@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पुजारी
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बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

नवरात्र और दशहरा : जब हम किशोर थे

किशोरावस्था में नवरात्र और दशहरा एक उल्लास भरा त्योहार था। दादा जी नगर के एक बड़े मंदिर के पुजारी थे। दादा जी के साथ मैं मन्दिर पर ही रहता था। दादा जी  की दिनचर्या सुबह चार बजे प्रारंभ होती थी। वे उठते मंदिर बुहारते, कुएँ से पानी लाते, स्नान करते, मंदिर की सुबह की पूजा श्रंगार होता। फिर बारह बजे तक दर्शनार्थी आते रहते। वे साढ़े बारह बजे मंदिर से फुरसत पाते। फिर स्नान कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। नौ दिनों तक अपना भोजन स्वयं बनाते और एक समय खाते। हमारे लिए वे कोई पवित्र अनुष्ठान कर रहे होते। शाम को तीन बजे से फिर मंदिर खुल जाता। रात नौ बजे तक वे वहीं रहते। नवरात्र के नौ दिन वे मंदिर से बाहर भी नहीं जाते। मैं  ने उन से पूछा आप का इतना कठोर सात्विक जीवन है। आखिर वे इतना कठोर अनुष्ठान क्यों करते है? कहने लगे मैं लोगों को मुहूर्त बताता हूँ, ज्योतिष का काम करता हूँ। यह बहुत अच्छा काम नहीं है। मेरी बताई बहुत सी बातें गलत भी निकलती हैं। उस के लिए वर्ष में दो बार नवरात्र में माँ से क्षमा मांगता हूँ, प्रायश्चित करता हूँ। शायद माँ माफ कर दें मुझे मेरी गलतियों के लिए पापों के लिए। मुझे आश्चर्य होता कि एक व्यक्ति जिसे मैं होश संभालने से देख रहा हूँ, जिसे कभी कोई पाप  या गलत काम करते नहीं देखा, वह भी क्षमा मांगता है, और अपने अनजान पापों के लिए प्रायश्चित करता है। फिर उन का क्या जो जान कर पाप करते हैं?

मैं अंदर ही अंदर दहल जाता। मैं गलतियां करता और छिपाने के लिए दादा जी से, माँ से और अपने शिक्षक से झूठ बोलता था। मैं सोचता मुझे भी प्रायश्चित करना चाहिए। पर दादा जी की तरह तो नहीं कर सकता। फिर क्या कर सकता हूँ? मैं चाहता था कि मैं दादा जी से पूछूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? पर डर लगता कि मेरे झूठों के बारे में पूछ लिया तो। मैं ने तय कर लिया मैं भी राम चरित मानस का पाठ करूंगा। आखिर एक साल नवान्ह पारायण करने बैठ गया। बड़ा आनंद मिला। लेकिन सिर्फ एक बार। अगले नवरात्र में वह आनंद जाता रहा। फिर कभी वैसा आनंद नहीं आया। हाँ, तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।

पहले नवरात्र से ही रामलीलाएँ शुरू हो जाती थीं। पहले एक गोल कमरा चौक पर होती। पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला के आधार पर। कुछ आधुनिक लोगों को वह पसंद नहीं आयी तो फुटबाल मैदान पर दूसरी होने लगी। लोग दोनों को देखते। कभी इस को कभी उस को। दोनों रामलीलाएँ शौकिया लोग करते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही उस में लगे रहते। वह पूरे शहर का पर्व था और उस में योगदान करना बहुत सम्मान की बात थी। हम भी रोज रामलीला देखने जाते। तीसरे चौथे दिन से दिन में सवारियाँ निकलनी शुरु हो जातीं। जिन में रामायण की घटनाओं और पात्रों को दिखाया जाता। वे शहर के मुख्य बाजार में घुमाई जाती। जगह जगह अखंड रामायण पाठ होते। पूरा शहर राममय हो जाता।

दशहरे के दिन दोपहर बाद सवारी निकलती। पहले रावण का दरबार निकलता। हमारे साथ रोज वाली बॉल खेलने वाले सुख पाल जी रावण बनते। ऐसे ठहाके लगाते कि बच्चे वाकई डर जाते। उस सवारी में एक दो जोकर भी जरूर होते। जो सवारी के आगे पैदल चलते और राहगीरों से चुहल करते चलते। बाद में राम लक्ष्मण की सवारी निकलती जिस में विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और हनुमान भी होते और कुछ बालक वानर भी सभी वानर पैदल चलते। सवारी के आगे। हनुमान की हूँकार और राम का जयघोष देखने-सुनने लायक होता और दर्शकों को रोमांचित कर देता।

सवारी के निकलते ही हम दौड़ते हुए उस के आगे निकल जाते और सवारी के पहले दशहरा मैदान पहुँचते। जहाँ रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि के बड़े बड़े पुतले सजे होते। उन तक पहुंचने का रास्ता सवारी के लिए खाली होता। रावण के पहले ही एक छोटी सी अशोक वाटिका बनाई जाती जिस में माँ सीता बैठी होतीं जिन के आस पास घास की लंका बनाई जाती। सवारी नजदीक पहुंचती तो हनुमान दौड़ कर आते और माँ सीता से मिलते और लंका में आग लगा कर वापस राम जी की सवारी में जा मिलते। फिर रावण पर हमला होता। रावण जला दिया जाता।

हम रावण जलते ही चल देते। रास्ते में नदी किनारे बंकट की बगीची में। बंकट एक गुरू पहलवान था, ब्रह्मचारी। बगीची में रहता अखाड़ा चलाता और हनुमान जी की पूजा करता। सप्ताह में एक दिन बाजार से चंदा करता। दशहरे पर रावण वध के बाद हनुमान जी की पूजा होती। फिर खीर का प्रसाद बंटता। हम दोने में ले कर वहीं प्रसाद खाते और अपने मंदिर लौटते। वहाँ भी हनुमान जी की मूर्ति थी। पूजा करने की जिम्मेदारी मेरी। तबीयत से हनुमान जी का श्रंगार करता। आरती होती, प्रसाद बंटता। फिर परिवार के सभी बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते। सब बच्चों को कुछ न कुछ आना-दो आना जरूर देते। तब तक भूख लगी होती। घऱ जा कर भोजन करते और राम लीला देखने भाग जाते।

दशहरे के दूसरे दिन संध्या काल में दो सवारियाँ निकलतीं जिस में एक में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना होती, अयोध्या को लौटती हुई। दूसरी में भरत होते हाथों में पादुकाएँ लिए हुए वनवासी वेश में। बाजार के बीच चौक में दोनों का मिलन होता। सारे मिलते ही खूब आँसू बहाते। ऐसा दृश्य बनता कि सारे दर्शकों की आँखों से भी आँसू बह रहे होते। वहीं एक मंच बनाया जाता। राम, लक्ष्मण, सीता और भरत कहीं चले जाते। दर्शक इन्तजार करते। फिर चारों राजसी पोशाकों में सज कर आते और राम का राजतिलक होता। लोग खूब रुपया भेंट करते। इतना कि दशहरे के दिनों सवारियों पर किया गया सारा खर्च निकाल कर भी बच जाता जो अगले साल के लिए रख लिया जाता। उन दिनों के नवरात्र और दशहरा कभी नहीं भुलाए जा सकते।
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दुर्गा पूजा और दशहरा पर्व पर सभी को शुभकामनाएँ।
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गुरुवार, 24 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -3.......... मन्दिर में

पदपथ समाप्त होने पर कोई दस फुट की दूरी पर दीवार में साधारण सा द्वार था, बिना किवाड़ों के। उस में घुसते ही दीवार नजर आई जिस के दोनों सिरों पर रास्ता निकल रहा था। जीवन के बीस वर्ष मंदिर में गुजारने के अनुभव ने बता दिया कि तुम मंदिर की परिक्रमा में हो और परिक्रमा के पिछले द्वार से प्रवेश कर गए हो। दादा जी जिस मंदिर के पुजारी थे वहाँ भी हमारे प्रवेश का द्वार यही था। पीछे एक बाड़ा था और उस के पीछे घर। हम घर से निकलते और परिक्रमा वाले द्वार पर जूते चप्पल उतारते और मंदिर में प्रवेश करते थे। बिलकुल वही नजारा था मैं बायीँ ओर चला। तो सीधे मंदिर के गर्भगृह के सामने वाले हॉल में पहुँच गया। फर्श पर संगमरमर जड़ा था।

गर्भगृह के सामने की छह फुट चौड़ी मध्य पट्टिका के उस पार एक रेलिंग लगी थी जहाँ एक छोटे मंदिर में एक वृद्ध संत की साधारण वेशभूषा वाली मूर्ति थी। यही इस आश्रम के जन्मदाता की मूर्ति थी। यह रेलिंग हॉल को दो बागों में बांट रही थी। मूर्ति वाले हिस्से में उन से सट कर ही एक मंच पर अखंड रामायण पाठ चल रहा था। मैले कपड़े पहने नौजवान विलम्बित लय में रामचरितमानस का पाठ कर रहा था। सामने एक माइक था जिस से जुड़े लाउडस्पीकर के जरिए पाठ के स्वर आश्रम की सीमा के बाहर जंगल में भी गूँज रहे थे। मूर्ति वाले हिस्से के बाकी स्थान को रामायण पाठ करने वालों और मंदिर को सम्भालने वाले पुजारी के उठने बैठने, विश्राम करने के स्थान में परिवर्तित कर दिया गया था और अन्दर वाली परिक्रमा को बंद कर दिया गया था। जिस की पूर्ति बाहर वाला पदपथ कर रहा था।

मैं गर्भगृह की ओर झाँका, तो वहाँ लाल रंग का पर्दा लटका था, इस तरह की बीच से मूर्ति के दर्शन न हो सकें लेकिन पर्दे के दोनों ओर से झाँका जाए तो हनुमान जी की मूर्ति के दर्शन हो जाएं। साधारण सी मूर्ति और उस पर सिंदूर से चढ़ा चोला। सफेद चमकीली रंगीन पन्नियों से हनुमान जी के आकार को स्पष्ट कर दिया गया था। कोई विशेष सज्जा नहीं। गर्भगृह के बाहर एक जगह बिना आग का धूप दान जिस में सेरों भभूत (राख)। वही एक चौकी जिस पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित माला, अगरबत्ती, प्रसाद और पूजा के सामानों की थैलियाँ रखी थीं। यह हनुमान जी के सोने का समय था। और यह सब उन्हें जागने पर अर्पित किया जा कर प्रसाद वापस लौटाना था। मेरा प्रसाद शोभा के पास बैग में था। मेरी घंटा बजाने की इच्छा हुई थी, लेकिन हनुमान जी को सोया देख उन्हें होने वाली परेशानी को देख पीछे हट गया। अपने आप को वहाँ अवांछित पा कर सामने के द्वार से बाहर आ गया।

मंदिर के सामने चौक था फर्श पर कच्ची मिट्टी पर उगी दूब भली लग रही थी। बाहर एक और लम्बे काष्ठ स्थम्भ पर हनुमान जी का लाल झंडा फहरा रहा था। चौक की दूसरी ओर भी एक मंदिर जैसा निर्माण था। जिस का द्वार भी साधारण बना था। पूछने पर जानकारी मिली कि वहाँ शिव मंदिर है। वहाँ से हमारी अस्थाई भोजनशाला दिखाई दे रही थी। पकौड़े तले जा चुके थे। उन्हें कागज की प्लेटों में रख कर वितरण की तैयारी थी। दूसरी मंदिर में स्थापित देवों के विश्राम में खलल उत्पन्न करने के स्थान पर जाग्रत अन्न देवता को तरजीह देना उचित समझ, उधर चल पड़ा। राह में ही हमारे कनिष्ट उपाध्याय जी और लिपिक दुर्गेश मिल गए। दुर्गेश ने सूचना दी, भाई साहब¡ यहाँ तो विजय भास्कर (95 प्रतिशत भंग मिश्रित स्वादिष्ट चूर्ण) भी उपलब्ध है, लाऊँ? मैं उसे कुछ कहता उस से पहले ही हमारे कनिष्ठ ने आदेश दिया- ले आ, पाँच-दस पुड़िया। पर यहाँ जंगल में, विजय भास्कर? दुर्गेश ने बताया कि बाहर दुकानदार रखता है छुपा कर मांगने पर दे देता है। राजस्थान में इस पर पाबंदी है पर पुलिसवालों ने ऐसे धार्मिक स्थानों पर अपने स्तर पर छूट दे रखी है, छिपा कर बेचने की। दुर्गेश गायब हो गया था। मैं भोजनशाला के नजदीक पहुँचा तो एक ने मुझे पकौड़े ला कर दिए, प्लेट में सॉस भी था। मैं वहीं पदपथ पर पैर लटका कर बैठ खाने लगा। समय देखा तो एक बज रहा था। मैं स्नान के बाद पाँच मिनट भूख बर्दाश्त न करने वाला करीब पाँच घंटों के संयम के उपरांत उन पर टूट पड़ रहा था। इस बीच दुर्गेश विजय-भास्कर के पाउच ले कर लौटा। कहने लगा। आधे पकौड़े निकल चुके हैं बाकी के घोल में डाल दूँ? उस की आँखों में शरारत थी। मैं ने उसे आँखें दिखाईं और सारे पाउच ले कर अपनी जेब के हवाले किए। उसे कहा कि किसी को जरूरत होगी तो मुझ से ले लेगा। पकौड़े खत्म होते तब तक और आ गए। सब ने जम कर छके। पेट पूजा होते ही सब को सफर की थकान सताने लगी। मैं भी स्थान देख रहा था जहाँ झपकी ली जा सके। उधर बाबा के मकान के पास एक पेड़ के नीचे सारी महिलाएँ बतिया रहीं थीं। इधर नन्द जी के गाँव से आया एक नौजवान लड़का छैला बना था, सभी उस की मजाक बना रहे थे। ट्रेन भर में उस के जोड़ की लड़की तलाश करते रहे। कभी इसे पसंद कराते, कभी उसे। इस काम में कुछ महिलाएँ भी पीछे नहीं थीं। मजे का विनोद चल रहा था। जीप में उसे किसी दूसरे यात्री दल की लड़कियों के बीच बिठा दिया गया था। जैसे तैसे अपने छैलेपन की सजा भुगतते उस ने आश्रम तक का सफर किया था। अब दूसरे दल की दूर खाना बनाने में व्यस्त उन्हीं दो लड़कियों को इंगित कर उसे कहा जा रहा था कि वह जा कर उन की मदद करे, तो उन में से एक जरूर उसे पसंद कर लेगी।

पकौड़े पेट में जाते ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। दोनों दिमाग में। एक तो सुस्ती छाई, नीन्द सी आने लगी। दूसरे सुबह ठीक से शौच न होने का तनाव कि किसी भी वक्त जाने की जरूरत पड़ सकती थी। मैं पूछताछ करने लगा कि यहाँ जंगल में पानी कहाँ और कितनी दूर होगा? कोई भी ठीक से नहीं बता सका। फिर एक ने बताया कि आप को शौचादि की जरूरत हो तो आश्रम के पश्चिम में नीचे, गौशाला की बगल शौचालय और स्नानघर बने हैं। मैं ने तुरंत उन का निरीक्षण किया। वे अच्छे और साफ थे। एक शौचालय में एंग्लो इंडियन कमोड भी लगा था। दो स्नानघर थे। साफ और पानी की निरंतर व्यवस्था। उन्हें देख कर मुझे बहुत राहत मिली। उस समय उन की जरूरत नहीं थी मैं वापस लौटा तो। पेड़ के नीचे दरी बिछा कर बैठी महिलाएँ मन्दिर जा चुकीं थीं। दरी पर बहुत स्थान रिक्त था। मैं वहीं लमलेट हो गया। हवा नहीं थी। ऊमस बहुत थी। बादल बहुत कम और हलके थे। विपरीत परिस्थितियों में भी दिमाग के भारी पन से मुझे झपकी लग गई। (जारी)

कुछ पाठकों ने तस्वीरें चाहीं हैं। मेरे पास कैमरा नहीं था, मोबाइल में भी नहीं। एक अन्य मोबाइल से तस्वीरें ली गईं थी। पर वह जिन सज्जन का था। उन के साथ चला गया। वह उपलब्ध हो सका तो तस्वीरें भी दिखेंगी। लेकिन मैं ने तस्वीरों की कमी अपने शब्दों से करने की कोशिश की है। आप ही बताएँगे कि कितनी सफलता मुझे मिल सकी है?

बुधवार, 23 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -2

आश्रम द्वार बहुत बड़ा था, इतना कि ट्रक आसानी से अंदर चला जाए। द्वार पर लोहे के मजबूत फाटक थे। द्वार के बाहर बायीँ और दो छप्पर थे। जिन में पत्थर के कातलों की बैंचें बनी थीं और चाय बनाने और कुछ जरूरी सामानों की दुकानें थीं। दायीँ ओर खुली जगह थी जहाँ आश्रम तक आने वाले वाहन खड़े थे। द्वार के बाहर एक सूचना चस्पा थी " अपने वाहन गेट के बाहर ही खड़े करें। द्वार के अन्दर घुसते ही एक चौक था, जिस में द्वार पर चस्पा सूचना को धता बताती एक जीप खड़ी थी। सामने ही एक इमारत थी। बाद में पता लगा वह आश्रम की भोजन शाला थी। दायीं ओर नीचे सीढ़ियाँ थीं और नीचे कुछ इमारतें बनी हुई थी। बगल में एक कच्ची गौशाला जैसी थी।
बायीं और एक और चौक था जिस में कुछ दुकानें जैसी बनी थीं। बाद में पता लगा उन में से एक बरतन स्टोर था जहाँ से हम ने खाना बनाने के लिए बरतन वगैरा किराए पर प्राप्त किए। एक में आश्रम का कार्यालय था। जिस में साधु वेषधारी दो लिपिक हिसाब-किताब कर रहे थे। कुछ दरी-पट्टियाँ रखी थीं। कार्यालय के बाहर एक सूचना लिखी थी, कि सुबह व शाम के भोजन के लिए निश्चित समय के पूर्व कूपन प्राप्त कर लें। पूछने पर पता लगा कि यात्रियों के कूपन प्राप्त कर लेने से भोजन शाला को पता लग जाता है कि कितने व्यक्तियों का भोजन तैयार करना है।
दुकानों के सामने भोजनशाला से कुछ दूरी पर ही एक बड़ा सा कुआँ था। जिस में गहरी बोरिंग थी और बिजली की मोटर लगी थी। अर्थात आश्रम में बिजली थी। दुकानों से सटा हुआ एक दुमंजिला मकान था। जिस में पीछे की ओर मकान में ऊपर जाने सीढ़ियाँ बनी थीं। इस मकान में बाबा का निवास था। बाबा यानी आश्रम के अधिष्ठाता महन्त। मकान और कुएँ के मध्य एक विशाल और स्वस्थ पीपल का वृक्ष था, जिस के नीचे एक नयी नवेली बिना नंबर की कार खड़ी थी। कार किसी धनिक ने खरीदी थी और पूजा कराने के लिए आश्रम ले कर आया था। अंदर खड़ी जीप आश्रम की ही थी।
पीपल का पेड़ अब तक दृष्टिगोचर हुई तमाम वस्तुओं में एक मात्र आकर्षण था। अपने पूरे व्यास में उस की शाखाएं इस तरह फैली हुई थीं कि कोई भी चार फुटा व्यक्ति बिना श्रम किए हाथ ऊंचे कर उस के पत्तों को छू सकता था। पीपल के पेड़ के बाद एक चार फुट चौड़ा पदपथ नजर आ रहा था। जो अब तक दिखाई दिए निर्माणों की सीमा था। यह पदपथ लगभग डेढ़ सौ फुट लम्बा था जिस के दोनों सिरों से 90 डिग्री मुड़ कर दो भुजाएँ निकल कर आगे दूर तक चली गई थीं। ये भुजाएँ भी चार फुट चौड़ी दीवारों पर थीं पदपथ वहाँ भी था। कोई पांच सौ फुट आगे जाने पर। दोनों भुजाएं फिर आपस में मिल गई थीं। इस तरह यह पदपथ एक आयत बनाता था। सारे जूते-चप्पल इस पदपथ की सीमा के पहले ही खुले हुए थे। इस आयत के अंदर दो मंदिर नजर आ रहे थे एक उस ओर, और एक इस और।
मैं ने सब से पहले कुएँ पर लगे नल पर अपनी प्यास बुझाई। बाद में देखा तो भोजन शाला और कुएँ के मध्य एक और इमारत थी जो अंदर दूर तक चली गयी थी। दूर वाला आधा हिस्सा अभी निर्माणाधीन था। जानकारी मिली कि ये अतिथि शालाएं थीं। एक पुरानी और एक निर्माणाधीन। इन का निर्माण किन्हीं धनिकों ने करवाया था। निर्मित अतिथिशाला की छत पर एक सिन्टेक्स की काली टंकी रखी थी, जिस से नलों में पानी आ रहा था।
मैं जूते पहने-पहने ही पदपथ पर चल पड़ा। पदपथ पर सीमेंट की बनी टाइलें जड़ी थीं। बायीं भुजा पर लगभग तिहाई से आगे पदपथ के बायीँ और ही नीचे कच्ची भूमि पर एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने की सामग्री सजा कर रख दी गई थी, जिस से जरूरत पड़ने पर उचित सामग्री तक तुरंत पहुँचा जा सके। यह सजावट भोजन-पंडित का काम था। सहूलियत भी उसी को होनी थी। वह कंड़ों का जगरा लगा चुका था। एक और पत्थरों का चूल्हा था, जिस में उपले सुलग रहे थे, ब्रेड़ पैकेट खोल कर परात में रख ली गईं थीं, भोजन-पंडित एक भगोने में बेसन में मसाला मिला कर घोल बनाने में व्यस्त था। मैं समझ गया, कुछ देर में गर्मागरम ब्रेड-पकौड़े मिलने वाले हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग पंडित की मदद कर रहे थे। मेरे लिपिक दुर्गेश के पिता राष्ट्रीयःउच्च-मार्ग पर ढाबा चलाते हैं, ढाबे में ही वह बड़ा हुआ। अपना कौशल दिखाने के मकसद से वह तुरंत पंडित की मदद को पहुँच गया।
मैं पदपथ पर ही बाहर की ओर, जिधर हमारी अस्थाई भोजन शाला सजी थी, पैर लटका कर बैठ गया। हमारी अस्थाई भोजन शाला से कुछ ही आगे पत्थर की दीवारों पर चद्दरों के छप्पर डाल कर दो-तीन कमरों का आवास बनाया हुआ था। पूछने पर पता लगा कि यहाँ आश्रम के साधु निवास करते हैं। पकौडे. तले जाने में अभी देर थी। मैं ने तब तक मन्दिर देखना उचित समझा। मैं जूते पहने-पहने ही वापस पीपल के पेड़ की और पदपथ पर चल पड़ा। सामने से एक साधु आ रहा था। साधारण मैली सी धोती और कपड़े की बनियान पहने, नंगे पैर ही चल रहा था। गले में रुद्राक्ष और तुलसी मालाएँ थीं। दाढ़ी और बाल बढ़े हुए। माथे पर चंदन का टीका लगा था। पास आने पर उसने मुझे जूते पहन कर पदपथ पर चलने से रोका। मेरे माथे पर प्रश्नवाचक पढ़ कर बताने लगा कि यह पदपथ मंदिरों की परिक्रमा है। इस पर जूते क्यों लाए जाएँ? मैं ने अपनी अनभिज्ञता जताते हुए क्षमा मांगी और जूते पदपथ की सीमा के बाहर खोल। मंदिर की और बढ़ चला।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

कहाँ हैं दादा जी जैसे कथावाचक

शाम साढ़े पांच बजे अदालत से घर पहुँचा तो शोभा जी (मेरी पत्नी) किसी धार्मिक टीवी चैनल पर आधुनिक नामचीन्ह कथावाचक की लाइव कथा सुन रही थीं। प्रसंग था दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव के अपमान और यज्ञ के विध्वंस का। वाचकश्री कथा कहते-कहते सिखाने लगे कि दो के झगड़े में तीसरे को नहीं बोलना चाहिए और इस बहाने एक बहुश्रुत चुटकुला सुना गए। फिर कुछ देर बाद ही उन्हों ने एक भजन की पहली पंक्ति आरम्भिक शब्द गुनगुनाए, जिस के इशारे से प्लेबैक सिंगिंग शुरु हो गया। अनेक श्रोता महिलाएं और बालाएं (उनमें से कुछ प्रायोजित भी हों तो इस का पता पत्रकार बंधु दें) नृत्य करने लगीं। सारा वातावरण भक्ति नृत्य-संगीत से सराबोर हो उठा। अब वाचकश्री केवल होंट हिला रहे थे, प्लेबैक सिंगर पूरे व्यावसायिक कौशल से गा रहे थे। वादक उन का साथ दे रहे थे, कुछ लोग पांडाल से बाहर जाने को रास्ता बनाने लगे, कुछ वाचकश्री के निकट-दर्शन लाभ की इच्छा से भव्य मंच की ओर राह बनाने लगे। यह भजन कथा के इस दिन के सोपान के समापन का संकेत था। इस बीच कैमरा घूमने लगा। मुझे उस की भव्यता के और विशेष कर इस भव्य संयोजन के लिए सिद्धहस्त व्यावसायिक कलाकारों और तकनीशियनों के कौशल की अनुभूति हुई। मेरे सामने अपने अतीत की स्मृतियां आ खड़ी हुई।

मेरे दादा जी पं. राम कल्याण शर्मा एक अच्छे कथावाचक थे, संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान, एक बड़े मन्दिर के पुजारी। गृहस्थ, लेकिन स्वभाव से बिलकुल संन्यासी। अपने बचपन और युवावस्था में अनेक विपदाओं के मध्य उन का जीवन अंततः इस मंदिर में आ कर ठहरा था। वे गांव में अपर्याप्त आय वाला ब्राह्णण कर्म और साप्ताहिक हाट में कुछ व्यापार कर परिवार का जीवन चला रहे थे। पिता जी के सरकारी अध्यापक हो कर इस व्यावसायिक नगर में आने के दो-एक बरस बाद जब महाजनों के जातीय मंदिर को तत्काल आवश्यकता हुई तो दादाजी को जानने वाले पंचों ने उन्हें रातों-रात गांव से लाकर इस मंदिर का पुजारी बना दिया। हालांकि इस नए कर्तव्य के लिए वे तभी तैयार हुए जब उन्हें हटाए जाने वाले पुजारी ने अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र दे दिया। उन का जीवन एक लम्बी कथा है, लेकिन अभी केवल प्रसंगवश केवल उन का कथावाचक का रूप।

मुझे उन के साथ १९५७ से १९७९ तक अनवरत साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ। माँ के बाद मेरे पहले गुरू वे ही थे उन्हों ने मेरे लिखना सीखने के पहले ही मुझे गणित का प्रारंभिक अभ्यास कराया था। मैं ने उन्हें सैंकड़ों बार कथा वाचन करते देखा सुना। वे पूर्णिमा को श्री सत्यनारायण-कथा, एकादशी को एकादशी-कथा, कार्तिक, वैशाख, व पुरूषोत्तम मास में दैनिक मास कथा का वाचन करते। भागवत कथा का एक अध्याय तो नित्य ही वाचन होता था। इस कथा-वाचन से वे इतने बंधे थे कि उनका कहीं बाहर आना-जाना भी नहीं होता था। जाते भी तो उस दिन के लिए एवजी कथा वाचक की व्यवस्था वे ही करते। आखिर कथा की नियमितता भंग नहीं होनी चाहिए थी। नौ वर्ष की आयु में जब मेरा यज्ञोपवीत हो गया तो कथा के दौरान मंदिर में पुजारी के काम के लिए मेरी ड्यूटी लगने लगी। यहीं मुझे उन की कथाओं को नियमित रूप से श्रवण करने का अवसर मिलने लगा।

उन की कथा में कोई सहायक व्यवस्थायें नहीं थीं। मन्दिर में गर्भगृह के सामने आंगन था, आंगन व गर्भगृह के मध्य एक पंचबारी थी। आंगन के दाएं-बाएं भी दो पचबारियां, चौथी ओर मन्दिर का प्रवेशद्वार था। दाईँ ओर की पंचबारी के दूसरे द्वार के दोनों स्थम्भों के मध्य प्रवेशद्वार के स्तम्भ से सटा एक चौकी रखी होती थी, जिस पर एक कपड़े का सुन्दर कवर बिछा होता, उस पर दादाजी के भगवान की तस्वीर होती। और उसी पर उन की कथा पुस्तकें कपड़े के बस्ते में लिपटी रखी होतीं थीं। पंचबारी के इस द्वार के दूसरे स्तम्भ के साथ एक आसन रखा होता। यही दादाजी की व्यास पीठ थी। यही उन की कथा का समूचा सहायक तंत्र।

प्रातः दस बजे के लगभग उन की कथा का समय होता, उन के श्रोता आते मन्दिर आते दर्शन करते। उनमें से ही कोई फर्श बिछा देता फिर एक-एक कर उस पर बैठने लगते, दादा जी मन्दिर की सेवा किसी अन्य परिजन(यज्ञोपवीत के बाद अक्सर मुझे, मेरा स्कूल सदैव दोपहर की शिफ्ट में १२बजे का रहा) सोंप कर व्यास पीठ सम्भालते। तस्वीर वाले ठाकुर जी की कुछ मंत्रों के साथ पूजा करते और उन की कथा प्रारंभ होती। उन के श्रोताओं में पन्द्रह-बीस स्थाई थे वे उन सभी के आने की तनिक प्रतीक्षा भी करते थे, शेष अस्थाई श्रोता थे। कोई स्थाई श्रोता को न आना होता तो कथा समय के पहले ही उन के पास उस की सूचना होती थी। वे कथा प्रारम्भ में देरी करते दिखाई पड़ते तो श्रोताओं में से कोई भी उन्हें बता देता था कि अनुपस्थित लोग आज किस एक्सेजेंसी के कारण नहीं आ पाएंगे। कथा प्रारंभ के साथ ही श्रोता बढ़ने लगते और उस के साथ ही दादाजी का स्वर भी ऊंचा होता जाता, उन्हें यह अहसास रहता था कि उन की कथा अंतिम श्रोता तक पहुँचनी चाहिए। कथा में वे पहले मूल संस्कृत श्लोक का अपनी शैली में वाचन करते, फिर उस की सीधे हाड़ौती बोली में टीका करते थे। कहीं बीच में अध्याय विराम होता तो गोविन्दम् माधवम् गोपिकावल्लभम्... उच्चारण कर छोड़ देते, उन के श्रोता इस संक्षिप्त भजन को दो मिनट में पूरा करते तब अगले अध्याय की कथा प्रारम्भ होती। उन की कथा में किसी अन्तर्कथा का कोई स्थान न था। हाँ, जब कथा में कोई गंभीर शिक्षा या संदेश होता तो उसे वे हाड़ौती में तनिक विस्तार से व्याख्या करते थे। कोई बात किसी श्रोता को साफ न होती तो वह कथा के बाद दादा जी से प्रश्न के माध्यम से पूछता था। बात जरा सी होती तो वे उसी समय प्रश्न का उत्तर दे देते और उन को लगता कि यह शंका अन्य श्रोता को भी हो सकती है, तो कहते कल कथा में इसे समझाउंगा। दूसरे दिन कथा के बीच ही वे उस प्रश्न का उत्तर दे देते।

कथा-श्रोताओं की संख्या मौसम के अनुसार घटती बढ़ती रहती थी, पूर्णिमा, एकादशी और विशेष मास कथाओं के दौरान यह बढ़ कर चरम सीमा पर होती थी तो बरसात के दिनों में मूसलाधार वर्षा के समय न्यूनतम भी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक भी श्रोता नहीं होता था, वे कुछ समय प्रतीक्षा करते, फिर उन की कथा नित्य की भांति प्रारंभ हो जाती। प्रारंभ में जब मैं ने यह देखा तो मुझे विचित्र लगा कि आखिर वे किसे कथा सुना रहे हैं? मैं ने अत्यन्त साहस कर के पूछा तो उन्होंने अत्यन्त स्नेह से समझाया कि मैं कभी श्रोताओं के लिए कथा नहीं करता। मेरी कथा को मेरे ठाकुर जी और मैं तो सुनता हूँ, फिर मेरे गाल पर एक चपत मढ़ते हुए प्यार से कहा- और तू भी तो सुनता है।

मुझे लगता है कि आज दादा जी जैसे कथावाचक कहाँ हैं? हैं भी या नहीं?

मेरा कथन- आज का यह आलेख ज्ञान दत्त जी पाण्डे की पोस्ट वाणी का पर्स से प्रेरित है। मुझे लगा कि ब्लॉग में ब्लॉगर को स्वयं को खोलना चाहिए। जिस से वह पाठकों के लिए निजी निधि बने। यह एक प्रयास है। यदि इसे पाठकों का आशीर्वाद मिला तो सप्ताह में कम से कम एक दिन मेरी यह निजी अंतर्कथा सार्वजनिक होती रहेगी।