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सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

सपने का आधार कार्ड

शायद कोई प्रोफाइल बनानी थी, वह भी अंग्रेजी में। अब अंग्रेजी में अपनी टांग जरा टेड़ी पड़ती है, चलते हुए सदा लगता है कि अब गिरे कि अब गिरे। मैंने सोचा कुछ तरीके से लिखना चाहिए। लिखना था कुछ और, मैं लिखने लगा कुछ और-

– इन इंडियन सिस्टम द लूनर मंथस् स्टार्ट फ्रॉम न्यू-मून-डे, व्हिच इज दी डे आफ्टर नो-मून-डे। 

यह लेख"जनसंदेश टाइम्स"में
 13 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित हो चुका है।
नो-मून लिख तो दिया पर यह याद नहीं आ रहा था कि वास्तव में अमावस को नो-मून-डे लिखना ठीक भी है कि नहीं। तब तक ये याद आया कि पगले जब तुझे यहाँ प्रोफाइल ही बनानी है तो ये न्यू-मून, नो-मून और फुल-मून क्या कर रहा है। तेरा जनम तो पूनम से अगले दिन होता है। तब ये भी याद आया कि उत्तर भारत में तो चांद्र मास पूनम के बाद अगले दिन यानी पड़वा यानी प्रतिपदा से शुरू होता है। 

अब मैं भर रहा था –बट नॉर्थ इंडियन पीपल स्टार्टस् देयर लूनर मंथ फ्रॉम द डे आफ्टर फुल-मून-डे। लिखने पर फिर याद आया कि फुल मून डे तो पागलों का दिन भी होता है। उस दिन ज्वार भाटा होता है। बरसात हो तो मुम्बई जैसे शहर में ये फूल-मून-डे कहर बरपा जाता है। उत्तर भारत तो नहीं पर उत्तर प्रदेश में जब से संतजी सरकार के मुख्य मंत्री बन गए हैं तब से यू.पी. पुलिस हर रात को फुल-मून-नाइट मना रही है। गोली चलाने वाले हथियार उन के पास हैं ही, बस धाँय से चला देते हैं। किसी को लग गयी तो वह अपराधी। साला भाग रहा था। टांग पर चलाई थी, भागते हुए सिर नीचा कर रहा था, सिर में लग गई। हो गया एन्काउंटर। ईनाम वाला काम किया है, कुछ तो नकदी पुरुस्कार मिलेगा ही, हो सकता है परमोशन भी हो ही जाए। 

इस बार गोली किन्ही दुबे, तिब्बे जी को लग गयी। एक तो साला गूगल-फूगल में अफसर निकला ऊपर से बिरहमन भी था। प्रदेश में ही नहीं देस भर में बवाल मच गया। न जाने क्यों नीचे से ऊपर तक खबर बिजली की तरह फैल गयी। जिस कार में बैठा था उस में विण्ड स्क्रीन पर गोली ठीक उस जगह से घुसी जिस से उस की खोपड़ी कैसे भी न बच सके। बीच में विण्ड स्क्रीन भी रुकावट बनी थी, फिर भी निशाना एक दम सटीक था। गोली मारने वाले की साथिन चिल्लाई तब तक पूनम की रात का पागलपन पूरी तरह उतर चुका था। अब कानिस्टेबल जी का कान ही नहीं दिमाग तक स्टेबल होने की कोशिश कर रहा था। पर गोली तो चल चुकी थी, विण्ड स्क्रीन तोड़ कर खोपड़ी में घुस चुकी थी। दो जगह के छेद ठीक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। एन्काउंटर को किसी हादसे में बदलने की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी थी। पर दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। खैर, यह बताना ही दुरुस्त समझा कि कार को रोका था, रोकी नहीं, अपराधी की तरह भागने लगे तो मोटर साइकिल से पीछा किए, और जब आगे निकल कर रोका तो एक्सीडेंट कर दिया। अपराधी भाग रहा था, गोली मार दी, मर गया। कसूरवार साबित होने से बचने का कोई और रास्ता नहीं था। इस में बस कमी इत्ती थी कि विंड स्क्रीन पर जिस जगह छेद हुआ था उस जगह मरने वाले की टांग कैसे हो सकती थी? ये ही सोचना बाकी था। तभी उतरते नशे ने झटका दिया –अब सारा तू ही सोच लेगा क्या? कुछ तेरे अफसर और वकीलों के सोचने के लिए भी छोड़ दे। 

मैं बात तो मेरी प्रोफाइल की कर रहा था, न जाने कहाँ से ये यूपी, संतजी और एन्काउंटर आ घुसे दिमाग में। तो नॉर्थ इंडियन पीपल का चांद के महीने का पहला दिन पूनम की रात के अगले दिन की पड़वा को पड़ता है। बस उसी दिन मैं पैदा हुआ था। उस के पहले वाली पूनम के दिन राखी का त्यौहार था। तमाम घर वाले खानदानी हुनर होते हुए भी सारी ज्योतिष भूल गए। याद रहा कि ये बंदा राखी के दूसरे दिन पैदा हुआ था। न पूनम रही, न महीने का पहला दिन रहा। बस राखी के दूसरे दिन जन्मदिन मनाने लगे। हर साल उसी दिन शंकरजी सुबह सुबह अभिषेक कराने को और दादाजी के कर्मकांडी मित्र करने को तैयार रहने लगे। स्कूल में भर्ती की नौबत आई तो किसी को तारीख याद नहीं रही। बस भादवे के महीने का पहला दिन याद आया। याददाश्त पर ज्यादा जोर दिया तो पता लगा उस साल तो दो भादवे थे। तारीख पता करना और मुश्किल हो गया। स्कूल में कोई पंचांग तो था नहीं। होता भी तो पाँच साल पुराना भर्ती रजिस्टर ढूंढ निकालना जिस स्कूल में गंजे के सिर पर बाल तलाशने जैसा काम हो, वहाँ पंचांग का मिलना तो कतई नामुमकिन था। खैर, अंदाज से सितंबर के महीने की एक तारीख लिखा दी गयी। इस में कम से कम महिने के पहले दिन वाला साम्य तो आ ही गया था। सब को तसल्ली हो गयी। 

मैं अपनी प्रोफाइल बना ही रहा था कि नीन्द खुल गयी। शायद मोबाइल ने टूँ...टूँ की थी। खिड़की की तरफ देखा तो शीशे से सड़क वाली एलईडी की नहीं, बल्कि सुबह की रोशनी छन कर आ रही थी। धत्तेरे की, अभी से सुबह हो गयी। अब उठना पड़ेगा। दुबारा नीन्द लगना मुश्किल है। बस अफसोस तो इस बात का था कि उस नयी वेबसाइट पर अपनी प्रोफाइल बनते बनते रह गयी। अब मैं सोच रहा था कि मेरा जन्मदिन तो चार तारीख को पड़ता है फिर ये जन्मदिन के नाम पर पहली तारीख का अनुसंधान क्यों हो रहा था? सपने ऊलजलूल बहुत होते हों पर हर अच्छे या बुरे सपने का कोई न कोई ठोस आधार जरूर होता है। न होता तो भारत में ये आधार कार्ड न आए होते। न राशन की दुकान से अस्पताल होते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ कर जाने के बजाए सीधे सुप्रीम कोर्ट न पहुँच गये होते। अब आज कल ये भी मुसीबत हो गयी है, हर मसला सीढ़ी चढ़ने के बजाये उड़ कर सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाता है और वहाँ भी जज सीधे सुनने को बैठ जाते हैं। वो तो कभी कभी वे भी पुलिस को राहत दे देते हैं। कह देते हैं कि जाँच वाँच में अभियुक्त और उस के चाहने वालों का कोई दखल नहीं होगा। जब वाकई पकड़ लें तो नीचे की अदालत सुनेगी। इस तरह पुलिस को सोचने का वक्त भी मिल जाता है कि विण्ड स्क्रीन में गोली से हुए छेद के पीछे मरने वाले की टांग कैसे पहुँच सकती थी। जजों को भी फुरसत मिल जाती है कि तब तक कोई बीच का रस्ता निकल लेगा। हर बार टेबल पर हथौड़ा कूट कर ऑर्डर ऑर्डर करना भी ठीक नहीं है। 

अब ये बीच में आधार कार्ड, सुप्रीम कोर्ट और अभियुक्त के आ जाने से जो टैम मिला उस में याद आया कि जनमदिन के लिए अंग्रेजी महीने की पहली तारीख अनुसंधान के नतीजे के बतौर तब हासिल हुई थी जब दसवीं के इम्तहान के लिए बोर्ड का फार्म भरने का वक्त आया। पता लगा कि इस साल परीक्षा नहीं दे पाएंगे। इम्तहान के साल की पहली अकटूबर को पूरे पन्द्रह साल होने में कोई सत्ताईस दिन कम पड़ रहे हैं। हम क्लास के ब्रिलियँट स्टूडेंट माने जाते थे, स्कूल का गौरव जैसी चीज हो सकते थे, तो मामला उड़ कर हेड मास्टर जी के पास पहुँचा। आखिर स्कूल गौरव से वंचित कैसे हो सकता था। वहाँ मामले की सुनवाई में फैसला निकला कि जन्म तारीख एक साल घटा कर एक अक्टूबर कर दी जाए और फार्म भर कर बोर्ड भेज दिया जाए। स्कूल का रिकार्ड बाद में दुरुस्त कर लिया जाएगा। 

अब मैं तीसरी बार पैदा हुआ था। बोर्ड का एक्जाम भी हो गया। रिजल्ट भी आ गया। फर्स्ट डिविजन में पास भी हो गया। स्कूल को एक गौरव प्राप्त हुआ। विद्यार्थी परिषद वालों ने अपना बनाने को सम्मान भी कर डाला और विवेकानन्द की एक किताब भेंट कर दी। बस यहीं वे गलती कर गए। पढ़ने लिखने वाले को कभी किताब भेंट नहीं करनी चाहिए। किताबें भेंट करना उन्हें ठीक होता है जो उन्हें पूजा-घर में रख कर पूजा करते हैं और फिर हनुमान जी या रामदरबार की तस्वीर सामने रख, अगरबत्ती वगैरा लगा कर ब्राह्म मुहूर्त में श्रद्धा पूर्वक उस का सस्वर पाठ करते हैं, जिस से पड़ौसी जागते रहें और मोहल्ले में चोरी चकारी न हो। मेरे जैसे पढ़ने लिखने वाले को किताब देने का नुकसान ये हुआ कि उस ने पढ़ डाली, कुछ वेदान्त पल्ले पड़ा, कुछ विवेकानन्द जी का ईश्वर पल्ले पड़ा, जिस के लिए वो कहते थे कि मैंने तो जब से आँख खोली तब से उस के सिवा कुछ देखा ही नहीं, और साथ ही ये पल्ले पड़ा कि बिरहमन, क्षत्रिय और बनिए ये सब राज कर चुके हैं, अब तो शूद्र कहे जाने वाले इंसानों का ही राज आना है। उन को कायस्थ कुल में जन्मे होने के कारण बिरहमनों ने शूद्र जो कह दिया था। खैर, मैं पढ़ने लिखने में हवाई जहाज नहीं बन सका। सीढ़ी दर सीढ़ी पढ़ता रहा और बीएससी पास करते करते गोर्की की माँ और मार्क्स-एंगेल्स के कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो तक पहुँच गया। विद्यार्थी परिषद वाले टापते रह गए। भारतीय जनसंघ के लोकल एमएलए ने पिताजी के पास घणे चक्कर काटे कि लड़के को उन के साथ रहने को कहें, उस में नेता बनने के सभी गुण हैं। पिताजी ने कभी मुझे नहीं बताया, सोचा होगा लड़का पढ़ता लिखता है तो खुद ही समझदार होगा कि किस के नजदीक रहना है किस से दूर।

खैर, अब ये भी याद आ गया है कि एक अकटूबर के पहले वाली रात को प्रोफाइल बनाते वक्त जन्मदिन के लिए महीने का पहला दिन इसीलिए याद आ रहा था कि रिकार्ड में जन्मदिन एक अक्टूबर है। ये तीसरा जन्मदिन है। पहला राखी के अगले दिन हुआ, फिर सितंबर की चार तारीख को असली वाला। कुछ भी हो सपना कभी निराधार नहीं होता। वह आता ही तब है जब उस का आधार कार्ड बन जाता है। बस उसे पढ़ना आना चाहिए, फिर भौतिक जगत से उस का नाता पता लगने में देर नहीं लगती।

- यह लेख दैनिक समाचार पत्र "जनसंदेश टाइम्स" में 13 अक्टूबर 2018 को सभी संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?

र्वत्र लूट मची है। जिसे जहाँ अवसर मिल रहा है लूट रहा है। कोई लूट नहीं पा रहा है तो खसोट ही रहा है। बहुत सारे ऐसे भी हैं, जो न लूट पा रहे हैं और न खसोट पा रहे हैं। उन में से कुछ मसोस रहे हैं, अपने मन को कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें इस बात का संतोष है कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे इस से बचने के प्रयत्न में शामिल हैं और दुःखी हैं कि वे बच नहीं पा रहे हैं। इन दुःखी लोगों में से बहुत से ऐसे भी हैं जो इसके विरुद्ध लड़ाई के ख्वाब देखते हैं लेकिन सपना तो सपना है वह अक्सर सच नहीं होता। उसे सच करने के लिए पहले बहुत से ऐसे ही सपना देखने वालों को इकट्ठा करना पड़ता है। काम बहुत मेहनत का है, इसलिए सपने को सपना रहने देते हैं। सपना देखना क्या बुरा है, नींद में देखो या फिर जागते कुछ तो राहत देता ही है। कुछ ऐसे भी हैं जो इस सपने को सच करने के लिए जुट पड़ते हैं। बहुत हैं जो अपनी-अपनी जगह जुटे पड़े हैं, इस विश्वास से कि  कभी तो यह लड़ाई परवान चढ़ेगी, इस लूट खसोट से मुक्ति मिलेगी। 

ब जानते हैं, हमारा तंत्र पूंजीवादी है। पूंजीपति इस के स्वामी हैं, वे महान हैं, उन्हों ने सामंती तानाशाही से लड़ाई लड़ी और जनतंत्र लाए। लोगों को वोट डालने का अधिकार मिला। लोग खुश हैं कि वे वोट डालते हैं और सरकार चुनते हैं, भले ही उन्हें चुनने के लिए वही भले लोग मिलते हैं जो लूट-खसोट में सब से आगे हैं। पर इस से क्या जनतंत्र तो है, वोट तो है, कोसने की आजादी तो है, कोसने से काम नहीं चलता तो गालियाँ देने की आजादी तो है और चाहिए भी क्या, दो जून की रोटी वह तो इस देश में किसी के द्वारे हाथ फैलाने से मिल जाती है। यदि साधारण तरीके से न मिले तो कुछ तरकीब अपनाई जा सकती है। कटोरे में सोमवारी या मंगलवारी देवी-देवता की तस्वीर रख कर मांगी जा सकती है। और रिफाइंड तरीका भी है, आप किसी रंग के कपड़े पहनें गले में कुछ मनकों वाली माला डालें फिर दो जून के भोजन का इंतजाम हो ही जाएगा। किसी जमीन पर कब्जा कर वहाँ कोई मूर्ति या मजार बना डालें, फिर तो मौज है। कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। लोग खुद चल के आएंगे, न केवल दो जून की रोटी की व्यवस्था करेंगे बल्कि साथ में धुआँ उड़ाने और पिन्नक में पड़े रहने का इंतजाम भी कर देंगे। और भी अनेक मार्ग हैं, आप सब जानते हैं। 

हुत से लोगों को ये रास्ता पसंद नहीं। वे दो जून की रोटी नहीं मांगते, वे काम मांगते हैं। काम मिल जाता है तो न्यूनतम मजदूरी मांगते हैं। न्यूनतम मजदूरी मिल जाती है तो जीने लायक वेतन मांगते हैं, वह भी मिल जाता है तो महंगाई का भत्ता मांगते हैं। उस के बाद न जाने क्या क्या मांगते हैं। ये लोग भी सपने देखते हैं और उन के लिए लड़ते भी हैं। जो काम देता है, सब से पहले उसी से लड़ते हैं। उन्हें सपने के रास्ते में सब से पहले वही दिखता है। जब लड़ते हैं तो रास्ते में पुलिस आती है, सरकारी अफसर आते हैं, नेता आते हैं। वे इन सब से लड़ नहीं पाते लड़ाई हार जाते हैं। सपने भूल जाते हैं, फिर काम करने लगते हैं। लेकिन सपने तो सपने हैं फिर आने लगते हैं। वे फिर इकट्ठे होते हैं, फिर लड़ते हैं। इस बार उन की लड़ाई कुछ बेहतर होती है। वे कुछ हासिल करते हैं, लेकिन कानून सामने आ जाता है, वे लड़ाई हार जाते हैं।  कानून से कैसे लड़ें? कानून तो चुने हुए लोग बनाते हैं जिन्हें वे ही चुनते हैं। वे दूसरे लोग चुनना चाहते हैं जो उन के लिए कानून बनाएँ। वे कोशिश करते हैं, कुछ को बदल भी लेते हैं। पर जिन्हें बदलते हैं, वे उन का साथ नहीं देते। चुने जाने पर, चुने हुए लोग बदल जाते हैं। वे भी वैसे ही हो जाते हैं जैसे बदले जाने के पहले वाले थे। 

ब वे सोचने लगते हैं, चुनाव से क्या फायदा, वे अब वोट डालने नहीं जाते। उन में से कुछ को मनाया जाता है, कुछ को कुछ ले-दे कर, कुछ को खिला-पिला कर पटाया जाता है। उन में से कई वोट डालने चले जाते हैं। वोट डालते हैं, और पछताते हैं। कई वोट डालने नहीं जाते। लगातार सपने देखते हैं, आपस में मिलते हैं, इकट्ठा होते हैं, वोट का तोड़ ढूंढते हैं। आप ने कहीं देखा है ऐसे लोगों को? हो सकता है आप ने उन्हें देखा हो, या हो सकता है नहीं देखा हो। मैं ने उन्हें देखा है, अपने ही आस-पास। जहाँ जाता हूँ वहाँ मिल जाते हैं। आप जरा तलाश करेंगे और मेरी नजर से देखेंगे तो आप को भी दिख जाएंगे। जब दिखने लगेंगे तो बहुत दिखेंगे, छोटे-छोटे समूहों में। आप इन्हें देखने की कोशिश तो करें। मैं तो देख रहा हूँ, कुछ इधर हैं इस मुहल्ले में, कुछ उधर हैं उस मुहल्ले में, कुछ कारखानों में हैं तो कुछ मंडियों और बाजारों में, कुछ खेतों में हैं तो कुछ खलिहानों में हैं। आप देखिए तो सही, एक बार पहचान लेंगे तो सर्वत्र दिखाई देंगे। सब जुटे हैं, अलग-अलग छोटे-छोटे समूहों में वोट का तोड़ तलाशने में। मैं भी सपना देखने लगता हूँ। ये समूह आपस में मिल रहे हैं, मिल कर बड़े हो रहे हैं। एक न एक दिन तोड़ ढूंढ ही लेंगे। मैं भी निकल पड़ता हूँ सपने को हकीकत बनाने में जुट जाता हूँ। तो,  भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?


शनिवार, 15 अगस्त 2009

मिथ्या साबित आजादी और जनता के सपने


आजादी की बासठवीं वर्षगाँठ है। गाँव-गाँव में समारोह हो रहे हैं। शायद वही गाँव ढाणी शेष रह जाएँ, जहाँ कोई स्कूल भी नहीं हो। अपेक्षा की जा सकती है कि जहाँ अन्य कोई सरकारी दफ्तर नहीं होगा वहाँ स्कूल तो होगा ही। नगरों में बड़े बड़े सरकारी आयोजन हो रहे हैं। सरकारी इमारतें रोशनी से जगमगा रही हैं। कल रात नगर के प्राचीन बाजार रामपुरा में था तो वहाँ सरकारी इमारत के साथ दो अन्य इमारतें भी जगमगा रही थीं। पूछने पर पता लगा कि ये दोनों जगमगाती इमारतें मंदिर हैं और जन्माष्टमी के कारण रोशन हैं। जन्माष्टमी को जनता मना रही है। आज नन्दोत्सव की धूम रहेगी। कृष्ण जन्म भारत में जनता का त्योहार है। इसे केवल हिन्दू ही नहीं मना रहे होते हैं। अन्य धर्मावलम्बी और नास्तिक कहे-कहलाए जाने वाले लोग भी इस त्योहार में किसी न किसी रुप में जुटे हैं। जन्माष्टमी को कोई सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं है। क्यों है? इन दोनों में इतना फर्क कि हजारों साल पुराने कृष्ण से जनता को इतना नेह है। आजादी की वर्षगाँठ से वह इतना निकट नहीं। वह केवल बासठ बरसों में एक औपचारिकता क्यों हो गया है?

कल दिन में मुझे एक पुराना गीत स्मरण हो आया। 1964 में जब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे विद्यालय ने इसी गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की थी, जिस में मैं भी शामिल था। गीत के बोल आज भी विस्मृत नहीं हुए हैं। बहुत बाद में पता लगा कि यह गीत शील जी का था। इस गीत में आजादी के तुरंत बाद के जनता के सपने गाए गए थे। आप भी देखिए क्या थे वे सपने? ..........

आदमी का गीत
-शील

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।।

सौ-सौ स्वर्ग उतर आएँगे,
सूरज सोना बरसाएँगे,
दूध-पूत के लिए पहिनकर
जीवन की जयमाल,
रोज़ त्यौहार मनाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इंसान बनाएंगे।

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

सुख सपनों के सुर गूंजेंगे,
मानव की मेहनत पूजेंगे
नई चेतना, नए विचारों की
हम लिए मशाल,
समय को राह दिखाएंगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे।

एक करेंगे मनुष्यता को,
सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए, बदल
देंगे तारों की चाल,
नया भूगोल बनाएँगे,
नया संसार बसाएंगे, नया इन्सान बनाएंगे

देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल।
नया संसार बसाएँगे, नया इन्सान बनाएँगे॥

इस गीत में शील जी के देखे सपने, जो इस देश का निर्माण करने वाली मेहनतकश किसान, मजदूर और आम जनता के सपने हैं, नवनिर्माण का उत्साह, उल्लास और उत्सव है। जनता कैसा भारत बनाना चाहती थी इस का ब्यौरा है।  लेकिन विगत बासठ वर्षों में हमने कैसा भारत बनाया है? हम जानते हैं। वह हमारे सामने प्रत्यक्ष है। जनता के सपने टूट कर चकनाचूर हो चुके हैं।  चूरा हुए सपने के कण तो अब मिट्टी में भी तलाश करने पर भी नहीं मिलेंगे।

क्या झूठी थी वह आजादी?  और यदि सच भी थी, तो हमारे कर्णधारों ने उसे मिथ्य करने में कोई कोर-कसर न रक्खी थी। आज देश उसी मिथ्या या मिथ्या कर दी गई आजादी का जश्न मना रहा है। वह जश्न सरकारी है या फिर उस झूठ के असर में आए हुए लोग कुछ उत्साह दिखा रहे हैं। करोड़ों भारतीय दिलों में आजादी की 62वीं सालगिरह पर उत्साह क्यों नहीं है। इस की पड़ताल उन्हीं करोड़ों श्रमजीवियों को करनी होगी, जिन के सपने टूटे हैं।  वे आज भी यह सपना देखते हैं। उन्हों ने सपने देखना नहीं छोड़ा है।  इन सपनों के लिए, उन्हें साकार करने के लिए, एक नई आजादी हासिल करने के लिए एक लड़ाई और लड़नी होगी। लगता है यह लड़ाई आरंभ नहीं हुई। पर यह भ्रम है। लड़ाई तो सतत जारी है। बस फौजें बिखरी बिखरी हैं। उन्हें इकट्ठा होना है। इस जंग को जीतना है।

मिथ्या की जा चुकी आजादी की सालगिरह पर, हम मेहनतकश, अपने सपनों को साकार करने वाली एक नयी आजादी को हासिल करने के लिए इकट्ठे हों।  ऐसी आजादी के लिए, जिस का सपना इस गीत में देखा गया है।  जिस दिन हम इसे  हासिल कर लेंगे।  आजादी के जश्न में सारा भारत दिल से झूमेगा। भारत ही क्यों पूरी दुनिया झूम उठेगी।

आजादी के इस पर्व पर,  
नयी और सच्ची आजादी के लिए शुभकामनाएँ!