@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

रविवार, 6 नवंबर 2011

कबीलों का महासंघ : बेहतर जीवन की ओर-12

इरोक्वाई
स तरह  कबीलों में संघ बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी। कुछ खास कबीलों ने जो आरंभ में रक्तसंबंधी थे लेकिन अलग हो गए थे फिर से स्थाई एकता बना ली। इस तरह उन्हों ने महासंघ बना कर एक राष्ट्र के गठन की ओर पहला कदम उठाया। अमरीका में इरोक्वा लोगों का महासंघ ऐसे संघ का सब से विकसित रूप था। यह पाँच कबीलों का संघ था। मछली, शिकार में मारे गए जानवरों का मांस और पिछड़े ढंग की बागवानी की उपज इन का भोजन था।  ये लोग बाड़ों से घिरे गाँवों में निवास करते थे।  उन में मिले जुले गोत्र थे और एक ही भाषा की अनेक बोलियाँ बोलते थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अस्तित्व में आए इस महासंघ ने अपनी शक्ति को महसूस करते ही आक्रमणकारी रुख अपना लिया और आसपास के बहुत बड़े इलाके को हथिया लिया। वहाँ के निवासियों को या तो भगा दिया या फिर नजराने देने पर मजबूर कर दिया। वे कभी बर्बर युग की इस निम्नावस्था से आगे नहीं बढ़ पाए। उन के सामाजिक संगठन का सब से उन्नत रूप इरोक्वाई महासंघ ही था। 

स महासंघ में कबीलों को सभी अंदरूनी कबायली मामलों में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। रक्त संबंध महासंघ का आधार था। महासंघ के निकाय के रूप में एक संघ-परिषद होती थी जिस के सदस्य पचास साखेम थे। इन पचासों का पद और प्रतिष्ठा समान थी। महासंघ से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय परिषद करती थी। महासंघ के ये पचास पद कबीलों और गोत्रों में बाँट दिया गया था। जब कोई पद खाली हो जाता था तो संबंधित गोत्र फिर से उस का चुनाव कर लेता था। गोत्र अपने किसी भी प्रतिनिधि को कभी भी हटा सकते थे। लेकिन नए प्रतिनिधि को स्वीकार करने का अधिकार संघ परिषद के पास था। संघीय साखेम कबीलों में भी साखेम थे और उन्हें कबीलों की परिषद में भाग लेने और मत देने का अधिकार था। संघ-परिषद को अपने सभी निर्णय सर्वसम्मति से लेने होते थे। मत कबीलेवार लिए जाते थे, जिस का अर्थ था कि हर कबीले को और हर कबीले के परिषद सदस्य को एकमत होना होता था तभी निर्णय होता था। पाँचों कबीलों की परिषदों में से किसी के भी द्वारा संघ परिषद बुलाई जा सकती थी लेकिन स्वयं संघ परिषद को अपनी बैठक बुलाने का अधिकार नहीं था।  संघ परिषद की बैठक आम जनता के सामने होती थी जिस में किसी को भी बोलने का अधिकार था। लेकिन निर्णय संघ परिषद ही करती थी। महासंघ का कोई अधिकृत मुखिया या प्रमुख नहीं होता था। महासंघ के दो सर्वोच्च युद्धकालीन नेता होते थे, जिन की शक्ति समान और अधिकार भी समान होते थे। 
इरोक्वाई युद्ध नृत्य

स तरह के समाज विधान के अंतर्गत इरोक्वा लोग कई सदियों तक रहते रहे। इस समाज संगठन में राज्य का अस्तित्व नहीं था। उत्तर अमरीकी इंडियनों के सामाजिक अध्ययन से पता लगता है कि यह एक कबीला था जो धीरे-धीरे पूरे महाद्वीप पर फैल गया था। कबीलों के विभाजन के फलस्वरूप जनगण, कबीलों के पूरे समूह बन गए थे। किस प्रकार भाषाएँ इतनी बदल गई थीं कि वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। उन की प्राचीन एकता के चिन्ह लगभग गायब हो गए थे। कबीलों के गोत्र भी अनेक गोत्रों में बँट गए थे। शिशुवत यह सीधा-सादा गोत्र संगठन अत्यन्त विलक्षण था। न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था। कोई झगड़ा उठ खड़ा होता था तो अलग अलग गोत्रों और कबीलों के लोग उसे मिल बाँट कर निपटा लेते थे। रक्त-प्रतिशोध की स्थिति भी तभी आती थी जब किसी तरह झगड़ा नहीं निपटता था इस लिए उस की नौबत कम ही आती थी। मृत्यु दंड इसी चीज का सभ्य नाम है जिस में सभ्यता की अच्छाइयाँ भी हैं और बुराइयाँ भी। 
80 फुट लंबा इरोक्वाई घर
स समय आज से कहीं बहुत अधिक मामलों को मिल कर तय करना पड़ता था। कई-कई परिवार एक साथ मिल कर सामुदायिक ढंग से घर चलाते थे। जमीन पूरे कबीले की संपत्ति थी। अलग अलग घरों को केवल छोटे-छोटे बगीचे अस्थाई रूप से मिलते थे। जिन का जिस मामले से संबंध होता था वे ही उस का फैसला कर लेते थे। अधिकतकर मामले तो पुराने रीति रिवाज के अनुसार स्वतः ही निपट जाते थे। सामुदायिक कुटुम्ब गोत्रों को भलीभाँति ज्ञात था कि बूढ़ों, बीमारों और युद्ध में अपंग हुए लोगों के प्रति उन का क्या कर्तव्य है। सब स्वतंत्र और समान थे, स्त्रियाँ भी। वहाँ न दासों के लिए स्थान था और न ही दूसरे कबीलों को अपने अधीन रख पाने की गुंजाइश थी। 1651 के लगभग इरोक्वाइयों ने एरीयों को जीता उन्हों ने महासंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया तब उन्हें अपने इलाकों से खदेड़ दिया गया। यह समाज कैसे मनुष्य पैदा करता था यह इस से पता लगता है कि जो गोरे लोग इंडियनों के सम्पर्क में आए और जो भ्रष्ट नहीं हुए थे उन्हों ने इन बर्बर लोगों की आत्मगरिमा, सीधे-सरल स्वभाव, चरित्र बल और वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वर्ग भेद उत्पन्न होने के पहले  संपूर्ण मानव जाति और मानव समाज ऐसा ही था। यदि हम उन की हालत की तुलना आज के मनु्ष्य की हालत से करते हैं तो हम वर्तमान मजदूरों,छोटे किसानों और प्राचीन काल के गोत्र के स्वतंत्र सदस्य के बीच गहरी खाई पाते हैं।

7 टिप्‍पणियां:

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

80 फुट का घर…अचरज…राज्य के बिना ये सब…यह भी अचरज ही…बौद्ध संघ भी ऐसे होते थे कुछ-कुछ?

Gyan Darpan ने कहा…

बहुत बढ़िया ज्ञानवर्धक श्रंखला|

Gyan Darpan

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न सेना, न पुलिस, न सामन्त, न राजा, न गवर्नर, न न्यायाधीश, न अदालतें और न ही जेलखाने थे, तब भी काम बड़े मजे और आराम से चलता रहता था।

संभवतः समस्याओं का केन्द्रीकरण कर बैठे हम।

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने,आभार .

shikha varshney ने कहा…

क्या हमने अपनी समस्याएं खुद बड़ाईं? जितने ज्यादा कानून और व्यवस्थाएं उतनी ही समस्या.

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी। कहाँ से कहाँ तक पहुँच गये हम फिर भी कहते हैं कि विकास नही हुया। लेकिन कुछ भी हो वो जीवन सादा और छल प्रपंच से दूर था। विकास शायद हमे सादा जीवन और इन्सानियत से दूर ले जा रहा है।अपने फोन किया बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद। मुझे फिर से काम करने की ऊर्जा मिलती है।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

क्या हो, कुछ कबीलाई गुणों को अपनाने की पहल हो? शायद हां।