@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 16 नवंबर 2009

किस ने दिया कीचड़ उछालने का अवसर?


चिन तेंदुलकर के ताजा बयान से  निश्चित रूप से शिवसेना  और मनसे  की परेशानी बढ़नी  थी। दोनों ही दलों की  राजनीति जनता  को किसी भी रूप में बाँटने  उन में एक  दूसरे  के प्रति  गुस्सा पैदा कर अपने हित साधने  की  रही है। दोनों दल इस  से कभी बाहर नहीं निकल सके, और न ही कभी निकल पाएँगे। बाल ठाकरे का  सामना में लिखा  गए  आलेख  से सचिन का तो क्या बनना बिगड़ना है? पर उन का यह आकलन तो सही सिद्ध  हो ही गया कि  पिटी हुई शिवसेना को  और ठाकरे को  इस  से मीडिया बाजार में कुछ भाव मिल जाएगा। मीडिया ने  उन्हें यह भाव दे  ही  दिया।  इस बहाने मीडिया काँग्रेस और कुछ अन्य  दलों के जिन जिन नेताओं  को भाव देना चाहती थी उन्हें भी उस का अवसर मिल गया। लेकिन जिन कारणों से तुच्छ  राजनीति करने वाले लोगों को  अपनी राजनीति  करने का अवसर मिलता है, उन पर मीडिया चुप ही रहा।
  
भारत  देश, जिस के पास अपार प्राकृतिक संपदा है, दुनिया के  श्रेष्ठतम  तकनीकी लोग हैं, जन-बल  है, वह अपने इन साधनों के सुनियोजन से दुनिया की किसी भी शक्ति को चुनौती दे सकता  है।  वह पूँजी के लिए दुनिया की तरफ कातर निगाहों से देखता है। क्या देश के अपने साधन दुनिया  की पूँजी का मुकाबला नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। आजादी के 62 वर्षों के बाद  भी हम अपने लोगों के लिए पर्याप्त  रोजगार उपलब्ध  नहीं करा सके। वस्तुतः हमने इस ओर ईमानदार प्रयास ही नहीं किए। अब पिछले 20-25 वर्षों  से तो हम ने इस काम को पूरी तरह से निजि पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया  है। यदि हमारे कथित राष्ट्रीय दलों ने जो केंद्र की सत्ता  में भागीदारी कर चुके हैं और आंज भी भागीदार  हैं, बेरोजगारी की समस्या को हल करने में अपनी पर्याप्त रुचि दिखाई होती तो देश को बाँटने वाली इस तुच्छ राजनीति का  कभी का पटाक्षेप  हो गया होता। यह देश में  बढ़ती बेरोजगारी  ही है जो देश की जनता को जाति, क्षेत्र, प्रांत,  धर्म  आदि के आधार पर बाँटने का अवसर  प्रदान  करती है।

चिन जैसे व्यक्तित्वों पर कीचड़ उलीचने की जो हिम्मत  ये तुच्छ राजनीतिज्ञ कर पाते हैं उस के लिए काँग्रेस और भाजपा जैसे हमारे कथित  राष्ट्रीय दल अधिक जिम्मेदार  हैं।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

भाजपा की गुटबाजी और अंतर्कलह के कारण के कारण काँग्रेस की पौ-बारह

ल जैसे ही नामांकन का दौर समाप्त हुआ। मौसम बदलने लगा। अरब सागर से उत्तर की ओर बढ़ रहे तूफान का असर कोटा तक पहुँच ही गया। बादल तो सुबह से थे ही, शाम को बूंदा-बांदी आरंभ हो गयी। रात को भी कम-अधिक बूंदा-बांदी होती रही। सुबह उठा तो बाहर नमी और शीत थी, साथ में हवा थी। मैं अखबार ले कर दफ्तर में बैठा तो दरवाजा खुला रख कर बैठना संभव नहीं हुआ। उसे बंद करना ही पड़ा। मेरे अपने वार्ड से एक वकील साथी ज्ञान यादव को काँग्रेस से टिकट मिला है। मैं ने अखबार में नाम देखना चाहा तो वहाँ मेरे  वार्ड से पर्चे भरने वाले काँग्रेस प्रत्याशी का उल्लेख ही नहीं था। और भी कुछ वार्डों के प्रत्याशियों के नाम गायब थे। इतने में ज्ञान टपक पड़े। मुझ से मोहल्ले की स्ट्रेटेजी समझने के लिए। मैं  ने अपने हिसाब से उन्हें सब कुछ बताया। मैं ने उन से सोलह तारीख तक मुक्ति मांग ली कि मैं बाहर रहूँगा।

सबूतों पर चटका लगाएँ
महापौर के लिए अरूणा-रत्ना मैदान में

अंतिम दिन के पहले तक सब से बड़ा सस्पैंस इस बात का रहा कि महापौर पद की उम्मीदवार कौन होंगी। आखिर सुबह के अखबारों से खबर लगी कि घोषणा करने की पहल काँग्रेस ने की। उस ने नगर की एक महिला चिकित्सक रत्ना जैन को अपना उम्मीदवार बनाया। उम्मीदवार होने तक वह पार्टी की साधारण सदस्या भी नहीं थी। जब उसे बताया गया कि उसे चुनाव लड़ना है तो वह अपने अस्पताल में मरीज देख रही थी। कोई पूर्व राजनैतिक जीवन नहीं होने के कारण उस की छवि स्वच्छ है। अपना स्वयं का अस्पताल होने से प्रशासन का अनुभव भी है। अस्पताल सस्ता है और निम्न से मध्यम वर्ग के लोगों को उत्तम चिकित्सा प्रदान करता है। स्वयं उन के और उन के बाल रोग विशेषज्ञ पति के लोगों के प्रति विनम्र और सहयोगी व्यवहार के कारण वे नगर में लोकप्रिय हैं। काँग्रेस ने अपने सदस्यों के स्थान पर उन्हें महापौर का प्रत्याशी बना कर पहले ही लाभ का सौदा कर लिया है। भाजपा ने अपनी बीस वर्षों से सदस्या रही अरुणा अग्रवाल को अपना प्रत्याशी बनाया है। लोग उन्हें जानते हैं। लेकिन राजनैतिक जीवन के अतिरिक्त उन की कोई अन्य उपलब्धि नहीं रही है। वे बीस वर्षों में अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं बना सकीं। इस कारण वे डॉ. रत्ना जैन से उन्नीस ही पड़ती हैं। यदि उन्हें जीतना है तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। इन दो उम्मीदवारों के अलावा चार और भी महापौर के पद के लिए उम्मीदवार हैं जिन में एक बसपा की हैं।

गता है कि इस बार भाजपा राष्ट्रीय स्तर से ले कर स्थानीय स्तर तक गुट युद्ध की शिकार है। अंतिम समय पर महापौर और पार्षदों के प्रत्याशी चुने जाने का नतीजा यह हुआ कि भाजपा प्रत्याशी की चुनावी रैली फीकी रही। बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्ति उन की रैली से गायब रहे और गुटबाजी का सार्वजनिक प्रदर्शन हो गया। प्रमुख नेताओं ने यहाँ तक कह दिया कि जिन ने टिकट दिया है वही प्रत्याशी को जिता ले जाएंगे। 
सबूतों पर चटका लगाएँ 



पैदल निकाली नामांकन रैली, बडे नेता रहे गायब
चतुर्वेदी समर्थकों का वर्चस्व
 इस सारी परिस्थिति ने काँग्रेस को उत्साह से भर दिया है। उन के सांसद ने भाषण दिया कि 'जीत के लिए करें पूरी मेहनत' लेकिन फिर भी नहीं थमा बगावत का दौर  दोनों दलों के कुल मिला कर 79 बागी चुनाव मैदान में उतर ही गए। लेकिन भाजपा के बागी तो लगभग हर एक वार्ड में मौजूद हैं, जब कि काँग्रेस के केवल सोलह में।
चुनाव प्रचार का आरंभ आज से हो जाना था। लेकिन सुबह से हो रही बरसात ने उस को बाहर न आने दिया। अदालत में जिस तंबू में वकीलों का क्रमिक भूख हड़ताल करने वालों का दल बैठता था वह बरसात में तर हो गया। भूख हड़तालियों को अदालत के अंदर जा कर टीन शेड के नीचे शरण लेनी पड़ी। एक तो हड़ताल और ऊपर से बरसात। अदालत में कोई नजर नहीं आया। हमने अपने मित्रों को अदालत में न पाकर फोन किए तो पता लगा वे घरों से आए ही नहीं थे। दिन भर की बरसात ने सरसों और गेहूँ की खेती करने वालों के चेहरों पर रौनक पैदा कर दी है। मैं सोच रहा हूँ कि कल सुबह तक तो बरसात रुकेगी और सुबह घनी धुंध हो सकती है। पर दोपहर तक धूप निकल आए तो अच्छा है। परसों सुबह आरंभ होने वाली मेरी यात्रा ठीक से हो सकेगी।

चित्र में डॉ. रत्ना जैन अपने समर्थकों के बीच, चित्र  दैनिक भास्कर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कोटा निगम में महिलाओं का बाहुल्य होगा





वैसे तो कोटा संभाग के वकील हड़ताल पर हैं, लेकिन अदालत तो रोज ही जाना होता है। कोटा में स्टेशन से नगर को जाने वाले मुख्य मार्ग के एक और जिला अदालत परिसर है और दूसरी ओर कलेक्ट्रेट परिसर। बहुत सी अदालतें कलेक्ट्रेट परिसर में स्थित हैं। रोज हजारों लोगों का इन दोनों परिसरों में आना जाना लगा रहता है। पिछले 75 दिनों से वकीलों की हड़ताल के कारण लोगों की आवाजाही बहुत कम हो गयी है। आकस्मिक और  अत्यंत आवश्यक कामो के अतिरिक्त कोई नया काम नहीं हो रहा है। पुराने मुकदमे जहाँ के तहाँ पड़े हुए हैं। यहाँ तक कि सुबह 10.30 बजे से दोपहर 2.00 बजे तक तो जिला अदालत परिसर के दोनों द्वार आंदोलनकारी बंद कर उन पर ताला डाल देते हैं और एक तीसरे दरवाजे के सामने उन का धरना लगा होता है। जिस से कोई भी न तो अदालत परिसर में प्रवेश कर पाता है और न ही बाहर निकल पाता है। वकील धरने पर होते हैं या फिर सड़क पर या कलेक्ट्रेट परिसर की चाय-पान की दुकानों पर। दोपहर दो बजे के बाद ही अदालतें आकस्मिक और आवश्यक कामों का निपटारा कर पाती हैं। इस से पहले वे पुराने मुकदमों की तारीखें बदलने का काम करती हैं। इन 75 दिनों में पेशी पर हाजिर न हो पाने के लिए किसी मुलजिम की जमानत जब्त नहीं की गई है और न ही कोई वारंट जारी हुआ है। नए पकड़े गए मुलजिमान की जमानतें अदालतें अपने विवेक और कानून के मुताबिक ले लेती हैं या नहीं लेती हैं। न्यायिक प्रशासन ठप्प पड़ा है, लेकिन सरकार को कोई असर नहीं है। उस के लिए समाज में न्याय न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता।

स क्षेत्र में हडताल के कारण छाए इस सन्नाटा पिछले तीन दिनों से टूटा है। अब यहाँ सुबह 10 बजे से ढोल बजते सुनाई देते हैं। लोग गाते-नाचते, नारे लगाते प्रवेश करते हैं। एक तरह का हंगामा बरपा है। लगता है जैसे नगर में कोई उत्सव आरंभ हो गया है। राजस्थान के 46 नगरों में आरंभ हुआ यह उत्सव नगर के स्थानीय निकायों के चुनाव का है। इन में राज्य के 4 नगर निगम, 11 नगर परिषद एवं 31 नगर पालिकाएँ सम्मिलित हैं।  जिन के लिए 1 हजार 612 पार्षद चुने जाएँगे। अब तक किसी भी निकाय के लिए चुने गए पार्षद ही उन के महापौर या अध्यक्ष का चुनाव करते थे लेकिन नगरपालिका कानून में संशोधन के उपरांत अब महापौर और अध्यक्ष को सीधे जनता चुनेगी। इस तरह  के लिए चुनाव कराए जाएंगे। राज्य में जयपुर के अतिरिक्त कोटा, जोधपुर, एवं बीकानेर के नगर निगमों के चुनाव होने जा रहे हैं।


कोटा में 60 वार्डों के लिए पार्षदों के पदों के लिए नामांकन भरना परसों आरंभ हुआ था। लेकिन दोनों प्रमुख दलों काँग्रेस और भाजपा द्वारा प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं किए जाने के कारण पहले दिन कोई तीन-चार लोगों ने ही नामांकन दाखिल किया। दूसरे दिन भी सुबह तक प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं हुई इस कारण गति कम ही रही। लेकिन तीसरे और अंतिम दिन तो जैसे ज्वार ही आ गया था। इन तीन दिनों के लिए शहर से स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क पर यातायात पूरी तरह रोक दिया गया था। सारा  यातायात पास वाली दूसरी सहायक सड़क से निकाला जा रहा था। लेकिन आज तो स्थिति यह थी कि उस सड़क को भी दो किलोमीटर पहले के चौराहे से यातायात के लिए बंद कर दिया था। केवल छोटे वाहन जा सकते थे। शेष यातायात एक किलोमीटर दूर तीसरी समांनान्तर सड़क से निकाला जा रहा था। वैसे इस मार्ग के लिए नगर में चौथी कोई सड़क उपलब्ध भी नहीं है।
 भीड़-भाड़ वाले माहौल को देख कर मैं एक बजे घर से रवाना हुआ था। लेकिन मुझे तीन चौराहों पर रोका गया और यह जानने के बाद ही कि मैं वकील हूँ और अदालत जाना चाहता हूँ मेरे वाहन को उस ओर जाने दिया गया। अदालत पहुँचा तो वहाँ चारों ओर कान के पर्दे फाड़ देने की क्षमता रखने वाले ढोल बज रहे थे। हर ढोल के साथ माला पहने कोई न कोई प्रत्याशी या तो पर्चा दाखिल करने जा रहा था या भर कर वापस लौट रहा था। रौनक थी, भीड़ थी और शोर था। इस बार नगर निकायों के चुनाव में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण मिला है इस कारण से तीस पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित हैं ही, कोटा में तो महापौर का पद भी महिला करे लिए आवश्यक है। इस तरह चुनी जाने वाला नगर निगम महिला बहुमत वाला होगा जिस में 31 महिलाएँ और 30 पुरुष होंगे। महिलाएँ तो अनारक्षित वार्डों से भी चुनाव लड़ सकती हैं। ऐसे में यह भी हो सकता है कि महिलाओं की संख्या और भी अधिक और पुरुष और भी कम हो जाएँ। हालांकि यह हो पाना अभी संभव नहीं है।
पर्चा दाखिल करने आई प्रत्येक महिला के साथ कम से कम पन्द्रह बीस महिलाएँ जरूर थीं। जिन में घरेलू महिलाओं की संख्या दो तिहाई से अधिक ही दिखाई दी। वे समूह में इकट्ठा चल रही थीं और पुरुषों की तरह भीड़ नहीं दिखाई दे रही थीं। वे अनुशासित लगती थीं। लगता था किसी समारोह के जलूस की तरह हों। जैसे विवाह में वे बासन लेने या माता पूजने के लिए समूह में निकलती हैं। महिलाएँ कम ही इस तरह सार्वजनिक स्थानो पर आती जाती हैं। लेकिन जब भी जाती हैं वे सुसज्जित अवश्य होती हैं। इन की उपस्थिति ने अदालत परिसर और कलेक्ट्रेट परिसर के बीच की चौड़ी सडक को रंगों से भर दिया था। तीन बजे बाद पर्चा दाखिल होने का समय समाप्त होने के बाद रौनक कम होती चली गई। चार बजते बजते तो वहाँ वही लोग रह गए जो रोज रहा करते हैं।

दोनों ही दलों के प्रत्याशियों की घोषणा से जहाँ कुछ लोगों को प्रसन्नता हुई थी वहीँ बहुत से लोग नाराज भी थे कि जम कर गुटबाजी हुई है। भाजपा में अधिक असंतोष नजर आया। भाजपा का नगर कार्यालय उस रोष का शिकार भी हुआ। वहाँ कुछ नाराज लोग ताला तोड़ कर घुस गए और सामान तोड़ फोड़ दिए जिन में टीवी, पंखे आदि भी सम्मिलित हैं। आज शाम को जब मैं दूध लेने बाजार गया तो पता लगा कि भाजपा के असंतुष्ट गुटों ने साठों वार्डों में अपने समानान्तर प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं। अब नगर पन्द्रह दिनों के लिए चुनाव उत्सव के हवाले है। इन पन्द्रह दिनों में बहुत दाव-पेंच सामने आएँगे। आप को रूबरू कराता रहूँगा।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

डरपोक एक 'लघुकथा'


'लघुकथा'
डरपोक
  • दिनेशराय द्विवेदी

ड़का और लड़की दोनों बहुत दिनों से आपस में मिल रहे थे। कभी पार्क में, कभी रेस्टोरेंट में, कभी चिड़ियाघर में, कभी म्यूजियम में कभी लायब्रेरी में तो कभी मंदिर में और कभी कहीं और। आखिर एक दिन लड़की लड़के से बोली 
- आई लव यू!
- आई लव यू टू! लड़के ने उत्तर दिया।
- अब तक तो तुमने कभी नहीं बताया, क्यों ? लड़की ने पूछा।
- मैं डरता था, कही तुम .................!
- मुझे तो तुम से कहते हुए कभी डर नहीं लगा।
- सच्च ! लड़के को बहुत आश्चर्य हुआ। 
- हाँ बिलकुल सच। पूछो क्यों।
- बताओ क्यों? 
- मैं ने तुम्हें झूठ बोला, इसलिए। मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मुझे डरपोक लोगों से घृणा है। और सुनो! आज के बाद मुझे कभी मत मिलना, अपनी सूरत भी न दिखाना। गुड बाय!
ड़की उठ कर चल दी। लड़का उसे जाते हुए देखता रहा। उस ने फिर कभी लड़की को अपनी सूरत नहीं दिखाई। कभी लड़की उसे नजर भी आई तो वह कतरा कर निकल गया।

शनिवार, 7 नवंबर 2009

कंप्यूटर के लिए पुराना रेमिंग्टन हिन्दी की-बोर्ड कहाँ मिलेगा?


ज की यह पोस्ट एक मित्र की जरूरत पर लिख रहा हूँ।  मेरे एक मित्र हैं जगदीश गुप्ता, उम्र है तिरेसठ वर्ष लेकिन अब भी बिलकुल जवान हैं। वे मेरे शहर के बेहतरीन हिन्दी टाइपिस्ट हैं और पिछले चालीस साल से अधिक से टाइप कर रहे हैं। अस्सी शब्द प्रति मिनट उन की टाइप करने की गति है। उन के पास लगभग चालीस साल पुराना ही मैकेनिकल रेमिंग्टन टाइपराइटर है। जिस में उस जमाने में चलने वाला की बोर्ड बना हुआ है। वे उसी पर काम करते आ रहे हैं। पिछले कुछ बरसों से हम उन के पीछे पड़े थे कि अब तो कंप्यूटर ले लो। वे कंप्यूटर का लगातार मजाक उड़ाते रहे। लेकिन आखिर उन को सद्बुद्धि आ ही गई और पंद्रह दिन पहले एक अदद कंप्यूटर उन्हों ने खरीद लिया। कंप्यूटर भी हम ने ही खरीदवाया।


ब उन की मुसीबत मेरे सर आ गई है। वे चाहते हैं कि उन के पुराने रेमिंग्टन टाइपराइटर पर जो ले-आउट है उस का कोई हिंदी फोंट मिल जाए या इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग के लिए कोई की-बोर्ड मिल जाए। ऐसा सुना है कि कुछ फोंट उस की बोर्ड के लिए बनाए भी गए हैं। हम उस फोंट/या की-बोर्ड को तलाश कर रहे हैं, लेकिन अभी तक असमर्थ रहे हैं। यदि कोई साथी बता सके कि यह फोंट कहाँ मिल सकता है? या यह की-बोर्ड कहाँ बन सकता है और कितने खर्च पर तो न केवल हमारे जगदीश जी को सुविधा होगी और वे तुरंत कंप्यूटर पर हिन्दी टाइप कर सकेंगे, अपितु कंप्यूटर पर अधिकतम गति से टाइप करने वाला एक साथी तुरंत मिल जाएगा।

रेमिंग्टन का पुराना हिंदी की-बोर्ड ले-आउट इस प्रकार है ....





पुराना रेमिंग्टन की बोर्ड


वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे

सुबह खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। बहुत बुरा महसूस हुआ। ऐसा कि कुछ रिक्तता हो गई है वातावरण में। जैसे हवा में कुछ ऑक्सीजन कम हो गई है और साँस तेजी से लेना पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ, आखिर मेरा क्या रिश्ता था उस आदमी से? आखिर मेरा क्या रिश्ता है ऑक्सीजन से?

ब मैं जवान हो रहा था और पत्रकार होने की इच्छा रखता था, तो शहर में शाम की उल्टी गाड़ी से एक ही अखबार आता था नई दुनिया। उसे पढ़ने की ललक होती थी। उसी से जाना था उन्हें। फिर बहुत बरस बाद जब अपना शहर छोड़ कोटा आ गया और पत्रकार होने की इच्छा छोड़ गई तो दिल्ली से एक विशिष्ठ हिन्दी अखबार आने लगा जनसत्ता। वहाँ उन को बहुत पढ़ा। उन की कलम जनता की बात कहती थी। सही को सही और गलत को गलत कहती थी। वह एक बात और कहती थी कि राजनीति के भरोसे मत रहो खुद संगठित होओ। जहाँ जनता संगठित हो कर अपने निर्णय खुद करती और संघर्ष में उतरती वहाँ कोई नेता नहीं पहुँचता था लेकिन प्रभाष जी पहुँचते थे। वे पत्रकार थे लेकिन उन का जनता के साथ रिश्ता था।  कुछ असहमतियों के बावजूद शायद यही रिश्ता मेरा भी उन के साथ था।

कोटा में उन्हें कई बार देखने, सुनने और उन का सानिध्य पाने का अवसर मिला, । उन्हें यहाँ पत्रकारिता के कारण चले मानहानि के मुकदमे में एक मुलजिम के रूप में अदालत में घूमते भी देखा। हर बार वे अपने से लगे। ऐसे लगे जैसा मुझे होना चाहिए था। मुझे क्रिकेट अच्छी लगती है। उन्हें भी अच्छी लगती थी। मुझे गावस्कर अच्छे लगते थे, कपिल अच्छे लगते थे, श्रीकांत अच्छे लगते थे।  लेकिन जब पहली बार डेबू करते सचिन को देखा तो उस बच्चे के खेल पर मुझे भी प्यार आ गया था। जैसे जैसे उस का खेल मंजता गया उस पर प्यार बढ़ता गया फिर एक दिन वह प्यारा क्रिकेटर बन गया जो आलोचना का उत्तर अपने बल्ले से देता था। यही हाल प्रभाष जी का था। वे वही कहते थे जो सचिन के बारे में मैं सुनना चाहता था। हमारा विश्वास एक ही था कि सचिन जरूर अपनी आलोचनाओँ का उत्तर अपने बल्ले से देगा। उन्हों ने अंतिम बार उसे अपनी आलोचनाओं का उत्तर बल्ले से देते हुए देखा। प्रभाष जी ने कभी बल्ला उठाया या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन वे कलम उठाते थे और अपनी आलोचनाओं का उत्तर कलम से देते थे। मैं भी यही करना चाहता हूँ।
प्रभाष जी की स्मृतियाँ रह गईं। लेकिन वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे जो कलम देशवासियों के लिए चलाते थे। उन्हें विनम्र प्रणाम!