सुबह खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। बहुत बुरा महसूस हुआ। ऐसा कि कुछ रिक्तता हो गई है वातावरण में। जैसे हवा में कुछ ऑक्सीजन कम हो गई है और साँस तेजी से लेना पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ, आखिर मेरा क्या रिश्ता था उस आदमी से? आखिर मेरा क्या रिश्ता है ऑक्सीजन से?
जब मैं जवान हो रहा था और पत्रकार होने की इच्छा रखता था, तो शहर में शाम की उल्टी गाड़ी से एक ही अखबार आता था नई दुनिया। उसे पढ़ने की ललक होती थी। उसी से जाना था उन्हें। फिर बहुत बरस बाद जब अपना शहर छोड़ कोटा आ गया और पत्रकार होने की इच्छा छोड़ गई तो दिल्ली से एक विशिष्ठ हिन्दी अखबार आने लगा जनसत्ता। वहाँ उन को बहुत पढ़ा। उन की कलम जनता की बात कहती थी। सही को सही और गलत को गलत कहती थी। वह एक बात और कहती थी कि राजनीति के भरोसे मत रहो खुद संगठित होओ। जहाँ जनता संगठित हो कर अपने निर्णय खुद करती और संघर्ष में उतरती वहाँ कोई नेता नहीं पहुँचता था लेकिन प्रभाष जी पहुँचते थे। वे पत्रकार थे लेकिन उन का जनता के साथ रिश्ता था। कुछ असहमतियों के बावजूद शायद यही रिश्ता मेरा भी उन के साथ था।
कोटा में उन्हें कई बार देखने, सुनने और उन का सानिध्य पाने का अवसर मिला, । उन्हें यहाँ पत्रकारिता के कारण चले मानहानि के मुकदमे में एक मुलजिम के रूप में अदालत में घूमते भी देखा। हर बार वे अपने से लगे। ऐसे लगे जैसा मुझे होना चाहिए था। मुझे क्रिकेट अच्छी लगती है। उन्हें भी अच्छी लगती थी। मुझे गावस्कर अच्छे लगते थे, कपिल अच्छे लगते थे, श्रीकांत अच्छे लगते थे। लेकिन जब पहली बार डेबू करते सचिन को देखा तो उस बच्चे के खेल पर मुझे भी प्यार आ गया था। जैसे जैसे उस का खेल मंजता गया उस पर प्यार बढ़ता गया फिर एक दिन वह प्यारा क्रिकेटर बन गया जो आलोचना का उत्तर अपने बल्ले से देता था। यही हाल प्रभाष जी का था। वे वही कहते थे जो सचिन के बारे में मैं सुनना चाहता था। हमारा विश्वास एक ही था कि सचिन जरूर अपनी आलोचनाओँ का उत्तर अपने बल्ले से देगा। उन्हों ने अंतिम बार उसे अपनी आलोचनाओं का उत्तर बल्ले से देते हुए देखा। प्रभाष जी ने कभी बल्ला उठाया या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन वे कलम उठाते थे और अपनी आलोचनाओं का उत्तर कलम से देते थे। मैं भी यही करना चाहता हूँ।
प्रभाष जी की स्मृतियाँ रह गईं। लेकिन वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे जो कलम देशवासियों के लिए चलाते थे। उन्हें विनम्र प्रणाम!