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बुधवार, 25 मई 2011

दवाइयाँ शुरु ...................... डाक्टर देवता-2

अब तक आपने पढ़ा  ...

स कहानी के वाचक को दाहिने हाथ में तंत्रिका संबंधी शिकायत हुई थी, उस ने अपने मित्रों से सहज उल्लेख किया तो एक मित्र ने न्यूरोफिजिशियन से समय ले लिया। वाचक ने डॉक्टर के पास अकेले जाने के स्थान पर अपने एक दवा प्रतिनिधि मुवक्किल को साथ ले लिया। वहाँ उसे एक और दवा प्रतिनिधि मुवक्किल मिल गया। उन्हों ने वाचक को क्रम तोड़ कर डाक्टर के कक्ष में घुसा दिया जिस पर डाक्टर ने नाराज हो कर उन्हें बाहर निकाल दिया। वाचक डाक्टर को दिखाए बिना ही वापस जाना चाहता था। लेकिन दोनों दवा प्रतिनिधियों ने उसे डाक्टर को दिखाने के लिए मना लिया। वाचक फिर से हॉल में जा कर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा। अब आगे वाचक से ही सुनें उस की कहानी ...

भाग-2
कोई तीन-चार मिनट के बाद दरवाजा खुला और एक मरीज व उस का साथी बाहर निकला। रिसेप्सनिस्ट ने मुझे अंदर जाने को कहा। मैं और नवानी आगे-पीछे अंदर घुसे। डाक्टर बारदाना अब अकेला था। उस ने मुझे उस के दाहिनी और रखे स्टील के एक गोल स्टूल पर बैठने का संकेत किया। नवानी डाक्टर के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। मैं ने उसे बताना आरंभ किया।
 -कोई दस दिन पहले रात को सोने के समय जब मैं बाईं करवट लेटा तो मुझे दायीँ भुजा में असहनीय दर्द हुआ। कोई आधा घंटा बाद दर्द गायब हो गया। लेकिन उस के बाद से दायाँ हाथ कुछ खास स्थितियों में रखने पर अचानक कंधे से पंजे की ओर करंट सा दौड़ने लगता है, लेकिन हाथ की स्थिति बदलते ही सामान्य हो जाता है। इस कारण से उन खास स्थितियों में हाथ को रखने में भय सा लगने लगा है। मैं ने डाक्टर को वे स्थितियाँ भी बतानी चाही जिन में ऐसा होता था। लेकिन डाक्टर इस के पहले ही उठ खड़ा हुआ और मुझे दीवार के नजदीक लगी एक ऊंची बैंच पर लेटने को कहा। मैं वहाँ से उठा और बैंच पर जा लेटा। इस बीच डाक्टर ने अपने पीछे की मेज से एक हथौड़ीनुमा औजार उठाया और मेरे पास आ गया। पहले उस ने औजार को पास रख दिया। मुझे हाथ पीछे की ओर दबाने को कहा और उसी समय उस ने हाथ को आगे की ओर दबाया। यह क्रिया उस ने दोनों हाथों, पैरों और मेरी गर्दन के साथ की। मुझे दस वर्ष पहले की याद आ गई। जब मुझे गर्दन में जबर्दस्त दर्द हुआ था और मैं गर्दन को मोड़ भी नहीं सकता था। डाक्टर ने मुझे फीजियोथेरेपिस्ट के हवाले कर दिया था। उस ने कुछ दिन मेरी गर्दन को ट्रेक्शन दिया था। उस के बाद कुछ नियमित व्यायाम बताए थे। मेरा दर्द दूर हो गया था और उन व्यायामों के लगातार चलते आज तक किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आई थी। 

डाक्टर बारदाना ने इसी तरह के कुछ व्यायाम कराने के बाद मुझे फिर लिटा दिया और मेरे पैरों व हाथों की हड्डियों के जोड़ों  पर हथौड़ीनुमा औजार से ठकठकाया। मुझे लगा कि वह हथौड़ी से हड्डी को मारने पर निकलने वाली आवाज को ध्यान से सुन रहा है। फिर उस ने मुझे अपने पास आने को कहा। डाक्टर ने बताया कि मुझे यह समस्या गर्दन की वजह से है। उस ने गर्दन का एक्स-रे कराने का सुझाव दिया और पर्चे पर दवाइयाँ लिखने लगा। दवाइयाँ लिख चुकने के बाद उस ने आठ दिन दवाइयाँ लेने के बाद फिर से दिखाने को कहा। पर्चा नवानी ने अपने हाथ में थाम लिया। मैं ने डाक्टर को धन्यवाद दिया और फीस देने लगा तो उस ने बाहर रिसेप्सनिस्ट को देने को कहा। हम बाहर निकल आए। हमारे निकलते ही एक मरीज अपने साथी के साथ फिर डाक्टर के कमरे में घुस गया। 

मैं ने रिसेप्सनिस्ट को दो सौ रुपए दिए, उस ने पचास रुपए मुझे लौटाए। लेकिन उन रुपयों की कोई रसीद नहीं दी। पहले घट चुके घटनाक्रम के कारण मेरी रसीद मांगने की हिम्मत भी न हुई। हम बाहर आ गए। नवानी तब तक पर्चा पढ़ चुका था और उस में लिखी दवाइयों पर टिप्पणी कर रहा था। मैं ने उस की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया। मैं ने सामने की दुकान से सब दवाइयाँ लेने के लिए कहा तो नवानी ने मना कर दिया और कहा कि को-ऑपरेटिव की दुकान से लेंगे। यह दुकान अस्पताल परिसर में थी। हम अस्पताल परिसर में आ गए। वहाँ दवाइयाँ लेने में कोई आधा घंटा लगा। मैं दवाइयाँ उसी रात से आरंभ करना चाहता था। लेकिन नवानी ने कहा कि सुबह से लेना अन्यथा क्रम बिगड़ जाएगा। घर आ कर नवानी ने बताया कि किस किस काम के लिए हैं। मुझे इतना ध्यान रहा कि एक गोली रोज सुबह पेट साफ रखने के लिए दी गई हैं।  मैं ने उस की इन बातों पर कोई गौर नहीं किया।  डाक्टर ने मुझे किसी दवा के लिए नहीं बताया था कि कौन सी कब लेनी है और कैसे लेनी है। वैसे मैं ने आम तौर पर देखा है कि डाक्टरों के पास इतना समय नहीं होता। यह काम उन्हों ने उन केमिस्टों के लिए छोड़ दिया है जहाँ से दवा खरीदी जाती है। लेकिन मुझे तो केमिस्ट ने भी कुछ नहीं बताया था। मैं ने भी नवानी के साथ होने के कारण नहीं पूछा। अब मैं ने नवानी को कहा कि वह मुझे सिर्फ इतना बता दे कि कौन सी गोली कब-कब लेनी है। नवानी यह बता कर कि कौन सी दवा कब लेनी है, अपने घर चला गया।

गले दिन सुबह शौच से निवृ्त्त होते ही मुझे खाली पेट वाली गोली का स्मरण हुआ और उसे पानी के साथ ले लिया। अदालत के लिए रवाना होने के पहले नाश्ते के तुरंत बाद मैं ने दवाएँ देखीं। तीन गोलियाँ थीं जो मुझे लेनी थीं। उन में आठ गोलियाँ ऐसी थीं जो पहले दो दिन 40 मिग्रा की, अगले दो दिन 30 मिग्रा की, उस से अगले दो दिन 20 मिग्रा की और आखिरी दो दिन 10 मिग्रा की गोलियाँ लेनी थीं। मैं ने उन में से 40 मिग्रा वाली गोली चुनी और दो अन्य गोलियों में से एक-एक ले कर तीनों एक साथ पानी से गटक लीं। अदालत जा कर सामान्य कामकाज करने लगा। दस बजे मुझे उबासियाँ आने लगीं। हलका सा सिर भारी हुआ। मुझे लगा कि चाय का समय निकल गया है इसलए ऐसा हो रहा है। तभी मोबाइल की घंटी बज उठी। मित्र लोग चाय के लिए बुला रहे थे। काफी पीने के बाद मुझे कुछ अच्छा महसूस हुआ। मैं फिर काम पर लग गया। काम से निबट कर घऱ पहुँचा तो मुझे भूख सी लग आई थी। मैं ने भोजन किया और सुबह जो तीन गोलियाँ लेनी थीं उन में से मिग्रा वाली गोली के अतिरिक्त दो गोलियाँ और लीं और अपने कार्यालय में आ बैठा। कुछ देर काम करने के बाद ही मुझे लगा कि नींद आएगी। मैं उठा और अपने शयन कक्ष में आ लेटा। मुझे जल्दी ही नींद आ गई।

मेरी नींद खुली तो शाम ढल रही थी। घड़ी छह से ऊपर का समय बता रही थी। मैं कोई ढाई घंटे सोया था। पत्नी ने कॉफी बना कर दी। तो मुझे स्मरण हुआ कि आज दूध लाना तो छूट गया है। मैं ने पत्नी को उलाहना दिया कि उसने जगाया ही नहीं दूध लाना था। उस ने कहा -आप गहरी नींद में थे तो मैं ने जगाया नहीं।
-अब दूध का क्या होगा?
-सुबह तक का हो जाएगा। सुबह ले आएंगे। पत्नी का इस तरह बोलना मुझे अच्छा लगा।
रात के भोजन के बाद मैं ने फिर से वे दो गोलियाँ खाईँ। काम करता रहा लेकिन फिर से जल्दी ही नींद आने लगी। मैं ने भी सोचा कि सुबह जल्दी दूध लेने जाना पड़ेगा। हो सकता है नींद जल्दी न खुले। इसलिए जल्दी सो लो। मैं ने कार्यालय बंद कर अपने शयनकक्ष की राह ली। 
... क्रमशः

मंगलवार, 24 मई 2011

डाक्टर देवता

ह पिछले सोमवार की बात है। कुछ दिनों से दाएँ हाथ को कुछ विशेष स्थितियों में दो तीन मिनट रखे रखने पर कंधे से पंजे की तरफ कंरट सा दौड़ता महसूस होता था। हाथ की स्थिति बदलने पर वह सामान्य हो जाता। मैं सोचता कि ऐसा क्यों हो रहा होगा। जो बात समझ आई वह यह थी कि कहीं कोई तंत्रिका घायल है और उस पर दबाव पड़ने पर ऐसा होता है। मैं ने इस का उल्लेख अपने मित्रों से किया।  सब ने तत्काल किसी न किसी चिकित्सक को दिखाने की सलाह दी। मैं अपने काम में लग गया। दो घंटे बाद वापस लौटा तो  मिस्टर पाल बोले -मेरी अपने मित्र मेडीकल कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल डाक्टर पी. के. शर्मा से बात हो गई है, उन्हों ने प्रोफेसर बारदाना से बात कर के शाम सात बजे का समय लिया है। आप शाम सात बजे दिखा आएँ, प्रोफेसर बारदाना नगर के सब से अच्छे न्यूरोफिजिशियन हैं। मैं भौंचक्का रह गया। वस्तुतः मैं फँस गया था। पॉल ने अपना मित्रता का कर्तव्य पूरा कर दिया था। अब मैं उस की बात न  मानता तो गलत ही नहीं, बहुत गलत होता। वह सोचता कि उस ने अपने मित्र का अहसान भी लिया और मुझे डाक्टर को दिखाने में ही संकोच हो रहा है। मैं सोच में पड़ गया।
मुझे हमेशा चिकित्सकों से बहुत परेशानी होती है। विशेष रूप से उन चिकित्सकों से जिन के पास अपने मरीज के लिए समय नहीं होता। मरीज एक भी सवाल पूछ ले, तो उन्हें परेशानी होने लगती है। मुझे कई लोगों ने कहा था कि उस न्यूरोफिजिशियन के यहाँ शाम को मेला सा लगता है, और वह मरीजों को ऐसे निपटाता है जैसे रेलवे की टिकट खिड़की पर टिकट बाबू पैसेंजरों को निपटा रहा हो। मुझे इन चिकित्सक महोदय का मरीज देखने का स्थान भी पता न था, न उन की शक्ल कभी देखी थी। मैं ने कभी किसी चिकित्सक के यहाँ रोगियों को हमेशा किसी न किसी के साथ देखा था। रोगी कभी अकेला नहीं होता था।  मैं ने भी सोचा कि मुझे भी अकेले नहीं जाना चाहिए। मुझे अकेला देख डाक्टर न जाने क्या सोच बैठे। पर मैं  किसे साथ ले जाता?  मेरे अनेक मुवक्किल दवा प्रतिनिधि हैं, जिन का काम  चिकित्सकों से मिलना ही होता है। मुझे नवानी का खयाल आया। मैने तुरंत उसे फोन किया और सारी बात बताई। उस ने वादा किया कि वह शाम को अवश्य आ जाएगा। अब मैं निश्चिंत हो गया था। अब डाक्टर से निपटने की जिम्मेदारी दवा प्रतिनिधि नवानी की थी। 
शाम को नवानी समय पर आ गया। हम डाक्टर बारदाना के यहाँ पहुँचे। घर के बाहर बहुत सी कारें और मोटरसायकिलें खड़ी थीं, कुछ लोग भी खड़े थे। किसी सामान्य व्यक्ति के घर के बाहर ऐसा होता तो लोग सोचते, जरूर इस घर में कोई गमी हो गई है। घर के बाहर लॉन में बहुत सी कुर्सियाँ पड़ी थीं उन पर भी लोग बैठे थे, कुछ लोग नीचे दूब पर ही बैठे थे, कुछ टहल रहे थे। अंदर एक बडे से हॉल में तकरीबन पंद्रह लोग बेंचों पर बैठे थे। हॉल में से एक दरवाजा अंदर की ओर खुलता था जो अभी बंद था। उस दरवाजे के ठीक बाहर एक आदमी  टेबल कुर्सी लगाए बैठा था, वह डाक्टर का रिसेप्सनिस्ट था। नवानी ने उस से डाक्टर के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि डाक्टर अभी विजिटिंग रूम में नहीं हैं। नवानी ने तुरंत मुझे कहा कि कुछ इंतजार करना पड़ेगा। 
कुछ देर बाद ही वहाँ एक और दवा प्रतिनिधि नरेश आ गया। उस के साथ एक स्त्री और एक पुरुष था। उस ने मुझे देखते ही पूछा -भाई साहब, आप! यहाँ कैसे?
-दाहिने हाथ में कुछ समस्या है, इसीलिए दिखाने आया हूँ। मैंने कहा। 
-आप ने मुझे बताया ही नहीं। मैं पहले से डाक्टर से समय ले कर आप को मिला देता। इस तरह के कामों  के लिए तो आप को मुझे सेवा का अवसर देना चाहिए। नरेश ने यह सब इतनी जोर से कहा था कि हॉल में बैठे सब लोगों ने सुना था। सब मेरी ओर देखने लगे थे। मुझे लगा कि मैं तुरंत ही एक विशिष्ठ व्यक्ति में तब्दील हो गया हूँ। शायद सब लोग सोचने रहे थे कि अब कम से कम और दो रोगी उन के और डाक्टर के बीच आ गए हैं। उन में से कुछ ने घड़ी भी देखी कि अब उन का नंबर कितने बजे आएगा। मुझे शर्म आने लगी थी कि मैं इंतजार कर रहे रोगियों और उन के साथ आने वाले लोगों की निगाहों में चुभने लगा था। नरेश ने विजिटिंग रूम का दरवाजा खोल कर देखा तो डाक्टर वहाँ आ चुके थे। पहले से अंदर बैठे किसी रोगी को देख रहे थे। उस ने साथ आए स्त्री-पुरुष को अपने साथ अंदर चलने को कहा और उन्हें साथ ले कर अंदर घुस गया। इस बीच नवानी बाहर चला गया था। मुझे भी लोगों की चुभती नजरों से दूर होने का यही तरीका नजर आया कि मैं बाहर जा कर उसे तलाश करूँ। मैं बाहर आया तो वह मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था। मुझे देखते ही उस ने फोन बंद कर पूछा -डाक्टर आ गए? 
मैं ने कहा - हाँ आ गए हैं। नरेश किसी स्त्री-पुरुष को साथ ले कर आया था, उन्हे ले कर डाक्टर के पास अंदर चला गया है। 
-तब हम भी चलते हैं। वह मुझे साथ ले कर फिर हॉल में आ गया। कुछ ही देर में नरेश स्त्री-पुरुष के साथ बाहर आ गया। नवानी ने रिसेप्सनिस्ट को बताया कि मेरे लिए स्वयं डाक्टर पी.के. शर्मा ने प्रो. बारदाना से समय ले रखा है। इस पर उस ने बताया कि अंदर मरीज हैं। वे बाहर आ जाएँ तो आप चले जाइएगा। 
कुछ ही मिनटों में एक मरीज बाहर आ गया। नवानी मुझे साथ ले कर अंदर घुस लिया। वहाँ प्रोफेसर बारदाना एक रोगी को देख रहे थे। वे नवानी को देख कर भड़क गए। आप अंदर कैसे आ गए? मैं यहाँ से उठ कर चला जाता हूँ। प्रोफेसर अपनी कु्र्सी से उठ कर खड़ा हो गया। बेचारा नवानी सकपका गया। उस ने प्रोफेसर से कहा मैं बाहर चला जाता हूँ। नवानी तुंरत बाहर चला गया। मैं वहीं खड़ा रह गया। प्रोफेसर मुझे देखता रह गया। मैं ने उसे बताया कि मैं भी जा रहा हूँ। पर इतना बता देना चाहता हूँ कि मुझे डाक्टर पी. के. शर्मा ने आप से मिलने को कहा था। डाक्टर कुछ कहता इस के पहले मैं बाहर निकल आया। 
वानी बाहर खड़ा था। मुझे अब वहाँ रुकना वाजिब नहीं लग रहा था। मैं ने नवानी को कहा -बाहर चलो। मैं बाहर आ गया। पीछे-पीछे नवानी भी बाहर आ गया। 
मैं ने नवानी से कहा -वापस चलते हैं। हमें इस डाक्टर को नहीं दिखाना। शहर में बहुत डाक्टर हैं।
-भाई साहब! केवल दस मिनट रुको। हम दिखा कर ही चलेंगे। 
-कोई लाभ नहीं। इस वक्त डाक्टर जिस मूड में है, उसे दिखाना मूर्खता से कम नहीं। 
इस बीच नरेश भी वहाँ आ गया। कहने लगा -मैं डाक्टर से समय ले कर आता हूँ। कैसे नहीं देखेगा? 
मैं ने उसे कहा कि मुझे अब दिखाना ही नहीं है। वह कहने लगा -अभी मत दिखाओ, कल सुबह आप किस समय आ सकते हैं मैं डाक्टर से वही समय ले लेता हूँ। 
-मुझे इस डाक्टर को दिखाना ही नहीं है। शहर में बहुत डाक्टर हैं। 
तभी अंदर से कोई आया और कहने लगा -डाक्टर साहब ने आप को बुलाया है। अब नवानी और नरेश दोनों मेरे पीछे पड़ गए। कहने लगे जब डाक्टर खुद आप को बुला रहा है तो आप दिखा कर ही जाना चाहिए। मैं भी डाक्टर को दिखाने के इस झंझट से मुक्त होना चाहता था। मैं उन के साथ फिर हॉल में आ गया। वहाँ रिसेप्सनिस्ट ने मुझे देखते ही कहा -अन्दर एक मरीज है। उस के निकलते ही आप अंदर चले जाइएगा। मैं फिर उस के पास पड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गया।
... क्रमशः

शनिवार, 21 मई 2011

अनाज अग्रिम (Food grain advance) कहाँ गया?

गेहूँ का उत्पादन इस वर्ष अच्छा हुआ है। मंडी में इतना गेहूँ आ रहा है कि रखने को स्थान नहीं है। नतीजा यह कि गेहूँ की कीमतें काबू  में हैं। इस से आम आदमी को कुछ राहत मिली है और महंगाई का आँकड़ा ऊपर न चढ़ने के कारण सरकार भी राहत में है। कुछ मायूसी है तो किसान को है कि उसे उतनी कीमत नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। उस ने इस फसल की उम्मीद पर जितने सपने देखे थे उन में कुछ कसर रह गई। अब उसे उम्मीद है कि यदि खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली और डीजल के दाम न बढ़ें तो उस की उत्पादन लागत न बढ़े। पर उस की यह उम्मीद फलती नजर नहीं आती। अधिकांश किसान तो अपनी फसल को सीधे मंडियों में या फिर खाद्य निगम के काँटों पर तुलवा कर नकदी बना रहे हैं। लेकिन कुछ छोटे और मध्यम किसान ऐसे भी हैं जो फसल  पर मेहनत कर के अनाज को साफ कर उसे ग्रेडिंग जैसा बना कर नगरों में ला कर सीधे उपभोक्ता को विक्रय कर रहे हैं। इस से दुतरफा लाभ है, किसान को कीमत कुछ अधिक मिल रही है और उपभोक्ता को कुछ कम देना पड़ रहा है। किसान खुद माल तौल रहा है तो तुलाई-भराई का पैसा भी बच रहा है। 
 
मने भी पिछले रविवार को साल भर के लिए गेहूँ खरीदा। कोटा जंक्शन क्षेत्र में रविवार को परंपरागत हाट लगता है। किसान अपनी गेहूँ से भरी ट्रॉलियाँ ले कर सुबह ही वहाँ पहुँच जाते हैं और उपभोक्ता भी। मुझे स्वयं तो गेहूँ कि पहचान नहीं इस लिए अपने कनिष्ठ नंदलाल शर्मा को साथ ले गया। वे किसान भी हैं और वर्षों से गेहूँ का उत्पादन कर रहे हैं। आम तौर पर उन के यहाँ से ही गेहूँ आता है। लेकिन उन्हों ने गेहूँ कि नई किस्म बोई है जिस का उत्पादन 9 क्विंटल बीघा अर्थात 56 क्विंटल प्रति हैक्टर हुआ है। जब कि आम प्रचलन के अच्छी किस्म के गेहूँ का उत्पादन मात्र 6 क्विंटल प्रति बीघा हुआ है। वह खाने में न जाने कैसा हो इसलिए वे स्वयं भी केवल प्रयोग के तौर पर थोड़ा सा गेहूँ घर लाए हैं। उसे इस बार वापर के देखेंगे, शेष गेहूँ वे मंडी में बेचेंगे। इस नई किस्म के गेहूँ और पुराने प्रचलित गेहूँ में दर का अंतर सौ रूपए क्विंटल से अधिक नहीं है। नन्दलाल जी का कहना है कि यह नई किस्म का गेहूँ पुराने किस्म के गेहूँ को कुछ ही वर्षों में विस्थापित कर देगा। क्यों कि जब दर का अंतर अधिक न होगा तो किसान इस अधिक उत्पादन वाली नई किस्म को ही बोएगा और पुरानी किस्म के गेहूँ का उत्पादन बंद हो जाएगा। दो-चार वर्ष बाद सभी को यही गेहूँ खाना पड़ेगा। 

गेहूँ को हम 35-35 किलो के 11 बैगों में भर कर लाए थे। नन्दलाल जी और मैंने ये 11 बैग अपनी मारूती-800 में भर लिए, और घर ले आए। बैगों का वजन कम होने के कारण घर पर भी हमने ही उन्हें उठा कर रख दिया। इस तरह हम्माली की भी बचत हो गई। कुल मिला कर 1300 रुपए क्विंटल की दर में चार क्विंटल गेहूँ घर आ गया। शोभा ने उन में से दो बैग तो छान बीन कर अलग भर दिए जिस से कम से कम एक-दो माह का काम चल जाए। बाकी गेहूँ को ड्रमों में भर कर रखना था। कल शाम ही हमें अल्टीमेटम मिला कि अभी दवा (कीड़ों से सुरक्षा के लिए पेस्टीसाइड) लाई जाए ताकि सुबह स्नान के पहले ही गेहूँ को ड्रमों में भर दिया जाए। हम बाजार से सल्फास के दस-दस ग्राम के चार पैकेट खरीद कर लाए और आज सुबह ही उन्हें ड्रमों में डाल कर गेहूँ भर गए। तब जा कर श्रीमती जी को चैन मिला है कि वर्ष भर उन्हें गेहूँ के लिए किसी का मुहँ नहीं देखने को मिलेगा। एक जैसा आटा साल भर खा सकेंगे और मंदिर पर चढ़ाने, त्योहारों पर ढोल बजाने वाले ढोली  व घर पर भिक्षा मांगने आने वालों के लिए साल भर गेहूँ उपलब्ध रहेगा। मुझे भी साल भर के लिए चैन मिला कि अब सिर्फ महिने में एक दो बार गेहूँ पिसाने के अलावा कोई झंझट नहीं रहा।

पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर बहुत हंगामा हुआ था कि अनाज को सड़ने से रोके जाने के लिए उसे मुफ्त गरीबों को बाँट दिया जाए। इस में कुछ गलत था भी नहीं। भारत में आज भी बहुत बड़ी आबादी है जो अनाज के लिए तरसती है। बच्चों को झूठन में से खाद्य बीनते और मंडी में मिट्टी में मिल चुके अनाज को अलग कर काम में लेने लायक बनाते हुए देखना एक आम चित्र है जिसे देखने के लिए श्रम करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में अनाज को सड़ने के लिए छोड़ देना अक्षम्य अपराध है। लेकिन तब हमारे खाद्यमंत्री का बयान था कि अनाज को मुफ्त में बाँटा नहीं जा सकता। उन्हें तब शायद उन व्यापारियों की चिंता थी जिन्हों ने अनाज गोदामों में भरा था और मुफ्त में अनाज बाँटने से उन्हें घाटा हो जाता, या फिर इस बात की चिंता थी कि सड़ाने में सरकार का कुछ भी खर्च नही होता जब कि बाँटने में कुछ तो खर्च करना पड़ता ही है। तब मैं ने भी यह कहा था  कि लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

ज से कोई बीस-तीस वर्ष पहले लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों को अप्रेल-मई के माह में अनाज अग्रिम अपने नियोजक से मिल जाता था और हर कर्मचारी अपनी जरूरत का अनाज खरीद कर उस का भंडारण कर लेता था और वर्ष भर, जब तक कि उस का उपयोग न हो लेता उस की सुरक्षा करता था। उद्योगों में भी जहाँ यूनियनें थीं वहाँ इस तरह के समझौते बहुतायत से हुए कि कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाएगा जो वर्ष भर प्रतिमाह उन के वेतन से किस्तों में काट लिया जाएगा। इस अनाज अग्रिम ने अनाज के भंडारण की समस्या को विकराल नहीं होने दिया था। बाजार में भंडारण योग्य अनाज बचता ही कितना था?

रकारों ने अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम देना बंद कर दिया। उद्योगों में भी यह परंपरा बन्द हो गई। लोग गेहूँ के बजाए बाजार से सीधे आटा खरीदने लगे। अब आटा कंपनियाँ तो गेहूँ उतना ही खरीदती हैं जितना उन की जरूरत है। वे गोदाम निर्माण में क्यों निवेश करें? करें तो फिर साल भर का गेहूँ खरीदने में भी निवेश करें। ऐसे में तो गेहूँ पीस कर बेचने का धंधा घाटे का हो जाए। अब गेहूँ का भंडारण सरकार के जिम्मे। वही गोदामों में निवेश करे। पर उस के पास भी  इतनी पूंजी कहाँ है? फिर इस में मंत्रियों-संत्रियों-अफसरों का लाभ कुछ नहीं, तो वे भी ऐसा क्यों करें? इस से तो अच्छा ही है कि अनाज सड़ जाए, कम से कम कुछ जानवर और कीट आदि तो पलेंगे जिससे अपरोक्ष धर्मलाभ ही होगा। सरकार को अभी भी अनाज अग्रिम का इलाज स्मरण नहीं हो पा रहा है। शायद किसी रोज सुप्रीम कोर्ट को ही इस के लिए आदेश देना पड़े। वह भी खुद कहाँ दे सकता है? पहले कोई एनजीओ वहाँ रिट लगाए फिर जवाब तलब और सुनवाई हो फिर जा कर आदेश हो।

गुरुवार, 19 मई 2011

हमारे बीच ३६ का आँकड़ा : कुल खर्च 310 रुपया

रिणाम अच्छा रहा हो या बुरा,इस दिन को शायद ही कोई भूलता हो। हो सकता है कभी भूल हो भी जाए, लेकिन ब्लागजगत में आने के बाद तो यह कतई संभव नहीं है। यहाँ एक अदद डंडा लिए बी.एस.पाबला जो बैठे हैं। वे अकेले व्यक्ति हैं जो हरदम याद दिलाते रहते हैं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है, या फिर विवाह की वर्षगाँठ है, कि किस किस ब्लागर की पोस्ट किस अखबार में प्रकाशित हुई है, किस का चर्चा कहाँ हुआ है? कल शाम मैं एक विवाह समारोह में था कि अचानक जेब से मोबाइल की घंटी की आवाज सुनाई दी। उस वक्त वहाँ कम शोर था या फिर मेरा ध्यान चला ही गया और मैं ने मोबाइल उठा लिया। हालाँकि उस के पहले और बाद में आई कुछ कॉल्स सुनाई न देने के कारण मिस कॉल्स में परिवर्तित हो गई थीं। यह नंबर मेरे फोन रिकॉर्ड में नहीं था, आदतन मैं ने उसे उठा लिया और छूटते ही पूछा -कौन बोल रहे हैं?
मैं (ताजा चित्र)

वे पाबला जी ही थे और मोबाइल से नहीं बेसिक फोन से संयोजित हुए थे। आदेश मिला चित्र चाहिए। एक तो पिछले साल लगा चुका हूँ, इस बार अलग चाहिए। समारोह में शोर के कारण बात ठीक से नहीं हो पा रही थी। मैं ने उन से चित्र भेजने का वादा किया और फोन काट दिया। घर पहुँच कर पहले कंप्यूटर पर चैक किया। मुझे उचित चित्र ही नहीं मिल रहे थे। आखिर मैं ने कुल चार चित्र छाँटे, उन्हें मेल किया और सोने चला गया। रोज की तरह सुबह तैयार हो कर अदालत चला गया। वहाँ से लौटा तो तीन बज चुके थे। आज तीसरा खंबा की पोस्ट नहीं गई थी। मुझे कुछ अपराध बोध सा हुआ। तीसरा खंबा की पोस्ट का पाठक बेजारी से प्रतीक्षा करते हैं। खास तौर पर वे जो तीसरा खंबा को अपनी कानूनी समस्याएँ प्रेषित करते हैं, सलाह के लिए जवाबी पोस्ट की प्रतीक्षा करते हैं। मैं ने अधूरी पड़ी पोस्ट को पूरा कर पोस्ट किया। कुछ समय अवश्य लगा। आखिर हर पोस्ट के लिए कुछ न कुछ पढ़ना और कानून की किताबों से टीपना तो पड़ता ही है। 

शोभा (ताजा चित्र)
ये 17-18-19 मई के दिन-रात मैं कभी नहीं भूलता। क्या बेकरारी थी? मैं ने अपनी होने वाली जीवन साथी को देखा तक नहीं था, मिलने और बात करने की बात तो बहुत दूर की थी। चिट्ठी-पत्री का भी कोई सवाल न था। यहाँ तक कि सगाई डेढ़ वर्ष पहले हो गई थी। तभी से होने वाली ससुराल की दिशा में जाने पर परिवार ने स्थगन लगा दिया था। उस जमाने में हिम्मत कहाँ थी जो चोरी-छिपे भी उस का उल्लंघन करने की सोच पाते। हर साल गर्मी की छुट्टियों में मामाजी के यहाँ जाता था। रास्ता होने वाली ससुराल के नगर से गुजरता था। नतीजा, मामा के यहाँ जाना भी बन्द। अपनी जीवन साथी के बारे में जितना कुछ अन्य लोगों से सुना था। उसी के आधार पर उस का एक काल्पनिक चित्र मस्तिष्क में कहीं बन गया था। वही काल्पनिक चित्र  उन दिनों रूमानियत का केंद्र था। उन दिनों रूमानियत के कुछ बिन्दु और भी थे। लेकिन अभी वे नैपथ्य में चले गए थे। 17 मई का दिन विवाह के पूर्व भोज का दिन था। वह भीड़-भाड़ और कुछ अनोखी घटनाओं में गुजरा। आधी रात को बारात रवाना हुई वह भी घटनापूर्ण रही। 18 मई की सुबह हम अपनी होने वाली ससुराल के नगर में थे।  दिन भर विभिन्न वैवाहिक संदर्भों ने निपटा दिया। शाम को मैं घोड़ी पर था। कुल साढ़े पाँच घंटे घोड़ी पर बैठना किसी तपस्या से कम न था। इस के बाद भी जलूस ससुराल के दरवाजे से अपना स्वागत करवा कर लौट आया था। मुहूर्त लग्न रात के दो बजे जो था।

बीस साल पहले विवाह की वर्षगाँठ
रात को एक बजे फिर से घोड़ी पर जलूस निकला। इस बार तोरण भी मारा और हाथ भी बंधवाया। चतुष्पदी संपन्न होते-होते रात्रि अंतिम प्रहर में प्रवेश कर गई।  दुल्हन को ले कर वापस जनवासे पहुँचे। कुछ देर में दुल्हन वस्त्र बदल कर फिर से अपने मायके लौट चली। मैं अब अपने ससुराल का कुँअर था। सुबह कुँअर कलेवा का बुलावा आया। दोस्तों के साथ हम पहुँचे। कुछ शेष कार्यक्रम और निपटाए गए, दोपहर होने के पहले बारात विदा हो ली। शाम के पहले बारात मेरे नगर पहुँच ली। तब तक मैं ने अपनी जीवन साथी का चेहरा तक न देखा था। उस घटना को छत्तीस वर्ष होने में कुछ ही घंटे शेष हैं। पर लगता है यह कल की ही बात है। 

जीवन संगिनी शोभा ने आज का दिन गेहूँ साफ करने में लगाया। शाम के भोजन की कोई तैयारी नहीं थी। मैं ने पूछा -आज शाम के भोजन का क्या करना है? 
जवाब में प्रश्न मिला -आज भी कहीं न्यौता जीमने जाना है क्या?
-चले चलेंगे। 
- कहाँ? आज का तो कहीं का न्यौता भी नहीं है।
बीस साल पहले विवाह की वर्षगाँठ
-इतने रेस्टोरेंट जो हैं, शहर में। वे तैयार हो गईं। अब बारी थी रेस्टोरेंट चुनने की। मैं ने सब से दूरी (पाँच किलोमीटर) का रेस्टोरेंट बताया। उन्होंने दो किलोमीटर के अंदर ही चुनाव कर लिया। मैं ने कहा सुझाया मित्र जोड़े को साथ ले चलते हैं, पर किस को? बहुत से विकल्पों पर विचार हुआ। लेकिन प्रस्ताव अंत में गिर गया। रात नौ बजे हम दोनों घर से निकले। दिन भर बहुत गर्मी थी, लेकिन शाम को कुछ बारिश हुई थी और हवा चल रही थी। मौसम सुहाना हो चला था। हमने भोजन किया, मैं ने मीठे के लिए आग्रह किया तो उत्तर मिला बाहर निकल कर आइस्क्रीम खाएंगे। बिल आया मात्र 196 रुपए का। दस रुपए टिप में छोड़े, कुल हुए 206 रुपए। बाहर निकल कर पास ही एक वकील साहब के बेटे के पार्लर पहुँचे और एक एक कप केसर-पिस्ता आइस्क्रीम गटकी। यहाँ चुकाए मात्र 40 रुपए। पान की दुकान पर पहुँचे, 30 रुपए वहाँ खर्च किए। फिर याद आई बर्फ के गोलों की। चौपाटी पर जा कर उन का भी आनन्द लिया, चुकाए सिर्फ 16 रुपए। फिर वापस घर लौट आए। मैं ने हिसाब लगाया तो 18 रुपए का कार में जला पट्रोल भी जोड़ा। अधिक नहीं केवल 310 रुपए खर्च हुए। यह कुछ अधिक सस्ता भी नहीं। पिताजी खर्च का हिसाब लिखते थे। उन्हों ने डायरी में मेरी शादी का कुल खर्च बारह हजार कुछ सौ रुपए लिखा है।

ह हमारे विवाह की छत्तीसवीं वर्ष गाँठ थी। यूँ तो जगत में ३६ का आँकड़ा बहुत बदनाम है। लेकिन आज का दिन अच्छा गुजरा। हम दोनों में आँकड़ा ३६ न हुआ। वैसे इस साल में इसे हमने खूब झेला है। कुछ झगड़ा, कुछ रूठना, कुछ मनाना सब चलता रहा। लेकिन इस आखिरी दिन मामूली प्यार भरी छींटाकशी से अधिक कुछ न हुआ। हम ने भी चैन की साँस ली। ३६वाँ साल पूरा होने को है। सुबह होने के पहले सैंतीसवाँ आरम्भ हो लेगा। आखिरी दिन भी अच्छा गुजरा। खर्चा भी अधिक न हुआ सिर्फ 310 रुपए में काम चल गया। आशा की जा सकती है कि हमारे आने वाले दिन अच्छे ही होंगे। ३६ का आंकड़ा गुजर जो गया है। फिर आप सब की दुआएँ जो हमारे साथ हैं। कुछ और जानना चाहेँ तो यहाँ मेरी सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पोस्टों में से एक उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
पाबला जी ने आज ही हमारी शादी की वर्षगाँठ मनवा दी। वैसे हमारी शादी हुई 19 मई में थी, और वह पूरा दिन गुजर जाने के बाद रात को ही अपनी पत्नी की शक्ल पहली बार देख पाया था। आप चाहें तो 19 तारीख में भी बधाई/शुभकामनाएँ भेज सकते हैं। हम बेकरारी से इंतजार करेंगे।  

मंगलवार, 17 मई 2011

'सिरफिरा' की प्यारी प्यारी प्रति-टिप्पणियाँ

विचारमग्न
मैं ने अपनी पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता में रमेश कुमार जैन का उल्लेख किया था। इन का तखल्लुस 'सिरफिरा' है।  वे पत्रकार हैं, साथ में पुस्तकें विक्रय करने, विज्ञापन बुक करने, अखबार व पुस्तकें प्रकाशन का कार्य करते हैं। सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में रुचि रखते हैं और उन का दखल मानवता के पक्ष में होता है। इस मामले में वे समझौता भी नहीं करते। बीच में कुछ व्यक्तिगत परिस्थितियों ने उन के इन कामों में बाधा पैदा की। वे निराश भी हुए। लेकिन अब उन के पास कुछ अच्छे साथियों का साथ है। वे बहुत कुछ इस निराशा से निकल चुके हैं। मुझे विश्वास है कि वे शेष निराशा को भी जल्दी ही यमुनाशरण भेज देंगे। इसी बीच उन्हों ने हिन्दी ब्लागरी को अपनाया और उस का एक अभिन्न हिस्सा बन गए। मुझे यह भी विश्वास है कि वे शीघ्र ही यहाँ कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। उन के पत्रकारिता, प्रकाशन, विज्ञापन संग्रहण और पुस्तक विक्रय के अनुभव का ब्लागरी को लाभ मिलेगा। मेरा जो ब्लागरों के सहकारी प्रकाशन का विचार है, यदि उस ने मूर्तरूप लिया तो उस के सब से मजबूत स्तम्भों में रमेश जी एक होंगे। 
क्त पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता के एक-एक चरण के जो सटीक और तार्किक उत्तर दिए उन्हें मैं ने अनवरत की पोस्ट क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी में प्रस्तुत किया था।  इस पोस्ट को पढ़ने मात्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रमेश जी कैसे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बस उन की चौथी टिप्पणी छूट गई थी, उसे आज पोस्ट कर रहा हूँ। उन्हों ने उस पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता पर आई  सभी टिप्पणियों पर अपनी प्रतिटिप्पणियाँ भी लिखीं हैं। वे उन्हें उसी पोस्ट पर प्रकाशित भी करना चाहते थे, लेकिन उस दिन ब्लागर के बंद रहने के कारण ये प्रति टिप्पणियाँ उन्हों ने मुझे  मेल कर दीं। उन प्रतिटिप्पणियों को भी मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-

पोस्ट पर चौथी टिप्पणी
अब कुछ लिखते हुए
गुरुवर:-अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपने कड़वी सच्चाई को इतनी बेबाकी से रखकर न जाने कितनों को मेरा दुश्मन बना दिया है.लगता है तीन-चार ब्लोगरों ने मान-हानि के नोटिस तो जरुर तैयार करवा दिए होंगे. एक-दो दिन आपके पास या मेरे पास आते ही होंगे. आज इतनी मंहगाई में आम आदमी बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरतों की चीज़ या पुस्तक खरीदता है. तब उसके पास हर दूसरी किताब खरीदने के लिए पैसे कहाँ होंगे? मैं आप (तीसरा खम्बा) की अंधिकाश नई व पुरानी पोस्टें पढ़ चुका हूँ. उपरोक्त किताब द्वारा जानकारी आम-आदमी तक अगर पहुंचती हैं.तब उसके लिए लाभदायक होगी, क्योंकि आम-आदमी ऐसी कई परेशानियों से रोज रूबरू होता है और सही जानकारी न मिलने पर शोषित होता है. यह मेरा आपसे पिछले नौ महीने से जुड़ने के बाद महसूस किया और कुछ भ्रष्टाचारियों की नाक में दम कर रखा है. तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट का बेसब्री से इन्तजार है.

गुरुवर:-रमेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए।

सिरफिरा:- गुरुवर! जब तक समय लगता है। तब तक कुछ अपनी उलझनों से भी निकल लेता हूँ और कुछ प्रकाशन परिवार में फैली अव्यवस्था को ठीक कर लेता हूँ। साथ में कुछ यारे-प्यारे का डाटा भी तैयार कर लेता हूँ।  इसलिए ठाली बैठने का सवाल नहीं उठता है। मुझे 20-20 हजार रूपये लेकर किताबें छापनी होतीं तो अब तक प्रकाशन परिवार के 14 वर्षों में कम से कम 140 बुक छाप दी होती।  मुझे किसी को यह नहीं दिखाना कि देखो मैं इतना बड़ा प्रकाशक हूँ, या कोई इनाम/अवार्ड नहीं लेना है।  किताब एक-साल में एक या दो ही प्रकाशित हो, मगर उसकी सामग्री और बिक्री इतनी अच्छी हो कि एक साल में कम से कम दो बार उसका संस्करण प्रकाशित करने की जरूरत पड़े। थोड़े से चाँदी के कागजों के लिए, या यह कहूँ अपने आपको अमीर और गाड़ी वाला दिखाने के लिए "कुछ भी" छापना शुरू कर दूँ।  आज मुझे अपनी गरीबी पर अफ़सोस नहीं है। मगर ऊपर वाले के खाते में अमीरों की सूची में पहला नहीं तो दूसरा स्थान तो पक्का है। आपको हमेशा मेरे उपनाम "सिरफिरा" पर एतराज था।  अब बताइए कि न आधा और न उससे थोडा ज्यादा, हूँ पूरा का पूरा सिरफिरा हूँ कि नहीं?  रहता इस दुनिया में और ख्याब उस दुनिया के देखता है। अब थोडा-सा आपकी अनुमति से जरा टिप्पणीकर्त्ताओं को भी प्यारे-प्यारे जवाब दे दूँ।

 रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा' की प्रति टिप्पणियाँ

@अविनाश वाचस्पति जी,  
भूमिगत होने का अनुभव भी है।
आपने कहा कि-  मतलब सिरफिरा तो वे खुद हैं, बीस बीस हजार लेकर सिर फिरा देंगे सब हिंदी ब्‍लॉगरों का। मेरे से एक लाख ले लें और अडवांस में रायल्‍टी दे दें।
सिरफिरा: आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी!  वैसे आपकी टिप्पणी का जवाब मेरे गुरुवर दे दिया है. मगर यह नाचीज़ शिष्य अपने गुरुवर की डांट (प्यार) के लिए थोड़ी सी गुस्ताखी कर रहा है।  मेरी आपसे किसी प्रकार व्यक्तिगत लड़ाई या मेरे मन आपके प्रति द्वेष भावना नहीं है। अगर विश्वास न हो, पूर्व सूचना देकर मेहमान नवाजी का मौका देकर देख लें। मगर मेरी विचारों की भिन्नता को लेकर स्वस्थ मानसिकता से आपकी बात को लेकर बहस मात्र है और आपकी कथनी और करनी को जाने की इच्छा मात्र है।  मेरे पास आप जितना ज्ञान नहीं है,  मेरे लेख भी आप जितने प्रकाशित नहीं हुए हैं।  मेरे पास सम्मानों का बहुत बड़ा ढेर भी नहीं हैं। आप द्वारा प्रचारित तीनो हरियाणवीं फ़िल्में देख रखी हैं और गुलाबों के एक गाने के कुछ बोल आज भी याद हैं। जितनी पत्र-पत्रिकाओं के लिए आप लिखते हैं उनमें से एक-दो को छोड़कर, बाकी सब के लिए अपने अच्छे दिनों में विज्ञापन बुक किया करता था। मेरे ब्लागों पर लोग भी इतने नहीं आते हैं, जितने आपके ब्लॉग पर आते हैं। आपसे हर मामले में तुच्छ (नाचीज़) हूँ।  अब आप कह रहे हैं कि मेरे से एक लाख ले लें, चलिए आप बता दीजिये एक लाख रूपये नकद देंगे या चेक से देंगे।  इस पर ब्याज कितना लेंगे। मेरी हैसियत 9 प्रतिशत वार्षिक की है।  हर महीने बिना मांगे 750 रूपये का चेक आपके संतनगर वाले घर पर 11 तारीख को पहुँच जाया करेगा। अगर आप अपना किसी काम के लिए, या किसी विज्ञापन, या इन दिनों मेरी जरूरत के अनुसार कर्ज के बतौर आप एक लाख रूपये दे मुझे दे सकते हों तो अवश्य दें। वरना इन चंद कागज के टुकड़ों का आपकी सेफ में रहना ही बेहतर है।  आपको मेरी आप को तुच्छ सलाह है कि आप खुले आम किसी को रूपये देने का प्रस्ताव न करें।  किसी सिरफिरे ने जिद्द पकड ली, तब आपको देने में मुश्किल होगी। आप एक लाख रूपये की बात तो दूर छोडिये मेरी मेहनत की कमाई से लिये "कैमरे के सैल और उसका चार्जर ही ढूंढ़वाकर भिजवा दें। एक बात आप हमेशा ध्यान रखें कि भारत देश की धरती पर जब तक यह "सिरफिरा" पत्रकार जीवित रहेगा, उसे कोई माई का लाल चंद कागज के टुकड़ों से खरीद नहीं सकता। मुझे मरना मंजूर है, लेकिन बिकना मंजूर नहीं। बाकी रही अडवांस में रायल्‍टी देने की बात, तो पहले किताब या लेखक को हमारे मापदंड पूरे करने होंगे, फिर अनुबंध  होगा। उसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू होगी। वैसे भी गुरुदेव का कहना है कि रॉयल्टी का सम्बन्ध किताब की बिक्री से होता है। बिना किताब लिखे रायल्टी पाने वाले लोग दुनिया में बिरले ही मिलेंगे। मेरा आपका किसी प्रकार अपमान करने का इरादा नहीं है। अगर आप मानें तो ठीक, नहीं तो आप अपने ब्लागों पर किसी भी शैली (व्यंग, विरोध और द्वेष प्रेरित लेख) के माध्यम से हमारी टांग खिंचाई कर सकते है। आपके दर्शनों का अभिलाषी और अतिथि संस्कार का इच्छुक-सिरफिरा।

@ उड़न  तश्तरी ब्लॉग के श्री समीर लाल जी! 
आपको भी बहुत शुभकामनाएँ! ...मुझे आपकी शुभकामनाएँ मिल गई है। अब आप लोगों की दुआएँ और साथ चाहिए।

@ज्ञानदत्त पाण्डेय,  
किंडल जैसे उपकरण मुझे जानकारी नहीं है। मगर मुझे नहीं लगता कि किताबों पर कभी चर्चा समाप्त होगी। यानि किताबों का आस्तित्व खत्म हो जायेगा। लेकिन छोटे बच्चों को अ.आ.इ और ए.बी.सी किताब से ही सिखाई जाती रहेंगी।
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@सतीश सक्सेना जी, 
 सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है। वहीँ पर रौशनी होती है।  गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है।

@अख्तर  खान  अकेला जी, 
पहले पोल खोलक यंत्र एक व्यक्ति बजता था।  अब एक और एक, ग्यारह समझो या दो बजायेंगे। 

@अनूप शुक्ल जी, 
आपने सही कहा कि किताब अगर छपें तो दाम कम रखना सबसे अहम बात है। वर्ना किताब खपाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

@काजल  कुमार जी,  
आपने कहा कि-अनूप जी से असहमति...किताब खूब मंहगी होनी चाहिये, लेकिन उसके छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा रहना चाहिये ताकि जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें :) बहुत अधिक मूल्यों वाली किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता :)
    सिरफिरा: ऐसी किताबें दोस्तों फ्री में बाटने के बाद लेखक या प्रकाशक की अलमारी में धूल फांकती है या कोई दस साल बाद कबाड़ी के पास 10-15 रूपये किलो बिक रही होती हैं। छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा किताब की छवि को धूमिल करने के सिवाय कुछ नहीं करता है। जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें,  हम यहाँ भी तिकडम या धोखाधडी के सोचते हैं। बिजनेस में अच्छी सोच रखने पर परिणाम भी अच्छे आते हैं।  किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, एक अच्छी किताब लेखक के पास "कालर" खड़े करने के हजारों मौके पैदा करती है, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता।  हमारा इतिहास गवाह है लेखक बेचारा ही बनता हैं। अमीरों को नोट गिनने से फुर्सत कहाँ मिलती हैं?  अगर आपको जानकारी हो तो देना कि क्या किसी अमीर ने कभी कोई किताब (आत्मकथा और रविन्द्रनाथ टैगोर व टॉलस्टॉय जैसे अपवादों को छोड़कर) जनहित हेतु लिखी है?

@अरविन्द  मिश्र जी,  
आपने कहा कि-विचारणीय मुद्दा -कितनी ही बार तो इस विषय पर चर्चा हो चुकी है, मगर कोई निष्कर्ष नहीं दिखता!
    सिरफिरा: जरुर निकलेगा मगर बगैर किसी प्रकार की द्वेष भावना के स्वस्थ बहस की जाए तो निष्कर्ष निकलता है। 

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, पर आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी। नेटीय साहित्य बहुत अधिक पढ़ना हो रहा है, अभी उर्वशी पढ़ी है।
    सिरफिरा: पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, दोस्त आपने कहा है। आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी, इसके लिए कम से कम 20 साल समय लग जायेगा। ऐसा हो सकता था, मगर हमारे देश के स्वार्थी नेताओं ने कभी विचार नहीं किया। नेटीय साहित्य में अभी आपने उर्वशी पढ़ी है। इन्टरनेट आज भी आम-आदमी के लिए बीरबल की खिचड़ी है। उसकी पहुँच के लिए देश की बहुत सी व्यवस्थाओं को ठीक करने की जरूरत है। आज जनता का अधिक समय तो छोटे-छोटे कार्यों में खर्च हो जाता है। जैसे-राशन कार्ड में अपना नाम या आयु सही करवानी है। उर्वशी का लिंक मुझे भी भेजें हम भी जरा पढ़ लें, अगर इन्टरनेट का नेटवर्क लगातार सही आता रहा तो।

@बड़े भाई श्री खुशदीप सहगल जी, 
आपके बारें में जानकारी प्राप्त हुई कि आप न्यूज चैनल में है। पिछले दिल्ली नगर निगम 2007 के चुनाव में प्रत्याशी की कवरेज (विज्ञापन) का रेट 25 हजार रूपये था। इस बार (मार्च 2012) आपकी मदद से मेरा काम सस्ते में हो सकता है।  आपका नारा (हमारा नेता कैसा हो, सिरफिरे भाई जैसा हो....) मेरा एक मतदाता 2007 और 2008 में भी लगा चुका है। इस बार आपके चैनल पर लगाया जाए तो कैसा रहे? अपने छोटे भाई का तीसरी बार फिर से चुनाव चिन्ह "कैमरा" याद रखना और अगर आपका पहचान पत्र नहीं बना हो तो ५०० रूपये कुछ लोग बना रहे हैं। जल्दी से बनवा लीजिए। इस बार आपकी वोट मुझे ही चाहिए होगी.जय हिंद...

@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी, 
अच्छी और सस्ती किताबों के वितरण में थोड़ी कम समस्या होती है।

@डा० अमर कुमार जी,  
आपकी तरह सब किस्मत के धनी नहीं होते।

@रवि कुमार स्वर्णकार जी, 
एक अच्छा उद्यमी कभी दूसरे उद्यमी को ठाला नहीं बैठने देता है।

@ राज भाटिय़ा जी, 
आपका पूरा ध्यान रखा जायेगा।  वैसे हमें कहाँ यह लिखना विखना आता है।  हम क.ख.ग... को बस जोड़ लेते हैं। बस, रेल में बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे आपकी  रिटायरमेंट कब हो रही है? और ब्लागरों ने अब तक फैसला लिया भी नहीं है कि ब्लागर की रिटायरमेंट कब होगी? क्या जब वो "सिरफिरा" हो जायेगा तब? चलिए अब बिजनेस की बात पर आते हैं, श्रीमान जी आप कितनी किताब लेना चाहते हैं? देखिये एक-दो किताब पर कमीशन देना संभव नहीं होगा।  अगर हर महीने कम से कम दस किताबें लेंगे तब आपको दो महीने के बाद ही अलग से बोनस भी दिया जायेगा। आपका चैक कब आ रहा है हमारे पास? जरुर बतायें?

@निर्मला कपिला जी,  
आपकी बधाई और शुभकामनायें मिल गई हैं, मगर रॉयल्टी लेने के लिए लेखक को मापदंड (रिश्वत कहे या पैसे और सिफारिश नहीं) पूरे करने होंगे। 

@हकीम  युनुस  खान जी,  
धन्यवाद! खुदा के फज़ल से कोशिशें ही सफल होती हैं। 

@सुनील  कुमार जी, 
आपने कहा कि-सिरफिरा जी ने सर घुमा दिया सवेरे-सवेरे, बात तो लगभग ठीक ही है।
   सिरफिरा: भाई आप अपना सर मत घुमाओ, अगर आप लोग साथ दो तो मैं हमारे देश के स्वार्थी नेताओं का सर घुमाना चाहता हूँ।  इनका सर घुमाने के बाद शायद ये घोटालों की न सोचकर देश के विकास की बात करें और सोचें। उसके बाद मजदूर की तरह उसमें जुट भी जाएँ। एक बार आप दुबारा बगैर "ही" का प्रयोग करें। कह दो न कि बात तो लगभग ठीक है। इस अजन्में बच्चे की जिद्द पूरी नहीं करोंगे भाई। 

@अख्तर खान अकेला जी,  
आपने कहा कि-वाह भाई जान सिरफिरा जी को समर्पित यह पोस्ट भी जीवंत है.
    सिरफिरा:जब से गुरु-चेले की बातचीत शुरू हुई है, तब से टिप्पणीकर्त्ताओं के सर घूम गए हैं और जिन पिछली 8 पोस्टों में गुरु-चेले नहीं थें, वहां टिप्पणी का औसत 18.25 था. गुरु-चेले की 2 पोस्टों में यह औसत सिर्फ 14 रह गया है।  लोग अपने सिरों के इलाज़ के लिए डाक्टरों की दवाइयां खा रहे हैं। आप मेरे गुरु को चने के झाड़ पर चढाओं नहीं, नहीं तो दोनों गुरु-चेला औंधे मुंह गिर जायेंगे।

@अरविन्द मिश्र जी, 
क्षमा चाहता हूँ.आपका सिर फिर गया है-गोल गोल, वैसे तो पृथ्वी घूमती गोल-गोल। मुझे क्या पता था आप लोगों के भी सिर "फिर" जायेंगे, मेरा लक्ष्य मछली की आँख (हमारे देश के स्वार्थी राजनीतिकज्ञ) थे। यानि मेरा तीर दिशाहीन हो गया।  अब गुरुवर के अनुभव का लाभ प्राप्त करके तीर सही निशाने पर लगाऊंगा। मेरे गुरुवर ने पूरी रामायण सुना दी आप पूछ (ये माजरा क्या है?) रहे हैं कि-सीता जी, राम की पत्नी थी या रावण की?

@बड़े भाई खुशदीप सहगल जी,  
आप श्री अरविंद जी वाला ही उत्तर पढ़ें, आपका हाल भी उनके जैसा लग रहा है. जय हिंद!
    ऐसे में...होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल...के भईया आल इज़ वैल......थ्री-इडियट आपने देखी, उसका उद्देश्य बहुत अच्छा था। काश! उसका संदेश पूरे देश में फ़ैल जाए तब भारत देश सबसे मजबूत होगा। आपका एक इडियट दोस्त कहूँगा। क्योंकि आपने छोटा भाई मानने के मंजूरी नहीं दी है.-आपका "सिरफिरा"

@डॉ. अनवर जमाल जी, 
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! ग़ज़ल के लिए भी, जो मैंने पूरी पढ़ ली है।

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-चौथी टिप्पणी भी पढ़ते हैं, आने के बाद। फिर देर किस बात की पढ़ लीजिये, आपकी खिदमत में हाजिर है टिप्पणियों पर आधारित उपरोक्त पोस्ट। मेरे हजूर!
@सतीश सक्सेना जी, 
सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है, वहीँ पर रौशनी होती है। गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है। किसी गुरु-चेले में इतनी कहाँ हिम्मत होती जब तक आप जैसे दोस्त, भाई का साथ न मिले। अरे! आपने यह क्या कह दिया कि-सर मेरा भी घूम रहा है, भाई जल्दी से डॉ. साहब से इलाज कराओ, नहीं तो हमारे प्रकाशन की किताबों की बिक्री कौन करेंगा? फिर हमारा यह बिजनेस शुरू होने से पहले ही बंद न हो जाये। वैसे क्या आपको डॉ. अनवर जमाल जी की दवाइयां सूट करती है या नहीं?

@रचना जी,  
आपने कहा कि-आजकल लगता हैं आपके पास समय बहुत हैं!!! एक आसान तरीका हैं स्पेममार्क करने का कमेन्ट में।
सिरफिरा: इसका जवाब आपको मेरे गुरुवर जी देंगे, क्योंकि उनका इस नाचीज़ शिष्य का तकनीकी ज्ञान अधूरा है। इसलिए क्षमा चाहता हूँ। 

@पटली-The -Village जी, और @संजय भास्कर जी,  
आप दोनों का बहुत-बहुत धन्यवाद! 
 रमेश कुमार जैन सिरफिरा द्वारा लिया गया चित्र

 शाहनवाज आँख बन्द कर मोबाइल पर नंबर डायल करते हैं

सोमवार, 16 मई 2011

लगी लगाई नौकरी के छूट जाने से किस्मत के दरवाजे भी खुल सकते हैं

चानक बोदूराम की लगी लगाई नौकरी छूट गई। वह बड़े भाई की जगह नौकरी लगा था। हालाँकि तब उस का बड़ा भाई जीवित था पर अस्वस्थ हो गया था। अस्वस्थता के बावजूद वह नौकरी करता रहा। वह पूरी ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य करता। मालिकान उस की कर्तव्य परायणता से प्रभावित थे, इतने कि एक बार तो मालिकान में से कुछ उसे जनरल मैनेजर बनाने का प्रस्ताव कर बैठे थे। वह तो उसी ने मना कर उन्हें संकट से उबार लिया था। लेकिन फिर घर वाले बहुत नाराज भी हुए, कि आखिर जनरल मैनेजर बनने का प्रस्ताव उसने क्यों ठुकरा दिया? बाद में वह खुद भी मानने लगा कि उस ने ऐसा कर के ऐतिहासिक गलती की थी। फिर एक दिन ऐसा आया कि उस की अस्वस्थता बढ़ने लगी। उसे कर्तव्य पूरा करने में परेशानी होने लगी। आखिर उस ने इस्तीफा दे दिया। उस ने पूरे तेईस साल तक कर्तव्य निभाया था। मालिकान ने उस की सेवाओं का कर्ज चुकाने को उस के भाई बोदूराम को उस की जगह नौकरी दे दी।

बोदूराम अपने भाई से कम हुनरमंद नहीं था। कुछ अधिक ही था। उस ने भाई वाला काम संभाल लिया। उस से बेहतर करने लगा। सब लोग उस की तारीफ भी करते। लेकिन उस का ध्यान केवल काम की और ही लगा रहता। वह किसी की न सुनता। धीरे-धीरे कंपनी के दूसरे अधिकारी, कर्मचारी नाराज रहने लगे। उस की शिकायत करने लगे। कोई भी काम खराब होता झट से उस के मत्थे थोप दिया जाता। वह समझ ही नहीं पाता कि आखिर उस से ऐसा क्या हुआ है जिस से हर बुरी चीज उस के मत्थे थोप दी जाती है। वह अपने खिलाफ आरोपों का जोरदार खंडन करता। अपने किए कामों की सूची गिना देता। उस का ध्यान इस और गया ही नहीं कि कंपनी  में उस के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। उस ने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। लोग उस से अधिक से अधिक नाराज होने लगे। शिकायतें बढ़ने लगीं। वह इसी दंभ में फूला रहा कि जब वह सब कुछ ईमानदारी से कर रहा है तो उसे आँच पहुँचाने वाला कौन है? 

खिर उस की शिकायतें इतनी हो गई कि पूरी कंपनी में खबर फैल गई कि इस बोर्ड मीटिंग के बाद उस का पत्ता साफ हो जाएगा। वह फिर भी कहता रहा कि उस का कुछ न बिगड़ेगा। लेकिन बोर्ड मीटिंग हुई,  ऐसा नहीं था कि उस के समर्थन में लोग नहीं थे। लेकिन समर्थन का स्वर कमजोर पड़ गया और उसे निकाल दिया गया। उस ने भी मान लिया कि उसे निकाल दिया गया है, वह घर आ बैठा। अभी उस के घर पर मिलने वालों का ताँता लगा हुआ है, लोग उस के पास ऐसे आ रहे हैं जैसे किसी के घर स्यापा करने जाते हों। जो आता है वही अफसोस जताता है। कहता है गलती तो तुमने कुछ भी न की थी, बस षड़यंत्र का शिकार हो गए। उस की समझ में यह नहीं आ रहा है कि वह लोगों को क्या कहे? 

ज सुबह उस के यहाँ एक आदमी आया और कहने लगा -तुम्हारी किस्मत सही थी जो तुम्हें नौकरी से निकाल दिया गया। एक तुम्हीं थे जो कंपनी को बरबाद होने से रोक रहे थे। कंपनी अब लाभ का सौदा नहीं रही है। मरी हुई लाश से पेट भरने वाले गिद्ध मंडराने लगे थे। तुम उन के मार्ग की रुकावट थे। तुम्हें निकाल दिया गया। अब मार्ग में कोई बाधा नहीं है। गिद्ध अपना पेट भर सकते हैं। तुम काबिल आदमी हो। यही एक काम नहीं है जिसे तुम कर सकते हो। तुम चाहो तो अपना काम खुद का काम कर सकते हो। अपनी खुद की कंपनी खड़ी कर सकते हो। पहले तुम्हारे भाई भी यही कहता था कि वह जरूर अपनी कंपनी खड़ी कर लेगा। लेकिन उस ने अपना जीवन कंपनी की सेवा में गुजार दिया। तुम्हें भी न निकाला जाता तो तुम भी यही करते। अब तुम्हें मौका मिला है तो आज से ही अपना काम शुरू कर दो।  ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिन्हें नौकरी से निकाला गया और वे अपना खुद का काम आरंभ कर के बहुत बड़ी हस्ती बन गए। जो नौकरी में रह गए वे पूरी जिन्दगी मालिकों की सेवा करते रहे, सेवक ही बने रहे। तुम चाहो तो खुद मालिक बन सकते हो। लगी लगाई नौकरी के छूट जाने से किस्मत के दरवाजे खुलने का अवसर सामने होता है।
बोदूराम को मिलने आया आदमी चला गया। लेकिन बोदूराम को विचलित कर गया। बोदूराम सोच रहा है क्या करे? वापस कहीं नौकरी पाने का यत्न करे या खुद का काम आरंभ करे।

रविवार, 15 मई 2011

पेट्रोल 100 रुपए लीटर न हुआ

कोई दो माह से हल्ला था कि तेल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ रहे हैं, तेल कंपनियों को घाटा हो रहा है, भारत में कभी भी  दाम बढ़ाए जा सकते हैं। सांत्वना यह थी कि कम से कम चार राज्यों के चुनाव तक तो नहीं ही बढ़ेंगे। हम भी तसल्ली से बैठे हुए थे। जब चुनाव संपन्न हो गए तो चर्चा फिर गरम हो गई। हमें भी विश्वास हो गया कि अब तो दाम बढ़ने ही वाले हैं। हम अक्सर एक ही पेट्रोल पंप से पेट्रोल लेते हैं। हमें यह विश्वास है कि वहाँ पेट्रोल मे मिलावट न होगी और कम भी न दिया जाएगा। (कभी विश्वास टूट गया तो नया पेट्रोल पंप पकड़ेंगे)  11 मई को पेट्रोल पंप की और से निकले तो हजार रुपए का डलवा लिया और इंतजार करने लगे कि आधी रात को जरूर ही पेट्रोल के दाम बढ़ जाएंगे और सुबह हम अनुमान लगाएंगे कि ये हजार रुपए का पेट्रोल भराने पर कितने का फायदा हुआ। हमारी आदत है कि चाहे मुसीबत का पहाड़ टूटने वाला हो पर हम जरा से फायदे से इतने खुश हो जाते हैं कि मुसीबत भी रुई के बोरे सी आसान लगने लगती है।
स रात दाम न बढ़े। हम निश्चिंत हो गए। कल शाम जब हम काम से निकले तो पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल वाहनों की लाइन लगी थी। कुछ पेट्रोल पंप पर कर्मचारी आराम कर रहे थे। उन्हों ने पेट्रोल खतम का बोर्ड चस्पा कर रखा था। हम समझ गए कि पेट्रोल के दाम बढ़ चुके हैं। हम चाहते तो थे कि हम भी सस्ते वाला पेट्रोल भरा लें। पर लाइन इतनी लंबी थी कि हो सकता था हमारा नंबर आते-आते 12 बज जाते और हमें लाइन का कोई लाभ न मिलता। कुछ पेट्रोल पंप ट्राई भी करते तो इतना पेट्रोल खप जाता कि लाभ बराबर हो जाता। 
ब आज सुबह अखबार से पता लगा कि पेट्रोल 62.08 रुपए से बढ़ कर 67.40 हो गया है, यानी अब हमें हर लीटर पर 5.32 पैसे अधिक देने पड़ेंगे। इसे कहते हैं दिन दहाड़े डाका पड़ना। पर इस डाके की रिपोर्ट कहीं नहीं हो सकती। डाका मुंसिफ डाले तो कौन उसे सजा दे? इतना सा दाम बढ़ा कर सरकार ने कोई अच्छा काम नहीं किया। सरकार को पेट्रोल का दाम पूरे 100 रुपए प्रति लीटर कर देना चाहिए था। उस के कई फायदे थे। पिछले पाँच-सात सालों से गृह मंत्रालय ने हमारे बाइक चलाने पर जो प्रतिबंध लगाया है वह हट जाता। हम कार घर में खड़ी कर देते और हमें बाइक चलाने को मिल जाती। दूसरे कार से लिफ्ट मांगने वालों को मैं यह कह कर मना कर सकता था कि मैं जरा बाइक में नया हूँ। यह तो थे मेरे व्यक्तिगत फायदे, पर सरकार को उस से क्या लेना-देना। पर सरकार को भी बहुत फायदे थे। जैसे मैं अदालत कार न ले जाता तो उस के पार्क करने के स्थान पर कम से कम तीन बाइक और पार्क हो जातीं। पार्किंग की समस्या का हल निकल जाता।
दाम सौ रुपये प्रति लीटर होने से ये भी फायदा होता कि फिर दाम जल्दी-जल्दी नहीं बढ़ाने पड़ते। तेल कंपनियाँ कम से कम साल-छह महीने यह नहीं कह सकती थी कि उन्हें घाटा हो रहा है। उन्हें होने वाले लाभ का हिसाब रखा जाता और घाटा आरंभ होने पर भी उसे पिछला लाभ बराबर न हो जाए तब तक वे बोलने लायक भी नहीं होतीं। यकायक दाम बढ़ने से बहुत सी बड़ी गाड़ियाँ सड़कों और पार्किंग में नजर आना बंद हो जातीं। सड़कों पर ट्रेफिक कुछ कम होता तो भिड़ने-भिड़ाने के अवसर भी कम होते और इंश्योरेंस कंपनियों को मोटर दुर्घटनाओं में देने वाले मुआवजे के कारण जो नुकसान हो रहा है वह खतम हो जाता वे भी लाभ में आ जातीं। पेट्रोल गाड़ियों की बिक्री कुछ कम होने से भी सड़कों को कुछ राहत मिलती। यदि दाम बढ़ाने का यह काम अगले तीन-चार साल तक टाला जा सकता तो फिर अगले चुनाव तक तो लोग भूल ही जाते कि पेट्रोल के दाम भी कभी बढ़े थे।
खैर, मैं ने हिसाब लगाया कि कल तक मेरी कार में बारह लीटर पेट्रोल मौजूद था। इस तरह मुझे कुल 63.84 रुपए का नकद फायदा हुआ। मैं कल कार में 16 लीटर पेट्रोल और भरवा सकता था। यदि यह भरवा लेता तो मुझे 85.12 रुपए का फायदा और होता। लेकिन मेरे  1080 रुपए कम से कम चार-पाँच दिन पहले ही खर्च हो जाते। पेट्रोल भरवाने के लिए कम से कम तीन घंटे तो पेट्रोल पंप पर लाइन में बिताने पड़ते। इस बीच हजार रुपए की कमाई कराने वाला मुवक्किल हाथ से निकल जाता। कुल मिला कर मैं ने पेट्रोल भराने के लिए लाइन में लग कर अच्छा ही किया। हाँ, दाम सौ रुपए प्रति लीटर हो जाता तो मैं जरूर लाइन में लग पड़ता। फिर चाहे दस हजार का मुवक्किल क्यों न छूट जाता।