@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नवरात्र
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बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

नवरात्र और दशहरा : जब हम किशोर थे

किशोरावस्था में नवरात्र और दशहरा एक उल्लास भरा त्योहार था। दादा जी नगर के एक बड़े मंदिर के पुजारी थे। दादा जी के साथ मैं मन्दिर पर ही रहता था। दादा जी  की दिनचर्या सुबह चार बजे प्रारंभ होती थी। वे उठते मंदिर बुहारते, कुएँ से पानी लाते, स्नान करते, मंदिर की सुबह की पूजा श्रंगार होता। फिर बारह बजे तक दर्शनार्थी आते रहते। वे साढ़े बारह बजे मंदिर से फुरसत पाते। फिर स्नान कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। नौ दिनों तक अपना भोजन स्वयं बनाते और एक समय खाते। हमारे लिए वे कोई पवित्र अनुष्ठान कर रहे होते। शाम को तीन बजे से फिर मंदिर खुल जाता। रात नौ बजे तक वे वहीं रहते। नवरात्र के नौ दिन वे मंदिर से बाहर भी नहीं जाते। मैं  ने उन से पूछा आप का इतना कठोर सात्विक जीवन है। आखिर वे इतना कठोर अनुष्ठान क्यों करते है? कहने लगे मैं लोगों को मुहूर्त बताता हूँ, ज्योतिष का काम करता हूँ। यह बहुत अच्छा काम नहीं है। मेरी बताई बहुत सी बातें गलत भी निकलती हैं। उस के लिए वर्ष में दो बार नवरात्र में माँ से क्षमा मांगता हूँ, प्रायश्चित करता हूँ। शायद माँ माफ कर दें मुझे मेरी गलतियों के लिए पापों के लिए। मुझे आश्चर्य होता कि एक व्यक्ति जिसे मैं होश संभालने से देख रहा हूँ, जिसे कभी कोई पाप  या गलत काम करते नहीं देखा, वह भी क्षमा मांगता है, और अपने अनजान पापों के लिए प्रायश्चित करता है। फिर उन का क्या जो जान कर पाप करते हैं?

मैं अंदर ही अंदर दहल जाता। मैं गलतियां करता और छिपाने के लिए दादा जी से, माँ से और अपने शिक्षक से झूठ बोलता था। मैं सोचता मुझे भी प्रायश्चित करना चाहिए। पर दादा जी की तरह तो नहीं कर सकता। फिर क्या कर सकता हूँ? मैं चाहता था कि मैं दादा जी से पूछूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? पर डर लगता कि मेरे झूठों के बारे में पूछ लिया तो। मैं ने तय कर लिया मैं भी राम चरित मानस का पाठ करूंगा। आखिर एक साल नवान्ह पारायण करने बैठ गया। बड़ा आनंद मिला। लेकिन सिर्फ एक बार। अगले नवरात्र में वह आनंद जाता रहा। फिर कभी वैसा आनंद नहीं आया। हाँ, तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।

पहले नवरात्र से ही रामलीलाएँ शुरू हो जाती थीं। पहले एक गोल कमरा चौक पर होती। पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला के आधार पर। कुछ आधुनिक लोगों को वह पसंद नहीं आयी तो फुटबाल मैदान पर दूसरी होने लगी। लोग दोनों को देखते। कभी इस को कभी उस को। दोनों रामलीलाएँ शौकिया लोग करते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही उस में लगे रहते। वह पूरे शहर का पर्व था और उस में योगदान करना बहुत सम्मान की बात थी। हम भी रोज रामलीला देखने जाते। तीसरे चौथे दिन से दिन में सवारियाँ निकलनी शुरु हो जातीं। जिन में रामायण की घटनाओं और पात्रों को दिखाया जाता। वे शहर के मुख्य बाजार में घुमाई जाती। जगह जगह अखंड रामायण पाठ होते। पूरा शहर राममय हो जाता।

दशहरे के दिन दोपहर बाद सवारी निकलती। पहले रावण का दरबार निकलता। हमारे साथ रोज वाली बॉल खेलने वाले सुख पाल जी रावण बनते। ऐसे ठहाके लगाते कि बच्चे वाकई डर जाते। उस सवारी में एक दो जोकर भी जरूर होते। जो सवारी के आगे पैदल चलते और राहगीरों से चुहल करते चलते। बाद में राम लक्ष्मण की सवारी निकलती जिस में विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और हनुमान भी होते और कुछ बालक वानर भी सभी वानर पैदल चलते। सवारी के आगे। हनुमान की हूँकार और राम का जयघोष देखने-सुनने लायक होता और दर्शकों को रोमांचित कर देता।

सवारी के निकलते ही हम दौड़ते हुए उस के आगे निकल जाते और सवारी के पहले दशहरा मैदान पहुँचते। जहाँ रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि के बड़े बड़े पुतले सजे होते। उन तक पहुंचने का रास्ता सवारी के लिए खाली होता। रावण के पहले ही एक छोटी सी अशोक वाटिका बनाई जाती जिस में माँ सीता बैठी होतीं जिन के आस पास घास की लंका बनाई जाती। सवारी नजदीक पहुंचती तो हनुमान दौड़ कर आते और माँ सीता से मिलते और लंका में आग लगा कर वापस राम जी की सवारी में जा मिलते। फिर रावण पर हमला होता। रावण जला दिया जाता।

हम रावण जलते ही चल देते। रास्ते में नदी किनारे बंकट की बगीची में। बंकट एक गुरू पहलवान था, ब्रह्मचारी। बगीची में रहता अखाड़ा चलाता और हनुमान जी की पूजा करता। सप्ताह में एक दिन बाजार से चंदा करता। दशहरे पर रावण वध के बाद हनुमान जी की पूजा होती। फिर खीर का प्रसाद बंटता। हम दोने में ले कर वहीं प्रसाद खाते और अपने मंदिर लौटते। वहाँ भी हनुमान जी की मूर्ति थी। पूजा करने की जिम्मेदारी मेरी। तबीयत से हनुमान जी का श्रंगार करता। आरती होती, प्रसाद बंटता। फिर परिवार के सभी बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते। सब बच्चों को कुछ न कुछ आना-दो आना जरूर देते। तब तक भूख लगी होती। घऱ जा कर भोजन करते और राम लीला देखने भाग जाते।

दशहरे के दूसरे दिन संध्या काल में दो सवारियाँ निकलतीं जिस में एक में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना होती, अयोध्या को लौटती हुई। दूसरी में भरत होते हाथों में पादुकाएँ लिए हुए वनवासी वेश में। बाजार के बीच चौक में दोनों का मिलन होता। सारे मिलते ही खूब आँसू बहाते। ऐसा दृश्य बनता कि सारे दर्शकों की आँखों से भी आँसू बह रहे होते। वहीं एक मंच बनाया जाता। राम, लक्ष्मण, सीता और भरत कहीं चले जाते। दर्शक इन्तजार करते। फिर चारों राजसी पोशाकों में सज कर आते और राम का राजतिलक होता। लोग खूब रुपया भेंट करते। इतना कि दशहरे के दिनों सवारियों पर किया गया सारा खर्च निकाल कर भी बच जाता जो अगले साल के लिए रख लिया जाता। उन दिनों के नवरात्र और दशहरा कभी नहीं भुलाए जा सकते।
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दुर्गा पूजा और दशहरा पर्व पर सभी को शुभकामनाएँ।
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