“सोये हुए शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो”
भगत सिंह को भारत के सभी विचारों
वाले लोग बहुत श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं। वे उन्हें देश पर
कुर्बान होने वाले एक जज़बाती हीरो और उनके बलिदान को याद करके उनके आगे
विनत होते हैं। वे उन्हें देवत्व प्रदान कर तुष्ट हो जाते हैं और अपने
कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। असल में भगत सिंह क्या थे, क्या चाहते
थे, उनका आज़ादी का सपना कैसा था, उनका विज़न क्या था और सर्वोपरि वे आम आदमी
को कहां प्रतिष्ठित करना चाहते थे यह जानना आवश्यक नहीं समझते। क्या हम इस
दृष्टि से भी भगत सिंह को देख सकते हैं?
भगत सिंह ने कहा था- ‘वे (अंग्रेज) सोचते हैं कि मेरे शरीर को नष्ट कर, इस
देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी गलतफहमी है। वे मुझे मार सकते हैं,
लेकिन मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं,
लेकिन वे मेरी आंकाक्षाओं को दबा नहीं सकते।’ सचमुच बीसवीं सदी के
पूर्वार्द्ध तक हमारे देश में न अंग्रेज सुरक्षित रह सके और न ही भगत सिंह
के विचारों व आकांक्षाओं को दबाया जा सका। इतिहास साक्षी है कि ‘मृत भगत
सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक’ साबित हुए और उनके क्रान्तिकारी
विचारों से तत्कालीन नौजवान पीढ़ी ‘मदहोश’ और ‘आजादी एवं क्रान्ति के लिए
पागल’ होती रही। वह लाठियां-गोलियां खाती रही और शहीदों की कतारें सजाती
रही।
लेकिन 1947 के बाद के भारत की तस्वीर नितांत अलग दिखने लगी। और आज सब कुछ न
केवल पूंजीवाद की भेंट चढ़ चुका है बल्कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का
भारत के भविष्य का असल सपना भी धूमिल हो गया है। 1947 के सत्ता हस्तान्तरण
के बाद जनता के व्यापक हिस्से को लगा था कि देश व उनके जीवन की बदहाली
रूकेगी और समृद्धि व खुशियाली का एक नया दौर शुरू होगा। लेकिन मात्र कुछ
सालों में ही यह अहसास हो गया कि जो दिल्ली की गद्दी पर बैठे हैं वे उनके
प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने देश व जनता के विकास की जो आर्थिक नीतियां
अपनाईं और उनका जो नतीजा सामने आया, उससे साफ पता चल गया कि वे बड़े
जमीन्दारों व बड़े पूंजीपतियों के साथ-साथ साम्राज्यवाद के भी हितैषी हैं।
उनका मुख्य उद्देश्य मिहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को लूटना है और शोषक-शासक
वर्गों की तिजोरियां भरना है।
भगत सिंह देश के विकास की इस प्रक्रिया को अच्छी तरह समझते थे। तभी तो
उन्होंने कहा था कि ‘कांग्रेस जिस तरह आन्दोलन चला रही है उस तरह से उसका
अन्त अनिवार्यतः किसी न किसी समझौते से ही होगा।’ उन्होंने यह भी कहा था कि
‘यदि लॉर्ड रीडिंग की जगह पुरूषोत्तम दास’ और ‘लार्ड इरविन की जगह तेज
बहादुर सप्रू’ आ जायें तो इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ेगा और उनका
शोषण-दमन जारी रहेगा। उन्होंने भारत की जनता को आगाह किया था कि हमारे देश
के नेता, जो शासन पर बैठेंगे, वे ‘विदेशी पूंजी को अधिकाधिक प्रवेश’ देंगे
और ‘पूंजीपतियों व निम्न-पूंजीपतियों को अपनी तरफ’ मिलायेंगे। ‘उन्होंने यह
भी कहा कि ’निकट भविष्य में बहुत शीघ्र हम उस वर्ग और उसके नेताओं को
विदेशी शासकों के साथ जाते देखेंगे, तब उनमें शेर और लोमड़ी का रिश्ता नहीं
रह जायेगा।’
सचमुच ‘आजाद भारत’ के विकास की गति इसी प्रकार रही है। 1947 में 248 विदेशी
कम्पनियां हमारे देश में कार्यरत थीं, जिनकी संख्या आज बढ़कर करीब 15 हजार
हो गई है। आज विदेशी पूंजी एवं भारतीय दलाल पूंजी का गठजोड़ अर्थव्यवस्था के
हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। खासकर, 1991 के बाद उदारीकरण, निजीकरण व
वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया चली उससे हमारे देश के शासक वर्गों का असली
साम्राज्यवाद परस्त चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो गया। आज औद्योगिक क्षेत्र के
साथ-साथ कृषि व सेवा क्षेत्रों में भी विदेशी पूंजी का ‘अधिकाधिक प्रवेश’
हो रहा है। करोड़ों रू. का लाभ अर्जित करने वाली ‘नवरत्नों’ समेत दर्जनों
सार्वजनिक कम्पनियों का विनिवेशीकरण किया जा रहा है और उनके शेयरों को
मिट्टी के मोल बड़े-बड़े पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा,
ऊर्जा, सिंचाई, व्यापार, सड़क, रेल, हवाई व जहाजरानी परिवहन, बैंकिंग, बीमा व
दूरसंचार आदि सेवाओं का धड़ल्ले से निजीकरण किया जा रहा है और इनमें से
अधिकांश क्षेत्रों में 74 से 100 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी लगाने की छूट दे
दी गई है। कृषि, जो आज भी देश की कुल आबादी के कम से कम 65 प्रतिशत लोगों
की जीविका का मुख्य साधन बना हुआ है, को मोन्सेन्टो व कारगिल जैसी विदेशी
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का चारागाह बना दिया गया है।
‘निगमीकृत खेती’, बड़ी-बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं एवं ‘विशेष आर्थिक
क्षेत्रों’ के नाम पर बड़े पैमाने पर किसानों व आदिवासियों की जमीन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सुपूर्द की जा रही है। पहले ये कम्पनियां खेती
में खाद, बीज, कीटनाशक दवाओं व अन्य कृषि उपकरणों की आपूर्ति करती थीं, अब
कृषि उत्पादों के खरीद व व्यापार में भी वे अहम् भूमिका निभा रही हैं। आज
कृषि समेत हमारी पूरी अर्थव्यवस्था विश्व बैंक, आई.एम.एफ. व विश्व व्यापार
संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के चंगुल में बुरी तरह फंस गई है।
नतीजतन, लाखों कल-करखाने बंद हो रहे हैं, दसियों लाख मजदूरों-कर्मचारियों
को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और विगत 20 सालों में करीब 5 लाख किसानों को
आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा है। और जब किसान-मजदूर व जनता के अन्य
तबके अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष छेड़ते हैं, तो उन पर लाठियां
व गोलियां बरसाई जाती हैं और उनकी एकता को खंडित करने के लिए धार्मिक
उन्माद, जातिवाद व क्षेत्रवाद को भड़काया जाता है।
जाहिर है कि साम्राज्यवादी वैश्वीकरण व लूट-खसोट के इस भयानक दौर में भगत
सिंह के विचार काफी प्रासंगिक हो गये हैं। खासकर, साम्राज्यवाद,
धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक
वर्गों के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए एक क्रान्तिकारी पार्टी के
निर्माण व क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और
क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उनके विचारों को जानना और
उन्हें आत्मसात करना आज क्रान्तिकारी समूहों का फौरी दायित्व हो गया है।
अपने बयानों और लेखों में भगत सिंह ने क्रान्ति की अवधारणा एवं
क्रान्तिकारी संग्राम में विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में
काफी विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने कहा कि अगर कोई सरकार जनता को
मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का आवश्यक दायित्व बन जाता है कि
वह न केवल ऐसी सरकार को समाप्त कर दे, बल्कि वर्तमान ढांचे के सामाजिक,
आर्थिक और राजनैतिक क्षत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने हेतु उठ खड़ी
हो। उन्होंने क्रान्ति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘क्रांति से
हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी
हुई है, बदलनी चाहिए।… क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक
व्यवस्था की स्थापना से है जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता
हो, तथा एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी
युद्धों में उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।’ यह बयान
उन्होंने सेशन अदालत में तब दिया था जब जज ने उनसे क्रान्ति का मतलब पूछा
था। इस बयान से स्पष्ट होता था कि क्रान्ति के बारे में उनका दृष्टिकोण
कितना व्यापक था।
क्रान्ति में जनता के विभिन्न वर्गों व समूहों की भूमिका के बारे में भी
उनका दृष्टिकोण काफी साफ था। वे ऐसी क्रान्ति करना चाहते थे ‘जो जनता के
लिए हो और जिसे जनता ही पूरी करे’, और जिसका मतलब ‘जनता के लिए, जनता के
द्वारा राजनीतिक सत्ता पर कब्जा’ करना हो। इस तरह भगत सिंह का यह दृष्टिकोण
माओ की इस उक्ति से मेल खाती है कि जनता और केवल जनता ही क्रान्ति की
प्रेरक शक्ति होती है। भगत सिंह क्रान्ति में किसानों-मजदूरों की
महत्वपूर्ण भूमिका को बखूबी समझते थे। वे कहते थे कि ‘गांवों के किसान और
कारखानों के मजदूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं।‘ खासतौर पर वे श्रमिकों
की भूमिका पर जोर देते थे। उन्होंने कहा कि ‘साम्राज्यवादियों को गद्दी से
उतारने का भारत के पास एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है।’ इसी सन्दर्भ
में वे क्रान्ति के बाद ‘सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता’ की स्थापना करना
चाहते थे।
वे नौजवानों को भूमिका को भी अच्छी तरह समझते थे। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन एसोसियेशन के घोषणापत्र में यह कहा गया कि ‘देश का भविष्य
नौजवानों के सहारे है। वही धरती के बेटे हैं। उनकी दुःख सहने की तत्परता,
उनकी वेखौफ बहादुरी और लहराती कुर्बानी दर्शाती है कि भारत का भविष्य उनके
हाथ सुरक्षित है।’ इन वर्गों व समूहों के अलावा भगत सिंह ने ‘क्रान्तिकारी
कार्यक्रम का मसौदा’ शीर्षक लेख में बुद्धिजीवियों, दस्तकारों व महिलाओं को
भी संगठित करने पर जोर दिया। साथ ही, उन्होंने ‘कांग्रेस के मंच का लाभ
उठाने’, ‘ट्रेड यूनियनों में काम करने एवं उन पर कब्जा जमाने’ और सामाजिक व
स्वयंसेवी संगठनों (यहां तक कि सहकारिता समितियों) में गुप्त रूप से काम
करने का दिशा-निर्देश दिया। भगत सिंह ने अपने अनेक लेखों व वक्तव्यों में
साम्राज्यवाद व खासकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दमनकारी चरित्र के बारे में
चर्चा की है, लेकिन लाहौर षड़यन्त्र केस से सम्बन्धित विशेष ट्रिब्यूनल के
समक्ष 5 मई, 1930 को दिये गए बयान में उन्होंने साम्राज्यवाद की एक
सुस्पष्ट व्याख्या की है। इस बयान में कहा गया- ‘साम्राज्यवाद एक बड़ी
डाकेजनी की साजिश के अलावा कुछ नहीं है। साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों
मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी
अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों
एवं कानूनों को कत्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकांड भी आयोजित करते हैं।
अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते हैं।… शान्ति
व्यवस्था की आड़ में वे शान्ति व्यवस्था भंग करते हैं।’ खासतौर पर ब्रिटिश
साम्राज्यवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि ‘ब्रिटिश सरकार, जो असहाय और
असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गई है, गुण्डों, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों
की टोली है, जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सब
प्रकार की शक्तियां जुटाई हुई हैं। शांति-व्यवस्था के नाम पर यह अपने
विरोधियों या रहस्य खोलने वालों को कुचल देती है।’
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि भगत सिंह साम्राज्यवाद को मनुष्य व राष्ट्र
के शोषण की चरम अवस्था एवं लूट-खसोट, अशान्ति व युद्ध का स्रोत मानते थे।
उनकी यह व्यख्या साम्राज्यवाद की वैज्ञानिक व्याख्या के काफी करीब है।
क्रान्तिकारी खेमों के बीच भारत के पूंजीपतियों के चरित्र को लेकर काफी
विवाद है। कुछ संगठन व दल इसे ‘स्वतंत्र पूंजीपति वर्ग’ की संज्ञा से
विभूषित करते हैं, तो कुछ इसे ‘दलाल’ व ‘राष्ट्रीय पूंजीपतियों’ के वर्ग
में विभाजित करते हैं। इसी तरह कुछ इसे ‘साम्राज्यवाद के सहयोगी’ एवं
‘आश्रित वर्ग’ के रूप में भी चिह्नित करते हैं। लेकिन भगत सिंह व उनके
साथियों ने इसके समझौता परस्त व घुटना टेकू चरित्र को काफी पहले पहचान लिया
था। ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के घोषणा-पत्र (जिसे
मुख्यतः भगवतीचरण बोहरा ने लिखा था) में साफ शब्दों में कहा गया- ‘भारत के
मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है-एक तरफ
से विदेशी पूंजीवाद का और दूसरी तरफ से भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले
का। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है।
कुछ राजनैतिक नेताओं का ‘डोमिनियन’ स्वरूप को स्वीकार करना भी हवा के इसी
रूख को स्पष्ट करता है।
धार्मिक अंधविश्वास व कट्टरपंथ ने राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में एक बड़े
बाधक की भूमिका अदा की है। अंग्रेजों ने धार्मिक उन्माद फैलाकर
साम्प्रदायिक दंगे करवाये और जनता की एकता को खंडित किया। 1919 के
जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का
व्यापक प्रचार शुरू किया। खासकर, 1924 में कोहट में भीषण व अमानवीय
हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तो सभी प्रगतिशील व क्रान्तिकारी ताकतों को इस
विषय पर सोचने को मजबूर होना पड़ा। भगत सिंह ने मई, 1928 में ‘धर्म और हमारा
स्वतन्त्रता संग्राम’ शीर्षक एक लेख लिखा जो ‘किरती’ में छपा। इसके बाद
उन्होंने जून, 1928 में ‘साम्प्रदायिक दंगे और उसका इलाज’ शीर्षक लेख लिखा।
अन्त में गदर पार्टी के भाई रणधीर सिंह (जो भगत सिंह के साथ लाहौर जेल में
सजा काट रहे थे) के सवालों के जबाब में भगत सिंह ने 5-6 अक्तूबर, 1930 को
‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक काफी महत्वपूर्ण लेख लिखा।
इन लेखों में उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न किया। उन्होंने कहा कि
‘ईश्वर पर विश्वास रहस्यवाद का परिणाम है और रहस्यवाद मानसिक अवसाद की
स्वाभाविक उपज है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं से प्रश्न किया कि
‘सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, शोषण,
असमानता, दासता, महामारी, हिंसा और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता?’
उन्होंने माक्र्स की विख्यात उक्ति को कई बार दुहराया – ‘धर्म जनता के लिए
एक अफीम है।’ उन्होंने धार्मिक गुरूओं व राजनीतिज्ञों पर आरोप लगाया कि वे
अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिक दंगे करवाते हैं।
उन्होंने अखबारों पर भी आरोप लगाया कि वे ‘उत्तेजनापूर्ण लेख’ छापकर
साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं।
उन्होंने इसके इलाज के बतौर ‘धर्म को राजनीति से अलग रखने’ पर जोर दिया और
कहा कि ‘यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते
हैं, धर्मों में हम चाहें अलग-अलग ही रहें।’ उनका दृढ मत था कि ‘धर्म जब
राजनीति के साथ घुल-मिल जाता है, तो वह एक घातक विष बन जाता है जो राष्ट्र
के जीवित अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ता है,
जनता के हौसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुंधला बनाता है, असली दुश्मन
की पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मनःस्थिति को कमजोर
करता है और इस तरह राष्ट्र को साम्राज्यवादी साजिशों की आक्रमणकारी यातनाओं
का लाचार शिकार बना देता है।’
आज जब हमारे देश में राजसत्ता की देख-रेख में बाबरी मस्जिद ढाही जाती है और
गुजरात जैसे वीभत्स जनसंहार रचाये जाते हैं, तब भगत सिंह की इस उक्ति की
प्रासंगिकता सुस्पष्ट हो जाती है। जातीय उत्पीड़न के सम्बन्ध में भगत सिंह
ने अपना विचार मुख्य तौर पर ‘अछूत-समस्या’ शीर्षक अपने लेख में व्यक्त किया
है। यह लेख जून, 1928 में ‘किरती’’ में प्रकाशित हुआ था। उस वक्त अनुसूचित
जातियों को ‘अछूत’ कहा जाता था और उन्हें कुओं से पानी नहीं निकालने दिया
जाता था। मन्दिरों में भी उनका प्रवेश वर्जित था और उनके साथ छुआछूत का
व्यवहार किया जाता था। उच्च जातियों, खासकर सनातनी पंडितों द्वारा किए गए
इस प्रकार के अमानवीय व विभेदी व्यवहार का उन्होंने कड़ा विरोध किया।
उन्होंने बम्बई काॅन्सिल के एक सदस्य नूर मुहम्मद के एक वक्तव्य का हवाला
देते हुए प्रश्न किया- ‘जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी
इन्कार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते-तो तुम्हें
क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकार की मांग करो।’
छुआछूत के व्यवहार पर भी आपत्ति जाहिर करते हुए कहा- ‘कुत्ता हमारी गोद में
बैठ सकता है, हमारी रसोई में निःसंग फिरता है। लेकिन एक इन्सान का हमसे
स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।’ जब हिन्दू व मुस्लिम
राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूत्र्ति के लिए ‘अछूतों’ को धर्म के
आधार पर बांटने लगे, और फिर उन्हें मुस्लिम या ईसाई बनाकर अपना धार्मिक
आधार बढ़ाने लगे, तो उन्हें काफी नाराजगी हुई। उन्होंने अछूत समुदाय के
लोगों का सीधा आह्वान किया- ‘संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे
समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से
इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो, दूसरे के
मुंह की ओर मत ताको।’ लेकिन साथ ही साथ, उन्होंने नौकरशाही से सावधान करते
हुए कहा- ‘नौकरशाही के झांसे में मत पड़ना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं
करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चहती है। यही पूंजीवादी
नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है।’ इसी सिलसिले में
उन्होंने उनकी अपनी ताकत का भी अहसास दिलाया। उन्होंने कहा- ‘तुम असली
सर्वहारा हो। तुम ही देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोये हुए
शेरों उठो, और बगावत खड़ी कर दो।’ भगत सिंह का यह आह्वान काफी मूल्यवान
है-खासकर ऐसे समय में, जब आज भी क्रान्तिकारी ताकतें दलितों पर होने वाले
जातीय व व्यवस्था जनित उत्पीड़न के खिलाफ कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पा
रही हैं। भगत सिंह आज भी भारतीय जनता के मार्गदर्शक हैं।