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रविवार, 6 नवंबर 2011

कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

इरोक्वाई
स तरह  कबीलों में संघ बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। कुछ खास कबीलों ने जो आरंभ में रक्तसंबंधी थे लेकिन अलग हो गए थे फिर से स्थाई एकता बना ली। इस तरह उन्हों ने महासंघ बना कर एक राष्ट्र के गठन की ओर पहला कदम उठाया। अमरीका में इरोक्वा लोगों का महासंघ ऐसे संघ का सब से विकसित रूप था। यह पाँच कबीलों का संघ था। मछली, शिकार में मारे गए जानवरों का मांस और पिछड़े ढंग की बागवानी की उपज इन का भोजन था।  ये लोग बाड़ों से घिरे गाँवों में निवास करते थे।  उन में मिले जुले गोत्र थे और एक ही भाषा की अनेक बोलियाँ बोलते थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अस्तित्व में आए इस महासंघ ने अपनी शक्ति को महसूस करते ही आक्रमणकारी रुख अपना लिया और आसपास के बहुत बड़े इलाके को हथिया लिया। वहाँ के निवासियों को या तो भगा दिया या फिर नजराने देने पर मजबूर कर दिया। वे कभी बर्बर युग की इस निम्नावस्था से आगे नहीं बढ़ पाए। उन के सामाजिक संगठन का सब से उन्नत रूप इरोक्वाई महासंघ ही था। 

स महासंघ में कबीलों को सभी अंदरूनी कबायली मामलों में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। रक्त संबंध महासंघ का आधार था। महासंघ के निकाय के रूप में एक संघ-परिषद होती थी जिस के सदस्य पचास साखेम थे। इन पचासों का पद और प्रतिष्ठा समान थी। महासंघ से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय परिषद करती थी। महासंघ के ये पचास पद कबीलों और गोत्रों में बाँट दिया गया था। जब कोई पद खाली हो जाता था तो संबंधित गोत्र फिर से उस का चुनाव कर लेता था। गोत्र अपने किसी भी प्रतिनिधि को कभी भी हटा सकते थे। लेकिन नए प्रतिनिधि को स्वीकार करने का अधिकार संघ परिषद के पास था। संघीय साखेम कबीलों में भी साखेम थे और उन्हें कबीलों की परिषद में भाग लेने और मत देने का अधिकार था। संघ-परिषद को अपने सभी निर्णय सर्वसम्मति से लेने होते थे। मत कबीलेवार लिए जाते थे, जिस का अर्थ था कि हर कबीले को और हर कबीले के परिषद सदस्य को एकमत होना होता था तभी निर्णय होता था। पाँचों कबीलों की परिषदों में से किसी के भी द्वारा संघ परिषद बुलाई जा सकती थी लेकिन स्वयं संघ परिषद को अपनी बैठक बुलाने का अधिकार नहीं था।  संघ परिषद की बैठक आम जनता के सामने होती थी जिस में किसी को भी बोलने का अधिकार था। लेकिन निर्णय संघ परिषद ही करती थी। महासंघ का कोई अधिकृत मुखिया या प्रमुख नहीं होता था। महासंघ के दो सर्वोच्च युद्धकालीन नेता होते थे, जिन की शक्ति समान और अधिकार भी समान होते थे। 
इरोक्वाई युद्ध नृत्य

स तरह के समाज विधान के अंतर्गत इरोक्वा लोग कई सदियों तक रहते रहे। इस समाज संगठन में राज्य का अस्तित्व नहीं था। उत्तर अमरीकी इंडियनों के सामाजिक अध्ययन से पता लगता है कि यह एक कबीला था जो धीरे-धीरे पूरे महाद्वीप पर फैल गया था। कबीलों के विभाजन के फलस्वरूप जनगण, कबीलों के पूरे समूह बन गए थे। किस प्रकार भाषाएँ इतनी बदल गई थीं कि वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। उन की प्राचीन एकता के चिन्ह लगभग गायब हो गए थे। कबीलों के गोत्र भी अनेक गोत्रों में बँट गए थे। शिशुवत यह सीधा-सादा गोत्र संगठन अत्यन्त विलक्षण था। न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था। कोई झगड़ा उठ खड़ा होता था तो अलग अलग गोत्रों और कबीलों के लोग उसे मिल बाँट कर निपटा लेते थे। रक्त-प्रतिशोध की स्थिति भी तभी आती थी जब किसी तरह झगड़ा नहीं निपटता था इस लिए उस की नौबत कम ही आती थी। मृत्यु दंड इसी चीज का सभ्य नाम है जिस में सभ्यता की अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। 
80 फुट लंबा इरोक्वाई घर
स समय आज से कहीं बहुत अधिक मामलों को मिल कर तय करना पड़ता था। कई-कई परिवार एक साथ मिल कर सामुदायिक ढंग से घर चलाते थे। जमीन पूरे कबीले की संपत्ति थी। अलग अलग घरों को केवल छोटे-छोटे बगीचे अस्थाई रूप से मिलते थे। जिन का जिस मामले से संबंध होता था वे ही उस का फैसला कर लेते थे। अधिकतकर मामले तो पुराने रीति रिवाज के अनुसार स्वतः ही निपट जाते थे। सामुदायिक कुटुम्ब गोत्रों को भलीभाँति ज्ञात था कि बूढ़ों, बीमारों और युद्ध में अपंग हुए लोगों के प्रति उन का क्या कर्तव्य है। सब स्वतंत्र और समान थे, स्त्रियाँ भी। वहाँ न दासों के लिए स्थान था और न ही दूसरे कबीलों को अपने अधीन रख पाने की गुंजाइश थी। 1651 के लगभग इरोक्वाइयों ने एरीयों को जीता उन्हों ने महासंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया तब उन्हें अपने इलाकों से खदेड़ दिया गया। यह समाज कैसे मनुष्य पैदा करता था यह इस से पता लगता है कि जो गोरे लोग इंडियनों के सम्पर्क में आए और जो भ्रष्ट नहीं हुए थे उन्हों ने इन बर्बर लोगों की आत्मगरिमा, सीधे-सरल स्वभाव, चरित्र बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वर्ग भेद उत्पन्न होने के पहले  संपूर्ण मानव जाति और मानव समाज ऐसा ही था। यदि हम उन की हालत की तुलना आज के मनु्ष्य की हालत से करते हैं तो हम वर्तमान मजदूरों,छोटे किसानों और प्राचीन काल के गोत्र के स्वतंत्र सदस्य के बीच गहरी खाई पाते हैं।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

अमंरीकी इंडियन कबीले : बेहतर जीवन की ओर-11

म ने देखा की गोत्र अमरीकी इंडियन जनों में समाज की इकाई के रूप में था। उन से मिल कर बिरादरी बनती थी और अनेक बिरादरियाँ मिल कर एक कबीले का निर्माण करती थी। कई छोटे कबीले सीधे गोत्रों से भी मिल कर बनते थे जिन में बिरादरी जैसी बीच की कड़ी नहीं होती थी। हर कबीले का अपना अलग नाम और इलाका होता था। कबीले की बस्ती के स्थान के अलावा आसपास बहुत विस्तृत क्षेत्र शिकार और मछली पकड़ने के लिए होता था। इस के बाद बहुत विस्तृत तटस्थ भूमि होती थी जो दूसरे कबीले तक चली जाती थी। यदि दो कबीलों की भाषाएँ मिलती जुलती होती थीं तो तटस्थ भूमि  का विस्तार कम होता था। यदि दो कबीलों के बीच भाषाओं के बीच कोई संम्बन्ध नहीं होता तो यह तटस्थ भूमि अधिक विस्तृत होती थी। अस्पष्ट सीमाओं से घिरा यह इलाका कबीले का सामुहिक क्षेत्र होता था जिसे पड़ौसी कबीले भी मानते थे। यदि कोई अन्य इस सीमा में घुसता तो कबीला अपने इलाके की रक्षा करता था। सीमाओं की अस्पष्टता से कठिनाई तभी उत्पन्न होती थी जब आबादी अधिक हो जाती थी। 
र कबीले की अपनी खास बोली होती थी। सच तो यह है कि कबीला और बोली दोनों सारतः समवर्ती शब्द हैं। अमरीका में उपविभाजन से नए कबीले और नई बोलियाँ अभी दो शताब्दी पहले तक बनती रहीं। कबीलों को गोत्रों द्वारा चुने गए साखेमों और युद्धकाल के नेताओं का अभिषेक करने का अधिकार होता था। यहाँ तक वे गोत्रों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें अपदस्थ भी कर सकता था क्यों की वे कबीले की परिषद के सदस्य होते थे। जहाँ कुछ कबीले महासंघ बना लेते थे यह अधिकार कबीलों के प्रतिनिधियों की संघीय परिषद को सौंप दिया जाता था।  हर कबीले की समान धारणाएँ (पौराणिक गाथाएँ) होती थीं। उन्हों ने अपनी धारणाओं को तरह तरह के देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों का रुप दिया हुआ था लेकिन उन्हें कोई आकार देकर मूर्तियाँ नहीं बनाई थीं। यह प्रकृति तथा महाभूतों की पूजा थी जो धीरे-धीरे बहुदेववाद का रूप धारण कर रही थी। उन के नियमित त्यौहार थे जिनमें खासकर नृत्यों और खेलों के माध्यम से पूजा की जाती थी। 
र कबीले की एक कबायली परिषद होती थी। जो कबीलों के आम निर्णय करती थी। इस में सभी गोत्रों के साखेम और युद्धकाल के नेता सम्मिलित होते थे। परिषद की बैठक खुले रूप में होती थी। बीच में परिषद बैठती और आस-पास कबीले के बाकी सदस्य बैठा करते थे। सभी को बहस में हिस्सा लेने और अपनी राय प्रकट करने का अधिकार होता था। फैसला परिषद करती थी। इरोक्वा लोगों में परिषद को अपना फैसला एक मत  से करना होता था।  दूसरे कबीलों के साथ संबंध रखने का काम कबायली परिषद करती थी। वह दूसरे कबीलों के दूतों का स्वागत करती थी और उन के पास अपने दूत भेजती थी। वह युद्ध की घोषणा और शांति-संधि करती थी। युद्ध छिड़ जाने पर लड़ने के लिए आम तौर पर वे ही भेजे जाते थे जो स्वेच्छा से तैयार होते थे।  एक कबीलों की उन कबीलों से युद्ध की स्थिति होती थी जिन से कोई शांति संधि नहीं होती थी। ऐसे शत्रुओं के खिलाफ कुछ विशिष्ठ योद्धा सैनिक अभियान संगठित करते थे।  युद्ध नृत्य आयोजित होता था, जो कोई नृत्य में शामिल हो जाता था समझा जाता था कि वह युद्ध में जाने को तैयार है। तुरंत टुकड़ी तैयार कर अभिायान के लिए भेजी जाती थी। कबायली इलाके पर कोई हमला होता था तो स्वयं सेवक ही उस की रक्षा करते थे। ऐसे दस्तों के कूच करने और लौटने पर उत्सव आयोजित किए जाते थे। ऐसे अभियानों के लिए परिषद की इजाजत लेना जरूरी नहीं था और परिषद उस की इजाजत देती भी नहीं थी। 
कुछ कबीलों में एक प्रधान मुखिया भी होता था। लेकिन उसे बहुत कम अधिकार प्राप्त थे। वह साखेमों में से एक होता था। जब कोई तुरंत निर्णय करने वाली समस्या उठ खड़ी होती थी तो प्रधान मुखिया फैसला कर देता था जो कबायली परिषद द्वारा अंतिम फैसला करने तक लागू रहता था। अमरीकी इंडियन कभी कबायली व्यवस्था से आगे नहीं बढ़ सके। थोड़े थोड़े लोगों के अनेक कबीले जिन के बीच बड़े बड़े सीमान्त प्रदेश होते थे एक दूसरे से कटे हुए रहते थे। उन में सदा लड़ाइयाँ चलती रहती थीं। जिस का परिणाम यह था कि थोड़े से लोग बहुत विशाल इलाके में फैले हुए थे। कहीं कोई अस्थाई संकट आ जाता था तो रक्त-संबंधी कबीलों में सहयोग हो जाता था पर संकट दूर होते ही यह मोर्चा फिर से बिखर जाता था। कुछ खास इलाकों में कबीलों ने स्थाई संघ बना कर अपनी एकता कायम कर ली। (क्रमशः)

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

इरोक्वाई बिरादरियाँ : बेहतर जीवन की ओर-10

रोक्वाई गोत्र के सद्स्यों का कर्तव्य था कि वे एक दूसरे की मदद और रक्षा करें।  सदस्य अपनी रक्षा के लिए गोत्र की शक्ति पर निर्भर करता था। यदि बाहरी व्यक्ति किसी सदस्य को चोट पहुँचा जाए तो उसे सारे गोत्र की चोट समझ कर उस का बदला लेते थे। रक्त प्रतिशोध को इरोक्वाई लोग बिना शर्त मानते थे। यदि कोई बाहरी व्यक्ति किसी इरोक्वाई को मार डालता तो पूरा गोत्र खून का बदला खून से लेने के लिए कटिबद्ध हो जाता था। पहले मध्यस्थता के प्रयास किए जाते थे। इस का तरीका यह होता कि मारने वाले के गोत्र के लोग घटना पर दुखः प्रकट करते और कोई मूल्यवान भेंट भेजते। यदि मरने वाले का गोत्र उसे स्वीकार कर लेते तो मामला निपट जाता अन्यथा। मरने वाले का गोत्र एक टुकड़ी मारने वाले का पीछा करें और मार डालें। ऐसा करने पर हत्यारे के गोत्र को शिकायत का कोई अवसर नहीं होता था और समझा जाता था कि हिसाब चुक लिया गया। 

र गोत्र के पास एक खास नाम या कई खास नाम होते थे जिन के उल्लेख से पता लगता था कि वह व्यक्ति किस गोत्र का है। गोत्र अजनबियों और बाहरी व्यक्तियों को अंगीकार कर के उन्हें कबीले में सम्मिलित कर सकता था। जो युद्धबंदी मारे नहीं जाते थे वे अपनाए जाने पर कबीले के सदस्य बन जाते थे और उन्हें कबीले के सदस्य के सभी अधिकार प्राप्त हो जाते थे। पुरुष अजनबी को भाई या बहिन और स्त्रियाँ संतान मान लेती थीं। जिन गोत्रों की सदस्य संख्या कम हो जाती थी वे अक्सर दूसरे गोत्रों से सामुहिक भर्ती कर लेते थे। किसी को अपनाए जाने का काम अनुष्ठान पूर्वक होता था और यह एक तरह से धार्मिक अनुष्ठान बन गया था। हर गोत्र का पृथक कब्रिस्तान होता था या अनेक गोत्रों का सामुहिक कब्रिस्तान होने पर एक गोत्र की पंक्ति एक साथ होती थी। माँ और उस के बच्चों को एक ही पंक्ति में दफनाया जाता था लेकिन पिता को उस के बच्चों के साथ नहीं दफनाया जा सकता था क्यों कि उस का गोत्र अलग होता था। गोत्र की एक परिषद होती थी जो वास्तव में गोत्र के सभी स्त्री-पुरुषों की जनसभा होती थी। सभी सदस्यों का मत बराबर होता था। यह परिषद शांतिकाल के साखेमों और युद्धकाल के नेता का चुनाव करती थी और उन्हें हटाती थी। गोत्र के सदस्य के मारे जाने पर वह प्रायश्चित की भेंट को स्वीकार करती थी या फिर रक्त प्रतिशोध का निर्णय करती थी। वही अजनबियों को अपना सदस्य बनाती थी। यह जनसभा गोत्र की सार्वभौम सत्ता थी। इस तरह गोत्र इरोक्वाई समाज का की एक इकाई के रूप में काम करता था।

मरीका की खोज के समय इंडियन कबीले ऐसे ही मातृवंशीय गोत्रों में संगठित थे। जो कबीले पाँच-छह या अधिक गोत्रों से मिल कर बने थे उन में तीन-चार कबीले एक समूह में संगठित हो जाते थे तथा शेष अन्य समूह में। इन समूहों को बिरादरी कहा जा सकता था। सेनेका कबीले में दो बिरादरियाँ थीं। ये बिरादियाँ वास्तव में उन समूहों का प्रतिनिधित्व करती थीं जिन में वे सब से पहले विभाजित हुए थे। गोत्रों के भीतर विवाह वर्जित था। इससे एक कबीले के लिेए यह आवश्यक था कि उस में कम से कम दो गोत्र हों जिस से कबीला स्वतंत्र रूप से अस्तित्व कायम रख सके। बिरादरी के कार्य सामाजिक और धार्मिक प्रकार के होते थे। जैसे एक कबीले में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर दूसरी बिरादरी अंतिम क्रिया और दफनाने की व्यवस्था करती थी जब कि मृतक बिरादरी के लोग मातम मनाने में लग जाते थे। किसी गोत्र में साखेम के चुनाव को बिरादरी के दूसरे गोत्र मंजूरी देते तो ठीक था लेकिन किसी गोत्र को आपत्ति होती थी तो बिरादरी की परिषद बैठती थी और वह भी चुनाव को अस्वीकार कर देती थी तो चुनाव रद्द माना जाता था और दूसरे साखेम का चुनाव करना पड़ता था। बिरादरियाँ यदि सैनिक टुकड़ी के रूप में काम करती थीं तो हर गोत्र की वर्दी और झंडा अलग होता था। जिस तरह कई गोत्रों से मिल कर एक बिरादरी बनती थी उसी तरह कई बिरादरियों के मेल से कबीले का निर्माण होता था।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

गोत्र आधारित समाज : बेहतर जीवन की ओर-9

ल्यूइस एच. मोर्गन विशेष ज्ञान रखने वाले ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्हों ने  मनुष्य के प्राक् इतिहास को एक निश्चित क्रम प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्हों ने अपने जीवन का अधिकांश भाग अमरीका के इरोक्वा लोगों के बीच बिताया था। इरोक्वाई लोग उन दिनों न्यूयार्क राज्य में रहते थे और मोर्गन को उन के एक कबीले (सेनेका) ने उन्हें अंगीकार कर लिया था। इन लोगों में नियम था कि एक-एक जोड़ा आपस में विवाह करता था और दोनों पक्षों में से कोई भी आसानी से विवाह को भंग कर सकता था। विवाहित जोड़ों से उत्पन्न संतानों के कारण पिता, माता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, बुआ, मामा, ममेरे फुफेरे भाई-बहन आदि संबंध वैसे ही थे जैसे भारतीय परिवारों में आम तौर पर मिलते हैं। इरोक्वाई पुरुष अपनी संतानों के साथ अपने भाइयों की संतानों को भी अपने पुत्र-पुत्री कहते थे और अपनी बहन के पुत्र-पुत्रियों को भांजा भांजी कहते थे। उधर स्त्रियाँ अपनी बहनों के पुत्र पुत्रियों को अपने ही पुत्र पुत्री कहती थीं लेकिन अपने भाइयों के पुत्र पुत्रियों को भतीजा भतीजी कहती थी। इस समुदाय में मातृसत्ता प्रचलित थी। 

मोर्गन ने रक्त संबंधियों के इस समूह के लिए लैटिन शब्द gens का प्रयोग किया जो अपने यूनानी पर्याय genos की तरह समान आर्य धातु gan से उत्पन्न हुआ है जिस का अर्थ है जन्म देना। Gens, Genos, गोथिक भाषा का kuni, एंग्लो सेक्सन भाषा का kyn, अंग्रेजी भाषा का kin और संस्कृत भाषा के जन का अर्थ एक ही है और वह है रक्त संबंध या वंश। मोर्गन ने इरोक्वा जनों के, विशेष रूप से सेनेका कबीले के गोत्रों को आरंभिक गोत्रों का क्लासिकीय रूप माना। इस कबीले में आठ गोत्र होते थे, जिन के नाम पशुओं के नाम से भेड़िया, भालू, कछुआ, ऊदबिलाव, हिरन, टिटिहरी, बगुला और बाज थे। इन सभी गोत्रों में कुछ प्रथाएँ प्रचलित थीं। 

न प्रथाओं में सब से पहली थी कि वे अपने दो प्रकार के नेताओं का चुनाव करते थे। एक शांतिकाल का नेता होता था जिसे वे साखेम कहते थे। दूसरा युद्धकाल का नेता होता था। साखेम गोत्र में से ही चुना जाता था। यह पदवी आम तौर पर वंशगत होती थी क्यों कि इसे तुरंत भरना पड़ता था। युद्धकाल का नेता गोत्र के बाहर से भी चुना जा सकता था और यह पद कुछ समय तक रिक्त रह सकता था। लेकिन मातृसत्ता के चलते साखेम का पुत्र उस का स्थान नहीं ले सकता था क्यों कि वह दूसरे गोत्र का सदस्य होता था। लेकिन साखेम का भाई या भांजा अक्सर उस के स्थान पर चुन लिया जाता था। चुनाव में सभी स्त्री-पुरुष भाग लेते थे। लेकिन केवल चुन लेना पर्याप्त नहीं था। यह जरूरी था कि साखेम को शेष सातों गोत्र भी स्वीकार करें, तभी उसे साखेम के पद पर बिठाया जाता था। यह काम इरोक्वा लोगों के पूरे महासंघ की आम परिषद किया करती थी। गोत्र के भीतर साखेम का अधिकार पितातुल्य केवल नैतिक प्रकार का होता था। उस के पास दमन के कोई साधन नहीं थे। साखेम होने के कारण वह सेनेगा कबीले की कबीला परिषद का सदस्य होता था और इरोक्वाई महासंघ की आम परिषद का भी। युद्ध-काल का नेता केवल सैनिक अभियान के दौरान ही आदेश दे सकता था। गोत्र साखेम को और युद्धकाल के नेता को कभी भी पदच्युत कर सकता था और यह निर्णय स्त्री-पुरुष सब मिल कर करते थे। पद से हटाए जाने पर ये गोत्र के सभी सदस्यों के समान सामान्य व्यक्ति या योद्धा रह जाते थे। कबीले की परिषद गोत्र की इच्छा के विरुद्ध भी साखेमों को उन के पद से हटा सकती थी। 

दूसरी विशिष्ठ और बुनियादी प्रथा यह थी कि गोत्र के सदस्य को उसी गोत्र के भीतर विवाह करने की अनुमति नहीं थी। इस नियम को पूरी सख्ती के साथ लागू किया जाता था।  यही वह बंधन था जो गोत्र को एक साथ बांधे रखता था। इस से ऐसा रक्त संबंध उत्पन्न हुआ था कि समुदाय के लोग गोत्र के रूप में संगठित थे। मृत व्यक्तियों की संपत्ति गोत्र के शेष लोगों में बाँट दी जाती थी। हर हालत में संपत्ति को गोत्र  के भीतर ही रहना था। संपत्ति नाम मात्र की होती थी इस कारण से वह गोत्र के भीतर उस के निकट संबंधियों को बाँट दी जाती थी। पुरुष मरता था तो संपत्ति उस के सगे भाई बहनों को और उस के मामा के बीच बाँट दी जाती थी। लेकिन जब कोई स्त्री मरती थी तो संपत्ति उस के बच्चों और उस की सगी बहनों के बीच बाँट दी जाती थी।  लेकिन उस के भाइयों को उस का कोई हिस्सा नहीं मिलता था। क्यों कि वे दूसरे गोत्र के होते थे। पति-पत्नी भी एक दूसरे की संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकते थे और बच्चे पिता की संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकते थे। (क्रमशः)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

राज्य पूर्व के समाज : बेहतर जीवन की ओर-8

स श्रंखला के पिछले आलेख में मैं ने कहा था कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया ... और कि राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। लेकिन इस के विपरीत धारणाएँ रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे कहते हैं- बिना किसी राज्य के जीवन कैसे संभव है? राज्य न होगा तो मनुष्य आपस में लड़-खप कर खुद ही नष्ट हो जाएगा। पर जब राज्य न था तब भी मनुष्य समाप्त नहीं हुआ। हमारी समस्या यह है कि हम ने उन समाजों के बारे में लगभग कुछ नहीं जाना जिन में राज्य नहीं था।

ब भी हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं तो  हमारा श्रीगणेश सैंधव सभ्यता के नगरों से होता है जिन का अस्तित्व बिना किसी राज्य व्यवस्था के संभव नहीं था। लेकिन ये नगर तो यकायक इतिहास के पृष्ठों से गायब हो गए और एक लंबा काल ऐसा निकल गया, जिन के बारे में हमें निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं पता। फिर हमारी भेंट इस बीच के काल में रचे हुए वैदिक श्रुति ग्रंथों से होती है जिन में हमें जन की उपस्थिति मिलती है।  उस के बाद हम यकायक बुद्ध और महावीर के काल में आ जाते हैं। इस काल में हमें कुछ राज्य भी मिलते हैं और कुछ गण भी।  ये जन और गण  क्या थे? ये निश्चित रूप से एक निश्चित भूभाग पर निवास करते मानव समाज थे जिन के पास राज्य नहीं था। लेकिन ऐसी व्यवस्था थी जिस में वे मनुष्य जीवन को व्यवस्थित रख सकते थे।

ग्वेदिक काल के जन के बारे में हमें ऋग्वेद से सांकेतिक जानकारी मिलती है। यह समाज की सर्वोच्च इकाई होती थी। ऋग्वेद में जन शब्द का प्रयोग 275 बार हुआ है। समाज कुल, ग्राम, विश् तथा जन में संगठित था। कुल सब से छोटी इकाई होते थे। कुलों से ग्राम निर्मित होते थे। ग्राम स्वशासी और आत्मनिर्भर होते थे। यह संगठन निश्चित रूप से गोत्रीय संगठन थे। इन की व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी उस के कुछ स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलते। लेकिन वहाँ राज्य जैसी व्यवस्था का अभाव दिखाई देता है। क्यों कि कोई स्थाई सशस्त्र इकाई वहाँ नहीं है। अर्थव्यवस्था निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिस में अधिशेष के बचे रहने लायक गुंजाइश नहीं थी। अधिशेष के अभाव में राज्य की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद के काल के गणों के मुखिया का पद भी आनुवंशिक नहीं था। उसे कोई अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। सभी निर्णय समाज के सामने परिषदें किया करती थीं। जिस में हर व्यक्ति को अपना मत रखने का अधिकार होता था। सब की राय को ध्यान में रख कर ही परिषदें निर्णय किया करती थीं। हमें भारत में राज्यों की स्थापना के पूर्व की समाज व्यवस्था के बारे में संकेत तो अवश्य मिलते हैं लेकिन उन से संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती।

विश्व की कुछ ऐसी व्यवस्थाओं का अध्ययन भिन्न-भिन्न लोगों ने किया है जो गोत्रों पर आधारित थीं। उन में अमेरिका की इरोक्वाई समुदाय का नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन द्वारा किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन भारतीय स्थितियों को समझने के लिए भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम भारत के जातीय समाजों में उसी की भांति की गोत्र व्यवस्था पाते हैं। आज भी अनेक मामलों में हमारे भारतीय राज्य को इस गोत्र व्यवस्था से जूझना पड़ रहा है।

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!


बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को जनतांत्रिक राजनैतिक संगठन में बदलना ही होगा

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कोर कमेटी के दो सदस्यों पी वी राजगोपालन और राजेन्द्र सिंह ने अपने आप को टीम से अलग करने का निर्णय लिया है, उन का कथन है कि अब आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर रहा है। हिसार चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय कोर कमेटी का नहीं था। उधर प्रशान्त भूषण पर जम्मू कश्मीर के संबंध में दिए गए उन के बयान के बाद हुए हमले की अन्ना हजारे ने निन्दा तो की है लेकिन इस बात पर अभी निर्णय होना शेष है कि जम्मू-कश्मीर पर उन के अपने बयान पर बने रहने की स्थिति में वे कोर कमेटी के सदस्य बने रह सकेंगे या नहीं। इस तरह आम जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होने पर भी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नेतृत्वकारी कमेटी की रसोई में बरतन खड़कने की आवाजें देश भर को सुनाई दे रही हैं। 

न्ना हजारे जो इस टीम के सर्वमान्य मुखिया हैं, बार बार यह तो कहते रहे हैं कि उन की टीम किसी चुनाव में भाग नहीं लेगी, लेकिन यह कभी नहीं कहते कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कहते भी हैं तो यह दुनिया का सब से बड़ा झूठ भी होगा। राजनीति करने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि राजनीति करने वाला कोई भी समूह चुनाव में अनिवार्य रूप से भाग ले। यदि कोई समूह मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध या उस के किसी दोष के विरुद्ध जनता को एकत्र कर सरकार के विरुद्ध आंदोलन का संगठन करता है तो तरह वह राज्य की नीति को केवल प्रभावित ही नहीं करता अपितु उसे बदलने की कोशिश भी करता है तथा इस कोशिश को केवल और केवल राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि विगत अनेक वर्षों से अन्ना हजारे जो कुछ कर रहे हैं वह राजनीति ही है। 

दि कोई समूह या संगठन राजनीति में आता है तो उस संगठन या समूह को एक राजनैतिक संगठन का रूप देना ही होगा। उस की सदस्यता, संगठन का जनतांत्रिक ढांचा, उस के आर्थिक स्रोत, आय-व्यय का हिसाब-किताब, उद्देश्य और लक्ष्य सभी स्पष्ट रूप से जनता के सामने होने चाहिए। लेकिन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को अपना जनान्दोलन संगठित करना है तो फिर उन्हें अपने संगठन को जनता के संगठन के रूप में संगठित करना होगा, उस संगठन का संविधान निर्मित कर उसे सार्वजनिक करना होगा, उस के आर्थिक स्रोत और हिसाब किताब को पारदर्शी बनाना होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट करने होंगे। इस आंदोलन को एक राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करना ही होगा, चाहे उन का यह संगठन चुनावों में हिस्सा ले या न ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो इस आंदोलन को आगे विकसित कर सकना संभव नहीं हो सकेगा।