@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?


'कहानी'
आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?  

  • दिनेशराय द्विवेदी 
भाई साहब ने दो दिन पहले फोन किया था कि मैं रविवार की रात को उपलब्ध रहूँगा या नहीं? बताया कि उन्हों ने विनय को फोन किया था, लेकिन वह गाँव गया हुआ है, तब तक लौटेगा नहीं। उन्हें नागपुर बेटे के पास जाना है और कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है। मैं ने कहा वासु के बेटे की शादी है उस के संगीत कार्यक्रम में रहना होगा। पर नौ बजे तक छूट लूंगा। जब कोई उपलब्ध नहीं हो रहा है तो मेरे पास कोई विकल्प  नहीं रह गया था मैं ने कहा मैं आ जाउंगा आप को ट्रेन पर छोड़ दूंगा।
भाई साहब अध्यापक थे। फिर प्रिंसिपल और इंस्पेक्टर भी रहे। हमेशा सादगी भरा जीवन रहा उन का। अब भी शिष्य उन्हें पूछते रहते हैं। भाभी जी का देहांत हो चुका है। बेटी ससुराल में है। बेटा नागपुर में व्यवसाय कर रहा है। यहाँ के वे रहने वाले नहीं हैं। लेकिन उन के बहुत रिश्तेदार यहीँ रहते हैं। उन्हों ने भी कभी एक बड़ा सा भूखंड ले कर कुछ हिस्से पर मकान बना लिया था। वक्त गुजरने के साथ कौड़ियों के मोल लिया भूखंड लाखों, करोड़ से भी ऊपर का हो चुका है।  तीन सप्ताह बेटे के पास और पाँच  सप्ताह अकेले घऱ में रहते हैं। दो कमरे किराए पर दे रखे हैं। किराएदार से मकान की सुरक्षा रहती है। साल भर पहले बीमार हुए, रीढ़ की हड़्डी में बीमारी है, चार माह तो बिलकुल बिस्तर पर रहे। डाक्टर ने कुछ चलने फिरने की छूट दी तो अब पाँच सप्ताह बेटे के पास और तीन सप्ताह यहाँ मकान में रहने लगे हैं। अभी भी बेल्ट बांध कर रहना पड़ता है।
मैं भूल गया मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना है। मैं वासु के बेटे की शादी की संगीत पार्टी में था। तभी वहाँ विनय पत्नी सहित दिखाई दिया। मुझे याद आया भाई साहब को छो़ड़ने जाना है। मुझे आश्चर्य हुआ कि विनय तो गांव गया हुआ था। उस ने मुझे देख अभिवादन किया। मैं ने पूछा गाँव नहीं जाते आज कल। तो कहा वहीं से आ रहा हूँ अभी, इस शादी के कारण। खाना आरंभ हो गया था। मैं ने पत्नी को इशारा किया और खुद खाना आरंभ कर दिया। कुछ देर में ही पत्नी भी आ गई। हम वहाँ से विदा ले घर पहुँचे। साढ़े नौ बज चुके थे। मैं ने रेलवे को फोन कर पूछा पता लगा ट्रेन सही समय 9.55 आ रही है। तभी भाई साहब का फोन आ गया। हम तुरंत रवाना हो गए। उन के साथ एक सूटकेस और एक बड़ा बैग था। दोनों का वजन पंद्रह-पंद्रह किलो से कम न था, एक पानी की कैटली थी। मैं ने सामान कार में रखा और हम रवाना हो गए। रास्ते में भाई साहब ने बताया कि उन्हों ने शादी में विनय की मदद की थी। विनय ने पिछले महिने ही रकम वापस उन के खाते में जमा करा दी है। सूटकेस और बैग में वजन अधिक है पुल पार कर प्लेटफार्म तक जाने में कठिनाई होगी। कुली कर लें तो बेहतर होगा। पर कुली ट्रेन में सामान चढ़ाने तक नहीं रुकेगा।

हाँ कार पार्क की वहाँ कुली नहीं था। मैं ने सूटकेस और बैग को उन में लगे पहियों पर खींचा और पुल तक ले गया। वे वाकई वजनी थे और आसानी से खिंच भी नहीं रहे थे। भाई साहब उन्हें खींचते तो रीढ? वापस आठ माह पुरानी स्थति में पहुँच जाती। मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई मैं ने एक हाथ में बैग और एक में सूटकेस उठाया और पुल पर चढ़ गया। इसी तरह दूसरे प्लेटफार्म पर उतरा। हम करीब आधे घंटे पहले प्लेटफार्म पर थे।  अच्छी खासी सर्दी के बावजूद में पसीने में नहा गया था।  मैं ने कहा आजकल स्लीपर में परेशानी होती है। कई बार सवारियां अधिक हो जाती हैं। वे बताने लगे बेटा तो हमेशा एसी के लिए बोलता है पर मुझ से एसी बर्दाश्त नहीं होता, और फिर इस सर्दी में?
ट्रेन वक्त पर ही आ गई। उन्हे और उन का सामान चढाया। उन की बर्थ पर कोई सोया हुआ था और बर्थों के बीच फर्श पर भी। सीटों के नीचे सामान रखने को स्थान बिलकुल रिक्त न था। सोये हुए को जगाया गया। उसने तुरंत बर्थ खाली कर दी। सोये हुए के बारे में पूछा तो वह बताने लगा उन के साथ है। उन्हों ने छह टिकट कराए थे लेकिन दो वेटिंग में रह गए। उन्हों ने सामान को किसी तरह रखवाया। भाई साहब को लेटने की जगह मिल गई। गाड़ी चल दी तो हम वापस चले आए।
ह सब कल की बात थी। मैं सुबह काम पर चला गया। वापस लौटते हुए वासु के घर गया। कल वजन उठाने का करतब करने का नतीजा आने लगा था। हाथ, पैर और पीठ तीनों अकड़ना आरंभ कर चुके थे। मैं ने वासु को बताया कि मुझे भाई साहब को छोड़ने जाना पड़ा था। स्लीपर में बर्थ रिजर्व होते हुए भी मुश्किल से सफर किया होगा उन्हों ने। वासु कह रहा था। एसी में क्यों नहीं जाते? और बार बार यहाँ आने की जरूरत क्या है? बेटे के साथ क्यों नहीं रहते? आखिर करोड़ों का क्या करेंगे?

10 टिप्‍पणियां:

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

आदमी का बुढ़ापा आने पर सब के लिए बोझ बन जाते है और लोगों की नज़र बस उसके संपत्ति पर लगी रहती है भले उनके हिस्से कुछ भी नही आता हो..ऐसे तो लोग होते है...बढ़िया कहानी..बधाई

Chandan Kumar Jha ने कहा…

अच्छी लगी कहानी । धन का लोभ अंत समय तक नहीं जाता । यही मानव स्वभाव है ।

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हैं भई,
कहानी भी...
मूल्यों की पड़ताल करती...

अजित वडनेरकर ने कहा…

वक्त से समझौता भी करना चाहिए और पीढ़ियों से संवाद का कौशल भी आना चाहिए।
तभी शायद बुढ़ापा अच्छा कटता है।

Himanshu Pandey ने कहा…

बहुत कुछ की चाह, सहेजने की चिंता, असुरक्षा - बहुत कुछ चैन से जीने नहीं देता !

सुन्दर कहानी ! आभार ।

उम्मतें ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
उम्मतें ने कहा…

क्या कहें,सोच रहे हैं !

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " ने कहा…

लम्बा लगा. पूरा पढे बिना राय देना गलत होगा.... वैसे रुपया अपने आपमें भ्रमकी व्यवस्था है, दुःख ही देता है. पैसा आये तो दुःख साथ, जाये तो भी दुख देकर जाता है. मानव बिना पैसे के जीना सीख सकता है.... साधक-उम्मेद

निर्मला कपिला ने कहा…

कहानी अच्छी लगी ।सच है बुढापे मे अदमी की तरफ किसी का ध्यान नहीं रहता उसके धन सम्पत्ति पर ही नज़र रहती है आज के सच को ब्यान करती कहानी। बधाई

गौतम राजऋषि ने कहा…

वडनेरकर जी ने सच कहा...