@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

अकर्मण्यता का शिकार एक बेहद बकवास अदालती दिन

ल का दिन बहुत बकवास और फालतू दिन था, कम से कम मेरे लिए। कुल छह मुकदमे थे। सारे के सारे अन्तिम बहस के लिए निश्चित थे। मैं ने सभी मुकदमों में तैयारी की। इस भरोसे कि मौका मिला तो सभी में अंतिम बहस कर डालूंगा। कम से कम कुछ में तो निर्णय हो सकेगा। लेकिन सब कुछ मेरे अकेले के सोचने से थोड़े ही हो सकता है। एक मुकदमे में मेरे ही सेवार्थी (मुवक्किल) की माँ का देहान्त हो गया था। वह पेशी पर नहीं आ सकता था। सेवार्थी की अनुपस्थिति में मुकदमे में बहस करना कुछ अच्छा नहीं लगता। फिर भी केवल इसलिए कि मुकदमा किनारे लगे, मैं उस में बहस को तैयार था। पता नहीं क्यों उस मुकदमे में जज खुद बहस सुनने को तैयार नहीं। सामने वाला वकील भी एक बजे तक अदालत में नहीं आया। मौका देख कर अदालत ने तारीख बदल दी। इस मुकदमे में मेरे पक्ष की बहस लगभग सुनी जा चुकी है,  वह भी चार बार में पूरी विस्तारित रुप में। अदालत का खुद का मानना था कि अब उस में समय नहीं लगेगा और मैं एक ही दिन में उसे पूरी कर दूँ। निश्चित रूप से मुझे अवसर मिलता तो मैं एक घंटे से भी कम समय में बहस पूरी कर देता। पर क्या कहा जाए? इस मुकदमे  में मेरा सेवार्थी हाईकोर्ट से निर्देश ला चुका है कि दो माह में इस का निर्णय किया जाए। फिर भी किसी न किसी बहाने यह निर्णीत नहीं हो रहा है। निर्देश को लाए छह माह से भी अधिक समय हो चुका है। खैर निर्देश की लाज रखते हुए अदालत ने उस में चार दिन बाद की तिथि बहस हेतु नियत की है।

गला मुकदमा भी उसी अदालत में है और दस वर्ष से चल रहा है। पिछले चार बरस से तो वह अन्तिम बहस में चल रहा है। कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता है। बात मामूली है लेकिन न जाने क्यो अदालत उसे भारी समझती है। इस मामले में मेरा सेवार्थी हर पेशी पर आता है और अदालत पर सुनवाई के लिए दबाव बनाता है, वह अदालत को अनेक बार यह कह चुका है कि मुकदमे का निर्णय कर दिया जाए। चाहे उस के विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन आज यह सेवार्थी भी अदालत नहीं आया। यह कुछ राजनैतिक गतिविधियों में संलग्न रहता है। इन दिनों पंचायतों के चुनाव चल रहे हैं। हो सकता है उसी कारण न आया हो। मुझ से भी उस ने कोई संपर्क नहीं किया। अदालत ने उसे भी गैर हाजिर देख मुकदमे को नहीं सुना।  मैं ने उस में जल्दी की तिथि तय करने की बात कही तो अदालत ने कहा हम खुद जल्दी की तिथि देंगे। लेकिन तिथि तय हुई कोई बयालीस दिन की। लगता है अदालत के जज मूडी होते हैं वे वही करते हैं जो उन्हें करना होता है। इन दोनों मुकदमों में भी यही स्थिति है। इन में समय खपाना पड़ेगा। कम से कम आठ दस घंटों का तब जा कर उन में निर्णय हो सकेगा। अदालत में मुकदमों का अम्बार है। अदालतें ऐसे सर खपाऊ मुकदमों को क्यों सुने?  जब वह मुश्किल से मिनटों के श्रम से कुछ मुकदमों में निर्णय पारित कर सकती है। मनुष्य की हमेशा लालसा रहती है कि कम से कम काम करने पर अधिक से अधिक प्रतिफल और श्रेय मिले। अदालतों के जज इस लालसा से अछूते क्यों रहें?

चार अन्य मुकदमे एक ही न्यायार्थी द्वारा दायर किए हुए हैं जिन में जीवन बीमा निगम से राहत की मांग की गई थी। एक ही प्रकृति के मुकदमे होने और निर्णय के लिए आवश्यक बिंदु सभी मुकदमों में एक ही होने के कारण उन्हें समेकित कर दिया गया था। मै समझता था कि यह आसान काम है और जज इसे जरूर करेगा। लेकिन ये जज साहब भी लगता है काम करने के मूड में नहीं थे। शायद उन्हों ने यह खबर अपने स्टाफ को दे दी थी कि जितने मुकदमों में वकील चाहें पेशी दे दी जाए। अब आवेदक के वकील को पता है कि उस के ये चारों मुकदमे निरस्त होने की संभावना अत्य़धिक प्रबल है तो वह आसानी से बहस करने का मन नहीं बना पा रहा है। उस ने अदालत से समय चाहा और अदालत ने उसे दे दिया। जज साहब को यहाँ भी फिक्र नहीं है। उन के यहाँ छोटे-छोटे काम इतने हैं कि वे केवल फूँक मार दें तो उन से अपेक्षित काम से चार गुना दिखाई देने लगे।

दालतों की संख्या कम होने और हर अदालत में मुकदमों के अंबार ने और उच्च न्यायालय द्वारा  निश्चित किए गए क़ोटा सिस्टम ने उन्हें अकर्मण्य बना दिया है। वे अंबार में से आसान काम तलाशते हैं और अपने निर्धारित कोटे से दो-तीन गुना अधिक काम कर के अपनी परफोरमेंस को श्रेष्ठ बनाने में जुटे रहते हैं। इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौर में काम करने वाले जज नहीं हैं। एक मुकदमे के अंतिम बहस के स्तर पर पहुँचने के बाद एक पक्षकार का देहांत हो गया। सूचना मिलते ही प्रार्थी ने मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को रिकार्ड पर लेने का आवेदन प्रस्तुत किया। सामान्य जज उस पर तुरंत आदेश पारित न कर के उस के लिए कोई आगे की तिथि तय कर देता। लेकिन अदालत के जज ने उसी समय आदेश पारित कर विधिक प्रतिनिधियों को नोटिस जारी करने का आदेश दिया और कहा कि तुरंत प्रोसेस प्रस्तुत करें जिस से अगली तिथि तक उन्हें नोटिस मिल जाएँ। अगले दिन ही मृतक के एक और विधिक प्रतिनिधि का पता लगा और उस के लिए आवेदन दिया गया तो जज ने तुरंत पत्रावली अदालत में मंगा कर उसे भी साथ ही नोटिस जारी करने का आदेश दे दिया। इस मुकदमे की पत्रावली भी अदालत की शायद सब से मोटी  पत्रावली है, लेकिन यह जज उसे शीघ्र सुनवाई कर निर्णय करना चाहता है। उस जज का सभी मुकदमों के प्रति यही व्यवहार है। ऐसे ही कुछ जजों ने शायद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बचा रखा है।
जों में जो अकर्मण्यता बढ़ रही है उस का मुख्य कारण अदालतों का पर्याप्त संख्या में न होना और लगभग सभी अदालतों के पास उन की वास्तविक क्षमता से चार-पांच गुना काम का सदैव लंबित रहना है जिस से वे अपने लिए आसान काम का चयन कर लेते हैं और मुश्किल मुकदमे निर्णय के लिए तरसते हुए गिनीज और लिम्का बुकों में रिकार्ड दर्ज कराने की ओर बढ़ते रहते हैं।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

कौन बनाए खाना ?

शिवराम की यह कविता आज की समाज व्यवस्था से पैदा हुई एक अनिवार्य स्थिति को प्रदर्शित करती है, पढ़िए और राय दीजिए ......

कौन बनाए खाना ?

  • शिवराम
कौन बनाए खाना भइया

कौन बनाए खाना


जो समधी ने भेजे लड्डू 
उन से काम चलाओ
चाय की पत्ती चीनी खोजो 
चूल्हे चाय चढ़ाओ
ले डकार इतराओ गाओ कोई मीठा गाना
कौन बनाए खाना भइया.....


बेटे गए परदेस 
बहुएँ साथ गईं उन के
हाथ झटक कर के
अपने ही हिस्से में आया घऱ का ताना-बाना
कौन बनाए खाना भइया .....

बेटी गई ससुराल
हमारी आँखें नित फड़कें
पोते-पोती सब बाहर हैं
ऐसे में बतलाओ कैसे होवे रोज नहाना
कौन बनाए खाना भइया
कौन बनाए खाना।
***************



कैसी लगी...?

रविवार, 10 जनवरी 2010

राजनीति और कूटनीति के सबक सीखती जनता

सुबह ग्यारह बजे कोर्ट परिसर के टाइपिस्टों की यूनियन के चुनाव थे। मुझे चुनाव में सहयोग करने के लिए ग्यारह बजे तक क्षार बाग पहुँच जाना था। लेकिन कई दिनों से टेलीफोन में हमिंग आ रही थी। दो दिनों से शाम से ही वह इतनी बढ़ जाती थी कि बात करना मुश्किल हो जाता था।  इसी लाइन पर ब्रॉडबैंड के पैरेलल एक टेलीफोन और था। जिस का उपयोग करने पर ब्रॉडबैंड का बाजा बज जाता था जो आसानी से बंद नहीं होता था। कल रात ही मैं ने शिकायत दर्ज करवा दी थी। सुबह साढ़े दस बजे जब क्षारबाग जाने के लिए निकलने वाला था तो टेलीफोन विभाग वालों का फोन आ गया। मैं ने यूनियन से अनुमति ली कि यदि मैं देरी से आऊँ तो चलेगा? उन्हों ने अनुमति दे दी। मैं ने दस वर्ष पहले मकान में बिछाई गई छिपी हुई लाइन का मोह छोड़ अपनी टेलीफोन लाइन टेलीफोन तक सीधी खुली प्रकार की लगवा दी और दोनों फोन उपकरण ब्रॉडबैंड के फिल्टर के बाद लगवा दिए।  दोनों उपकरण काम करने लगे। टेलीफोन को चैक किया तो हमिंग नहीं थी। मैं क्षार बाग चल दिया।

हाँ मत डालने का काम आरंभ हो चुका था। तीन बजे तक मत डालने का समय था। इस बीच आमोद-प्रमोद चलता रहा। पकौड़ियाँ बनवा कर खाई गईं। कुल 65 मतदाता थे। ढाई बजे तक सब ने मत डाल दिए। तो मतों की गिनती को तीन बजे तक रोकने का कोई अर्थ नहीं था। हमने मत गिने। तो जगदीश भाई केवल पंद्रह मतों से जीत गए। वे कम से कम पैंतालीस मतों से विजयी होने का विश्वास लिए हुए थे। वे कई वर्षों से अध्यक्ष चले आ रहे हैं। पर परिणाम ने बता दिया था कि परिवर्तन की बयार चल निकली है। 25 और 40 मतों का ध्रुवीकरण अच्छा नहीं था। किसी बात पर मतभेद यूनियन को सर्वसम्मत रीति से चलाने में बाधक हो सकता था। सभी मतदाताओं में राय बनने लगी कि 25 मत प्राप्त करने का भी कोई तो महत्व होना चाहिए। कार्यकारिणी में एक पद वरिष्ठ उपाध्यक्ष का और सृजित किया गया जिस पर सभी 65 मतदाताओं ने स्वीकृति की मुहर लगा दी। मैं चकित था कि अब राजनीति के साथ साधारण लोग भी कूटनीति को समझने लगे हैं।
स घटना ने समझाया कि कैसे किसी संस्था को चलाया जाना चाहिए। इस तरह अल्पमत वाले 25 लोग भी संतुष्ट हो गए थे। जिस से यूनियन के मामलों में सर्वसम्मति बनाने में आसानी होगी। क्षार बाग  किशोर सागर सरोवर की निचली ओर है। इस विशाल बाग के एक कोने में कोटा के पूर्व महाराजाओं की अंतिम शरणस्थली है जहाँ उन की स्मृति में कलात्मक छतरियाँ बनी हैं। यहीं कलादीर्घा और संग्रहालय हैं। इसी में  एक कृत्रिम झील  बनी है जो सदैव पानी से भरी रहती है। हम लोगों का मुकाम इसी झील के इस किनारे पर बने एक मंदिर परिसर में था जो बाग का ही एक भाग है। झील में पैडल बोटस्  थीं, बाग में घूमने वाले लोग उस का आनंद ले रहे थे। झील में 15 बत्तखें तैर रही थीं। कि किनारे पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ बत्तखों को देखने लगा। उसकी नजरों में शायद खोट देख कर सारी बत्तखें किनारे के नजदीक आ कर चिल्लाने लगीं। कुत्ता कुछ ही देर में वहाँ से हट गया। बत्तखें फिर से स्वच्छन्द तैरने लगीं। सभी इन दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि भोजन तैयार हो गया। मैं ने भी सब के साथ भोजन किया और घर लौट आया।

र लौट कर फोन को जाँचा तो वहाँ फिर हमिंग थी और इतनी गहरी कि कुछ भी सुन पाना कठिन था।  साढ़े चार बजे थे। मैं ने टेलीफोन विभाग में संपर्क किया तो पता लगा अभी सहायक अभियंता बैठे हैं। कहने लगे फोन उपकरण बदलना पड़ेगा। यदि संभव हो तो आप आ कर बदल जाएँ। कल रविवार का अवकाश है। मैं पास ही टेलीफोन के दफ्तर गया और कुछ ही समय में बदल कर नया उपकरण ले आया। उसे लाइन पर लगाते ही हमिंग एकदम गायब हो गई। उपकरण को देखा तो  प्रसन्नता हुई कि यह मुक्तहस्त भी  है। अब मैं काम करते हुए भी बिना हाथ को या अपनी गर्दन को कोई तकलीफ दिए टेलीफोन का प्रयोग कर सकता हूँ। शाम को कुछ मुवक्किलों के साथ कुछ वकालती काम निपटा कर रात नौ बजे दूध लेने गया तो ठंडक कल से अधिक महसूस हुई। वापसी पर महसूस किया कि कोहरा जमने लगा है। स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि शायद कल लगातार तीसरी सुबह फिर  अच्छा कोहरा देखने को मिलेगा। सुखद बात यह है कि कोहरा दिन के पूर्वार्ध में छट जाता है और शेष पूर्वार्ध में धूप खिली रहती है। जिस में बैठना, लेटना, खेलना और काम करना सुखद लगता है। आज की योजना ऐसी ही है। कल दोपहर के भोजन के बाद छत पर सुहानी धूप में शीत का आनंद लेते हुए काम किया जाए, और कुछ आराम भी।

चित्र  1- किशोर सागर सरोवर में बोटिंग, 2- क्षार बाग की छतरियाँ

शनिवार, 9 जनवरी 2010

कुहरे में लिपटा एक सर्द दिन


ब चार माह कुछ नहीं किया तो उस का कुछ तो वजन उठाना ही होगा। बृहस्पतिवार की रात एक मुकदमा तैयार करते 12 बज गए थे, तारीख बदल गई। फिर एक और काम को सुबह के लिए छोड़ना उचित न समझा, उसे निपटाते निपटाते सवा भी बज गए। फिर अनवरत पर टिपियाते हुए पौने दो। सुबह ही हो चुकी थी। ठंड से मुकाबले के लिए जीन्स थी पैरों में, लेकिन ठंड़ी इतनी हो गई थी कि पैरों को चुभने लगी थी। सोने गया तो सोचता रहा, कैसा बेवकूफ हूँ मैं भी, दफ्तर में ब्लोअर लगा है सिर्फ बटन चालू न कर सका। होता है, कभी कभी काम में यही होता है कि पैर दर्द कर रहा हो तो भी मुद्रा बदलने की तबियत नहीं करती, प्यास लगी हो तो पानी पीने के पहले सोचते हैं कि हाथ का काम निपटा लो। खैर, दो बजे सोने गए थे तो सुबह देर से उठना ही था। पर सात बजे ही उठ लिए। पत्नी ने कॉफी के लिए हाँक लगाई, तो हमने हाँ भर दी। वहीं बेड पर कॉफी पी गई। खिड़की से बाहर झाँका, तो सड़क पार पार्क की बाउंड्री और उस से लगे पेड़ धुंधले दिखाई दे रहे थे। पीछे कोहरे का महासागर लहलहारहा था। यह दृष्य कोटा के लिए तो अद्भुत ही है , जिस के दिखाई देने का अवसर साल में कुछ ही दिन होता है। इस बार तो कई सालों के बाद देखने को मिला।
चैनलों पर सुबह सुबह रोज दिल्ली दिखाई जाती है, कोहरे में डूबी हुई। हमें बिटिया की याद आने लगती है। वह फरीदाबाद में  पहली सर्दी झेल रही है, तीन सर्दियाँ मुम्बई की देखने के बाद। मुम्बई में उसे सिर्फ एक वर्ष एक कंबल खरीदना पड़ा था जो कुछ अधिक दिन काम न आया था।  सुबह कुछ काम आ गया तो घर से निकलते वही साढ़े ग्यारह बज चुके थे। कुहरा छंटा नहीं था। लेकिन कार चालीस की गति से चलाई जा सकती थी। पहली बार सड़क के किनारे अलाव दिखाई दिए, वह भी दिन में बारह के बजने के पहले। हवा ठंडी थी और नम भी। पान की दुकान के बाहर रिक्शे वाले गत्ते जला कर हाथ पैर गरम कर रहे थे। आज उन का माल ढोने का काम अभी नहीं लगा था।
क्षार बाग तालाब के पास से निकला तो सरोवर के बीचों-बीच रोज दिखाई पड़ने वाला जगमंदिर ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे चित्रकार ने चित्र आरंभ करने के लिए केवल आउटलाइन बनाई हो। साफ-साफ दिखाई पड़ने वाला रामपुरा का इलाका कोहरे के पीछे गायब था। कोहरे में तालाब की सतह से कुछ ऊपर ठीक साईबेरिया तक से आए हुए पर्यटक पक्षी उड़ रहे थे। शायद कोहरे ने क्षुधा पूर्ति के लिए उन्हें अपने शिकार की तलाश में जल की सतह के बिलकुल नजदीक उड़ने को बाध्य कर दिया था। कैमरा पास न होने का अफसोस हुआ। होता तो कुछ दुर्लभ चित्र अवश्य ही मिलते।

दालत पूरी तरह से ठंडी थी। लोगों ने वहाँ भी जलाऊ कचरा तलाश लिया था और अलाव बनाए हुए थे। पहुँचते ही अदालत से बुलावा आ गया। कांम में लगे तो सर्दी हवा हो गई। कोहरा छंटने लगा। फिर एक बजते-बजते धूप निकल आई। जो धूप गर्मियों में शत्रु लगती है, आज उस का महत्व पता लग रहा था। अदालत परिसर में जहाँ जहाँ धूप थी वहाँ लोग खड़े नजर आ रहे थे। कुछ थे, जो  सर्दी को कोस रहे थे। शाम चार बजे एक अदालत में एक महिला जो मजिस्ट्रेट को बयान देने आई थी, बयान देने के पहले ही अचेत हो गई। एक और महिला उसे लगभग घसीट कर बाहर लाई। महिला वहाँ भी अचेत ही दीख पड़ी। मैं कहता कि शायद सर्दी से अचेत हुई है, तभी एक ने कहा कि पुलिस वाले कह रहे हैं कि नाटक कर रही है, बयान देने से बचने के लिए।  मेरे शब्द मेरे कंठ के नीचे ही दफ्न हो गए। फिर महिला पुलिस आ गई उसे उठा कर हवालात की तरफ ले गई। 
सुबह कलेवे में मैथी के पराठे और धनिया-टमाटर की चटनी थी, चटनी में ताजा गीली लाल मिर्च का इस्तेमाल होने से चिरमिराहट बढ़ गई थी। शाम के भोजन में मकई की रोटी और बथुई की कढ़ी और जुड़ गई। लगता है इस साल सर्दी बदन में लोहा भरने का काम कर रही है। हरी पत्ती भोजन में किसी बार गैर हाजिर नहीं होती। शाम का दफ्तर चला तो फिर तारीख बदल गया। आज पैरों में जीन्स के स्थान पर पतलून है। वह भी ठंडी हो चुकी है। अनवरत के लिए यह सब कुछ टिपियाना शुरू करने के पहले मैं ब्लोअर चला देता हूँ। पर इतना ही टिपियाने तक उस ने दफ्तर को इतना गर्म कर दिया है कि उसे बंद करने को उठना ही पड़ेगा। तो, मिलते हैं कल फिर से। अंग्रेजी कलेंडर में  दस नौ जनवरी की सुबह हो चुकी है।   आज सुबह दस बजे निकलना है। अदालत परिसर में बैठने वाले कोई अस्सी टाइपिस्टों ने यूनियन बना रखी है। उस के चुनाव होंगे। सोलह की कार्यकारिणी में से पन्द्रह निर्विरोध चुने जा चुके हैं। केवल अध्यक्ष के लिए चुनाव होने हैं। यह काम क्षार बाग में होगा। उसी  सरोवर के किनारे जहाँ जग मंदिर है और जहाँ आप्रवासी पक्षी सैंकड़ों की संख्या में डेरा जमाए हुए हैं।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।