@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

वर्षान्त पर .....

र्षान्त आ गया है। इस बार वर्षान्त माह मेरे लिए भी भारतीय संसद की तरह बहुत खराब रहा। पहली ही तारीख को पता लगा कि खोपड़ी की ऊपरी सतह पर फैले तंत्रिका जाल के किसी तंतु में निष्क्रीय पड़ा विषाणु वेरीसेला जोस्टर सक्रिय हो उठा है। इस विषाणु से केवल शरीर का रक्षातंत्र ही लड़ सकता था। बाहरी मदद सहायता अवश्य कर सकती थी किन्तु इस लड़ाई में निर्णायक नहीं हो सकती थी।  मुझे द्वंदवाद का मार्क्सवादी नियम स्मरण हो उठा कि किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तन के लिए केवल उस वस्तु की अन्तर्वस्तु ही निर्णायक हो सकती है, बाह्य शक्तियाँ नहीं। इस विषाणु के सक्रिय हो उठने पर शरीर में मचने वाले बवाल के बारे में अंतर्जाल पर जो कुछ जानकारी मिली उसे मैं आप के साथ पिछली पोस्ट आखिर बंद आँख खुल गई में सांझा कर चुका हूँ। उस के बाद का हाल ये रहा कि जहाँ जहाँ फफोले हुए थे वहाँ वहाँ धीरे धीरे पपड़ी आई और फिर निकली भी। खोपड़ी पर जहां चमड़ी के नीचे मांस नाम मात्र का होता है वहाँ तो नुकसान करने को अधिक कुछ था ही नहीं पर जैसे ही तंत्रिका खोपड़ी से नीचे ललाट पर आई तो वहाँ फफोले कुछ बड़े हुए और जब पपड़ी उतरी तो उस स्थान पर अंदर की ओर गड्ढे दिखाई देने लगे। ललाट पर अब इन  की संख्या चार हैं लेकिन वे धीरे-धीरे भर रहे हैं। फिलहाल इन्हों ने शक्ल की सूरत बिगाड़ कर रखी है। ललाट पर कुछ धब्बे दिखाई दे रहे हैं, मुझे आशा है कि वे अस्थाई ही होंगे। पर पान वाले ने मुझे सोवियत संघ का आखिरी राष्ट्रपति गोर्बाचोव घोषित कर दिया है।

र्पीज का असर कम हुआ ही था कि अचानक एक रात नाक में जलन आरंभ हो गई। इतनी तेज की रात भर उस ने सोने न दिया। घर में रखी कुछ दवाओं का प्रयोग भी काम न आया। सुबह तक नाक को घोषित रूप से जुकाम हो गया। उसी दिन तंत्रिका विशेषज्ञ चिकित्सक से मुलाकात होनी थी। उस ने एक एलर्जीविरोधी लिख गोली लिख दी जो पाँच दिनों तक रोज एक खाना था। दो दिन तक नाक पूरी तरह बंद रही। जैसे जलूस के दिन रास्ते बंद कर दिए जाते हैं और बाईपास से निकलना पड़ता है। मेरे श्वसन तंत्र ने भी इस आपात काल में मुख की राह पकड़ी। तीसरे दिन नाक का रास्ता यदा-कदा खुलना आरंभ हुआ। पाँचवें दिन वह पूरी तरह खुल गया। जुकाम से निजात मिली। लेकिन अभी कुछ और भुगतना शेष था।

29 दिसम्बर की शाम का भोजन करते हुए अचानक एक छोटा सा कंकड बाईं दाढ़ों के बीच आ गया। ऊपर की दाढ़ हिली और अचानक दर्द हुआ। मैं ने कंकड़ निकाल फैंका। पानी से कुल्ला किया और भोजन पूरा किया। भोजन से उठते ही दाढ़ में फिर दर्द उठा जिस ने मुझे ने बैचेन कर दिया। घर में रखी दातों पर ब्रश, और घर में रखी दवाइयों ने कोई असर नहीं किया। दर्द कभी कम हो जाता तो फिर से बढ़ जाता। आखिर रात दो बजे ध्यान आया कि लोंग का तेल दांत दर्द में रामबाण है ऐसा लोग कहते हैं। पर घर में लोंग का तेल तो नहीं था। लोंग का डब्बा तलाश किया गया। तीन-चार लोंगें निकाल कर चबाई गईं और उन से  बनी लुगदी को जीभ की मदद से दाँत और मसूड़े के उस हिस्से पर चिपका दिया जहाँ दर्द उठा था। कमाल हो गया। दो मिनट भी न निकले होंगे कि दर्द वैसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग। आज उस दर्द के उठने से डर लगता रहा। उस दाढ़ के नीचे कुछ न आ जाए इस बात की सावधानी रखी गई। दवाएँ आरंभ कर दी हैं। देखते हैं क्या होता है। वैसे इन दांतों के साथ मैं ने भी अत्याचार कम नहीं किया। इन का इस्तेमाल ठीक उस दास-स्वामी की तरह किया जो अपने दास को बस इतना देता है कि वह मर न जाए और काम कस के लेता है।   कुल मिला कर यह वर्षान्त इस सूचना के साथ समाप्त हुआ कि दिनेशराय द्विवेदी! सावधान हो जाओ! जीवन का सत्तावनवाँ वर्ष है, अब तुम्हारे पहले वाले दिन नहीं रहे, जीवन जरा सावधानी से जिओ।

स महिने संतोषप्रद काम ये हुआ कि कानूनी मामलों के ब्लाग 'तीसरा खंबा' को अपने डोमेन की साइट में परिवर्तित होने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गयी। आज रात्रि को जैसे ही वर्ष बदलेगा वैसे ही ब्लॉगस्पॉट का ब्लाग तीसरा खंबा बंद हो जाएगा फिर उसे न आप देख सकेंगे और न मैं देख सकूंगा। लेकिन उस के साथ ही  तीसरा खंबा साइट अपने डोमेन <teesarakhamba.com> पर दिखाई देने लगेगी। आशा है इस नए रूप को पाठकों का वही सहयोग प्राप्त होता रहेगा जो ब्लाग के रूप में हो रहा था। इस माह अनवरत पर नियमितता बुरी तरह टूटी। लेकिन समझता हूँ कि मैं नए वर्ष के आरंभ के साथ ही पुन नियमित हो लूंगा।

यह इस वर्ष की आखिरी पोस्ट है। नए वर्ष में फिर मिलेंगे ....


 
   सभी पाठकों, ब्लागर मित्रों को 
नए वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ!!!


मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

राज्य, उत्पीड़ित वर्ग के दमन का औजार : बेहतर जीवन की ओर -16

स श्रंखला की छठी कड़ी में ही हम ने यह देखा था कि मानव गोत्र समाज वर्गों की उत्पत्ति के उपरान्त वर्गों के बीच ऐसे संघर्ष को रोकने के लिए एक नई चीज सामने आती है। यह नई चीज आती समाज के भीतर से ही है लेकिन वह समाज के ऊपर स्थापित हो जाती है और स्वयं को समाज से अलग चीज प्रदर्शित करती है। यह नई चीज राज्य था। राज्य की उत्पत्ति इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि समाज ऐसे अन्तर्विरोधों में फँस गया है जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, जिन का समाधान असंभव है। विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों व्यर्थ के संघर्ष में पूरे समाज को नष्ट न कर डालें इस लिए इस संघर्ष को व्यवस्था की सीमा में रखे जाने का कार्यभार यह राज्य उठाता है, यही राज्य की ऐतिहासिक भूमिका है। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य असाध्य वर्गविरोधों की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उसी स्थान, समय और सीमा तक उत्पन्न होता है जहाँ, जिस समय, जिस सीमा तक वर्गविरोधों का  समाधान असम्भव हो जाता है। 

हाँ यह भ्रम उत्पन्न किए जाने की पूरी संभावना है कि यह कहना आरंभ कर दिया जाए कि वस्तुतः राज्य वर्गीय समन्वय के लिए एक औजार है। इस संभावना का इतिहास में अनेक राजनीतिकों ने भरपूर उपयोग किया और लगातार किया भी जा रहा है। लेकिन यह केवल भ्रम मात्र ही है कि राज्य वर्गीय समन्वय का औजार है। यदि उसे औजार मान भी लिया जाए तो यह बिलकुल इस्पात की उस आरी की तरह है जिस से हीरे को तराशने का काम लिया जा रहा हो। अव्वल बात तो यह है कि वर्गीय समन्वय बिलकुल असंभव है, यदि यह संभव होता तो राज्य के उत्पन्न होने और कायम रहने की आवश्यकता ही नहीं थी। वस्तुतः राज्य वर्ग प्रभुत्व का औजार है और एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पी़ड़न का अस्त्र है।  वह ऐसी व्यवस्था का सृजन है जो वर्गीय टकरावों को मंद कर के इस उत्पीड़न को कानूनी रूप प्रदान कर मजबूत बनाती है। कानूनी उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए उसे सशस्त्र संगठनों की आवश्यकता होती है। 

गोत्र समाज में आबादी के स्वतः कार्यकारी सशस्त्र संगठन बनते थे। ये संगठन बाहरी लोगों से झगड़ों को सुलझाने के अंतिम उपकरण के रूप में उत्पन्न हो कर कार्य संपादन करते थे और जैसे ही कार्य संपादित हो चुका होता था .ये संगठन आम लोगों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन जैसे ही वर्ग उत्पन्न हो गए इस तरह के स्वतः कार्यकारी संगठन असंभव हो गए। वैसी स्थिति में एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापनी की गई जिस में न केवल सशस्त्र दल ही नहीं, जेलखाने, पुलिस, विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएँ और भौतिक साधन भी सम्मिलित किए गए जिन का गोत्र समाज में कोई स्थान नहीं था। स्थाई फौज और पुलिस राज्य सत्ता के मुख्य उपकरण हो गए। 

लेकिन अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी का सशस्त्र संगठन क्या संभव रह गया था? समाज के वर्गों में बँट जाने से जिस सभ्य समाज की स्थापना हुई थी वह शत्रुतापूर्ण बल्कि असाध्य रूप से शत्रुतापूर्ण वर्गों में बँटा हुआ था जिस में अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी की हथियार बंदी से वर्गों के बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता। इसी चीज को रोकने के लिए तो समाज के भीतर से राज्य की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण राज्य को ऐसा संगठन चाहिए था जो अपनी पहल पर काम करने के स्थान पर उस के इशारे पर काम करे। लेकिन बावजूद इस के कि राज्य के पास फौज, पुलिस, जेलें और अन्यान्य दमनकारी संस्थाएँ थी, वह कभी भी वर्ग समन्वय में कामयाब नहीं हो सका। समय समय पर समाज में क्रांतियाँ हुईं जिन्हों ने समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के इशारे पर काम करने वाले राज्य के उस ढाँचे को तोड़ डाला। लेकिन जो भी नया वर्ग प्रभुत्व में आया उसी ने फिर से अपनी सेवा करने वाले हथियारबंद लोगों के संगठनों को फिर से कायम करने के प्रयत्न किए और उन्हें कायम किया। केवल यह अकेली बात ही यह साबित करती है कि राज्य वस्तुतः उत्पीड़क वर्ग/वर्गों का उत्पी़ड़ित वर्गों पर प्रभुत्व बनाए रखने का औजार मात्र है। 

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

लालच, विकास की मूल प्रेरणा : बेहतर जीवन की ओर-15

ब तक हम ने देखा कि मनुष्य का जीवन बेहतर तभी हो सकता था जब कि उसे पर्याप्त भोजन, आवास और वस्त्र मिल सकें। प्रकृति में शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर प्राणी को ये सब आसानी से प्राप्त होने वाली नहीं थीं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए किए गए श्रम ने ही उसे वानर से मनुष्य बनाया था। इसी श्रम ने उस के मस्तिष्क को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित किया। वह औजारों का निर्माण और उपयोग करने लगा और धीरे धीरे पशुपालन के साथ ही उस ने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ सीधे प्रकृति से प्राप्त करने के स्थान पर उन का उत्पादन करना आरंभ किया और कालान्तर में उत्पादन का विकास भी। उत्पादन के विकास के आरंभिक चरण में ही उस की श्रम शक्ति इस योग्य बन गई थी कि वह जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक से काफी अधिक पैदा करने लगा था। इसी अवस्था में श्रम-विभाजन और व्यक्तियों के बीच उत्पादन के विनिमय का आरंभ हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही उस ने मनुष्य को दास बना कर यह आविष्कार भी कर लिया कि मनुष्य स्वयं भी माल हो सकता है और उस का विनिमय भी किया जा सकता है। विनिमय के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्यों का भी विनिमय आरंभ हो गया। यह मनुष्य समाज का शोषित और शोषक वर्गों में पहला बड़ा विभाजन था। दास-प्रथा के रूप में शोषण का यह रूप मध्ययुग में भूदास-प्रथा  और आज उजरती श्रम की प्रथाओं में परिवर्तित हो चुका है। 

भ्यता का युग माल उत्पादन की जिस स्थिति में आरंभ हुआ था उस में धातु की मुद्रा का प्रयोग होने लगा था और मुद्रा, पूंजी, सूद और सूदखोरी का चलन हो गया। उत्पादकों के बीच बिचौलिए व्यापारी आ खड़े हुए। भूमि पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया और रहन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया। दास श्रम उत्पादन का मुख्य रूप हो गया। इसी के साथ परिवार का रूप भी बदला वह एकनिष्ठ परिवार में परिवर्तित हो गया जिस में स्त्री पर पुरुष का प्रभुत्व स्थापित हुआ और प्रत्येक परिवार समाज की एक आर्थिक इकाई हो गया। समाज को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में राज्य सामने आया जो वस्तुतः केवल शासक वर्ग का राज्य होता है और जो मूल रूप से उत्पीड़ित शोषित वर्गों को दबा कर रखने के का एक औजार मात्र है। सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में नगर और गाँवों में स्थाई रूप से विरोध स्थापित हो गया। दूसरी ओर वसीयत की प्रथा आ गई जिस के माध्यम से सम्पत्ति का स्वामी अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी संपत्ति का इच्छानुसार निपटारा कर सकता है। य़ह प्रथा पुराने गोत्र समाज के पूरी तरह प्रतिकूल थी जिस में संपत्ति गोत्र के बाहर नहीं जा सकती थी। 

न तमाम प्रथाओं की सहायता से सभ्यता ने वे सभी महान कार्य कर दिखाए जो गोत्र समाज की सामर्थ्य में नहीं थे। लेकिन ये सब काम उस ने मनुष्य की सब से निम्न कोटि की मनोवृत्तियों और आवेगों को उभारते हुए तथा उस की तमाम अन्य क्षमताओं को हानि पहुँचाते हुए किए। सभ्यता के उदय से आज तक लालच ही उस के मूल में रहा है। बस धन अर्जित करना, और अधिक धन अर्जित करना जितना अधिक किया जा सके उतना धन अर्जित करना। लेकिन स्थाई मनुष्य समाज का धन नहीं, एक अकेले व्यक्ति का धन। उस व्यक्ति का धन जिस का जीवन केवल कुछ दिनों, कुछ महिनों या कुछ सालों का है। बस यही सभ्यता का एक मात्र निर्णायक उद्देश्य हो गया। यदि इस के साथ विज्ञान का विकास भी होता रहा और समय समय पर कला के उच्च विकसित युग भी आते रहे तो मात्र इस लिए कि  धन इकट्ठा करने में जो सफलताएँ प्राप्त हुई हैं वे सब विज्ञान और कला की इन उपलब्धियों के बिना प्राप्त करना संभव नहीं था।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

संयोग, अंधनियम और तूफान : बेहतर जीवन की ओर-14

म तौर पर राज्य को आज मनुष्य समाज के लिए आवश्यक माना जाता है और उस के बारे में यह समझ बनाई हुई है कि वह मनुष्य समाज में सदैव से विद्यमान था। लेकिन हम ने पिछली कुछ कड़ियों में जाना कि यह हमेशा से नहीं था। ऐसे समाज भी हुए जिन में राज्य नहीं था, उन्हों ने उस के बिना भी अपना काम चलाया। ऐसे समाजों को राज्य और राज्यसत्ता का कोई ज्ञान नहीं था। आर्थिक विकास और श्रम विभाजन की एक अवस्था में जब अतिरिक्त उत्पादन होने लगा और उस का विपणन होने लगा तो नगर विकसित हुए। इन नगरों में केवल एक गोत्र, बिरादरी या कबीले के लोग नहीं रह गए थे। वहाँ अनेक लोग ऐसे भी आ गए जो इन से अलग थे। वैसी अवस्था में उत्पन्न वर्गों और उन के बीच के संघर्ष को रोकने के लिए राज्य की अनिवार्य रूप से उत्पत्ति हुई। राज्य की उत्पत्ति से ही वर्तमान इतिहास सभ्यता के युग का आरंभ भी मानता है। इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सभ्यता समाज के विकास की ऐसी अवस्था है जिस में श्रम विभाजन, उस के परिणाम स्वरूप होने वाला उत्पादों का विनिमय और इन दोनों चीजों को मिलाने वाला माल उत्पादन जब अपने चरम पर पहुँच जाते हैं तो वे पूरे समाज को क्रांतिकारी रुप से बदल डालते हैं। 
भ्यता के पहले समाज की सभी अवस्थाओं में उत्पादन मूलभूत रूप से सामुहिक था और उसे इसीलिए उपभोग के लिए छोटे-बड़े आदिम सामुदायिक कुटुम्बों में सीधे सीधे बाँट लिया जाता था। साझे का यह उत्पादन अत्यल्प होता था लेकिन तब उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के और उत्पाद के खुद मालिक होते थे। वे जानते थे कि उन के उत्पादन का क्या होता है, वे स्वयं उस का उपभोग करते थे और वह उन के स्वयं के हाथों में रहता था। जब तक उत्पादन उत्पादकों के नियंत्रण में रहा ऐसी कोई शक्ति खड़ी नहीं कर सका जैसी शक्तियाँ सभ्यता के युग में नियमित रूप से खड़ी होती रहती हैं। 

ब उत्पादन अपनी आवश्यकता और उपभोग के स्थान पर विनिमय के लिए होने लगा तो पैदावार एक हाथ से निकल कर दूसरे हाथ तक जाने लगी। अब उत्पादक नहीं जानता कि उस की पैदावार का क्या हुआ। जैसे किसान समर्थन मूल्य पर बिके अनाज के बारे में तब तक ही जानता है जब तक कि उसे वह बेच नहीं देता है। बाद में तो उसे अखबार से ही खबर मिलती है कि कितना अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ गया है। मुद्रा और व्यापारी बीच में आ कर खड़े हो जाते हैं। व्यापारी भी कम नहीं हैं। एक व्यापारी दूसरे व्यापारी को माल बेचता है। माल एक हाथ से दूसरे हाथ में ही नहीं एक बाजार से दूसरे बाजार में जाने लगता है। इस तरह उत्पादकों का अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के कुल उत्पादन पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है। व्यापारियों के हाथ भी यह नियंत्रण नहीं रहता है। इस तरह उत्पादों पर जब नियंत्रण नहीं रह जाता है तो लगने लगता है कि उपज और उत्पादन दोनों संयोग के अधीन हो गए हैं। 

में प्रकृति में भी संयोग या भाग्य का शासन दिखाई पड़ता है। लेकिन विज्ञान ने सभी क्षेत्रों में बहुत बार यह सिद्ध किया है कि आवश्यकता और नियमितता सभी संयोगों के पीछे है। जो प्रकृति का सच है वही समाज का भी सच है।  सामाजिक क्रियाओं या उन के क्रम  पर मनुष्य का सचेत नियंत्रण रख पाना जितना कठिन होता जाता है उतनी ही ये क्रियाएँ मनु्ष्य के नियंत्रण के बाहर होती जाती हैं और ऐसा लगने लगता है कि ये क्रियाएँ केवल संयोगवश हो रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संयोग स्वाभाविक आवश्यकता के कारण घटित हो रहे हैं। माल उत्पादन और माल विनिमय में जो संयोग दिखाई देते हैं  वे भी नियमों के अधीन होते हैं अलग अलग उत्पादकों और विनिमय कर्ताओं को ये नियम एक विचित्र अज्ञात शक्ति तक प्रतीत होने लगते हैं जिन का पता लगाने के लिए अत्यधिक श्रम के साथ खोजबीन आवश्यक हो जाती है। 

माल उत्पादन के ये नियम उत्पादन के रूप के विकास की प्रत्येक अवस्था में थोड़े बहुत बदल जाते हैं। सभ्यता के युग में ये नियम हावी रहते हैं। आज भी उपज उत्पादक पर हावी है। आज भी समाज का उत्पादन किसी ऐसी योजना के अंतर्गत नहीं होता जिसे सामुहिक रूप से सोच विचार के बाद तैयार किया गया हो। वह इन अंध-नियमों से परिचालित होता रहता है जो अंध शक्तियों की तरह काम करते रहते हैं और अंत में व्यापारिक संकटों के तूफानों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आरंभ में ये तूफान एक अंतराल के बाद आते थे। लेकिन इन दिनों तो हम देख रहे हैं कि एक तूफान की गर्द अभी वापस धरती तक नहीं पहुँचती है कि दूसरा तूफान आता दिखाई पड़ने लगता है। आज ही हम देख सकते हैं कि यूरोप अभी ग्रीस के संकट से नहीं सका था कि उस के सामने इटली एक संकट के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। यूरोप ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक तंत्र इस तूफान के सामने थरथरा रहा है।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भारतीय समाज में गोत्र व्यवस्था : बेहतर जीवन की ओर-13

मने इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में अमरीकी इंडियन गोत्र व्यवस्था के बारे में जाना। कुछ हजार वर्ष पहले तक पूरी दुनिया में मानव समाज ऐसा ही था। बिना किसी वर्ग के एक सरल सामुहिक जीवन जीता हुआ। एक स्वाभाविक रूप से विकसित समाज जिस में शासक-शासित नहीं थे। भारतीय समाज में आज भी गोत्र व्यवस्था के अवशेष देखने को मिलते हैं। एक ही गोत्र के स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों की मनाही का कड़ाई से पालन कुछ वर्ष पहले तक किया जाता रहा है। अधिकांश मामलों में आज भी किया जाता है। अधिकांश भारतीय समाज में ये गोत्र पितृसत्तात्मक हैं। यदि कोई दम्पति निस्सन्तान हो और उन्हें किसी संतान को गोद लेना हो तो यह परंपरा देखने को मिलती है कि किसी सगोत्र बालक-बालिका को ही गोद लिया जाए जिस से संपत्ति किसी अन्य गोत्र में न चली जाए। अनेक गोत्रों से मिल कर बिरादरी बनती है जिसे हमारे यहाँ जाति भी कहा जाता है। 

सलन मैं पारोत्रा ब्राह्मण बिरादरी से हूँ। इस बिरादरी में गोत्रों की संख्या कुल 22 के लगभग है। कोई तीस बरस पहले तक विवाह बिरादरी के भीतर ही किया जा सकता था। यदि कोई इस सीमा का उल्लंघन करता था उसे बिरादरी से बाहर समझा जा कर उस से सभी व्यवहार बंद कर दिए जाते थे। बिरादरी आज भी कुल 5-6 सौ परिवारों की है। जब बच्चे अधिक पढ़ने लगे और गोत्र के बाहर बिरादरी में विवाह योग्य जोड़े बनाने में मुश्किल खड़ी होने लगी तो यह तलाश किया जाने लगा कि हम आखिर इतने कम क्यों हैं, आखिर कोई तो और भी बिरादरी अवश्य होगी जिस से हमारा मूल मिलता होगा। तो अधिकांशतः मध्य प्रदेश के धार और इंदौर जिलों में बसने वाले बाबीसा ब्राह्मण बिरादरी तलाश कर ली गई जिनके गोत्र समान थे। कुछ बैठकों और सम्मेलनों के बाद दोनों बिरादरियों का एक संघ बन गया। मान लिया गया कि दोनों एक ही मूल के हैं। दोनों के बीच बेटी व्यवहार आरंभ हो गया। यदि इस मूल की तलाश करते जाएँ तो बहुत सी छोटी-छोटी बिरादरियों के संघ बनाए जा सकते थे। 

लेकिन जिस रीति से हमारा समाज बदला है। ये बिरादरियाँ वैसे ही नहीं टिकने वाली थीं। पढ़े लिखे लड़के अपने समान पढ़ाई वाली लड़की किसी भी ब्राह्मण बिरादरी से ब्याह कर लाने लगे। बिरादरी इतनी कमजोर हो गई कि वह किसी का बहिष्कार करने में सक्षम नहीं रही। उस ने ऐसे लड़कियों को स्वीकार करना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे ब्राह्मण कन्या के स्थान पर अन्य कन्याएँ भी बिरादरी में विवाह कर लाई जाने लगीं और बिरादरी कुछ न कर सकी। अब बिरादरी के कायम रहने की एक शर्त यह भी हो गई है कि कोई भी पुरुष किसी भी कन्या को ब्याह लाए उसे बिरादरी में स्थान मिलने लगा। पर ऐसे उदाहरण अभी भी उंगलियों पर ही गिने जा सकते हैं। अभी भी गोत्र और बिरादरी के पुराने मूल्यों का ही अधिकांश लोग निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं। बिरादरी जब मजबूत थी तो दहेज और वैवाहिक खर्चों की सीमाएँ थीं। लेकिन बिरादरी के कमजोर पड़ने से ये दोनों दानव पैर पसारने लगे। लालच की सीमाएँ टूटने लगीं। अब बिरादरी के लोग ही विवाह में ये देखने लगे कि दहेज कितना मिलने वाला है और विवाह कितनी शान से होने वाला है। बिरादरी में पहले सब समान हुआ करते थे। उम्र और विद्वता सम्मान के कारण थे। अब धन उन का स्थान ले रहा है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वर्ग भेदों के आने के पहले मानव समाज का जो सुंदर सामाजिक संगठन था, उस  का टूटना अवश्यंभावी था। उस संगठन ने कबीले से आगे कभी विकास नहीं किया। (क्रमशः)

रविवार, 6 नवंबर 2011

कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

इरोक्वाई
स तरह  कबीलों में संघ बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। कुछ खास कबीलों ने जो आरंभ में रक्तसंबंधी थे लेकिन अलग हो गए थे फिर से स्थाई एकता बना ली। इस तरह उन्हों ने महासंघ बना कर एक राष्ट्र के गठन की ओर पहला कदम उठाया। अमरीका में इरोक्वा लोगों का महासंघ ऐसे संघ का सब से विकसित रूप था। यह पाँच कबीलों का संघ था। मछली, शिकार में मारे गए जानवरों का मांस और पिछड़े ढंग की बागवानी की उपज इन का भोजन था।  ये लोग बाड़ों से घिरे गाँवों में निवास करते थे।  उन में मिले जुले गोत्र थे और एक ही भाषा की अनेक बोलियाँ बोलते थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अस्तित्व में आए इस महासंघ ने अपनी शक्ति को महसूस करते ही आक्रमणकारी रुख अपना लिया और आसपास के बहुत बड़े इलाके को हथिया लिया। वहाँ के निवासियों को या तो भगा दिया या फिर नजराने देने पर मजबूर कर दिया। वे कभी बर्बर युग की इस निम्नावस्था से आगे नहीं बढ़ पाए। उन के सामाजिक संगठन का सब से उन्नत रूप इरोक्वाई महासंघ ही था। 

स महासंघ में कबीलों को सभी अंदरूनी कबायली मामलों में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। रक्त संबंध महासंघ का आधार था। महासंघ के निकाय के रूप में एक संघ-परिषद होती थी जिस के सदस्य पचास साखेम थे। इन पचासों का पद और प्रतिष्ठा समान थी। महासंघ से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय परिषद करती थी। महासंघ के ये पचास पद कबीलों और गोत्रों में बाँट दिया गया था। जब कोई पद खाली हो जाता था तो संबंधित गोत्र फिर से उस का चुनाव कर लेता था। गोत्र अपने किसी भी प्रतिनिधि को कभी भी हटा सकते थे। लेकिन नए प्रतिनिधि को स्वीकार करने का अधिकार संघ परिषद के पास था। संघीय साखेम कबीलों में भी साखेम थे और उन्हें कबीलों की परिषद में भाग लेने और मत देने का अधिकार था। संघ-परिषद को अपने सभी निर्णय सर्वसम्मति से लेने होते थे। मत कबीलेवार लिए जाते थे, जिस का अर्थ था कि हर कबीले को और हर कबीले के परिषद सदस्य को एकमत होना होता था तभी निर्णय होता था। पाँचों कबीलों की परिषदों में से किसी के भी द्वारा संघ परिषद बुलाई जा सकती थी लेकिन स्वयं संघ परिषद को अपनी बैठक बुलाने का अधिकार नहीं था।  संघ परिषद की बैठक आम जनता के सामने होती थी जिस में किसी को भी बोलने का अधिकार था। लेकिन निर्णय संघ परिषद ही करती थी। महासंघ का कोई अधिकृत मुखिया या प्रमुख नहीं होता था। महासंघ के दो सर्वोच्च युद्धकालीन नेता होते थे, जिन की शक्ति समान और अधिकार भी समान होते थे। 
इरोक्वाई युद्ध नृत्य

स तरह के समाज विधान के अंतर्गत इरोक्वा लोग कई सदियों तक रहते रहे। इस समाज संगठन में राज्य का अस्तित्व नहीं था। उत्तर अमरीकी इंडियनों के सामाजिक अध्ययन से पता लगता है कि यह एक कबीला था जो धीरे-धीरे पूरे महाद्वीप पर फैल गया था। कबीलों के विभाजन के फलस्वरूप जनगण, कबीलों के पूरे समूह बन गए थे। किस प्रकार भाषाएँ इतनी बदल गई थीं कि वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। उन की प्राचीन एकता के चिन्ह लगभग गायब हो गए थे। कबीलों के गोत्र भी अनेक गोत्रों में बँट गए थे। शिशुवत यह सीधा-सादा गोत्र संगठन अत्यन्त विलक्षण था। न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था। कोई झगड़ा उठ खड़ा होता था तो अलग अलग गोत्रों और कबीलों के लोग उसे मिल बाँट कर निपटा लेते थे। रक्त-प्रतिशोध की स्थिति भी तभी आती थी जब किसी तरह झगड़ा नहीं निपटता था इस लिए उस की नौबत कम ही आती थी। मृत्यु दंड इसी चीज का सभ्य नाम है जिस में सभ्यता की अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। 
80 फुट लंबा इरोक्वाई घर
स समय आज से कहीं बहुत अधिक मामलों को मिल कर तय करना पड़ता था। कई-कई परिवार एक साथ मिल कर सामुदायिक ढंग से घर चलाते थे। जमीन पूरे कबीले की संपत्ति थी। अलग अलग घरों को केवल छोटे-छोटे बगीचे अस्थाई रूप से मिलते थे। जिन का जिस मामले से संबंध होता था वे ही उस का फैसला कर लेते थे। अधिकतकर मामले तो पुराने रीति रिवाज के अनुसार स्वतः ही निपट जाते थे। सामुदायिक कुटुम्ब गोत्रों को भलीभाँति ज्ञात था कि बूढ़ों, बीमारों और युद्ध में अपंग हुए लोगों के प्रति उन का क्या कर्तव्य है। सब स्वतंत्र और समान थे, स्त्रियाँ भी। वहाँ न दासों के लिए स्थान था और न ही दूसरे कबीलों को अपने अधीन रख पाने की गुंजाइश थी। 1651 के लगभग इरोक्वाइयों ने एरीयों को जीता उन्हों ने महासंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया तब उन्हें अपने इलाकों से खदेड़ दिया गया। यह समाज कैसे मनुष्य पैदा करता था यह इस से पता लगता है कि जो गोरे लोग इंडियनों के सम्पर्क में आए और जो भ्रष्ट नहीं हुए थे उन्हों ने इन बर्बर लोगों की आत्मगरिमा, सीधे-सरल स्वभाव, चरित्र बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वर्ग भेद उत्पन्न होने के पहले  संपूर्ण मानव जाति और मानव समाज ऐसा ही था। यदि हम उन की हालत की तुलना आज के मनु्ष्य की हालत से करते हैं तो हम वर्तमान मजदूरों,छोटे किसानों और प्राचीन काल के गोत्र के स्वतंत्र सदस्य के बीच गहरी खाई पाते हैं।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

अमंरीकी इंडियन कबीले : बेहतर जीवन की ओर-11

म ने देखा की गोत्र अमरीकी इंडियन जनों में समाज की इकाई के रूप में था। उन से मिल कर बिरादरी बनती थी और अनेक बिरादरियाँ मिल कर एक कबीले का निर्माण करती थी। कई छोटे कबीले सीधे गोत्रों से भी मिल कर बनते थे जिन में बिरादरी जैसी बीच की कड़ी नहीं होती थी। हर कबीले का अपना अलग नाम और इलाका होता था। कबीले की बस्ती के स्थान के अलावा आसपास बहुत विस्तृत क्षेत्र शिकार और मछली पकड़ने के लिए होता था। इस के बाद बहुत विस्तृत तटस्थ भूमि होती थी जो दूसरे कबीले तक चली जाती थी। यदि दो कबीलों की भाषाएँ मिलती जुलती होती थीं तो तटस्थ भूमि  का विस्तार कम होता था। यदि दो कबीलों के बीच भाषाओं के बीच कोई संम्बन्ध नहीं होता तो यह तटस्थ भूमि अधिक विस्तृत होती थी। अस्पष्ट सीमाओं से घिरा यह इलाका कबीले का सामुहिक क्षेत्र होता था जिसे पड़ौसी कबीले भी मानते थे। यदि कोई अन्य इस सीमा में घुसता तो कबीला अपने इलाके की रक्षा करता था। सीमाओं की अस्पष्टता से कठिनाई तभी उत्पन्न होती थी जब आबादी अधिक हो जाती थी। 
र कबीले की अपनी खास बोली होती थी। सच तो यह है कि कबीला और बोली दोनों सारतः समवर्ती शब्द हैं। अमरीका में उपविभाजन से नए कबीले और नई बोलियाँ अभी दो शताब्दी पहले तक बनती रहीं। कबीलों को गोत्रों द्वारा चुने गए साखेमों और युद्धकाल के नेताओं का अभिषेक करने का अधिकार होता था। यहाँ तक वे गोत्रों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें अपदस्थ भी कर सकता था क्यों की वे कबीले की परिषद के सदस्य होते थे। जहाँ कुछ कबीले महासंघ बना लेते थे यह अधिकार कबीलों के प्रतिनिधियों की संघीय परिषद को सौंप दिया जाता था।  हर कबीले की समान धारणाएँ (पौराणिक गाथाएँ) होती थीं। उन्हों ने अपनी धारणाओं को तरह तरह के देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों का रुप दिया हुआ था लेकिन उन्हें कोई आकार देकर मूर्तियाँ नहीं बनाई थीं। यह प्रकृति तथा महाभूतों की पूजा थी जो धीरे-धीरे बहुदेववाद का रूप धारण कर रही थी। उन के नियमित त्यौहार थे जिनमें खासकर नृत्यों और खेलों के माध्यम से पूजा की जाती थी। 
र कबीले की एक कबायली परिषद होती थी। जो कबीलों के आम निर्णय करती थी। इस में सभी गोत्रों के साखेम और युद्धकाल के नेता सम्मिलित होते थे। परिषद की बैठक खुले रूप में होती थी। बीच में परिषद बैठती और आस-पास कबीले के बाकी सदस्य बैठा करते थे। सभी को बहस में हिस्सा लेने और अपनी राय प्रकट करने का अधिकार होता था। फैसला परिषद करती थी। इरोक्वा लोगों में परिषद को अपना फैसला एक मत  से करना होता था।  दूसरे कबीलों के साथ संबंध रखने का काम कबायली परिषद करती थी। वह दूसरे कबीलों के दूतों का स्वागत करती थी और उन के पास अपने दूत भेजती थी। वह युद्ध की घोषणा और शांति-संधि करती थी। युद्ध छिड़ जाने पर लड़ने के लिए आम तौर पर वे ही भेजे जाते थे जो स्वेच्छा से तैयार होते थे।  एक कबीलों की उन कबीलों से युद्ध की स्थिति होती थी जिन से कोई शांति संधि नहीं होती थी। ऐसे शत्रुओं के खिलाफ कुछ विशिष्ठ योद्धा सैनिक अभियान संगठित करते थे।  युद्ध नृत्य आयोजित होता था, जो कोई नृत्य में शामिल हो जाता था समझा जाता था कि वह युद्ध में जाने को तैयार है। तुरंत टुकड़ी तैयार कर अभिायान के लिए भेजी जाती थी। कबायली इलाके पर कोई हमला होता था तो स्वयं सेवक ही उस की रक्षा करते थे। ऐसे दस्तों के कूच करने और लौटने पर उत्सव आयोजित किए जाते थे। ऐसे अभियानों के लिए परिषद की इजाजत लेना जरूरी नहीं था और परिषद उस की इजाजत देती भी नहीं थी। 
कुछ कबीलों में एक प्रधान मुखिया भी होता था। लेकिन उसे बहुत कम अधिकार प्राप्त थे। वह साखेमों में से एक होता था। जब कोई तुरंत निर्णय करने वाली समस्या उठ खड़ी होती थी तो प्रधान मुखिया फैसला कर देता था जो कबायली परिषद द्वारा अंतिम फैसला करने तक लागू रहता था। अमरीकी इंडियन कभी कबायली व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ सके। थोड़े थोड़े लोगों के अनेक कबीले जिन के बीच बड़े बड़े सीमान्त प्रदेश होते थे एक दूसरे से कटे हुए रहते थे। उन में सदा लड़ाइयाँ चलती रहती थीं। जिस का परिणाम यह था कि थोड़े से लोग बहुत विशाल इलाके में फैले हुए थे। कहीं कोई अस्थाई संकट आ जाता था तो रक्त-संबंधी कबीलों में सहयोग हो जाता था पर संकट दूर होते ही यह मोर्चा फिर से बिखर जाता था। कुछ खास इलाकों में कबीलों ने स्थाई संघ बना कर अपनी एकता कायम कर ली। (क्रमशः)