@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे

शनिवार, 7 नवंबर 2009

वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे

सुबह खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। बहुत बुरा महसूस हुआ। ऐसा कि कुछ रिक्तता हो गई है वातावरण में। जैसे हवा में कुछ ऑक्सीजन कम हो गई है और साँस तेजी से लेना पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ, आखिर मेरा क्या रिश्ता था उस आदमी से? आखिर मेरा क्या रिश्ता है ऑक्सीजन से?

ब मैं जवान हो रहा था और पत्रकार होने की इच्छा रखता था, तो शहर में शाम की उल्टी गाड़ी से एक ही अखबार आता था नई दुनिया। उसे पढ़ने की ललक होती थी। उसी से जाना था उन्हें। फिर बहुत बरस बाद जब अपना शहर छोड़ कोटा आ गया और पत्रकार होने की इच्छा छोड़ गई तो दिल्ली से एक विशिष्ठ हिन्दी अखबार आने लगा जनसत्ता। वहाँ उन को बहुत पढ़ा। उन की कलम जनता की बात कहती थी। सही को सही और गलत को गलत कहती थी। वह एक बात और कहती थी कि राजनीति के भरोसे मत रहो खुद संगठित होओ। जहाँ जनता संगठित हो कर अपने निर्णय खुद करती और संघर्ष में उतरती वहाँ कोई नेता नहीं पहुँचता था लेकिन प्रभाष जी पहुँचते थे। वे पत्रकार थे लेकिन उन का जनता के साथ रिश्ता था।  कुछ असहमतियों के बावजूद शायद यही रिश्ता मेरा भी उन के साथ था।

कोटा में उन्हें कई बार देखने, सुनने और उन का सानिध्य पाने का अवसर मिला, । उन्हें यहाँ पत्रकारिता के कारण चले मानहानि के मुकदमे में एक मुलजिम के रूप में अदालत में घूमते भी देखा। हर बार वे अपने से लगे। ऐसे लगे जैसा मुझे होना चाहिए था। मुझे क्रिकेट अच्छी लगती है। उन्हें भी अच्छी लगती थी। मुझे गावस्कर अच्छे लगते थे, कपिल अच्छे लगते थे, श्रीकांत अच्छे लगते थे।  लेकिन जब पहली बार डेबू करते सचिन को देखा तो उस बच्चे के खेल पर मुझे भी प्यार आ गया था। जैसे जैसे उस का खेल मंजता गया उस पर प्यार बढ़ता गया फिर एक दिन वह प्यारा क्रिकेटर बन गया जो आलोचना का उत्तर अपने बल्ले से देता था। यही हाल प्रभाष जी का था। वे वही कहते थे जो सचिन के बारे में मैं सुनना चाहता था। हमारा विश्वास एक ही था कि सचिन जरूर अपनी आलोचनाओँ का उत्तर अपने बल्ले से देगा। उन्हों ने अंतिम बार उसे अपनी आलोचनाओं का उत्तर बल्ले से देते हुए देखा। प्रभाष जी ने कभी बल्ला उठाया या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन वे कलम उठाते थे और अपनी आलोचनाओं का उत्तर कलम से देते थे। मैं भी यही करना चाहता हूँ।
प्रभाष जी की स्मृतियाँ रह गईं। लेकिन वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे जो कलम देशवासियों के लिए चलाते थे। उन्हें विनम्र प्रणाम!

8 टिप्‍पणियां:

Khushdeep Sehgal ने कहा…

द्विवेदी सर,

72 साल की नौजवान उम्मीद हमेशा के लिए सो गई...शरीर बेशक प्रभाष जी का सांध्यकाल का था लेकिन उनकी सोच हमेशा सूरज की पहली किरण वाली रही...युवाओं से हीं ज्यादा युवा...इस उम्र में भी अखबारों ने पैसा खाकर चुनाव में ईमान बेचा तो प्रभाष जी ने पूरी ताकत के साथ विरोध किया...प्रभाष जी को अपना अंत निकट होने का जैसे आभास हो गया था...तभी उन्होंने हाल में एक लेख में लिखा था कि उनके पिताजी का भी 72साल की उम्र में ही निधन हुआ था...क्रिकेट के लिए सोने-जागने वाला इंसान क्रिकेट देखते देखते ही दुनिया से विदा हुआ...अलविदा प्रभाष जी लेकिन आपकी सोच हमेशा हमारे साथ रहेगी...उसे भगवान भी हमसे अलग नहीं कर सकता...

जय हिंद...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

प्रभाष जोशी जी को
अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सादर श्रद्धांजली.

रामराम.

Meenu Khare ने कहा…

"सुबह खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। बहुत बुरा महसूस हुआ। ऐसा कि कुछ रिक्तता हो गई है वातावरण में। जैसे हवा में कुछ ऑक्सीजन कम हो गई है और साँस तेजी से लेना पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ, आखिर मेरा क्या रिश्ता था उस आदमी से? आखिर मेरा क्या रिश्ता है ऑक्सीजन से?"

बहुत अलग सी अभिव्यक्ति. कलात्मक कविता सी. बधाई.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

प्रभाष जी जाने पर दुख हुआ. उन्हें पढ़ सुन कर लगता था 'हां ये तो है'.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

जोशी जी की लेखनी में जबरदस्त प्रवाह था!

Rajeysha ने कहा…

प्रभाष जी की आत्‍मा को परमपि‍ता शांति‍ दे।

Abhishek Ojha ने कहा…

पढ़ा तो नहीं कभी... बस सुना था उन्हें एक बार एक संगोष्ठी में. और कहना नहीं होगा उस दिन कितना प्रभावित हुआ था.