@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं

कोई पाँच बरस पहले ब्लागिरी शुरु हुई थी। पहले ब्लाग तीसरा खंबा आरंभ हुआ और लगभग एक माह बाद अनवरत। धीरे धीरे गति बढ़ी और हर तीन दिन में कम से कम दो पोस्टें लिखने लगा। लेकिन 2011 में आ कर गति कम हुई,  सप्ताह में तीन चार पोस्टें रह गईं। 2012 में केवल 53 पोस्टें हुई, औसत सप्ताह में केवल एक पर आ कर टिक गया। इस वर्ष तो जनवरी निकला जा रहा है लेकिन एक भी पोस्ट न हो सकी। कहा जा सकता है कि ब्लागिरी से मोह टूट रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। अखबार, पत्रिकाएँ और पुस्तकें जिस तरह लेखन और विचारों को प्रकाश में लाने के माध्यम है उसी तरह ब्लागिरी भी है। सब से अच्छा तो यह है कि यह एक स्वयं प्रकाशन माध्यम है। जिस पर आप केवल खुद ही नियंत्रण रखते हैं। 
ब्लागिरी की गति कम होने के अनेक कारण रहे हैं। जिन में कुछ तो मेरे अपने स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं। दिसंबर 2011 में हर्पीज जोस्टर का शिकार होने के बाद, दाँतों ने कष्ट दिया और उस के तुरंत बाद ऑस्टिओ आर्थराइटिस ने जकड़ा जिस के कारण एक पैर में लिगामेंट का स्ट्रेन भुगतना पड़ा। ऑस्टियो आर्थराइटिस नियंत्रण में है पर उस ने दोनों घुटनों के कार्टिलेज को जो क्षति पहुँचाई है उस की भरपाई में समय लगेगा। जब किसी व्यक्ति के चलने फिरने में बाधा आती है तो उस की सभी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। आय के साधन जो व्यक्ति और परिवार को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं उन्हें नियमित रूप से चलाए रखना आवश्यक होता है।  उन कामों को करने के उपरान्त समय इतना कम शेष रहता है कि अन्यान्य गतिविधियों मंद हो जाती हैं। यही मेरे साथ भी हुआ।
र्ष 2011 के अंत में तीसरा खंबा ब्लाग को एक स्वतंत्र वेबसाइट में परिवर्तित किया गया था। यह साइट कानूनी विषयों पर है और जोर इस बात पर है कि कानूनी मामलों पर पाठकों का विधिक शिक्षण हो तथा अधिक से अधिक मामलों पर आम पाठक की सहायता की जा सके। तीसरा खंबा अनेक बाधाओं के बावजूद लगभग निरंतर है। वर्ष 2012 में उस पर 330 पोस्टें लिखी गईं। यदि सप्ताह का एक दिन अवकाश का समझ लें तो औसतन प्रतिदिन एक पोस्ट से अधिक इस साइट पर लिखी गई है। अधिकांश पोस्टों में पाठकों को उन की कानूनी समस्याओं के हल सुझाए गए हैं। एक समस्या का हल सुझाने और उसे वेबसाइट पर लाने में कम से कम एक से दो घंटे तो लगते ही हैं।  मैं समझता हूँ कि एक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन के लिए इतना समय व्यतीत करना पर्याप्त है।
तीसरा खंबा का एक खास उद्देश्य है। लेकिन अनवरत ब्लाग अपने विचारों व लेखन को और अपनी मनपसंद रचनाओं को सामने लाने का माध्यम बना। उसी से हिन्दी के ब्लाग जगत में मेरी पहचान बनाई।  पाँच वर्ष की ब्लागिरी की ओर पीछे मुड़ कर झाँकता हूँ तब महसूस होता है कि बिना किसी योजना के बहुत कुछ कर डाला गया।  लेकिन जो कुछ किया गया उसे कुछ योजना बद्ध रीति से और तरतीब से भी किया जा सकता था। पिछले दो माह इसी विचार में निकले कि वहाँ क्या किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह समय भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जब समाज पूरी तरह से बदलाव चाहता है। लेकिन प्रश्न यही हैं कि समाज में किस तरह का बदलाव कैसे संभव है।  समाज कोई एक  व्यक्ति या समूहों की इच्छा से नहीं बदलता। समाज की भौतिक आर्थिक परिस्थितियाँ उसे बदलती हैं।  वे ही नए शक्ति समूह खड़े करती हैं जो समाज को बदलते हैं। निश्चित रूप से यह अध्ययन का विषय है।  इस समय में मुझे क्या करना चाहिए? अनवरत ब्लाग का उपयोग किस तरह करना चाहिए? यही सोच रहा हूँ।  पर सोच की इस प्रक्रिया के बीच अनवरत का यह ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है। अनवरत को अनवरत रहना चाहिए। इस लिए यह तय किया है कि सप्ताह में कम से कम एक बार पोस्ट अवश्य लिखी जाए और इस की गति को बढ़ा कर सप्ताह में 3-4 पर लाया जाए।
 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

अपनी राजनीति खुद करनी होगी

दिन भर अदालत में रहना होता है। लगभग रोज ही जलूस कलेक्ट्री पर प्रदर्शन करने आते हैं। पर उन में अधिकतर बनावटी होते हैं।  उस रोज बहुत दिनों के बाद एक सच्चा जलूस देखा। वे सेमटेल कलर ट्यूब उद्योग के श्रमिक थे। ठीक दीवाली के पहले उन के कारखाने को प्रबंधन छोड़ कर भाग गया। श्रमिक उसे कुछ दिन चलाते रहे। लेकिन कच्चा माल और बिजली और गैस कनेक्शन कट जाने से कारखाना बंद हो गया। कारखाना अब श्रमिकों के कब्जे में है उद्योगपति कोटा आने से डर रहा है। कहता है वह अब उद्योग को चलाने की स्थिति में नहीं है। अर्थात उद्योग सदैव के लिए बंद हो गया है। कानून में प्रावधान है कि उद्योग बंद हो तो कंपनी या उद्योग का स्वामी श्रमिकों को बकाया वेतन, मुआवजा. ग्रेच्चूटी आदि का भुगतान करे और उन के भविष्य निधि खातों का निपटान करे। लेकिन उद्योगपति की नीयत ठीक नहीं है। इसे श्रमिक, सरकार और नगर के बहुत से लोग जानते हैं। उद्योगपति कहता है उसे कारखाने में पड़ा माल बेच लेने दिया जाए फिर वह श्रमिकों को बकाया दे देगा। लेकिन बहुत से उद्योगपति श्रमिकों का बकाया चुकाए बिना कारखाना बंद कर भाग चुके हैं और श्रमिक लड़ते रह गए।

श्रमिकों को बकाया दिलाने की जिम्मेदारी सरकार की है। पर सरकार तो खुद पूंजीपतियों की है। उस का कहना है कोई कानून नहीं है जो कि श्रमिकों को उन का बकाया दिला सके। लेकिन सरकार के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। वह चाहे तो उद्योग की संपत्ति कुर्क कर के कब्जा कर सकती है। करोड़ों रुपए कथित जनहित कामों में लुटा कर ठेकेदारो को अमीर बनाने वाली सरकार चाहे तो श्रमिकों का बकाया अपने पास से चुका कर उद्योग की संपत्ति कुर्क और नीलाम कर के उसे वसूल कर सकती है। बिना अनुमति कोई उद्योगपति कारखाने को बंद नहीं कर सकता, यह अपराध है। चाहे तो सरकार उद्योगपति के विरुद्ध अपराधिक मुकदमा चला सकती है। इस अपराध को संज्ञेय और अजमानतीय बना दिया जाए तो उन्हें गिरफ्तार भी कर सकती है। पर वह अपने ही आकाओं के खिलाफ ऐसा क्यों करने लगी?


द्योग बंद होने का कारण स्पष्ट है। बाजार में कलर पिक्चर ट्यूबों का स्थान एलईडी आदि ने ले लिया है उन की मांग कम होती जा रही है, मुनाफा कम हो गया है। उद्योगपति को मुनाफा चाहिए। वह इस उद्योग से पूंजी निकाल चुका है। बाकी को निकालने में सरकार उस की मदद करेगी। लेकिन मजदूरों की नहीं।


जदूर समझने लगे हैं कि उन की किसी को परवाह नहीं। कभी साथ लगते भी हैं तो इलाके के छोटे किसान उन का साथ देते हैं जो उन के स्वाभाविक परिजन हैं। उन्हें अपने जीवन सुधारने हैं तो खुद ही कुछ करना होगा। यह सब वे अपनी एकता के बल पर ही कर सकते हैं। उन्हें खुद अपनी एकता का निर्माण करना होगा और फिर किसानों की। उन्हें अपने नेता खुद बनाने होंगे जो उन के साथ दगा न करें। बिना मजदूर किसानों की एकता का निर्माण कर सत्ता पर कब्जा किेए वे अपने जीवन में तिल मात्र सुधार नहीं ला सकते। उन्हें खुद अपनी राजनीति खुद करनी होगी।

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

जन संस्कृति के सर्जक शिवराम के दूसरे स्मृति दिवस के कार्यक्रमों में आप सादर आमन्त्रित हैं ...

मुझे पहली ही मुलाकात में उन्होने प्रभावित किया था, बल्कि कहिए कि मैं भौंचक्का रह गया था। मैं छात्र ही था। एक नया साहित्यिक मंच बनाया था, लेकिन वह गति नहीं पकड़ रहा था। उन्होंने मुझे एक पर्चा पकड़ाया जिस में तीन दिनों का लंबा कार्यक्रम था। कुछ गोष्ठियाँ थीं, नाटक थे और कविसम्मेलन था। देश भर से स्थापित लोग आ रहे थे। पर्चा देने वाला छह माह पहले ही नगर के टेलीफोन एक्सचेंज में आरएसए के पद पर स्थानांतरित हो कर आया था। छह माह पहले नगर में आया हुआ व्यक्ति ऐसा आयोजन कैसे करवा सकता है? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैं भी कार्यक्रम के साथ हो गया। एक नाटक में अभिनय भी किया। कार्यक्रम सफल हुआ और अंतिम कार्यक्रम के समापन के बाद आधी रात को देश में आपातकाल लग गया। कार्यक्रमों मे तत्कालीन सरकार की बहुत आलोचना हुई थी। अतिथि गिरफ्तार न कर लिए जाएँ इसलिए रातों रात उन्हें नगर से रवाना किया गया। लेकिन कार्यक्रम के आयोजक को कतई फिक्र न थी। खैर!

नाटक प्रस्तुत करने के पहले दर्शकों से संवाद करते शिवराम
गे उन के साथ बहुत जमी। वे पथ प्रदर्शक नेता भी बने और जीवन पर्यन्त एक सच्चे साथी भी बने रहे। उन में बहुत खूबियाँ थीं। वे नाटककार, कवि, आलोचक, संपादक, ओजस्वी वक्ता, अच्छे संगठक, अच्छे नेता भी थे। उन का नाटक "जनता पागल हो गई है" बहुत पहले ही अतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका था। वे जीवन के आखिरी क्षण तक काम करते रहे। उन की ऊर्जा की प्रेरणा मार्क्सवाद-लेनिनवाद था और श्रमजीवी वर्ग की शक्ति और नेतृत्व में उन का विश्वास उस का स्रोत था।

शिवराम ऐसे ही साथी थे। दो बरस पहले हम से बिछड़़ने के समय वे हमारी पार्टी एमसीपीआई (यू) के पोलिट ब्यूरो के महत्वपूर्ण सदस्य थे, अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक-सामाजिक मोर्चा के महामंत्री थे। पर किसी कारखाने के गेट पर मजदूरों की मीटिंग करने के बाद उस के लिए प्रेसविज्ञप्ति लिखने और उसे अखबार के दफ्तर तक पहुँचाने के काम को करने तक में उन्हें कोई झिझक नहीं थी।

न की दूसरे स्मृति दिवस पर हम 30 सितंबर और 1 अक्टूबर को दो दिवसीय अखिल भारतीय कार्यक्रम कर रहे हैं। आप सब भी उस में सादर आमंत्रित हैं। निमंत्रण पत्र यहाँ है ...

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

मैं नास्तिक क्यों हूँ? : भगतसिंह - Why I Am An Atheist? का हिन्दी अनुवाद

मैं नास्तिक क्यों हूँ? : भगतसिंह

Why I Am An Atheist? का हिन्दी अनुवाद


प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, उसे रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी।  प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा।   यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है।

उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है। लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है।

लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी।  यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे।  तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना।

यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है।

जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ।

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला।  लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ।

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है।  समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है।  इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है।  यही हमारा दर्शन है।

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-

(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?

कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं।  कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है।   यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं।  फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है।

कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है।  नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी।  उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है?  उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?

सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं।  जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं।  एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं।

तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?

फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?   मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?

सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है?  तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है।

ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया?  आनंद लुटने के लिए?  तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों।  हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं।  मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?

तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते।  तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है।

मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है।  उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ।  उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो।

फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है।

कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं।

और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है।

उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है।’’  क्यों और किसलिए?  यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ।

और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं।  ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं।

मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे।  उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है।  लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं।

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है।  वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार।

आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है।  भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है।  केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है।  इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है।

लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?  तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है।  तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो।

मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है?  तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे?  एक भी नहीं?

अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है?  गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है।

मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?

क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था?  या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं?  तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा?  चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता।

वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं।  उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं।

मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा?  ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?

और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?

यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो। ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं।  ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं।

जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो।  वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा।  धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?  ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है।  उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?

उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?

वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना  अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें।

आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं।  मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे।  जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं।

चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें।  अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं।  मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं।

वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं।  यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं।

कहाँ है ईश्वर?  वह क्या कर रहा है?  क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है?  वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो।

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ?  ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ।  चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको पढ़ो।

सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो।  तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा।  यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है।  विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी।

कब?  इतिहास देखो।  इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?  जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है।

उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं।  स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है।  वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?

मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे।  अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित।

विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे।

यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं।

राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की।

अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए।

जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है।  इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है।

वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था।  विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।  समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था।

इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं।

मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है।

मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है।  मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी।

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ।  मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा।  जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’  मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा।  ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी।

स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’  पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है?  अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

किसी हॉकी खिलाड़ी को भी फुटबाल खिलाड़ी एंड्रीज इस्कोबार जैसा दुर्भाग्य झेलना पड़ सकता है


रक्षकटीम को रोकनी होगी हर गेंद
हॉकी में 'सेल्फ गोल' का नियम 
  - बीजी जोशी
फुटबॉल विश्व कप (1994) खेलप्रेमियों को अभी तक याद होगा । कोलंबिया के रक्षक एंड्रीज इस्कोबार ने अपने ही गोल में गेंद भेजकर टीम को अमेरिका के विरूद्व पहले ही राउंड में पराजित करा दिया था । कैलिफोर्निया राज्य के लॉस एजिंल्स शहर के रोज बाउल स्टेडियम में 22 जून को यह मैच खेला गया था। इस मैच के एक माह बाद ही इस्कोबार को जान से हाथ धोना पड़ा था। कोलंबियाई फुटबॉल प्रेमी ने उन्हें गोली मार दी थी। ऐसा ही दुर्भाग्य अब हॉकी खिलाड़ियों को भी झेलना पड़ सकता है ।
 

  अतंरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ नए वर्ष (1 जनवरी 2013) से "सेल्फ गोल" का नियम (नंबर 8) प्रभावी कर रहा है । अभी तक स्ट्राइकिंग सर्किल यानी "डी" के अंदर से अटैकर द्वारा गोल में गेंद भेजने पर ही गोल मान्य है । अब "डी" के बाहर से भी सर्किल में भेजी गई गेंद यदि डिफेंडर या गोली से लगकर गोल में चली गई तो "सेल्फ गोल" दर्ज होगा ।

नियम 7.4 के अंतर्गत अभी तक "डी" के बाहर से अटैकर द्वारा खेली गई गेंद (अ) सर्किल में बिना किसी की स्टिक छूए गोल में जाती थी, तो रक्षक टीम को 16 गज की फ्री हिट मिलती थी। (ब) यदि गेंद किसी रक्षक की स्टिक से सहज लगकर गोल में जाती थी तो अटैकर टीम को कॉर्नर दिया जाता था। (स) यदि गेंद को रक्षक या गोली द्वारा जानबूझकर गोललाईन के पार भेजी जाता था, तो अटैकिंग टीम को पेनल्टी कॉर्नर अवॉर्ड किया जाता था।

दले हुए नियम से रक्षक टीम को "डी" के बाहर से गोल में घुस रही हर गेंद को रोकना होगा यानी रक्षक व गोली से गहरे दबाव में उच्चतम कौशल की मांग । धीमे रिफ्लेक्सेस, ग्राउंड पर स्टिक रखकर झुककर गेंद पर नजर नहीं रखने वाले रक्षक टीम पर बोझ बनेंगे । सेल्फ गोल के चिराग से अपना ही आशियाना फूंकने की नादानी से बचने हेतु भारतीयों को अभी से इस नियम के अनुरूप अपने खेल को ढालना होगा।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

माध्यम पत्रकार भाषा के प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं

खिर व्यग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी की रिहाई के लिए बम्बई उच्चन्यायालय ने आदेश दे दिया कि उन्हें 5000 रुपए के निजि मुचलके (व्यक्तिगत बन्धपत्र) देने पर रिहा करने का आदेश दे दिया गया। अब यह उन पर निर्भर करता है कि व्यक्तिगत बन्धपत्र निष्पादित कर जेल से रिहा होते हैं या नहीं।  उन्हें रिहा होने के लिए एक बंधपत्र निष्पादित करना होगा जिस में यह अंकित होगा कि वे न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होंगे। यदि वे उपस्थित नहीं हुए तो बंधपत्र का उल्लंघन होगा और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए वारंट जारी कर दिया जाएगा साथ ही बंधपत्र के उल्लंघन के लिए उन्हें बंधपत्र की राशि रुपए 5000/- भी न्यायालय को अदा करनी होगी। इस आदेश में यह कहीं भी नहीं लिखा है कि उन्हें इस व्यक्तिगत बंधपत्र के साथ किसी अन्य व्यक्ति की जमानत भी न्यायालय में प्रस्तुत करनी होगी।

मानत (प्रतिभूति) का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की रिहाई के लिए कोई अन्य व्यक्ति इस बात की प्रतिभूति दे कि यदि गिरफ्तार (निरुद्ध) व्यक्ति न्यायालय के समक्ष निर्धारित तिथि पर उपस्थित न हुआ तो वह निर्धारित राशि न्यायालय को अदा करेगा। व्यंग्य चित्रकार की रिहाई आदेश में कहीं भी जमानत का उल्लेख नहीं है।

ल शाम से मीडिया (दृश्य-श्रव्य माध्यमों) में और आज समाचार पत्रों में सर्वत्र यही उल्लेख किया जा रहा है कि बम्बई उच्च न्यायालय ने असीम त्रिवेदी को जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया है।  इस तरह दोनों ही माध्यम जमानत शब्द का गलत प्रयोग कर रहे हैं। 

माचार माध्यम आम जनता में लोकप्रिय होते हैं और वे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं आम लोग भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते लगते हैं। इस कारण से माध्यमों की भाषा के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। निश्चित रूप से माध्यम इस जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं। माध्यमों में यह जिम्मेदारी निर्देशकों, सम्पादकों, निर्माताओं, पत्रकारों की होती है। इन माध्यमों में काम करने वाले ये पत्रकार इस ओर ध्यान न दे कर एक गलत परंपरा डाल रहे हैं जो निश्चित रूप से भाषा को विकृत करना है। उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए। जो जिम्मेदार पत्रकार इस बात को समझते हैं उन्हें माध्यमों में भाषा के प्रति पत्रकारों की इस जिम्मेदारी को रेखांकित करना चाहिए।