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शनिवार, 22 मई 2010

'पार्वती' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचम सर्ग




नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के चार सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का पंचम सर्ग "पार्वती" प्रस्तुत है ......... 


परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

  पंचम सर्ग
'पार्वती'
खल्, खल् खल् - खल् खल्
धार प्रबल
चट्टानी सरिता 
क्षुब्ध विकल
पर्वत से दौड़ी -
काली - सी फुत्कार मारती
व्याली - सी
अंगों में तड़पन
बिजली सी - 
वाणी में गुरुता
बदली सी
आँखों में जीता 
काल लिए
मुट्ठी में नर का 
भाल लिए

आंधी - अंधड़ की चाल लिए
कांधे पर ऋक्ष विशाल लिए
कन्दरा त्वरित चिग्घाड़ उठी
शेरों की त्रस्त दहाड़ उठी
नारी का नर है डरा हुआ
स्वागत में उस के खड़ा हुआ
पाताल, धरा, अंबर - प्रांतर
जंगल - उपवन, पुर, विजन, डगर
सब की साँसें हैं 
रुकी हुई 
सब की आंखें हैं
झुकी हुई
दिग्गज की फटती 
छाती है
लो, आदि भवानी 
आती है
भिक्षा में नर 
आहार मांग
नारी से नर 
कण चार मांग
मिल जाय अगर, निज
भाग मांग
जीवन की बुझती 
आग मांग
यौवन का बंधन
प्यार मांग
जो लेना है, मन
मार मांग
नर विवश खड़ा
बिल्लाता है
दो होंठ हिला
रह जाता है
कुछ मांग न डर
से पाता है
युग पर युग 
बीता जाता है..........

यह देख - भवानी
की बेटी
हिम -शिला पाट पर
है लेटी
मन में कुछ गुनती
जाती है
भौंहें तन - तन जाती हैं
विकराल भुजा  वह
घूर रही 
"क्यों बनी आज तक 
मूढ़ रही

जो सुंदर युवा - हिमाला है
वह मेरे चर की माला है
सारा परिवार
हमारा है
उस पर अधिकार 
हमारा है
उस चोटी से 
उस चोटी तक
इस घाटी से 
उस घाटी तक
सब कुछ मेरी ही थाती है
माँ वृथा विधान बनाती है
मुझ में पुरुषार्थ
जवानी है
मेरे भाले पर 
पानी है"

सासों में आंधी उमड़ उठी
खूँ उबला, लपटें घुम़ड़ उठीं
तन गईं शिराएँ यौवन की
बाजी जब लगती जीवन की
पौरुष करतब दिखलाता है
दर्शन कुछ काम न आता है

पत्थर के भाले पर सूरज कुर्बान हुआ
पर्वत की टक्कर से पर्वत हैरान हुआ
माँ के पैरों के नीचे की मिट्टी सरकी
फट गई धरा की छाती जो बिजली कड़की
कड़की कड़ - कड़ हड्डियाँ, निशाना हाथ लगा !
वय की अनुचरी रही किस्मत है, भाग्य जगा !!
'नारी के पाँव 
पखार पुरुष
जंगल बोले -
उस की भृकुटी 
तन जाय तनिक 
- पर्वत डोले'

नारी का जूठा नर किस्मत को कोस रहा
निरुपाय पुरुष दिल अपना आप मसोस रहा
पर, भीम बेलि चीड़ों के तने निहार रही
बाहों में बांध पहाड़, उदण्ड विचार रही -

'जो सुन्दर युवा हिमाला है
वह मेरे चर की माला है'
                      और तब - 
नंगी पाषाणी पलकों में 
एक अजानी लाज समाई
क्रूर, हिमानी कल्याणी बन
शान्ति सुधा बरसाने आई

प्रिये सहेली विटप - लताएँ
प्राण सखा हैं सावन के घन
फूलों की प्यारी हमजोली
फूल रहा फूलों का कानन

 
 नर को बान्ध भुजा में अपनी
तू ने अपनी दुनिया बांधी
सदा मुक्त जो रही खेलती
अंगूरी में डूबी आंधी

बंधी आप तू स्वयं चाह में
नर की ममता की पुतली तू
जाओ पी की प्रिये सुहागिन
मानव स्रष्टा की जननी तू
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'पार्वती' नाम का पंचम-सर्ग समाप्त

श्रम - मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर

भारतीय प्राचीन आवास (मोहेन्जोदड़ो)
जिस तरह मनुष्य ने सभी भक्ष्य वस्तुओं को खाना सीखा, उसी तरह उस ने किसी भी जलवायु में रह लेना भी सीखा। वह समूची निवास योग्य दुनिया में फैल गया। वही एक मात्र पशु ऐसा था जिस में खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमंता थी। अन्य पशु-पालतू जानवर और कृमि-अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी जलवायुओं के अभ्यस्त बने। और मानव द्वारा एक समान गरम जलवायु वाले अपने मूल निवास स्थान से ठण्डे इलाकों में स्थानान्तरण से, जहाँ वर्ष के दो भाग हैं- ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु - नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न हुई - शीत और नमी से बचाव के लिए घर और पहनावे की आवश्यकता उत्पन्न हुई जिस से श्रम के नए क्षेत्र आविर्भूत हुए। फलतः नए प्रकार के कार्यकलाप आरंभ हुए जिन से मनुष्य पशु से और भी अधिकाधिक पृथक होता गया। 
वस्त्रों की आरंभिक आवश्यकता
प्रत्येक व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी हाथों स्वरांगों और मस्तिष्क के संयुक्त काम से मानव अधिकाधिक पेचीदा कार्य करने के तथा सतत उच्चतर लक्ष्य अपने सामने रखने और उन्हें हासिल करने के योग्य बने। हर पीढ़ी के गुजरने के साथ स्वयं श्रम भिन्न, अधिक परिनिष्पन्न, अधिक विविधतायुक्त होता गया। शिकार और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि भी की जाने लगी। फिर कताई, बुनाई, धातुकारी, कुम्हारी और नौचालन की बारी आयी। व्यापार और उद्योग के साथ अन्ततः कला और विज्ञान का आविर्भाव हुआ। क़बीलों से जातियों और राज्यों का विकास हुआ। प्रथमतः मस्तिष्क की उपज लगने वाले और मानव समाजों के ऊपर छाए प्रतीत होने वाले इन सारे सृजनों के आगे श्रमशील हाथ के अधिक साधारण उत्पादन पृष्टभूमि में चले गए। ऐसा इस कारण से भी हुआ कि समाज के विकास की बहुत प्रारंभिक मंजिल से ही (उदाहरणार्थ आदिम परिवार से ही) श्रम को नियोजित करने वाला मस्तिष्क नियोजित घम को दूसरों के हाथों से करा सकने में समर्थ था। सभ्यता की द्रुत प्रगति का समूचा श्रेय मस्तिष्क को, मस्तिष्क के विकास एवं क्रियाकलाप को दे डाला गया। मनुष्य अपने कार्यों की व्याख्या अपनी आवश्यकताओं से करने के बदले अपने विचारों से करने के आदी हो गए (हालाँकि आवश्यकताएँ ही मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती हैं, चेतना द्वारा ग्रहण की जाती हैं)। अतः कालक्रम में उस भाववादी विश्वदृष्टिकोण का उदय हुआ जो प्राचीन यूनानी-रोमन समाज के पतन के बाद से तो ख़ास तौर पर मानवों के मस्तिष्क पर हावी रहा है। वह अब भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन पंथ के भौतिकवादी से भौतिकवादी प्रकृति विज्ञानी भी अभी तक मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट धारणा निरूपित करने में असमर्थ हैं क्यों कि इस विचारधारा के प्रभाव में पड़ कर वे इस में श्रम द्वारा अदा की गई भूमिका को नहीं देखते। 
चार्ल्स डार्विन
जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है, पशु अपने क्रियाकलाप से मानवों की भाँति बाह्य प्रकृति को परिवर्तित करते हैं यद्यपि वे उस हद तक ऐसा नहीं करते जिस हद तक मनुष्य करता है। और जैसा कि हम देख चुके हैं उन के द्वारा अपने परिवेश में किया गया यह परिवर्तन उलट कर उन के ऊपर असर डालता है तथा अपने प्रणेताओं को परिवर्तित करता है। प्रकृति में पृथक रूप से कुछ भी नहीं  होता। हर चीज  अन्य चीजों पर प्रभाव डालती तथा उन के द्वारा स्वयं प्रभावित होती है। इस सर्वांगीण गति एवं अन्योन्यक्रिया को बहुधा भुला देने के कारण ही प्रकृति-विज्ञानी साधारण से साधारण चीजों को स्पष्टता के साथ नहीं देख पाते। हम देख चुके हैं कि किसक तरह बकरियों ने यूनान में वनों के पुनर्जन्म को रोका है। सेंट हलेना द्वीप में वहाँ पहुँचनेवाले प्रथम यात्रियों द्वारा उतारे गए बकरों और सुअरों ने पहले से चली आती वहाँ की वनस्पतियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया और ऐसा कर के उन्हों ने बाद में आए नाविकों और आबादकारों द्वारा लाए गए पौधों के प्रसार के लिए जमीन तैयार की। परन्तु यदि पशु अपने परिवेश पर अधिक समय तक प्रभाव डालते हैं तो ऐसा अचेत रूप से ही होता है तथा स्वयं पशुओं को सम्बन्ध में यह महज संयोग की बात होती है. लेकिन मनुष्य पशु से जितना ही अधिक दूर होते हैं, प्रकृति पर उन का प्रभाव पहले से ज्ञात निश्चित लक्ष्यों की ओर निर्देशित, नियोजित क्रिया का रूप धारण कर लेता है। पशु यह महसूस किए बिना कि वह क्या कर रहा है, किसी इलाके की वनस्पतियों को नष्ट करता है। मनुष्य नष्ट करता है मुक्त भूमि पर फसलें बोने के लिए अथवा वृक्ष एवं अंगूर की लताएँ रोपने के लिए, जिन के बारे में वह जानता है कि वे बोयी गई मात्रा से कहीं अधिक उपज देंगी। उपयोगी पौधों और पालतू पशुओं को वह एक देश से दूसरे में स्थानान्तरित करता है और इस प्रकार पूरे के पूरे महाद्वीपों के पशुओं एवं पादपों को बदल डालता है। इतना ही नहीं, कृत्रिम प्रजनन के द्वारा वनस्पति और पशु दोनों ही मानव के हाथों से इस तरह बदल दिए जाते हैं कि वने पहचाने भी नहीं जा सकते। उन जंगली पौधों की  व्यर्थ ही अब खोज की जा रही है जिन से हमारे नाना प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति हुई है। यह प्रश्न कि हमारे कुत्तों का, जो खुद भी एक दूसरे से अति भिन्न हैं, अथवा उतनी ही भिन्न नस्लों के घोड़ों का पूर्वज कौन सा वन्य पशु है अब भी विवादास्पद है। 
इतिहास को दोहराता भ्रूण का विकास
बात चाहे जो भी हो, पशुओं के नियोजित पूर्वकल्पित ढंग से काम कर सकने की क्षमता के बारे में विवाद उठाना हमारा मक़सद नहीं है। इस के विपरीत, जहाँ भी प्रोटोप्लाज्म का, जीवित एल्बुमिन का अस्तित्व है और वह प्रतिक्रिया करता है, यानी निश्चित बाह्य उद्दीपनाओं के फलस्वरूप निश्चित क्रियाएँ संपन्न करता है, भले ही ये क्रियाएँ अत्यन्त ही सहज प्रकार की हों, वहाँ क्रिया की एक नियोजित विधि विद्यमान रहती है।  यह प्रतिक्रिया वहाँ भी होती है जहाँ अभी कोई कोशिका नहीं है, तंत्रिका कोशिका की तो बात दूर रही। इसी प्रकार से कीटभक्षी पौधों का अपना शिकार पकड़ने का ढंग किसी मानी में नियोजित क्रिया सा लगता है यद्यपि वह बिलकुल अचेतन रूप में की जाती है। पशुओं में सचेत, नियोजित क्रिया की क्षमता तंत्रिका तन्त्र के विकास के अनुपात में विकसित होती है और स्तनधारी पशुओं में यह काफी उच्च स्तर तक पहुँच जाती है। इंग्लेंड में लोमड़ी का शिकार करने वाले आसानी से यह देख सकते हैं कि लोमड़ी अपना पीछा करने वालों की आँखों में धूल झोंकने के लिए स्थानीय इलाके की अपनी उत्तम जानकारी का इस्तेमाल करने का कैसा अचूक ज्ञान रखती है और भूमि की अनपे लिए सुविधाजनक  हर विशेषता को वह कितनी अच्छी तरह जानती तथा कितनी अच्छी तरह शिकारी को गुमराह कर देने के लिए उस का इस्तेमाल करती है। मानव की संगति में रहने के कारण अधिक विकसित पालतू पशुओं को हम नित्य ही चतुराई के ठीक उस स्तर के कार्य करते देखते हैं जिस स्तर के बच्चे किया करते हैं। कारण यह है कि जिस प्रकार माता के गर्भ में मानव भ्रूण के विकास का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैले हमारे पशु पूर्वजों के केंचुए से आरम्भ कर के अब तक के शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति है, उसी प्रकार मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों के, कम से कम बाद में आने वाले पूर्वजों के, बौद्धिक विकास की ओर भी संक्षिप्त पुनरावृत्ति है। पर सारे के सारे पशुओं की सारी की सारी नियोजित क्रिया भी कभी धरती पर उन की इच्छा की छाप न छोड़ सकी। यह श्रेय मनुष्य को ही प्राप्त हुआ। 
सेंट हेलेना द्वीप
संक्षेप में, पशु बाह्य प्रकृति का उपयोग मात्र करता है और उस में केवल अपनी उपस्थिति द्वारा परिवर्तन लाता है। पर मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा प्रकृति से अपने काम करवाता है, उस पर स्वामिवत शासन करता है। यही मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर है। श्रम यहाँ भी इस अन्तर को लाने वाला होता है। (गौरवशाली बनाने वाला होता है)
फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का चतुर्थांश।

गुरुवार, 20 मई 2010

श्रीमद्भगवद्गीता के साथ मेरे अनुभव

डॉ. अरविंद मिश्र ने आज समूचे ब्लागजगत से पूछ डाला -आपने कभी गीता पढी है ? अब मैं इस प्रश्न का क्या उत्तर देता? हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता की यह स्थिति है कि उस की कम से कम पाँच-दस प्रतियाँ हर वर्ष घर में अवश्य आ जाती हैं, और उन्हें फिर आगे भेंट कर दिया जाता है। एक सेवानिवृत्त मेजर साहब हैं वे हर किसी को गीता का हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण वितरित करते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले विवाहपूर्व यौन संबंधों की बात सर्वोच्च न्यायालय पहुँची और न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा तो उस दिन न्यायाधीशों द्वारा अधिवक्ताओं से पूछे गए कुछ प्रश्नों में राधा-कृष्ण के संबंध का उल्लेख हुआ तो देश में बवाल उठ खड़ा हुआ। मेजर साहब ने मुझे फोन कर के पूछा कि क्या मैं न्यायाधीशों को पत्र लिख सकता हूँ। मैं ने कहा आप की इच्छा है तो अवश्य लिख दीजिए। उन्हों ने पीठ के सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा और साथ में श्रीमद्भगवद्गीता की अंग्रेजी प्रतियाँ उन्हें डाक से प्रेषित कर दीं। गीता हमारे देश में बहुश्रुत और बहुवितरित है। उस का पाठ भी लाखों लोग नियमित रूप से करते हैं। 

मेरे परिवार में परंपरा से किसी की मृत्यु के तीसरे दिन से नवें दिन तक गरुड़ पुराण के पाठ की परंपरा रही है जो मेरी दृष्टि में विभत्स रस का विश्व का श्रेष्ठतम ग्रंथ है। यह अठारह मूल पुराणों के अतिरिक्त पुराणों में सम्मिलित है। जिस परिवार में मृत्यु हुई हो उस समय परिजनों की विह्वल अवस्था में गरुड़ पुराण के सार्वजनिक वाचन की परंपरा कब आरंभ हो गई? कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुझे यह कोमल और आहत भावनाओं का शोषण अधिक लगा। नतीजा यह हुआ कि जब परिवार में मेरा बस चलने लगा मैं ने इस पाठ को बंद करवा दिया जो अब सदैव के लिए बंद हो गया है। तब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि तब परिवार में एकत्र सभी व्यक्ति कम से कम एक बार तो एकत्र हों और कुछ चिंतन करें। माँ ने सुझाव दिया कि इस के स्थान पर गीता का पाठ किया जाए। कुल अठारह अध्याय हैं जिन्हें तीसरे दिन से ग्यारहवें दिन तक नित्य दो अध्याय का वाचन किया जाए। सब को यह सुझाव पसंद आया। अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई कि गीता वाचन कौन करे, अर्थ कौन समझाए? माँ ने यह दायित्व मुझे सौंपा और मुझे निभाना पड़ा। हमारे परिवार की देखा-देखी अनेक परिवारों में गरुड़ पुराण के स्थान पर अब गीता पाठ आरंभ हो गया है।
क और घटना जो गीता के संदर्भ में घटी उसे यहाँ रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं गीता को अपने तरीके से समझने का प्रयत्न कर रहा था। अलग अलग भाष्यों को पढ़ते समय मुझे लगा कि जो भी कोई गीता का भाष्य करता है उस के लिए गीता माध्यम भर है वास्तव में वह अपनी बात, अपना दर्शन गीता की सीढ़ी पर चढ़ कर कह देता है। तब वास्तव में गीता का अर्थ क्या होना चाहिए। यह तभी जाना जा सकता है जब उसे बिना किसी भाष्य के समझने का प्रयत्न किया जाए। गीता की अनेक प्रतियाँ पास में उपलब्ध होते हुए भी एक नयी प्रति खरीदी जिस में केवल श्लोक और उन का अन्वय उपलब्ध था। मैं गीता समझने का प्रयत्न करने लगा। हर समय गीता मेरे साथ रहती, जब भी फुरसत होती मैं गीता खोल लेता और एक ही श्लोक में घंटों खो जाता। 
न्हीं दिनों एक मित्र ने गाढ़ी कमाई से एक जमीन रावतभाटा में खरीदी और कर्ज ले कर उस पर अपना वर्कशॉप बनाने लगे। कुछ पचड़ा हुआ और जमीन बेचने वाले के पुत्र ने दीवानी मुकदमा कर निर्माण पर रोक लगवा दी। मित्र उलझ गए। मुकदमा लड़ने को पैसा भी न था। वे मेरे पास आए। मैं ने उन का मुकदमा लड़ना स्वीकार कर लिया। जिस दिन तारीख होती मुझे रावतभाटा जाना होता। मेहनताना मिलने का प्रश्न नहीं था। बस आने-जाने का खर्च मिलता। उन की पेशी पर जाना था। एक दिन मैं भोजन कर घर से निकला झोले में मुकदमे की पत्रावली और गीता रख ली। बस स्टॉप पर जा कर पान खाया। पान वाले को पैसा देने के लिए पर्स निकाला तो उस में केवल पंद्रह रुपए थे। घऱ वापस जा कर रुपया लाता तो बस निकल जाती। मैं ने तीन रुपए पान के चुकाए। बस का किराया 12 रुपया सुरक्षित रख लिया। बस आने में देर थी, रावतभाटा जाने वाली एक जीप आ गई।  किराया 12 रुपया तय कर लिया। सवारियाँ पूरी होने पर जीप को चलना था। मैं जीप में बैठा गीता निकाल कर पिछले पढ़े हुए के आगे पढ़ने लगा और एक श्लोक को समझने में अटक गया। मेरे पास ही एक महिला शिक्षक आ बैठी। जीप चली तो उस शिक्षिका ने पूछा -भाई साहब! आप गीता पढ़ रहे हैं? मैं ने कहा हाँ। मुझे तीसरे अध्याय का एक श्लोक समझ नहीं आया, क्या आप समझा सकते हैं?
मैं कुछ समझा नहीं, मुझे लगा कि शायद वह मेरी परीक्षा लेना चाहती है। फिर दूसरे ही क्षण सोचा शायद वह सच में ही जानना चाह रही हो। मैं ने मौज में कहा -अभी समझा देते हैं। फिर मैं ने इंगित श्लोक निकाला, उसे पढा़ और समझाने लगा। तब बस कोटा के इंजिनियरिंग कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। उस एक श्लोक पर चर्चा करते-करते मैं ने क्या क्या कहा मुझे खुद को स्मरण नहीं। लेकिन जब चर्चा पूर्ण हुई तो बाडौली आ चुका था। अर्थात रावतभाटा केवल तीन किलोमीटर रह गया था। हम पैंतीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके थे और मुझे इस का बिलकुल ध्यान नहीं था। शिक्षिका स्वयं भी विज्ञ थी। उस ने बीच में एक ही प्रश्न पूछा -आप मार्क्सिस्ट हैं? मैं ने उत्तर दिया -शायद! उस की प्रतिक्रिया थी -तभी आप इतना अच्छे से समझा सके हैं। 

रावतभाटा के निकट बाडौली स्थित प्राचीन शिव मंदिर
 रावतभाटा बाजार में पाँच-छह सवारियाँ उतरी तो हर सवारी मुझे बड़ी श्रद्धा के साथ नमस्कार कर के गई, मुझे लगा कि यदि मैं ने पेंट-शर्ट के स्थान पर धोती-कुर्ता पहना होता तो शायद चरण स्पर्श भी होने लगता। जीप ऊपर टाउनशिप में पहुँची जहाँ सभी सवारियाँ उतर गईं। वहाँ भी उन्हों ने बाजार में उतरने वाली सवारियों की भांति ही श्रद्धा का प्रदर्शन किया। मैं जीप से उतरा और जीप वाले को किराया बारह रुपए दिया। जीप वाले ने पूछा -आप वापस कितनी देर में जाएंगे? मैं ने कहा -भाई, मैं तो यहाँ मुकदमे में पैरवी करने आया हूँ, अदालत में काम निपट गया तो घंटे भर में भी वापस जा सकता हूँ और शाम भी हो सकती है। -तो साहब! मैं भी एक घंटे बाद वापस कोटा जाऊंगा। आप एक घंटे में वापस आ जाएँ तो मेरी ही जीप में चलिएगा, वापसी का किराया नहीं लूंगा।  मैं एक घंटे में तो वापस न लौट सका। पर मुझे आम लोगों में गीता के प्रति जो श्रद्धा है उस का अवश्य अनुभव हो गया। इतना आत्मविश्वास जाग्रत हुआ कि मैं सोचने लगा कि यदि मैं दो जोड़ा कपड़े और एक गीता की प्रति ले कर निकल पड़ूँ, तो इस श्रद्धा की गाड़ी पर सवार हो कर बिना किसी धन के पूरी दुनिया की यात्रा कर के वापस लौट सकता हूँ।

बुधवार, 19 मई 2010

उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात

पिछली पोस्ट से आगे...
दो घण्टे भी न गुजरे थे कि एक बार फिर से घोड़ी की पीठ पर सवारी करनी पड़ी। बचपन में अपने मित्र बनवारी लखारा की घोड़ी की पीठ पर चढ़ कर उसे नदी किनारे पानी दिखाने खूब गए थे। पर तब आगे न तो बैंड होता था और न नाच हो रहा होता था। शाम को पाँच घण्टे की सवारी से अकड़ी कमर ठीक से सीधी भी न हो सकी थी कि फिर जलूस बन गया। इस बार जलूस सब से छोटे रास्ते से दुल्हिन के घर पहुँचा। तोरण को कटारी से छुआ कर अंदर पहुँचे तो कन्यादान के नाम पर दुल्हा-दुल्हिन के बाएँ हाथ की हथेलियों के बीच मेहन्दी और कुछ अन्य वनस्पतियों की पिसी लुगदी रख सूत के लच्छे से बांध दिए गए। फिर बंधे हाथ ही मंडप में पहुँचाए गए। भाँवरों की कार्यवाही आरंभ हुई। पंडित जी बहुत ही धीमे चल रहे थे। बारात में पंडित ही पंडित जो थे। उन्हें डर लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कोई विधि में कसर निकाल दे। पंडित जी के डर का बोझा सहना पड़ रहा था दुल्हा-दुल्हिन को।  भाँवर निपटते-निपटते सुबह चार बज रहे थे। जैसे ही वह सब निपटा सरदार ने चुपके से पंडित को अपने दाएँ हाथ की कनिष्ठिका दिखाई, वह समझ गया। उस ने तुरंत बंधे हाथ खोले सरदार को बाथरूम का रास्ता दिखा दिया। 
भाँवर से लौटने और दुल्हन को वापस मायके पहुँचा देने के बाद सरदार को कुछ आराम मिला। नौ बजते-बजते उसे फिर उठा दिया गया।  वह जल्दी से वह स्नानादि से निपटा तो उसे फिर से एक बार दुल्हिन के घर पहुँचा दिया गया। विदाई की रस्में हुई। दोपहर तक तक बारात फिर से बस में सवार थी। इस बार बस लाइन की नियमित बस थी। इस से बारात को पास के स्टेशन तक पहुँचना था, फिर वहाँ से ट्रेन से बारात लौटनी थी। सरदार के एक दादा जी बहुत होशियार थे। उन्हों ने पूरी बारात का टिकट लिया लेकिन कंडक्टर को इस बात के लिए मना लिया कि वह दुल्हा-दुल्हिन को फ्री ले जाएगा। जल्दी ही स्टेशन आ गया। वहाँ आधा घंटा विश्राम हुआ। बारात को चाय-पान मिला। इस बीच सरदार इस चक्कर में रहा कि किसी तरह घूँघट में छिपा दुल्हन का मुख मंडल दिख जाए। पर वह बहुत प्रयत्नों के साथ छुपा था, नहीं दिखना था सो नहीं ही दिखा। ट्रेन आई और बारात उस में सवार।  ट्रेन ने घंटे भर में ही बाराँ का प्लेटफॉर्म दिखा दिया।
ट्रेन से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म पर स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँच गया।  छोटे मामा उस पर खूब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार  गया और देर रात तक दोस्तों के साथ रहा। पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले ने टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात  के बारह बजने में सिर्फ कुछ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं, जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी थी और ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था , जिस के  ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे, नेग लेने को, और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से कुंडी बंद थी। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता।  बाहर जगराते में देवताओं को मनाते, गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर ने के पहले खोल न सकतीं थीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार, लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। सरदार अपना मुहँ दीवार की तरफ कर लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद दुल्हन का मुखड़ा दिखा, लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी?
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब भी रोशन हुआ। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, लेकिन सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। 

मंगलवार, 18 मई 2010

अठारह मई का वह दिन !!!

ठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।

हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?

सी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?

“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।

जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई। 

सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....


निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।

सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।

नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)

सोमवार, 17 मई 2010

'अग्नि देवता' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का चतुर्थ सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के तीन सर्ग पढ़ चुके हैं। इन कड़ियों को ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का चतुर्थ सर्ग "अग्नि देवता" प्रस्तुत है ......... 


परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

चतुर्थ सर्ग

'अग्नि देवता'


पत्थरों के खींच ढोके
कन्दरा के द्वार भिड़ दो


हो गया सुनसान 
जंगल सो गया
बिलकुल अंधेरा हो गया ........


हिम का निठुर आघात
हिंसक पशु बिचरते, देख --


भीषण रात
कितनी क्रूर
सुन्दर प्रात
मुझ से दूर ....


पंजे खोल कर
मृग शावकों पर
टूटते हैं शेर
नन्हें गीदड़ों को, देख --
बैठे भेड़िये हैं घेर .....
मानव देखता है
झाँक प्रस्तर द्वार 
(जिव्हा चटचटाता)
माँस, निज आहार


पर अफसोस 
निष्फल रो....ष
भीषण रा.....त
फिर आघा....त !

संघर्षण विचारों का 
चली आँधी
चले तूफाँ
अमंगल स्वर हुए
हू..........ऊआँ
गहन वन में
भरा धुआँ
कड़क कर 
टूटती हैं बिजलियाँ
आकाश फटता है
ध का ध क्
गहन जंगल - पहाड़ों पर
च टा च ट
क्या चटकता है ?


करोड़ों सूर्य उतरे हैं
जमीं की क्या नमी हरने ?
रहे हैं भेड़िए सब भाग !
हिंसक पशु लगे मरने !
....    ......    ......  ........


धधकती जा रही ज्वाला
धधकता जा रहा जंगल
अहर्निश.... !  है कभी मंगल
अमंगल से कभी हो त्रस्त
भागा जा रहा प्रतिपल
यहाँ से प्रान्त, प्रान्तर में


दिशाओं, देश देशों में
अनेकों रुप - वेशों में
प्रगतिमय मनुज का विस्ता......र
युग पर युग रहे हैं तिर.....
न अब अवरुद्ध उन के द्वा.....र
करता यज्ञ.....
स्वर में बांध अपनी भावनाएँ
गा रहा है प्रज्ञ
वेदों की ऋचाएँ


हे अनंग
अग्नि देव
पाहि माम् !.......


सु--अग्नि देवता बरो
मुझे प्रसन्न तुम करो
प्रदीप्त अंतरिक्ष में
हुए महानता कढ़ो


विभिन्न रूप राशि में
प्रकट इला - प्रदेश में
हरो तिमिर विभीषिका
समक्ष,  रुद्र वेष में


अरी अरणि अरण्य की 
हताश मत मुझे करो 
प्रसन्न हो कृपा करो
दया करो, जलो' जलो


प्रकाश दायिनी ऊषा
हरो अमा, हरो निशा
प्रदान दिव्य नेत्र कर
दिखा पड़ाव, पुर, दिशा


बनो अनार्य के लिए 
विनाश, मृत्यु - दान हे !
अ - जीत आर्य के लिए 
करो अभय प्रदान हे !


रुचिर सुअन्न, सोम लो
प्रभूत तेजवान हे !
ऋचा गिरा सुना रही
उठो, मरूत - वितान हे !


प्रजापति ! तुझे प्रजा
पुकारती समिद्ध हो
पवित्र मथ रहे तुझे
मुझे प्रसिद्धि, सिद्धि दो


मृणाल - डाल - सी धरा-
गगन, मिला रही लपट
धुआँ उठा रही घटा
वे, बिजलियाँ रही चमक


अवाध्य अग्नि देव की 
विमा वहाँ रही दमक
कि, इन्द्रदेव अग्नि से
मिले समोद उठ लपक


धरा कृतार्थ हो गई
कि स्वर्ग अग्नि देव ने
मिला दिया, दिखा दिया
अहा, प्रकाश देव ने


न त्रस्त अब मनुष्य के 
विकासमय सबल चरण
खुले कि युग युगान्त से 
उलझ रहे चपल चरण

^^^^^^^^^^^^^^^^^^


मनोजवा    सुलोहिता
सुनील धूम की शिखा
गिरा कराल काल सी
अनार्य पर बढ़ा, दिखा


अहं नमामि हव्यवाह,
लो पवित्र अश्व - मांस
दो वरद प्रसस्त हस्त
आर्य छत्र पर दिवांशु


दिशा - दिशा
चमत्कृता
सविता की आरती !
शून्य बीच 
रत्न दीप
कौन चली बारती !


हे अनंग अग्नि देव
औषधिः में विद्यमान
चकमक के घर्षण में 
ज्योति, तेज, दिव्यज्ञान


अर्ध, दीप, पुष्प, मन्त्र
लो महान स्वर्गयान
हे कृशानु जाति वेद
पाहिमाम् ! पाहिमाम् !

प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'अग्नि देवता' नाम का चतुर्थ सर्ग समाप्त

रविवार, 16 मई 2010

वानर से नर और लुटेरी अर्थव्यवस्था से पशुपालन तक

पेड़ों पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी। हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को नहीं  मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है। 
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।  
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ  भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।

फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का तृतीयांश