सचिन तेंदुलकर के ताजा बयान से निश्चित रूप से शिवसेना और मनसे की परेशानी बढ़नी थी। दोनों ही दलों की राजनीति जनता को किसी भी रूप में बाँटने उन में एक दूसरे के प्रति गुस्सा पैदा कर अपने हित साधने की रही है। दोनों दल इस से कभी बाहर नहीं निकल सके, और न ही कभी निकल पाएँगे। बाल ठाकरे का सामना में लिखा गए आलेख से सचिन का तो क्या बनना बिगड़ना है? पर उन का यह आकलन तो सही सिद्ध हो ही गया कि पिटी हुई शिवसेना को और ठाकरे को इस से मीडिया बाजार में कुछ भाव मिल जाएगा। मीडिया ने उन्हें यह भाव दे ही दिया। इस बहाने मीडिया काँग्रेस और कुछ अन्य दलों के जिन जिन नेताओं को भाव देना चाहती थी उन्हें भी उस का अवसर मिल गया। लेकिन जिन कारणों से तुच्छ राजनीति करने वाले लोगों को अपनी राजनीति करने का अवसर मिलता है, उन पर मीडिया चुप ही रहा।
भारत देश, जिस के पास अपार प्राकृतिक संपदा है, दुनिया के श्रेष्ठतम तकनीकी लोग हैं, जन-बल है, वह अपने इन साधनों के सुनियोजन से दुनिया की किसी भी शक्ति को चुनौती दे सकता है। वह पूँजी के लिए दुनिया की तरफ कातर निगाहों से देखता है। क्या देश के अपने साधन दुनिया की पूँजी का मुकाबला नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। आजादी के 62 वर्षों के बाद भी हम अपने लोगों के लिए पर्याप्त रोजगार उपलब्ध नहीं करा सके। वस्तुतः हमने इस ओर ईमानदार प्रयास ही नहीं किए। अब पिछले 20-25 वर्षों से तो हम ने इस काम को पूरी तरह से निजि पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया है। यदि हमारे कथित राष्ट्रीय दलों ने जो केंद्र की सत्ता में भागीदारी कर चुके हैं और आंज भी भागीदार हैं, बेरोजगारी की समस्या को हल करने में अपनी पर्याप्त रुचि दिखाई होती तो देश को बाँटने वाली इस तुच्छ राजनीति का कभी का पटाक्षेप हो गया होता। यह देश में बढ़ती बेरोजगारी ही है जो देश की जनता को जाति, क्षेत्र, प्रांत, धर्म आदि के आधार पर बाँटने का अवसर प्रदान करती है।
सचिन जैसे व्यक्तित्वों पर कीचड़ उलीचने की जो हिम्मत ये तुच्छ राजनीतिज्ञ कर पाते हैं उस के लिए काँग्रेस और भाजपा जैसे हमारे कथित राष्ट्रीय दल अधिक जिम्मेदार हैं।