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मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






बुधवार, 10 जनवरी 2024

भारत सम्राट अकबर का श्रीराम-प्रेम या रामनिष्ठा! -बोधिसत्व


देश में श्रीराम पर सिक्का जारी करने वाले अकेले बादशाह हैं अकबर

मुग़ल सम्राट अकबर की श्रीराम निष्ठा आज तक के भारतीय इतिहास के सभी शासकों और राष्ट्र प्रमुखों से विशेष रही है! यह दावा राम पर अकेले दावा करने वालों को अखर सकती है! भला बाबर के पौत्र और हुमायूँ-हमीदा बानो के पुत्र की राम निष्ठा कैसी? वह सम्राट परधर्मी है! जिस लोगों की दृष्टि में अकबर के लिये राम काफिरों के देवता हैं! उसके मन में राम प्रीति कैसी! राम निष्ठा कैसी! प्रश्न उठता है इतिहास प्रमाण से निर्धारित हो या अफ़वाह से?

अफ़वाह से राजनीति की जा सकती है! इतिहास नहीं लिखा जा सकता! अकबर का इतिहास बोलता है! उसकी सर्व धर्म निष्ठा उसे सम्राट अशोक के बाद का सर्वोच्च शासक बनाती है जहां वह अपने निजी धर्म से बाहर निकल कर प्रजा के धर्म-समुदायों को मान महत्त्व देकर उसने वास्तविक सम्राट की गरिमा हासिल की!

अपने जीवन के लगभग अंतिम वर्षों में अकबर ने तीन ऐसे सिक्के जारी किए जिसने भारत के इतिहास में उसे अव्वल मुकाम पर पहुँचा दिया! ये सिक्के थे ‘सीयराम’ सिक्के! इनके जारी किए जाने के पीछे संभव है अकबर के जीवन पर उसकी हिंदू रानियों का प्रभाव भी रहा हो! इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता!


राम कथा के विद्वान स्वर्गीय भगवती प्रसाद सिंह ने अपने ग्रंथ ‘राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन’ में अकबर की राम निष्ठा पर कुछ रोचक निष्कर्ष निकाले हैं! उनका कहना है कि ‘राजपूताने में रसिकसाधकों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा और अवध में तुलसी साहित्य के व्यापक प्रचार का प्रभाव उदारमना अकबर पर भी पड़ा । उसके द्वारा प्रचारित 'रामसीय' भाँति की स्वर्ण एवं रजत मुद्राओं से यह स्पष्ट हो जाता है।’

काशी वासी विद्वान राय आनंद कृष्ण के हवाले से वे बताते हैं कि ‘अब तक इस भाँति के तीन सिक्कों का पता चला है-दो सोने की अर्धमोहरें और एक चाँदी की अठन्नी । इनमें एक सोने की अर्धमोहर, कैबिनेट डे फ्रांस में है, दूसरी ब्रिटिश म्युजियम में और तीसरी चाँदी की अठन्नी भारत कलाभवन, काशी में संग्रहीत है।
 
लेखक : बोधिसत्व

भारत कला भवन वाली यह (तीसरी मुद्रा) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी को लखनऊ के किसी व्यापारी से प्राप्त हुई थी । दोनों साँचों में एक ओर राम- सीता की आकृति अंकित है और दूसरी और उनका प्रचलन काल दिया हुआ है, जिससे पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों भाँति की मुद्रायें भिन्न काल में और दो भिन्न साँचों में ढाली गयी थीं- बाबू भगवती प्रसाद सिंह और श्रीयुत राय आनन्दकृष्णजी के लेख के आधार पर अकबर द्वारा जारी किए गये सीय-राम सिक्के का विवरण यहाँ दे रहा हूँ! इस विवरण का आधार राम काव्यधारा: अनुसंधान और अनुचिंतन में अकबर की राम निष्ठा नामक आलेख है:

( 1) सोने की दो अर्धमुहरें ( ब्रिटिश म्यूजियम और कैबिनेट डे फ्रांस ) इनमें राम प्राचीन वेश में उत्तरीय तथा धोती धारण किये हुए और सीता लहंगा, ओढ़नी और चोली पहने, अवगुंठन यानी घूँघट को सम्हालती हुई अंकित की गई हैं। इस सिक्के के जारी करने का काल ५० इलाही, परवरदीन उत्कीर्ण है । ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित अर्धमोहर में चित ओर 'रामसीय' नागरी अभिलेख मिट गया है किंतु 'कैबिनेट डे फाँस' की अर्धमुहर में वह ज्यों का त्यों बना हुआ है ।

(2) चाँदी की अठन्नी (भारत कलाभवन, काशी)का विवरण : इसमें सीताराम अकबरकालीन वेश में दिखाये गये हैं। राम सिर पर तीन कंगूरे वाला मुकुट, (जैसा अकबर के समय के ब्राह्मण देवताओं के चित्रों में भी प्राप्त, होता है) घुटने तक जामा, दुपट्टा, जिसके दोनों छोर इधर-उधर लटक रहे हैं बायें हाथ में धनुष की कमानी की मध्य, जिसकी प्रत्यंचा भीतर की ओर है, पीठ पर तूणीर और दाहिने हाथ में धनुष पर चढ़ा हुआ बाण धारण किया है। राम की अनुगामिनी सीता चोली या अँगिया, लहंगा, ओढ़नी और हाथों में चूड़ियाँ पहने हैं। सीता का बायाँ हाथ सामने उठा हुआ है और दाहिना पीछे लटकता हुआ अंकित है । उनके दोनों हाथों में फूल का गुच्छा है। ‘रामसीता’ के ऊपर बीच में नागरी अक्षरों में 'रामसीय' अंकित है इसके पट की ओर 50 इलाही अमरदाद लिखा हुआ है।

इससे यह बात पता चलती है कि ये दोनों मुद्रायें, अकबर की मृत्यु के पहले एक वर्ष के भीतर, उनके द्वारा प्रचलित इलाही सम्वत् के 50वें वर्ष के दो भिन्न महीनों में प्रचलित की गई थीं ।

भगवती बाबू के अनुसार यह प्रश्न उठता है कि 'रामसीय' भाँति की ये दो भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्रायें उनके जीवन की किस स्थिति की परिचायक हैं। मोटे तौर से सीताराम का दांपत्य जीवन तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

पहला- विवाह के पश्चात् और वनगमन के पूर्व अयोध्या में व्यतीत होने वाला उनका गार्हस्थ्य जीवन

दूसरा- चौदहवर्षीय वनवास में सीताहरण से पूर्व का जीवन और
 
तीसरा- लंका विजय के पश्चात् उनके पुनर्मिलन के समय से लेकर सीता के द्वितीय वनवास के पहले तक उनका अयोध्या का राजैश्वर्यपूर्ण जीवन।
 
इन तीनों के अन्तर्गत ही किसी अवस्था में उनकी स्थिति का अंकन उपर्युक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं में सम्राट अकबर द्वारा अंकित और जारी करवाया हुआ है। यह स्पष्ट ही है कि इन तीनों समयों में में प्रथम तथा तृतीय दाम्पत्य की अवधि या क्रीड़ाभूमि अयोध्या रही है और दूसरी अवस्था राम-सीता की 'वनलीला' की है।

राय आनंद कृष्ण जी कहते हैं कि सोने की मुहरों में दंपति की जिस मुद्रा का चित्रण हुआ है वह उनके गार्हस्थ्य जीवन के अधिक मेल में है। पति के पीछे चलती हुई सीता का दाहिना हाथ कमर पर रखना और बायें हाथ से घूँघट संभालना, उनके दांपत्य जीवन के आारंभिक काल की मुद्रा प्रतीत होती है। सीता में नव दाम्पत्य का भाव प्रबलता से परिलक्षित होता है! लज्जा का जो भाव इससे व्यक्त होता है, उसकी व्याप्ति इसी नव दाम्पत्य की अवस्था में अधिक संगत जान पड़ती है। यह भी असंभव नहीं कि यह उनके चित्रकूट के वन-विहार की किसी स्थिति का द्योतक हो । अतः इसे प्रथम तथा द्वितीय अवस्था के अन्तर्गत मानना उचित होगा यानी वनवास के पूर्व या वनवास की अवधि को अंकित किया गया है!

भारत कलाभवन काशी की अठन्नी में अंकित सीताराम की मुद्रा के विषय में भगवती प्रसाद सिंह जी का विचार है कि इसमें उनके चित्रकूट अथवा पंचवटीवास के समय किये आखेट एवं वन-विहार का दृश्य अंकित है। यह स्मरणीय है कि पंचवटी वास के समय यह उस स्थिति का द्योतक नहीं माना जा सकता, जब सीता ने राम को सुवर्णमृग दिखाया था और उनकी प्रेरणा से वे उसके आखेट में प्रवृत्त हुए थे । यदि उस स्थिति से इसका सम्बन्ध होता तो सीता मृग को इंगित करती हुई दिखाई जातीं, किन्तु प्रस्तुत चित्र में ऐसा कुछ लक्षित नहीं होता। सीता का, निःसंकोच भाव से दोनों हाथों में फूल के गुच्छे लिये हुए पत्ति का अनुगमन वन-विहार का द्योतक हो सकता है।

भगवती बाबू का अनुमान है कि इस लीला का क्षेत्र माने जाने की संभावना पंचवटी से चित्रकूट की अधिक है । कारण यह है कि राम- भक्ति साहित्य में 'अहेरी' राम की मुख्य क्रीड़ा-भूमि तथा सीताराम की बिहार स्थली के रूप में इसी स्थल की सर्वाधिक प्रतिष्ठा है । रसिक-साहित्य में चित्रकूट-वासी राम तापस नहीं, राजैश्वर्यपूर्ण और नित्यरासलीलारत चित्रित किये गये हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस, गीतावली और विनयपत्रिका में चित्रकूट का स्मरण दम्पति की विहार भूमि के रूप में किया है।

उनके परवर्ती राम चरित रसिकों ने भी उसे इसी रूप में देखा है। भगवती प्रसाद सिंह जी के शब्दों में ‘इस प्रकार दोनों भाँति की मुद्राओं में सीताराम की श्रृंगारी भावना प्रकट होती है । उदार अकबर को इन माधुर्यव्यंजक दृश्यों के सिक्कों पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा रामभक्ति में बढ़ती हुई रसिक भावना से प्राप्त हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।’
राय आनन्दकृष्ण जी ने इन सिक्कों के प्रचलित करने का कारण, जीवन के अंतिम दिनों में उद्बुद्ध, अकबर की रामभक्ति बताया है। इनका प्रचलन उसने जिस किसी भाव से भी प्रेरित होकर कराया हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि उसकी 'रामसीय' में निष्ठा थी और उनके 'स्वरूप-प्रचार' में वह प्रजा और राजा दोनों का हित देखता था । अकबर के मन में राम-प्रीति या राम निष्ठा न रही होती तो वह ‘रामसीय’ जारी करने पर विचार ही नहीं करता!

शताब्दियों पहले से भारतीय शासकों द्वारा शिलालेखों और मूतियों में प्रतिष्ठित विष्णु और कृष्ण को छोड़कर अन्य धर्मी अकबर का 'रामसीय' के नाम पर सिक्का चलाना इस देश के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। भगवती बाबू दावे से कहते हैं कि ‘जहाँ तक उनको याद है किसी हिन्दू सम्राट ने भी शासन अवधि में सीताराम को इतना महत्त्व नहीं दिया था । इससे तत्कालीन समाज पर रामभक्ति के बढ़ते हुए प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

मुगल शासकों के बारे में भ्रम फैलाने का लाभ किसे मिलना है और हानि किसे होनी है इस चक्कर में बिना पड़े यादव बात की जाये तो अकबर और अशोक द्वारा स्थापित शासन के नियम शासक की उदारता और प्रजा को बराबर मानने की पैरवी करते हैं! चार सौ इक्कीस से अधिक वर्ष बीत गये अकबर की राम भक्ति पर मुख्य धारा के इतिहास कार चुप रहे! उस पर चर्चा की तो साहित्य और संस्कृति के दो धुरन्धरों ने! एक राम कथा के बेजोड़ मर्मज्ञ बाबू भगवती प्रसाद सिंह जी और दूसरे संस्कृति और कला मर्मज्ञ राय आनंद कृष्ण जी ने!
 
पूर्व में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के श्रीराम भक्ति अंक में ‘रामसीय’ सिक्के का एक विवरण प्रकाशित किया गया था! जिसमें विद्वान लेखक श्री ठाकुर प्रसाद वर्मा जी ने ‘रामसीय’ सिक्कों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है! श्री ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में इन सिक्कों पर लिखते हुए अकबर की मानसिक आध्यात्मिक स्थिति पर एक महत्व की टिप्पणी की है! वे लिखते हैं ‘यह राम सीय मुद्रा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि राम और सीता की आकृतियों को पुरोभाग पर अंकित किया गया है, जो सदैव केवल कलमा के लिए ही सुरक्षित समझा जाता है। यह बात इस तथ्य को उजागर करती है कि अकबर ने राम की आकृति को पूरोभाग में स्थान देकर उनकी ईश्वरीय महत्ता को स्वीकार किया था’! इसी बात के आकलन में मैं इस बात को अलग से कहना चाहूँगा कि अकबर ने श्रीराम प्रेम और निष्ठा में कलमा त्याग कर राम रूप को स्वीकार किया!

श्रीराम अंक का वह आलेख पूरा पढ़ा जाना चाहिए! ठाकुर प्रसाद जी वर्मा ने सिक्कों की बनावट और राम सीता के परिधान पर अलग ढंग से प्रकाश डाला है! (कल्याण श्रीराम भक्ति अंक, पृष्ठ 400)

कुछ अन्य लेखकों ने भी अकबर की राम भक्ति को रेखांकित किया है! अपनी पुस्तक ‘हमारे देश के सिक्के’ में डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त ने भी बादशाह अकबर के ‘रामसीय’ सिक्कों को एक महत्त्व की घटना माना है! (हमारे देश के सिक्के, पृष्ठ 36)

लेकिन अकबर की उदारता को प्रचारित करने के पक्ष में बहुधा इतिवृत्त और इतिहास लेखक लोग मौन रहे! उस मौन से अकबर की सर्व धर्म उदारता वाले उसके महान चरित्र पर तो आँच नहीं आई लेकिन इतिहास लेखकों का चरित्र अवश्य लांछित होता दिखा!
 
अंत में एक बात फिर कहूँगा! श्रीराम पर मुद्रा या सिक्का जारी करने वाला अकबर अब तक का अकेला बादशाह या सम्राट है! समय बिता लेकिन उसकी राम निष्ठा अछूती और बेजोड़ बनी रही!
 
नोट: लेख के शीर्षक में ‘अकबर की राम निष्ठा’ वाला पद भगवती बाबू का दिया हुआ है!
 
संदर्भ पुस्तकें :
 
*राम काव्यधारा
अनुसंधान और अनुचिंतन
लेखक: भगवती प्रसाद सिंह
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
इलाहाबाद
प्रकाशन वर्ष: 1976

*श्रीरामभक्ति अंक
कल्याण कार्यालय
गीता प्रेस, गोरखपुर

*हमारे देश के सिक्के
लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त
प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन
वाराणसी

रवि रतलामी : एक विनम्र श्रद्धांजलि

वह 2007 का साल था। घर में पहला कम्प्यूटर आया था। बीएसएनएल का पहला इंटरनेट कनेक्शन लिया था। इन्टरनेट का संसार खुल गया था। सारी धरती वहाँ थी। मैं धरती के किसी कोने को खंगाल सकता था। हिन्दी साहित्य तलाश रहा कि मुझे हिन्दी ब्लागों की दुनिया नजर आयी। मैं ब्लॉग पढ़ने लगा, उन पर टिप्पणियाँ करने लगा। फिर अनूप शुक्ल ने सुझाव दिया कि मुझे ब्लॉग लिखना चाहिए। कुछ समझ नहीं आया कि क्या लिखूँ। मैंने ब्लॉगस्पॉट पर अपना पहला ब्लॉग “तीसरा खंबा” बनाया। यह कानून और न्याय व्यवस्था पर आधारित ब्लाग था। पर लगा कि ब्लाग पाठकों का उस पर ध्यान कम है। सीधे जीवन से जुड़ी चीजें पढ़ना पसंद करते हैं और तीसरा खंबा पर भी पाठकों को लाने के लिए अपना कोई सामान्य ब्लाग बनाना पड़ेगा, जो जीवन के अनुभवों से जुड़ा हो। कोई दो माह बाद अपना सामान्य ब्लॉग “अनवरत” बनाया।

रवि रतलामी

कंप्यूटर आने के बाद मैं क्रुतिदेव फॉण्ट में टाइप करने लगा था। उसी में अपना काम करता था। क्रुतिदेव का की बोर्ड वही था जो उन दिनों हिन्दी टाइप मशीनों का था। इंटरनेट पर केवल यूनिकोड फॉण्ट ही चलते थे। हिन्दी के लिए यूनिकोड फॉण्ट का इनस्क्रिप्ट की बोर्ड तैयार हो चुका था लेकिन उसका मूल की बोर्ड अलग था। लोगों ने अपने टाइपिंग अभ्यास के लायक (आईएमई) बना ली थीं। लेकिन वे प्रारंभिक अवस्था में थीं। आईएमई से टाइप करने पर ब्लागस्पॉट के ब्लाग में संयुक्ताक्षर और मात्रा वाले शब्द फट जाते थे। अक्षर, मात्रा और अर्धाक्षर अलग अलग दिखाई देते थे बीच में स्पेस आ जाती थी। बहुत बुरा लगता था। मैं परेशान हो गया। आखिर रवि रतलामी जी से पूछा क्या करूँ? इसका क्या उपाय है. तो वे बोले सबसे बेहतर उपाय तो इनस्क्रिप्ट की बोर्ड सीख लो।

उन दिनों इनस्क्रिप्ट की बोर्ड के लिए कोई ट्यूटर भी नहीं था। अभ्यास कैसे करूँ। मैं हिन्दी टाइपिंग सीखने वाली किताब बाजार से खरीद कर लाया। उसमें जिन कुंजियों का अभ्यास क्रम से किया जाता था। उन्हीं कुंजियों का अभ्यास क्रम से करने के लिए अपने खुद के अभ्यास बना लिए। उनसे अभ्यास करना शुरू कर दिया। एक सप्ताह उस तरह का अभ्यास करने के बाद मैंने टाइपिंग शुरू कर दी। मैं दस दिन में इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइप करने लगा। एक महीने बाद तो मेरी टाइप गति क्रुतिदेव की बोर्ड से बेहतर हो गयी, लगभग अंग्रेजी वाली गति के मुकाबले। आज मैं अंग्रेजी से अधिक गति से हिन्दी टाइप कर लेता हूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने 2008 के बाद मेरी वकालत की तमाम प्लीडिंग मेरी खुद की टाइप की हुई है और मेरे कंप्यूटर में सुरक्षित है।

पहले टाइपिस्टों से टाइप कराने पर उनके फ्री होने का इंतजार करना पड़ता था और बहुत समय जाया होता था। मेरे यहाँ स्टेनो आता था। वह डिक्टेशन लेकर जाता था अगले दिन टाइप कर के लाता था। फिर करेक्शन के बाद दुबारा टाइप करता था। एक काम को कम से कम तीन दिन लग जाते थे। इन दोनों से मेरा पीछा छूटा। अपनी लगभग सारी प्लीडिंग खुद टाइप करने वाला हिन्दी बेल्ट का शायद मैं पहला वकील हूँ।

मुझे इस स्थिति में लाने का सारा श्रेय रवि रतलामी जी को है। मैं उनसे मिलना चाहता था। किन्तु उनसे न तो किसी ब्लागर मीट में भेंट नहीं हो सकी। मैं उनसे मिलने के लिए रतलाम या भोपाल भी न जा सका। 8 जनवरी, 2024 को सुबह अचानक समाचार मिला कि रवि रतलामी जी नहीं रहे।

५ अगस्त १९५८ को जन्मे, रवि रतलामी नाम से लिखने वाले रविशंकर श्रीवास्तव, रतलाम, मध्य प्रदेश, भारत से, मूलत: एक टेक्नोक्रैट थे, हिंदी साहित्य पठन और लेखन उनका शगल था। विद्युत यान्त्रिकी में स्नातक की डिग्री लेने वाले रवि इन्फार्मेशन टेक्नॉलाजी क्षेत्र के वरिष्ठ तकनीकी लेखक थे। उनके सैंकड़ों तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आई.टी. तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं।

हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन इसका शौक था और इस क्षेत्र में भी इनकी अनगिनत रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखकर रह चुके हैं।

रवि रतलामी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के हिंदी-करण के अवैतनिक - कार्यशील सदस्यों में से एक थे और उनके द्वारा जीनोम डेस्कटाप के ढेरों प्रोफ़ाइलों का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद किया गया, लिनक्स का हिंदी संस्करण मिलन (http://www.indlinux.org) 0.7 उन्हीं के प्रयासों से जारी हो सका।

रवि रतलामी हिन्दी ब्लाग के उन आरंभिक लोगों में से थे जिन्होंने हिन्दी ब्लागिंग और इन्टरनेट पर हिन्दी को पहुँचाने में अपनी बहुत ऊर्जा लगायी। तकनीक की मदद के लिए जाने जाने वाले मेरे अभिन्न मित्र Bs Pabla बी.एस.पाबला जी पहले ही हमें छोड़ कर जा चुके हैं।

आज रवि जी के साथ साथ पाबला जी की भी बहुत याद आ रही है।

रवि जी को हार्दिक श्रद्धांजलि¡

रविवार, 7 जनवरी 2024

मुहूर्त

मुश्किल पहला मकान बना। सपना यूँ पूरा होगा सोचा न था। कुछ पैसे पास में थे। सोचा था इससे प्लाट ही खरीदूंगा। दलाल ने एक दिन प्लाट बताया। मुझे ठीक लगा तो मैंने एडवांस दे दिया। अगले ही दिन सारे असल कागज पटक गया। दो तीन साल यूँ ही पड़ा रहा। पैसा नहीं था पास में, लेकिन लोगों की फूँक में मकान शुरू कर दिया। आखिर दो कमरे, टायलट, स्टोर, रसोई और डाइनिंग बन कर खड़े हो गये थे। फिनिशिंग चल रही थी।
उधर पिताजी लगातार पूछ रहे थे जल्दी कर। कब तक रामलला बन कर किराया देता रहेगा। आखिर तंग आ कर मैंने कहा मुहुर्त निकाल दो। पिताजी और मामाजी ने मिल कर शुभ मुहुर्त निकाल दिया। मुहूर्त की तारीख तक मकान के दरवाजों, खिड़कियों, अलमारियों में किवाड़ नहीं लग पाए थे। पुताई भी एक दिन पहले पूरी हुई। दो दिन पहले पिताजी गाँव से आ गए डाँटने लगे, काम पूरा नहीं हुआ था तो आगे का मुहूर्त निकाल लेते। मैं प्रत्यक्ष में क्या कहता? मन ही मन कहा, मैं तो मुहूर्त वगैरा का झंझट पालता ही नहीं, आप ही पीछे पड़े थे मुहूर्त के। अब तो परसों ही गृह प्रवेश होगा। मुहूर्त हुआ तो उसी दिन एक अतिथि ने टॉयलट में साँपजी को देख लिया। उसे वहाँ से भगा दिया गया।
खैर, सप्ताह भर बाद घऱ में शिफ्ट हो गए। करीब 19-20 साल उसमें रहे भी। फिर परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उस मकान को निकालना पड़ा। वैसे भी मकानों के बारे में मेरी अवधारणा आम लोगों जैसी नहीं है। बल्कि मेरा सोचना है कि घर का मकान भी 20-30 साल में नया बना कर पुराना निकाल देना चाहिए। इससे नया पन आ जाता है, जीवन में ताजगी बनी रहती है। नयी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। वरना उसी खोल में मरते खपते रहना पड़ता है। विस्टा तो आप को अब तक याद होगा ही। पहले ही नियमित सत्र में सुरक्षा टें बोल गयी।

मुहूर्त वगैरा सब चौंचले हैं। पंडित-ज्योतिषी को कुछ दक्षिणा एक्स्ट्रा दे दो तो जब चाहे मुहूर्त निकाल देते हैं, यहाँ तक कि जन्मपत्रियाँ तक मिला देते हैं। हम एक शादी के लिए मुहूर्त निकाल कर मैरिज हॉल किराए पर लेने निकले तो पता लगा शहर के सारे अच्छे मेरिज प्लेस एक ही व्यवासायी डील करता है। तय मुहूर्त पर एक भी जगह खाली नहीं थी। मैरिज हॉल वाला बोला, आजकल मुहूर्त पंडितजी नहीं हम टेण्ट हाऊस वाले तय करते हैं।
 
तो मेरी सोच है कि बस जिस दिन काम पूरा हो जाए वही सब से बड़ा मुहूर्त होता है। इसलिए मकान पूरा बन जाए तभी उसमें रहने जाना चाहिए। पहले जाने का मतलब है कि अधूरे काम धीरे धीरे पूरे होते हैं कई तो कभी पूरे नहीं होते। समय निकल जाने पर जरूरतें बदलती हैं और मकान पूरा होने के बजाए उसका नक्शा ही बदलने लगता है।
 
मैंने सुना है इसी माह अधूरे मंदिर में रामजी की प्रतिमा में प्राणों की प्रतिष्ठा की जाएगी। मुहूर्त निकाल लिया गया है। वैसे मंदिर पूरा हो जाता तो ठीक रहता। पर क्या करें। चौबीसा चुनाव भी तो जीतना है। अब रामजी को अधूरा घर पसंद आएगा या नहीं ये तो भविष्य ही तय करेगा। एक बात जरूर है कि पंडित-ज्योतिषियों को दक्षिणा अच्छी खासी मिली होगी।

गुरुवार, 4 जनवरी 2024

'औकात'

- दिनेशराय द्विवेदी

“अच्छे से बोलो” कलेक्टर के बात करने के तरीके पर ड्राइवरों में से एक ने यही तो कहा था। ड्राइवर आंदोलन पर थे और कलेक्टर को ड्यूटी दी गयी थी कि उन्हें समझाएँ कि वे कानून हाथ में न लें। वैसे भी कानून को हाथ में लेने का अधिकार सिर्फ प्रशासनिक अफसरों, पुलिस, सशस्त्र बलों, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं और माफियाओं को है। वैसे भी वे नए कानून का विरोध ही कर रहे थे।

पर कलेक्टर ने पलट कर जवाब दिया, “क्या करोगे तुम .... औकात क्या है तुम्हारी”?

व्याकरण की भाषा में सोचें तो यह जवाब नहीं, सवाल लगता है। पर असल में कलेक्टर ने अपनी औकात बता दी थी।

ड्राइवर का जवाब भी माकूल था, “यही चीज तो चाहिए सर¡ हमारी तो कोई औकात ही नहीं है। इसी की तो लड़ाई है।


असल में सामंतों को जबान दराजी पसंद नहीं। वही गुण आज के अफसरों में हैं। वे खुद को अफसर नहीं बल्कि सामंत समझते हैं और वैसे ही व्यवहार करते हैं। कुछ नहीं करते, लेकिन वे अपवाद हैं। नेताओं को भी यह सब पसंद है। सरकार और मंत्रियों को भी। लेकिन जब पूरी सरकार ही हाईकमान ने मुकर्रर की हो और खुद हाईकमान को कुछ महीने बाद जनता के पास हाथ जोड़ने जाना हो तो। यह सामंती तैश वह कैसे बर्दाश्त करे। कलेक्टर को हटा दिया गया। लगता है कि उसे दंडित किया गया है। पर वास्तव में उसे कलेक्टर से उपसचिव बना कर सेक्रेट्रियट में बुला लिया गया। अब उसकी पीठ थपथपाई जाएगी और कहा जाएगा कि तुम काम के आदमी हो, तुम्हारी जगह वहाँ नहीं इधर हमारे नजदीक है। अब सीधे हमारे लिए काम करो।

कलेक्टर ने सही कहा था “औकात क्या है तुम्हारी?” वास्तव में ड्राइवर की कोई औकात नहीं होती। किसी मजदूर, कर्मचारी, किसान, सिपाही, पैदल फौजी, दुकानदार, मेहनतकश की इस पूंजीवादी-सामन्ती निजाम में कोई औकात नहीं। वे सब ऐसे ही गरियाए लतियाए जाते हैं। उनका काम सिर्फ पूंजीपतियों, भूस्वामियों, राजनेताओं और अफसरों वगैरा वगैरा की सेवा करना है।

लकड़ी की औकात नहीं होती, पर लकड़ियों के गट्ठर की होती है। खुले हाथ की कोई औकात नहीं होती, कोई भी उंगली तोड़ सकता है। लेकिन बंद मुट्ठी और मुक्के की बहुत औकात होती है। ये सब मजदूर, कर्मचारी, किसान, दुकानदार, मेहनतकश जब इकट्ठा हो कर गट्ठर और मुट्ठी हो जाते हैं। जब वह मुट्ठी तन कर मुक्का हो जाए तो तो सर्वशक्तिमानों को पैदल दौड़ा देती है।

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

पैंतालीस साल



बी
एससी के बाद जब एलएल.बी. में एडमिशन लिया तब केवल कानून पढ़ने का इरादा था और पत्रकार बनने का। पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि जनवरी 1978 में सारे सपने पीछे छोड़ वकील बनने का इरादा कर लिया। 1978 मई में एलएल.बी. का आखिरी पर्चा देने के दिन रात 12 बजे अपने घर बाराँ पहुँचा। अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे एडवोकेट हरीशजी गोयल के दफ्तर में था। मुझे देख उन्होंने पूछा, “तेरी परीक्षा हो गयी?” मैंने कहा, “कल आखिरी पर्चा था।“ वे पूछने लगे, “अब क्या करना?” मैंने कहा, “करना क्या है? आज से आपकी फाइलों का बस्ता लेकर अदालत चलना है, वकालत का अभ्यास शुरू।” उन्होंने कहा, “बस्ता संभालने के लिए तो मुंशी जी हैं। आ, खाना खा लेते हैं फिर चलते हैं अदालत।“ मैंने बताया कि “मैं तो खा कर आया हूँ। आप भोजन करके आइए।“

उस दिन से अदालत जाना शुरू हो गया। परीक्षा का परिणाम आ गया। बार कौंसिल राजस्थान में एनरोलमेंट के लिए आवेदन कर दिया। उस वक्त इंटरनेट का जन्म नहीं हुआ था। न वेबसाइटें थीं और न ई-मेल। टेलीफोन कुछ व्यवसाइयों के पास या केवल नगर के बड़े घरों और सरकारी दफ्तरों में हुआ करते थे। कभी तुरन्त कम्युनिकेशन की जरूरत पड़ती तो लाइटनिंग कॉल करनी पड़ती थी। डाक से आने वाली चिट्ठियाँ ही कम्युनिकेशन का प्रमुख साधन थीं। तब लिखने-पढ़ने और पत्रकारिता का भूत खूब सवार रहता था। मेरे लिए रोज कम से कम चार-पाँच जरूर चिट्ठियाँ आतीं जो दोपहर को घर पर डिलीवर होतीं। अदालत जाते समय पोस्ट ऑफिस रास्ते में पड़ता था। सुबह दस-सवा दस बजे पोस्टमेन डाक छाँट कर डिलीवरी के लिए निकलने की तैयारी में होते थे। मैं पोस्ट ऑफिस होते हुए अदालत के लिए निकलता और अपनी डाक पोस्टमेन से वहीं वसूल लेता था।

साल 1978 के 23 दिसम्बर का दिन था। यह संयोग ही है कि आज 45 वर्ष बाद भी इस दिन शनिवार ही है। तब चौथा शनिवार होने से अदालतों और सरकारी दफ्तरों में अवकाश है। लेकिन तब सरकार और अदालतों में केवल दूसरे शनिवार को अवकाश हुआ करता था। चौथे शनिवार को अदालतें और दफ्तर गुलजार रहा करते थे। उस दिन मैंने अदालत जाने समय पोस्ट ऑफिस से अपनी डाक वसूल की। डाक में एक खाकी रंग का लिफाफा था जो बार कौंसिल से आया था। मैंने सबसे पहले उसे खोल कर देखा तो उसमें पत्र था जिसमें सूचना दी गयी थी कि 3 दिसम्बर 1918 बैठक में मुझे बार कौंसिल ऑफ राजस्थान की रोल पर 544/ 1978 क्रम पर एनरोल कर लिया गया है। उस चिट्ठी के मिलते ही मैं एक प्रशिक्षु से वकील हो गया था। अदालत पहुँचने पर भाई साहब हरीश जी मिले मैंने वह चिट्ठी उन्हें दे दी। चिट्ठी पढ़ कर बहुत प्रसन्न हुए। वे कुछ सप्ताह पहले ही सिल कर आया नया काला कोट पहने थे। उन्होंने अपना कोट उतारा और मुझे पहना दिया। मुझे कोट पहना हुआ देख कर सारे वकील पूछने लगे, “सनद आ गयी लगती है?” मैंने बताया कि आज ही पत्र मिला है।

उन दिनों बार एसोसिएशन बाराँ के सभी वकील लंच की चाय एसोसिएशन के हॉल में ही पीते थे। लंच हुआ तो सभी हॉल में पहुँचने लगे। जैसे ही हरीश जी और मैं हॉल में पहुँचे। सीनियर वकील मोहम्मद खाँ जी ने बोले,”हरीश” मिठाई कहाँ है? आज तेरा पहला चेला वकील हो गया।“ तभी मुंशी जी मिठाई का डब्बा लिए हॉल में दाखिल हुए, नमकीन मिक्सचर भी साथ था। बस संक्षिप्त सी पार्टी हो गयी। उसके बाद बार एसोसिएशन बाराँ में मेरा नाम सदस्य के रूप में पंजीकृत किया गया। उस दिन से वकालत शुरु हुई तो कभी इस प्रोफेशन ने दामन न छोड़ा। वकालत में बहुत लोगों का आशीर्वाद मिला।

मैं साल पूरा होने के पहले ही बाराँ छोड़ कोटा आ गया। बाराँ में तो हरीश जी और उनके सभी मित्र वकीलों का मुझे आशीर्वाद मिला। कोटा आने के बाद मैं हमेशा पशो-पेश में रहा कि किस सीनियर वकील का दफ्तर जोइन करूँ। मैं मजदूरों की पैरवी करता था। किसी भी नामी दफ्तर में खुद को इनकसिस्टेंट पाता। इसलिए स्वतंत्र रूप से काम करने लगा। लेकिन हमेशा किसी सीनियर वकील के वरदहस्त की जरूरत होती तो मुझे कोटा के नामी वकीलों, पण्डित रामशरण जी शर्मा, सज्जनदास जी मोहता, पानाचंद जी जैन, शिव कुमार शर्मा, महेश जी गुप्ता आदि सीनियर वकीलों का आशीर्वाद मुझे जीवन पर्यन्त मिलता रहा। पानाचंद जी और शिवकुमार जी शर्मा उच्च न्यायालय में जज हुए तो कोटा छोड़ गए। पानाचंद जी जैन और महेश जी गुप्ता अभी मौजूद हैं उनका का आशीर्वाद जब भी चाहता हूँ मुझे मिलता रहता है। कोटा में मजदूर वर्ग के नेताओं का साथ मुझे मिला। उनके साथ के बिना मैं जो आज हूँ कभी नहीं हो सकता था। उनका उल्लेख किसी अन्य अवसर पर फिर करता हूँ।

मित्रों¡ वह अद्भुत दिन था। शायद ही किसी नए वकील को यह अवसर मिला होगा कि सनद मिलने की सूचना मिलने पर सीनियर उसे अपना कोट पहना दे। मैंने वह कोट लगभग पाँच बरस पहना और लगभग बीस वर्ष तक संभाल कर रखा भी। आज वकालत में पैंतालीस साल पूरे हुए। आप सब की शुभकामनाएँ रहीं तो पचास भी इसी तरह सफलतापूर्वक पूरे होंगे।

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

'कहानी' गिरगिट -अन्तोन चेखॉव

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, बगल में एक बण्डल दबाये बाजार के चौक से गुजर रहा था। उसके पीछे-पीछे लाल बालोंवाला पुलिस का एक सिपाही हाथ में एक टोकरी लिये लपका चला आ रहा था। टोकरी जब्त की गई झड़गरियों से ऊपर तक भरी हुई थी। चारों ओर खामोशी।…चौक में एक भी आदमी नहीं। ….भूखे लोगों की तरह दुकानों और शराबखानों के खुले हुए दरवाजे ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे थे, यहां तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता था।

“अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!” ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज आयी, “पकड़ तो लो, छोकड़ो! जाने न पाये! अब तो काटना मना हो गया है! पकड़ लो! आ…आह!”

कुत्ते की पैं-पैं की आवाज सुनायी दी। आचुमेलोव ने मुड़कर देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टांगों से भागता हुआ चला आ रहा है। कलफदार छपी हुई कमीज पहने, वास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है। वह कुत्ते के पीछे लपका और उसे पकड़ने की काशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टांग पकड़ ली। कुत्ते की पैं-पैं और वहीं चीख, “जाने न पाये!” दोबारा सुनाई दी। ऊंखते हुए लोग दुकानों से बाहर गरदनें निकालकर देखने लगे, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो गयी, मानो जमीन फाड़कर निकल आयी हो।

“हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद हो रहा है!” सिपाही बोला।

आचुमेलोव बाईं ओर मुड़ा और भीड़ की तरफ चल दिया। उसने देखा कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है। उसकी वास्कट के बटन खुले हुए थे। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये, भीड़ को अपनी लहूलुहान उंगली दिखा रहा था। लगता था कि उसके नशीले चेहरे पर साफ लिखा हुआ हो “अरे बदमाश!” और उसकी उंगली जीत का झंडा है। आचुमेलोव ने इस व्यक्ति को पहचान लिया। यह सुनार खूकिन था। भीड़ के बाचोंबीच अगली टांगे फैलाये अपराधी, सफेद ग्रे हाउंड का पिल्ला, छिपा पड़ा, ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। उसका मुंह नुकिला था और पीठ पर पीला दाग था। उसकी आंसू-भरी आंखों में मुसीबत और डर की छाप थी।

“यह क्या हंगामा मचा रखा है यहां?” आचुमलोव ने कंधों से भीड़ को चीरते हुए सवाल किया। “यह उंगली क्यों ऊपर उठाए हो? कौन चिल्ला रहा था?”

“हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था, बिल्कुल गाय की तरह,” खूकिन ने अपने मुंह पर हाथ रखकर, खांसते हुए कहना शुरू किया, “मिस्त्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकएक, न जाने क्यों, इस बदमाश ने मरी उंगली में काट लिया।..हुजूर माफ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा,… और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचिदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी उंगुली काम के लायक न हो पायेगी।क मुझे हरजाना दिलवा दीजिए। और हुरूर, कानून में भी कहीं नहीं लिखा है कि हम जानवरों को चुपचाप बरदाश्त करते रहें।..अगर सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जायेगा।”

“हुंह..अच्छा..” ओचुमेलाव ने गला साफ करके, त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, “ठीक है।…अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस मामले को यहीं नहीं छोडूंगा! कुत्तों को खुला छोड़ रखने के लिए मैं इन लोगों को मजा चखाउंगा! जो लोग कानून के अनुसार नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा।बदमाश कहीं के! मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डगार को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं उसकी अकल दुरुस्त कर दूंगा, येल्दीरिन!”

सिपाही को संबोधित कर दरोगा चिल्लाया, “पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फौरन मरीवा दो! यह शायद पागल होगा।…..मैं पूछता हूँ, यह कुत्ता किसका है?”

“शायद जनरल जिगालोव का हो!” भीड़ में से किसी ने कहा।

“जनरल जिगालोव का? हुंह…येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना। ओफ, बड़ी गरमी है।…मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नही आती” कि इसने तुम्हें काटा कैसे?” ओचुमेलोव खूकिन की ओर मुड़ा, “यह तुम्हारी उगली तक पहुंचा कैसे? ठहरा छोटा-सा और तुम हो पूरे लम्बे-चौड़े। किसी कील-वील से उंगली छी ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़कर हरजाना वसूल कर लो। मैं खूब ससमझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!”

“इसने उसके मुंह पर जलती सिगरेट लका दी थी, हुजूर! यूं ही मजाक में और यह कुत्ता बेवकूफ तो है नहीं, उसने काट लिया। यह शख्स बड़ा फिरती है, हुजूर!”

“अब! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो गप्प क्यों मारता है? और सरकार तो खुद समझदार हैं। वह जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। अगर हैं, खुद मेरा भाई पुलिस में है।..बताये देता हूँ….हां….”

“बंद करो यह बकवास!”

“नहीं, यह जनरल साहब का कुत्ता नहीं है,” सिपाही ने गंभीरता पूर्वक कहा, “उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पौण्डर हैं।”

“तुम्हें ठीक मालूम है?”

“जी सरकार।”

“मैं भी जनता हूँ। जनरल साहब क सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक-से-एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! तो बिल्कुल ऐसा-वैसा ही है, देखो न! बिल्कुल मरियल है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्का या पीटर्सबर्ग में दिखाई दे तो जानते हो क्या हो? कानून की परवा किये बिना, एक मिनट में उससे छुट्टी पाली जाये! खूकिन! तुम्हें चोट लगी है। तुम इस मामले को यों ही मत टालो।…इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।”

“लेकिन मुमकिन है, यह जनरल साहब का ही हो,” सिपाही बड़बड़ाया, “इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।”

“हां-हां, जनरल साहब का तो है ही!” भीड़ में से किसी की आवाज आयी।

“हूँह।…येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो। अभी हवा का एक झोंका आया था, मुझे सरदी लग रही है। कुत्ते को जनरल साहब के यहां जाओ और वहां मालूम करो। कह देना कि मैने इस सड़क पर देखा था और वापस भिजवाया है। और हॉँ, देखो, यह कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें। मालूम नहीं, कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुंह में सिगरेट घुसेड़ता रहा तो कुत्ता बहुत जल्दी तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है। और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उंगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है।”

“यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये।…ऐ प्रोखोर! जरा इधर तो आना, भाई! इस कुत्ते को देखना,तुम्हारे यहां का तो नहीं है?”

“वाह! हमारे यहां कभी भी ऐसा कुत्ता नहीं था!”

“इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है,” ओचुमेनलोव ने कहा, “आवारा कुत्ता यहां खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। तुमसे कहा गया है कि आवारा है तो आवारा ही समझो। मार डालो और छुट्टी पाओ?

“हमारा तो नहीं है,”प्रोखोर ने फिर आगे कहा, “यह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है। हमारे जनरल साहब को ग्र हाउ।ड के कुत्तों में कोई दिलचस्पी नहीं है, पर उनके भाई साहब को यह नस्ल पसन्द है।”

“क्या? जनरल साहब के भाई आये हैं? ब्लादीमिर इवानिच?” अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठा, उसका चेहरा आह्वाद से चमक उठा। “जर सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरंगे क्या?”

“हां।”
कहानी गिरगिट के नाट्य रूपान्तरण के मंचन का एक दृश्य


“वाह जी वाह! वह अपने भाई से मिलने आये और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं! तो यह उनका कुत्ता है? बहुत खुशी की बात है। इसे ले जाओ। कैसा प्यारा नन्हा-सा मुन्ना-सा कुत्ता है। इसकी उंगली पर झपटा था! बस-बस, अब कांपो मत। गुर्र…गुर्र…शैतान गुस्से में है… कितना बढ़िया पिल्ला है!

प्रोखोर ने कुत्ते को बुलाया और उसे अपने साथ लेकर टाल से चल दिया। भीड़ खूकिन पर हंसने लगी।

“मैं तुझे ठीक कर दूंगा।” ओचुमेलोव ने उसे धमकाया और अपना लबादा लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चला गया।