राखी
स्नेहपूर्ण मृदुल त्यौहार है। एक युग था जब इसे रक्षा के त्यौहार के रूप में मनाया
जाता था। लेकिन उस रूप में उस का महत्व तभी तक रह सकता है जब कि समाज में रक्षक और
अरक्षित दोनों हों और रक्षा का दायित्व निभाने को तैयार हों। राखी को भाई-बहन के
मधुर सम्बन्धों से भी जोड़ कर देखा जाता है। लेकिन उन का संबंध तो सहोदरता का है
जो ऐसा स्थाई संबंध है कि तोड़े भी नहीं टूट सकता है। फिर एक धागे में ऐसा क्या है
जो उन्हें अपने दायित्वों कर्तव्यों का बोध करा दे?
जब हम
बहन द्वारा भाई को राखी बांधे जाने की बात करते हैं तो सहज ही उस मूल्य का शिकार
हो जाते हैं जो यौनिकता के आधार पर मनुष्य मनुष्य में भेद करता है। यौनिकता के
आधार पर स्त्री रक्षिता हो जाती है और पुरुष रक्षक। यौनिकता के आधार पर किया जाने
वाला यह भेद समाज से मिटना चाहिए। यौनिकता अपने स्थान पर है लेकिन उस के आधार पर
सामाजिक भेद की समाप्ति जरूरी है।
बहनें
राखी बांधती हैं और भाई बंधवाते हैं और बहिन को अच्छी से अच्छी भेंट देना चाहते
हैं, लेकिन वही दे पाते हैं जिस से उन का अपनी अपनी पत्नियों से जो खुद भी किसी न
किसी की बहिन हैं बिगाड़ न हो जाए। पर तमाम भाई लोग यह सारी इस कारण निभा रहे हैं
कि कहीं बहिन माता पिता की संपत्ति में हिस्सा न मांग ले। अदालतों में खूब मुकदमे
चल रहे हैं जो बहनों ने अपने माता पिता की संपत्ति में हिस्सा लेने के लिए किए
हैं। वहाँ न बहिन भाई को राखी बांधती है और न भाई बंधवाने को तैयार है। भाई कहता
है काहे की राखी, कैसी राखी? बाप की जमीन में हिस्सा तो मांग लिया।
इस राखी
पर भाई ये प्रण करें कि माता पिता की संपत्ति में जो भी हिस्सा बहिन कानून के
अनुसार है उसे स्वयं अपनी बहन को दे देंगे तो फिर देखिए भाई बहनों के बीच स्नेह की
कैसी संसृष्टि होती है? पर यह मक्खन किसे चाहिए?
मेंरे
दादा जी ज्योतिषी और पुरोहित थे। राखी पर उन के यजमानों के काम करने के उपकरणों को
राखी बांधने जाते थे। यह उन की ओर से एक प्रकार की शुभकामना होती थी। उन के और
यजमानों के बीच कभी फीस (दक्षिणा) नहीं रही। वे अपने यजमानों का काम बिना किसी
अपेक्षा के दायित्व-बोध से करते थे। यही दायित्व-बोध उन के यजमानों में भी था। उन
का कभी कोई काम न रुका। अपने यजमानों पर इतना अधिकार भी रखते थे कि उन्हें हमें
धमकी देनी होती तो कहते -गाँव चला जाउंगा, मांग कर खा लूंगा। अपने जीवन की न्यूनतम
आवश्यकताओं के लिए यजमानों से मांगना उन का अधिकार था। लेकिन आज यह
पारिवारिक-सामाजिक दायित्व-बोध का भाव इस भाववादी दुनिया से कहीं गायब हो चुका है।
यह
दायित्व-बोध राखी बांधने से उत्पन्न नहीं होता। यह भावनाओं से भी उत्पन्न नहीं
होता। यह समानता के साथ से पैदा होता है। हम परिवार और समाज में सब को समान समझें।
केवल समझें ही नहीं, यह हमारे भौतिक व्यवहार में आए और सब की आदत बन जाए। वैसे ही
जैसे किसी एक रास्ते पर रोज जाने की आदत बनती है। आप वाहन की ड्राइविंग सीट पर
बैठे होते हैं आप के हाथ स्टीयरिंग को रोज चलने वाले रास्ते पर जाने के लिए
नियंत्रित करते रहते हैं, उस के लिए मस्तिष्क को इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं
पड़ती।
इस का
एक ही उपाय है, हम भाववाद (आदर्शवाद, दिखावा) का त्याग करें। यथार्थ की जमीन पर आएँ। हम में बोध हो कि
परिवार में सब समान हैं भाई-बहिन भी और स्त्री-पुरुष भी। परिवार में भी और समाज
में भी सभी एक दूसरे के लिए हैं, सब मिल कर किसी एक की आवश्यकता को पूरा कर सकते
हैं। यह हमारी आदत बने, व्यवहार में दिखाई
दे, तब किसी को किसी भी चीज का अभाव नहीं खल सकता, न भौतिक वस्तुओं का न ही प्यार
और स्नेह का।
राखी के
इस त्यौहार का उद्घोष "हम सब साथ साथ हैं" होना चाहिए।