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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का तृतीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग तृतीय

पिछले अंक से आगे ......

...... 
और यह कविता ---
वेश्या है  !
विद्यापति - केशव - भूषण
बैरन - कीटस् - पोप
कौन नहीं था वहाँ ....
उस के साथ उन के 
क्या रिश्ते थे ? 
बहुत तो पीते भी थे
उमर खैयाम
जिसे जामे शराब में
अल्ला का 
दीदार हो जाता था
लेकिन मेरी जहालत 
उसे नहीं दिखाई देती थी
और,
जब मैं 
अपने जिस्म के 
फोड़ों के दर्द से 
चीख उठत
तो यह कविता
मुझे मूर्ख कहती थी
मुझे चुप रहने का
आदेश कराती थी
आत्मतोष का 
प्रवचन सुनवाती थी
तब मेरे फोड़ों पर
दो - चार हंटर
और पड़ जाते 
और मेरे घाव ...
मुक्ति पुरुष !
आज तुम ने
मुझे छेड़ा है
मेरे फफोलों को 
खुरचा है,
मैं आज तक 
सच नहीं बोला था
(बोला ही नहीं था)
लेकिन 
आज सुन लो
सच कहता हूँ -
जी में आया
कि इन शास्त्रों में
आग लगा दूँ
और जेलर के 
उन भड़ैतों को 
और इस वेश्या को 
उठा कर 
उसी में फेंक दूँ
लेकिन .......
इस वेश्या को 
अपना पाठ पढ़ा कर
(साहित्य पढ़ा कर)
हर बार जेलर 
मेरे पास भेजता था
मेरी पीठ पर 
संगीन टिकी होती थी
यह चुड़ैल
घण्टों बक - झक करती
और मैं
जेल के
खेत गोड़ता
या बिक्री के 
जूते सीता
चुप - चाप सुना करता था
यह राक्षसी
मेरे दर्द
मेरी खैरियत
और मेरी मुक्ति के सिवा
हर बात करती थी
और फिर
जेलर के 
लोगों के साथ
फरनासस--
या, कहाँ जाती थी
क्या करती थी,
हम में से
किसी को नहीं मालूम

एक दिन 
कह रही थी 
कि मेरी 
हर बात याद कर लो
तुम्हें भी
मेरी तरह
सब मौज आराम
नसीब हो जाएगा

और मार्क्स दादा !
जानते हो
सेल नम्बर - 6 की
उस लड़की को ?
नगमा नाम है उस का--
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

रविवार, 26 सितंबर 2010

घर और दफ्तर बदलने की गैर हाजरी

पूरे एक सप्ताह अंतर्जाल से संपर्क नहीं रहा। नया मकान बनाने की प्रक्रिया प्रारंभिक दौर में है। जहाँ मकान बनना है उस के पास ही अपने मित्र के बिलकुल नए मकान को अपने रहने और कार्यालय के लिए ले लिया है और पिछले रविवार को यहाँ आ गया हूँ। मकान को खाली करना, सारा सामान ले कर नए मकान में आना, अपने आप में बहुत जटिल काम है। एक सप्ताह पहले से सामानों की करीने से बांधना शुरु हुआ। नए मकान में आ कर सब को खोलना और उन के लिए उचित स्थान तलाश कर जमाना और रहने योग्य बनाना। इसी में लगा रहा। अभी कार्यालय पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो सका है। लगता है इस काम में पूरा महीना लग जाएगा।नए मकान की स्थिति ऐसी है कि वहाँ से अदालत, नगर के मु्ख्य बाजार बस स्टेंड दो किलोमीटर की परिधि में हैं, और रेलवे स्टेशन 5 किलोमीटर। आकाशवाणी केंद्र, कला दीर्घा, छत्रविलास बाग और तालाब एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर।
पना बेसिक टेलीफोन नए मकान में लगाने के लिए पिछले शनिवार को आवेदन किया था। सोमवार को भारत दूर संचार निगम के अपने मित्रों को संपर्क किया तो उन्हों ने बताया कि तंत्र को आधुनिक किया जा रहा है, प्रणाली में नए सोफ्टवेयर आए हैं। लेकिन अभी उन के साथ काम करने में बहुत जटिलताएँ हैं। इस लिए एक सप्ताह लग सकता है। टेलीफोन संयोजन ठीक से लगे और काम करने लगे इस के लिए संचार निगम के कम से कम पाँच मित्र प्रयासरत रहे। तब जा कर कल शनिवार शाम अंतर्जाल आरंभ हो सका। एक सप्ताह इस विश्वग्राम से अलग रह कर वापस लौटा हूँ। इस बीच हिन्दी ब्लाग दुनिया में बहुत कुछ लिखा गया है और घटित हुआ है। रोजमर्रा के वकालत के तमाम कामों के साथ घर और दफ्तर को ठीक से आकार लेने में समय लगेगा। शायद पूरा माह लगे। फिर इस मकान में भी घर और दफ्तर छह-आठ माह से अधिक नहीं रहना है। यह सोच कर अनेक वस्तुओं को अपने बंधन में ही बंधे रहने को बाध्य रहना होगा। अंतर्जाल ने चालू होते ही दुखद समाचार दिया कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे। मेरा उन से केवल एक बार मिलना हुआ। मेरे गुरुजी अशोक शुक्ल ने उन्हें एक कविसम्मेलन में बाराँ बुलाया था। वे अच्छे कवि थे, विवादों से बहुत दूर। एक अच्छे संपादक भी जिन्हों ने अपने  प्रकाशक-नियोजकों और लेखकों को एक साथ संतुष्टि दी। नियोजकों के लिए वे संकटहरन भी सिद्ध हुए। विशेष रुप से तब जब टाइम्स समूह ने कमलेश्वर को हटा कर सारिका का सम्पादन उन्हें सौंपा। नंदन जी को आत्मीय श्रद्धांजलि। आज दिल्ली में उन की अंत्येष्टि है। बहुत लोग उस में हाजिर होंगे। लेकिन इस से इरफान भाई के व्यंग्य-चित्रों की प्रदर्शनी के उदघाटन समारोह में कुछ लोगों की उपस्थिति  प्रभावित हो सकती है। 
रफान भाई की प्रदर्शनी के चित्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस समय में राजनीति और सामाजिक व्यवहारों पर सब से तीखे व्यंग्य करते हैं। उन की प्रदर्शनी प्रेस क्लब दिल्ली में अगले दस दिनों तक रहेगी। दिल्ली वालों को और इस बीच दिल्ली आने वालों को यह प्रदर्शनी अवश्य देखनी चाहिए। मैं आवास-कार्यालय बदलने के कारण उत्पन्न व्यस्तता के कारण शायद यह प्रदर्शनी नहीं देख सकूँ। इरफान भाई को इस प्रदर्शनी की सफलता के लिए शुभकामनाएँ!!!
पुराने मोबाइल से सूर्योदय तुरंत पहले  नए घर से कुछ चित्र लिए हैं। यहाँ पेश-ए-नजर हैं। 

ऊषा

मकान के ठीक पूर्व में स्थित मैरिज गार्डन

उषा से आलोकित
मैरिज गार्डन

सविता

रविवार, 19 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-2


यादवचंद्र पाण्डे
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का द्वितीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग द्वितीय


पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा .....

या फिर 
मुझे फुसलाते हो
कि मैं 
अपनी बिरादरी से 
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में 
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर 
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का 
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का 
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर 
पर्दा डालेंगे !
लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक्  थू -- ह !
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
अब आगे पढ़ें .......
तुम कौन हो ? 
मेरे सिर पर 
यह प्यार भरा हाथ
क्यों फेर रहे हो ?
......      ........     ........
हाथों का यह स्पर्श 
......      ........     ........
उफ, याद नहीं आता.....  !
हाँ,
बचपन में 
जेलर के चुपके
एक दिन 
मेरी माँ ने भी
ऐसा ही
ऐसा ही था वह स्पर्ष  !
जब कि 
जेलर ने
माँ से 
मुझे छीन लिया
और मैं
साइबेरिया
अण्डमान
मडागास्कर
भेज दिया गया
काठ के लम्बे - चौड़े
बक्सों में बन्द कर 
मुझे समुद्र की 
लहरों में फेंक दिया गया
और मेरी माँ
.....     .....     .....     .....
कुछ याद नहीं आता
.....     .....     .....     .....
कौन हो तुम
ओ घनी दाढ़ी वाले
महाकाय, निर्भय पुरुष  !
तुम कौन  हो  ?
तुम भीगी - भीगी आँखों से 
मुझे क्यों देख रहे हो  ?
अपने विशाल वक्ष में
चिपका कर 
मुझे क्यों भींच रहे हो
ओ दिव्यचेता  !


तुम चाहते क्या हो  ?
मेरे पाँवों में पैकर
और हाथों में
बेड़ियाँ हैं,
मैं तुम्हारा 
क्या स्वागत करूँ  ?
मेरी हर साँस 
मेरे लिए 
नागन बन गई है,
सूरज - चांद - तारे भी
खुफिया बन कर 
मेरी हर हरकत पर
नजर रखते हैं
मैं तुम्हारी क्या सुनूँ ?
मेरे जीवन का 
हर चरण, छन्द
हर ध्वनि, अर्थ
हर राग - विराग
मेरा उल्टा बिम्ब है
मेरी हर इकाई को ले कर 
चाहे जितने फार्म बन जाएँ
लेकिन उन में 
मेरा अपना कुछ नहीं,
जेलर का अपना है
मेरा सपना 
जेलर का सपना है
तुम्हारा स्नेह - स्पर्श
शीतल हो कर भी
मेरे शब्द - ज्ञान द्वारा
मुझे जला रहा है
ओ अमृत पुरुष  !
तुम्हारे चरक - सुश्रुत
की हर खुराक
मेरे व्याधि अनल में
तेल ही डालेगी
मेरे सिर से
अपने हाथ हटा लो
ओ युगाधार  !
इस यज्ञ में
अब और घृत मत डालो
मेरे खून से तर
फटे - चिटे वस्त्रों को 
सूलियों के नीचे से
ला - ला कर 
यहाँ अम्बार 
क्यों लगाते हो  ?
महाबाहो  !
आखिर तुम 
चाहते क्या हो  ?
मुक्ति  ?
लेकिन किस की  ?
उस वर श्रेष्ठ की 
जो हमारे 
दुश्मन की कारा में
आज
चार हजार वर्षों से 
कैद है
और जिस के बिना 
कवि की कविता 
आज तक 
अनब्याही है  ?
लेकिन 
तुम नहीं जानते
अब वह वेश्या है  !
मुझ से छीन कर 
फिरदौसी ने
उसे जेलर की 
कोठरी में नचाया
कालिदास, बाणभट्ट
भवभूति ने 
उसे नंगा नचा कर 
जेलर से पैसे कमाए
उस के शास्त्रों में
नाम कमाया,
होमर
और उस के ईलियड से पूछो
उस के सामने 
मुझ पर हंटर बरसाये जा रहे थे
मेरी चमड़ी उधेड़ी जा रही थी
और वह 
मुझ से आँख चुराये
अपना श्रंगार कर रही थी
शास्त्रों के मंगलाचरण 
और भरत वाक्य पढ़ कर देख लो
वह हँस - हँस कर 
मुझे शान्त रहने का
आदेश दे रही थी,
कभी जेलर के साथ
कभी उस के भगवान के साथ
(पता नहीं
भगवान क्या था
कैसा था
मैं ने उसे 
नहीं देखा
लेकिन, हर सुबह - शाम
मैं जेलर की 
कोठरी के सामने
बने एक विशिष्ट मकान में
लाया जाता था 
और मुझे 
समझा कर
भय - त्रास दिखा कर 
उस भगवान पर 
यकीन कराया जाता था)
रंगरेलियाँ मनाती रही,
मुझे छोड़ कर 
वह 
हर शख्स के साथ जाती रही
जो मुझे मारता था
मेरा खून बहाता था
मुझे खाना नहीं देता था
मुझे रोने नहीं देता था
या मेरी बेड़ियों को 
मजबूर हो कर देखता था
और मेरे घर की 
औरतों को
सामान कह कर बेच देता था 
और यह कविता ---
वेश्या है  !


...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

सूचना - 
मित्रों ! कुछ कारणों से एक-दो दिन या कुछ अधिक अंतर्जाल संबंध विच्छेद रहेगा। आप को अनवरत के अगले अंक की प्रतीक्षा करने के लिए कष्ट उठाना पड़ेगा।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-1

यादवचंद्र पाण्डे
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिर्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का प्रथम भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग प्रथम


तुम्हारी सभ्यता के 
हजारों वर्षों में
मेरी कविता
 
अनब्याही रही,
क्यों कि
उस का मंगेतर
जो धरती की
सभ्यता, संस्कृति
सुख, सौष्ठव
ज्ञान, विज्ञान
औ समृद्धि का
हकदार था
तुम्हारी कारा का
कैदी है

बचपन में
तुम ने उसे
बहलाया - फुसलाया
पूतना की तरह
दूध पिलाया
और चण्डाशोक की तरह
उस के गोत्र के
हर औरत-मर्द को
कत्ल किया
औऱ जो भाग निकले ?
उन पर
इतिहास - भूगोल
दर्शन - ज्ञान
विज्ञान - धर्म
साहित्य - विधि
कानून - नीति
औ संविधान के
हथियार बंद पहरे बिठाये

तुम ने 
जिन पर रियायतें की
उन को
लम्बी सजाएँ सुनाई -
कि चार हजार वर्ष
सश्रम कारावास के बाद
उन्हें जेल के
बाहरी हाते में
घूमने - फिरने की
छूट मिलेगी
उन्हें
उन के श्रम का
एक हिस्सा भी मिलेगा
हाँ, 
यह सब
संगीनों की
छाँव में होगा
मैं गवाह हूँ
इन बातों का
गवाह है -
मेरी पीठ का
हर काला निशान
गवाह है -
मेरी भूख 
गुर्बत
जहालत और फटेहाली की
दम तोड़ती
उखड़ी - उखड़ी चलती
मेरी हर साँस
गवाह है -
तुम्हारी नपुंसक मुसकान
जो झूठी सभ्यता
औ संस्कृति का 
लबादा ओढ़े,
हिजड़ों - बौनों
औ कुबड़ों की
अपनी महफिल में 
रामगुप्त की तरह
जिन्दा होने का
स्वांग भर रही है
गवाह हैं
उस धरती के 
चार अरब लोग
जिन का जन्म 
तुम्हारी कारा में हुआ
और आज वे 
बालिग हो गए हैं
वे आज भी
तुम्हारी दरी बुनते हैं
बोझ उठाते हैं
जूते, बॉक्स 
औ पर्स बनाते हैं
सामने के हाते में
आलू - गोभी
टमाटर उगाते हैं
रस भरे गन्ने
औ छीमियों की  
कतार सजाते हैं
पानी पटाते
गुलाब में
जो तुम्हारे बटन होल
या जेलर ऑफिस -
की मेज पर 
जीवन के
अनुराग की तरह
दमक रहे हैं।
मतलब कि 
दरी से -
पेन्सिलिन और रॉकेट तक,
टमाटर से -
मसाला और कॉफी तक,
जिन्हें बेच कर 
अरबों - खरबों की 
तुम रकम कमाते हो
(लूट लाते हो)

तुम अपनी अदालत में
हम से
वही कबूल कराते हो
जो तुम 
कहना चाहते हो। 
हमें भूखा मार कर 
अपने स्कूल कॉलेजों में
बयान तहरीरी रटवाते हो
मण्डन मिश्र के 
तोते की तरह

या फिर 
मुझे फुसलाते हो
कि मैं 
अपनी बिरादरी से 
गद्दारी करूँ
अपने गिरोह में 
खुफियागिरी करूँ
अपने परिवार पर 
झूठा इलजाम गढ़ूँ
और उन के हिस्से का 
दो फाइल खाना
तुम मुझे दोगे
मैं खाऊँगा
औ तुम्हारे धर्म
उसे भाग्य का 
अटूट नियम बता कर
मेरे कुकृत्यों पर 
पर्दा डालेंगे !

लेकिन मैं ?
मैं तुम्हारे चेहरे पर थूक दूंगा
आ ----- थू !
आक् ----- थू !
आक्  थू ---- ह !

**************
अगले अंक में जारी..........

बुधवार, 15 सितंबर 2010

हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति

हिन्दी के बारे में स्वयं हिन्दी भाषियों में बहुत से भ्रम स्थापित हैं। जरा निम्न तथ्यों पर गौर कीजिए। शायद आप के कुछ भ्रम दूर हो जाएँ, जैसे मेरे हुए।


१. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है,
२. वह सबसे अधिक सरल भाषा है,
३. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है,
४, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं।
५. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है।
६. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
७. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासमार्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
८. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
९. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
१०. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही।
११. हिन्दी भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन है।
१२. हिन्दी भारत की सम्पर्क भाषा है।
१३. हिन्दी भारत की राजभाषा है।


  • यह पोस्ट पूरी तरह से विकिपीडिया से उड़ाई गई सामग्री पर आधारित है।  

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है, वह मुझे कभी ओछी नहीं पड़ती

म हिन्दी भाषी हैं, हमें हिन्दी से अनुराग है और स्वयं को इस भाषा में सब से अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं। हम में से अनेक हैं जो अंग्रेजी और दूसरी अन्य भाषाओं को जानते हैं और बहुत से उन भाषाओं में पारंगत है। कोई कोई तो इतने अधिक पारंगत हैं कि उन्हें हिन्दी ओछी पड़ने लगती है। वे समझते हैं कि वे स्वयं को हिन्दी से भी अच्छी तरह से अंग्रेजी या दूसरी भाषा में अभिव्यक्त कर सकते हैं। फिर वे अंग्रेजी की वकालत और हिन्दी के ओछे पन की बातें करते हैं। कभी वे कहते हैं कि हिन्दी में तकनीकी काम कर पाना संभव नहीं है, अदालतों का काम हिन्दी में संभव नहीं है, एक अच्छे उपन्यास का अच्छा अनुवाद हिन्दी में संभव नहीं है आदि आदि......
मुझे हिन्दी कभी ओछी नहीं पड़ती। मैं हिन्दी में कुछ भी कह सकता हूँ। यह भी हो सकता है मैं किसी दूसरी भाषा में पारंगत नहीं हो सकने के कारण ऐसा समझता होऊँ। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैं चाहूँगा कि मैं कभी भी किसी अन्य भाषा में पारंगत नहीं होऊँ। यदि हो भी गया तब भी मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को कभी भी अपनी भाषा के मुकाबले किसी भी अन्य भाषा में सहज रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
मैं वकील हूँ। अदालत में हिन्दी भाषा का प्रयोग करता हूँ। मुझे हिन्दी का उपयोग करने में कभी भी परेशानी नहीं आई। चाहे कानून  की किताबें अंग्रेजी में हैं। कभी मुझे अंग्रेजी के कुछ खास शब्दों के पारिभाषिक हिन्दी शब्द नहीं मिलते। लेकिन मैं अधिक परेशान नहीं होता। वहाँ अंग्रेजी के शब्दों से काम चला लेता हूँ। यदि में कुछ सौ शब्द अंग्रेजी के उपयोग में लेता हूँ तो इस से मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती और न ही मेरी हिन्दी भ्रष्ट हो जाती है। मेरा मूल उद्देश्य यह होता है कि मैं अपनी बात को कैसे बेहतरीन तरीके से कह सकता हूँ। मुझे इस बात से भी कोई परेशानी नहीं है कि मेरी हिन्दी में कुछ शब्द अरबी, फारसी या किसी और मूल के हैं। मैं यह जानता हूँ कि मेरी भाषा हिन्दी है। मैं न्यायाधीश महोदय को जज साहब बोलता हूँ तो मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती वह हिन्दी ही रहती है।
कुछ लोग अंग्रेजी का साहित्य पढ़ते हैं बहुत आनंदित होते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी किताब हिन्दी में नहीं लिखी जा सकती या उस खास किताब का अनुवाद हिन्दी में नहीं किया जा सकता, यदि किया भी जाए तो वह उतना अच्छा नहीं हो सकता जैसा कि मूल है। लेकिन यह तो उन की सोच है। एक व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता या कम जानता है। वह उस पुस्तक को या तो पढ़ नहीं सकता। पढ़े तो भी उतना आनंदित शायद न हो जितना वे सज्जन खुद हुए हैं। लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है? दुनिया में किसी के आनंदित होने के लिए और भी बहुत सी पुस्तकें और दूसरी चीजें हैं। यदि वह पुस्तक कुछ अनुभव या ज्ञान बांटती है तो एक हिन्दी भाषी को उस का खराब अनुवाद भी आनंदित करेगा। यह भी हो सकता है कि उस पुस्तक का खराब अनुवाद किसी अच्छे अनुवादक को अच्छा अनुवाद करने को प्रेरित कर दे। यह भी हो सकता है कि अनुवादक एक मूल पुस्तक को उस से भी अच्छे तरीके से अनुवाद में प्रस्तुत कर दे।
हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है। मैं उसे सब से अच्छे तरीके से बोल, पढ़, लिख और समझ सकता हूँ, स्वयं को उस के माध्यम से सब से अच्छे तरीके से अभिव्यक्त कर सकता हूँ। मुझे गुड़ पसंद है, चीनी नहीं। मुझे आप श्रेष्ठतम चीनी ला कर खिला भी देंगे तो भी मुझे गुड़ ही अच्छा लगेगा।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

लालच में कैद सोच !!!

निवार की सुबह जयपुर निकलना था। सुबह छह बजे महेश जी टैक्सी समेत आ गए। बरसात के कारण सड़क खराब थी। आम तौर पर जो मार्ग साढ़े तीन-चार घंटों में तय हो जाता है उस में साढ़े पाँच घंटे लग गए। हमें कई स्थानों पर जाना था। टैक्सी ड्राइवर टैक्सी को बाहर खड़ा रखता। हर बार जब भी हम काम से निपट कर टैक्सी पर लौटे ड्राइवर टैक्सी पर तैयार मिला। जयपुर से वापसी में हमें रात के साढ़े आठ बज गए। हम दोनों टैक्सी की पिछली सीट पर ही रहे थे। ड्राइवर से अधिक बात करने का अवसर नहीं मिला। लेकिन जैसे ही हम जयपुर से कुछ दूर गए होंगे। महेश जी ने लघुशंका के लिए कार रुकवाई और मुझे आगे बैठने को कहा, शायद उन्हें नींद आ रही थी। मैं आगे की सीट पर ड्राइवर के साथ आ गया।
मैं ने ड्राइवर से बातचीत आरंभ की। वह चूरू का रहने वाला था और कोटा में नौकरी कर रहा था। उस की उम्र यही कोई 20-25 वर्ष के बीच रही होगी। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह घर से बहुत दूर नौकरी करता है। उसी ने बताया कि उसे चार हजार रुपए मिलते हैं और वह कोटा में टैक्सी मालिक के साथ ही रहता है, उस का भोजन भी वहीं बनता है। बात ही बात में वह बताने लगा कि जब टैक्सी ले कर काम पर निकलता है तो मालिक उसे पैसा नहीं देता। उसे सवारी से ही लेना पड़ता है चाहे टैक्सी के लिए डी़जल डलवाना हो या उस के अपने खर्चे के लिए हो। मालिक तो उसे खाने के पैसे भी नहीं देता और नाइट के पैसे भी नहीं देता। जब कि पैसेन्जर से वह नाइट के अलग पैसे चार्ज करता है। उस का कहना था कि खाने का जुगाड़ भी पैसेंजर के साथ ही करना होता है या फिर अपनी जेब से देना होता है।
मैं ने उस से पूछा कितने घंटे गाड़ी चलानी पड़ती है। बताने लगा, मैं 72 घंटे तक लगातार गाड़ी चला चुका हूँ। रात को दो बजे गाड़ी ले कर लौटा था। फिर चार बजे उठना पड़ा। अब आप के साथ हूँ। सुबह फिर पाँच बजे अगली बुकिंग पर जाना है। मैं ने कहा तुम बीच में विश्राम नहीं करते? उस का उत्तर था कि जब गाड़ी कहीं खड़ी होती है तो नींद निकाल लेता हूँ।  रात को बारह बजे के कुछ देर पहले गाड़ी मिडवे पर एक रेस्टोरेंट पर उस ने खड़ी की। दिन में उसने हमारे साथ ही भोजन किया था। मुझे लगा कि उसे भूख लगने लगी होगी। मैं ने ड्राइवर से पूछा तो कहने लगा वह चाय पिएगा। खाना खाएगा तो शायद नींद आने लगे। मुझे भय लगने लगा, हो सकता है थकान के कारण वह रास्ते में झपकी ले ले। मैं ने महेश जी को जगाया। पूछा कुछ खाना-पीना हो तो खा-पी लो।
हेश जी उतर कर आए तो कहने लगे दाल-रोटी खाएंगे। मैं ने ड्राइवर से फिर पूछा तो कहने लगा - मैं भी खा ही लेता हूँ। रात को दो बज जाएंगे वहाँ खाना मिलेगा नहीं। तीनों के लिए दाल-रोटी आ गई। हम आधे  घंटे में वापस गाड़ी में थे। रोटी खा लेने का असर ये हुआ कि मुझे झपकी लगने लगी। मैं जबरन अपनी नींद को रोकता रहा। ड्राइवर से बात करता रहा। उस ने बताया कि वह तीन-चार माह इस गाड़ी पर काम कर लेता है। फिर दो माह के लिए वापस गाँव चला जाता है। दूसरे ड्राइवर तो एक माह से अधिक काम नहीं कर पाते। मैं ने उसे कहा -तुम बीच में अपने मालिक से आराम का समय देने को नहीं कहते। वह बोला -अभी एक सप्ताह पहले कहा था तो मालिक कहने लगा मैं दूसरे ड्राइवर को बुला लेता हूँ, तुम सुबह हिसाब कर जाना। अब मुझे एक माह ही हुआ है वापस लौटे। बस दो माह और काम करूंगा, फिर गाँव जाऊंगा। हो सकता है इस बार इस मालिक के यहाँ काम पर न लौटूँ। रात ढाई बजे गाड़ी मेरे घर पर थी। मैं सोच रहा था -टैक्सी ऑपरेटर कमाने के चक्कर में न केवल ड्राइवरों का शोषण करते हैं बल्कि ड्राइवरों को आराम का पर्याप्त समय न दे कर वे सवारियों की जान के साथ भी खेलते हैं। सही है पैसा कमाने का जुनून और लालच ने लोगों की सोच को ही बंदी बना लिया है।