेंट देना चाहते हैं, लेकिन वही दे पाते हैं जिस से उन का अपनी अपनी पत्नियों से जो खुद भी किसी न किसी की बहिन हैं बिगाड़ न हो जाए। पर तमाम भाई लोग यह सारी इस कारण निभा रहे हैं कि कहीं बहिन माता पिता की संपत्ति में हिस्सा न मांग ले। अदालतों में खूब मुकदमे चल रहे हैं जो बहनों ने अपने माता पिता की संपत्ति में हिस्सा लेने के लिए किए हैं। वहाँ न बहिन भाई को राखी बांधती है और न भाई बंधवाने को तैयार है। भाई कहता है काहे की राखी, कैसी राखी? बाप की जमीन में हिस्सा तो मांग लिया।

इस राखी पर भाई ये प्रण करें कि माता पिता की संपत्ति में जो भी हिस्सा बहिन कानून के अनुसार है उसे स्वयं अपनी बहन को दे देंगे तो फिर देखिए भाई बहनों के बीच स्नेह की कैसी संसृष्टि होती है? पर यह मक्खन किसे चाहिए?

मेंरे दादा जी ज्योतिषी और पुरोहित थे। राखी पर उन के यजमानों के काम करने के उपकरणों को राखी बांधने जाते थे। यह उन की ओर से एक प्रकार की शुभकामना होती थी। उन के और यजमानों के बीच कभी फीस (दक्षिणा) नहीं रही। वे अपने यजमानों का काम बिना किसी अपेक्षा के दायित्व-बोध से करते थे। यही दायित्व-बोध उन के यजमानों में भी था। उन का कभी कोई काम न रुका। अपने यजमानों पर इतना अधिकार भी रखते थे कि उन्हें हमें धमकी देनी होती तो कहते -गाँव चला जाउंगा, मांग कर खा लूंगा। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए यजमानों से मांगना उन का अधिकार था। लेकिन आज यह पारिवारिक-सामाजिक दायित्व-बोध का भाव इस भाववादी दुनिया से कहीं गायब हो चुका है।


यह दायित्व-बोध राखी बांधने से उत्पन्न नहीं होता। यह भावनाओं से भी उत्पन्न नहीं होता। यह समानता के साथ से पैदा होता है। हम परिवार और समाज में सब को समान समझें। केवल समझें ही नहीं, यह हमारे भौतिक व्यवहार में आए और सब की आदत बन जाए। वैसे ही जैसे किसी एक रास्ते पर रोज जाने की आदत बनती है। आप वाहन की ड्राइविंग सीट पर बैठे होते हैं आप के हाथ स्टीयरिंग को रोज चलने वाले रास्ते पर जाने के लिए नियंत्रित करते रहते हैं, उस के लिए मस्तिष्क को इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती।

इस का एक ही उपाय है, हम भाववाद (आदर्शवाद, दिखावा) का त्याग करें। यथार्थ की जमीन पर आएँ। हम में बोध हो कि परिवार में सब समान हैं भाई-बहिन भी और स्त्री-पुरुष भी। परिवार में भी और समाज में भी सभी एक दूसरे के लिए हैं, सब मिल कर किसी एक की आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं।  यह हमारी आदत बने, व्यवहार में दिखाई दे, तब किसी को किसी भी चीज का अभाव नहीं खल सकता, न भौतिक वस्तुओं का न ही प्यार और स्नेह का।

राखी के इस त्यौहार का उद्घोष "हम सब साथ साथ हैं" होना चाहिए।

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

भण्डारा

'लघुकथा'


भिखारियों को भोजन के लिए बाजार वालों ने भण्डारा किया। बाजार को कनातें लगा कर बन्द कर दिया गया था। सड़क को नगर निगम से टैंकर मंगवा कर धुलवाया गया। जब वह सूख ली तो उस पर टाट पट्टियाँ बिछाई गयीं। भोजन के लिए आए भिखारी यह सब कार्रवाई बाजार के कोने में भीड़ लगाए टुकुर टुकुर देखते रहे। जब हलवाई ने बताया कि इतना भोजन तैयार है कि भिखारियों को भोजन के लिए बिठाया जा सकता है। भिखारी आए और टाटपट्टियों पर बैठ गए। उन में से एक-दो ही थे जिन्हों ने पालथी मारी हो। अधिकांश उकड़ूँ बैठे थे। उन्हें देख कर एक हाथियाए व्यापारी ने कहा, 'बेकार ही टाट पट्टियाँ मंगाईं, ये तो सब उकड़ूँ बैठगए'।

मोटे पेट वाले एक व्यापारी ने उन्हें पत्तलें परोसीं, दूसरे पूरी, सब्जी, नुक्ती और सेव परसने लगे। ये वही थे जो और दिनों भिखारियों के कुछ मांगने पर एक सैंकड़ा गाली देकर भगा दिया करते थे। कभी कभी किसी जिद्दी भिखारी के सामने तो डंडे का उपयोग भी कर लेते थे। भिखारीगण भोजन करने लगे। एक पंगत उठती तो दूसरी बैठ जाती। भिखारी आते जा रहे थे उन का कोई वारापार न था।

दोपहर बाद एक अच्छे कपडे पहने नौजवान आया और भिखारियों की पंक्ति में बैठ गया। परोसने वाले चौंके ये भिखारियों के बीच कौन आ गया। व्यापारियों में खुसुर फुसुर होने लगी। तभी एक नौजवान व्यापारी ने उसे पहचान लिया। वह तो नगर के सब से ज्यादा चलने वाले महंगे ग़ज़ब रेस्टोरेंट के मालिक का बेटा था। व्यापारियों ने कुछ तय किया और तीन चार उस के नजदीक गए। बोले -तुम तो ग़ज़ब के मालिक के बेटे हो न? तुम्हें यहाँ भिखारियों के साथ खाने को बैठने की क्या जरूरत?


मुझे बाप के रेस्टोरेंट का खाना पसंद नहीं। रेस्टोरेंट का धन्धा भी कोई धन्धा है। बहुत परेशानियाँ हैं। मैने बाप से कहा तो उस ने घर से निकाल दिया। अब भिखारी जैसा ही हूँ, इस लिए भंडारे के भोजन का अधिकारी भी।

व्यापारियों ने विचार किया कि बाप ने नाराज हो कर घर से निकाला है हम ने भंडारे में खाने दिया तो इस का बाप नाराज हो जाएगा, दूसरे भिखारियों को भी ये पसन्द न आएगा। उन्हों ने उसे उठा दिया।

उसे गुस्सा आ गया। गुस्से में भर कर उस ने मुट्ठियाँ तानीं और भाषण देने लगा -तुम ने मेरा अपमान किया है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे यहाँ से उठाने की। मेरे दोस्तों और फॉलोवरों की कमी नहीं है।अभी सब को साथ ले कर आता हूँ। देखता हूँ कैसे करते हो भंडारा। यह कहते हुए वह वहाँ से चला गया। व्यापारी भंडारा करते रहे।

आधे घंटे बाद हाथों मेे हॉकियाँ और बेसबॉल के डंडे लिए बाइकों पर 20-30 नौजवान आए। भंडारे की भट्टियाँ बुझा दीं। तेल के कड़ाह और भोजन भरे बरतन उलट दिए। जिस ने रोका उस का सिर फोड़ दिया। कुल तीन मिनट लगे। वे सब कुछ तहस नहस कर के दफा हो गए। पूरे बाजार में हाहाकार मच गया।

यह पिछले साल की बात थी। इस साल फिर भंडारे का दिन नजदीक आ रहा है। व्यापारी सोच रहे हैं कि भंडारा करें कि नहीं?