हे, पाठक!
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली। कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती। दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी। पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी। सब उन की लूट के पीछे पड़े थे। लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था। उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही। जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया। बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया। उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए। उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया। देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।
हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो कमंडल थे दूसरी और मण्डल था। लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए। यही तो बनिए चाहते थे। चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया। लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता। वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है। जवान शहंशाह नहीं रहा था। लोग बेगम को ले कर चल पड़े। बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी। तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई। कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं। हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई। एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया। उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था। देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया। उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी। मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है। वायरस पार्टी को मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।
हे, पाठक!
बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए। कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी। लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई। नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया। साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे। बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे। इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले। मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई। लाल फ्रॉक गठजोड़ सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था। सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली। लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा। खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।
आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
रविवार, 12 अप्रैल 2009
नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)
हे, पाठक!
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे। बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था। यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं। बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे। पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें। बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है। बेटे-बेटी तो न मानें। अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया। जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े, तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।
हे, पाठक!
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया। लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था। जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा। फिर तो देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे। बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है। पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है। एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें। पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी। इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था। वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे। ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा। आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।
हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे। नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे। सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं। पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी। चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे। उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई। पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए। फिर चाचा की बेटी आई। उस ने महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली। पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी। पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया। बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया। देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे। उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई। देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।
हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया। अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं, महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ। वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें। महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं। नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी। धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए। थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं। वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते। महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी, अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं। नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।
आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)
हे, पाठक!
देश के वोट डालने वाले लोगों में से लगभग आधों ने जवानी पर भरोसा किया था। पर नेता के इरादे सही होने पर भी शायद वह अनुभव हीन था। मिले जुले बंद बाजार को खुले बाजार की ओर खींचने की कोशिशों के बीच तोपों का सौदा भारी पड़ा। जब खजाँची-सेनापति ही शहंशाह की नीयत पर शक करने लगे तो बाकी मनसबदार क्यों न सरकने लगें? उसे पद से हटाना ही मुनासिब! बाद में उस ने दरबार ही छोड़ दिया। कुछ और लोगों के साथ नई पार्टी बना ली और चुनाव जीत कर फिर से दरबार में जा बैठा। नीति यही कहती है कि जब कोई घर का भेदी बाहर आ जाए, तो घर ढहाने को सब उस के साथ होलें। सो सारे विपक्षी साथ हो लिए। इधर बाहर आधा-अधूरा पंचनद चैन नहीं लेने दे रहा था कि हमने पडौसी देश की आग में हाथ दे डाला। हाथ खींचना चाहा तो वापस खिंचा ही नहीं, वहीं पकड़ लिया गया।
वोटों से मिला जनता का समर्थन क्षण भंगुर होता है। वह वोट देते ही खिसक लेता है। वोट पाने वाला समझता है वह सिकंदर हो लिया, ऐसा होता नहीं है। घर के अंदर विरोध तो घर कमजोर, मुहल्ले के अखाड़ची रोज लंगोट घुमा जाएँ, ऐसे में अपना घर संभालने के बजाए पड़ौसी का झगड़ा सुलझाने को अपने लठैत वहाँ भेज दें और मंदिर-मस्जिद झगड़े का ताला खुलवा दें तो क्या होगा? वही नौजवान शहंशाह का हुआ। सारी जमातें एक हो गईं। यहाँ तक कि उत्तर-दक्खिन ध्रुव एक हो लिए। चुनाव में भारी मोर्चा लगा। फिर चुनाव की शतरंज बिछ गई। हाथी तो तोप प्रकरण ने मार लिए। घोड़े पड़ौसी के यहाँ लठैती में चले गए। अब ऊँटों के जरिए कहाँ तक बाजी संभलती।
नौ वीं लोक सभा के लिए नतीजे उलट गए। इस बार पेटी ने ताकत आधी से भी कम रहने दी। घर-भेदी को पंचों ने गद्दी पकड़ा दी। घर-भेदी पिछडों को आरक्षण की तरफदारी मंडल कर गया था। उस ने सारा जोर आरक्षण बढ़ाने में लगा दिया। इधर पंचों के इरादे ठीक न थे। ताकत के बल पर मंदिर-मस्जिद का झगड़ा निपटाने का प्रचार करना फायदे का सौदा लगा। कुछ पंच कमंडल ले कर जातरा पर निकल पड़े। दूसरे पंच के यहाँ पहुँचे तो उस ने जातरी को जेल पहुँचा दिया। आग में घी पड़ चुका था। पंचों की एकता छिन्न भिन्न हो गई। घर के भेदी का समय इतना ही था। दरारें दिखते ही कभी के युवा तुर्क जवान नेता की बैक्टीरिया पार्टी की तरफ झाँका, -तुम सहारा दो तो मैं भी तमन्ना पूरी कर लूँ? उन्हों ने अपनी हथेली लगा दी। युवा तुर्क गद्दी पर पहुँच गए। बड़ों की हथेली पर छोटों की गद्दी ज्यादा दिन नहीं टिकती। हथेली हिली कि गद्दी गिरी। यह हथेली जल्दी ही हिल गई। पाँच साल के चौथाई वक्त, सवा साल में ही दसवी महापंचायत के लिए रणभेरी बज गई।
आज कथा यहीं तक, लेकिन आगे जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया
हे, पाठक!
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था। लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी। दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी। उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी। भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी। हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं। वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं। चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से। लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया। पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी। लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा। छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया। वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था। जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी। आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते। पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था। पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।
हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे। तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की। अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे। मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी। वे सब अलोकलों से उलझ पड़े। इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी। पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे। कुछ करते नहीं बनता था। आखिर फौज काम आई। दहशत कुचल दी गई। लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए। इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।
हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया। करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी। लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई। इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे। हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए। इस आग ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका। जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी। खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई। चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया। एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है। पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र ! उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई। फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया। जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।
हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था। राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था। जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था। देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया। उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले। उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की। उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ क्यों नीची उड़ान उड़ता? उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया। देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (7) : चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हो गई
हे, पाठक!
लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे, उन की तासीर भी वही रही। सब से बुजुर्ग और अनुभवी गुजराती भाई को नेता चुना गया और सरकार चल निकली। इस सरकार ने बड़े बड़े काम किए। उत्तर के पड़ौसी से रिश्ते और पच्छिम के पड़ौसी से आपसी संबंध बनाए, तो आफत के वक्त हुए अत्याचारों की जाँच और गुनहगारों को सजा के लिए अधिकरण भी बनाए। इस बीच बूढ़ा अगिया बैताल बीमार हो चला। लोगों ने उस की शरम करना बंद कर दिया। लोग कपड़े उतार-उतार अपने रंगबिरंगे अन्तर्वस्त्र दिखाने लगे। चौधरी चाचा और राम बाबू, गुजराती भाई के काम काज पर गुर्राने लगे। सबूतों के अभाव में चाचा की बेटी के खिलाफ मुकदमा चलाने के मंसूबे ख्वाब होने लगे। कानूनदाओं के मुकाबले एक असहाय महिला के रूप में चाचा की बेटी के लिए जनता की सहानुभूति अँकुराने लगी। गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक तंगी के खिलाफ गुजराती भाई मजबूती से कुछ नहीं कर पाए। जनता में असंतोष उमड़ने लगा।
हे, पाठक!
इन सब से अलग लाल स्कर्ट वाली दो बहनें अलग ही खेल रही थीं। बड़ी बहन आफत काल में चाचा की बेटी के साथ थी। तो छोटी वाली बूढ़े अगिया बैताल के अगल-बगल चल रही थी, आखिर उस ने भी चाचा की बेटी के कोड़े खाए थे। चुनाव में चार परसेंट की हकदार वह भी हो गई थी। पर वह किसी तरफ न थी। उस ने पूरब और दक्खिन में तीन बड़े खंड हथिया लिए। एक तो ऐसा हथियाया कि सब ने बहुत हाथ पैर मारे पर आज तक छोड्या ही नहीं।
हे, पाठक!
ऐसे मौसम में चौधरी चाचा के हनुमान और मधु बाबू को रोज सुबह मुहँ अँधेरे वायरस पार्टी के नेताओं की निक्कर दिख जाती और वे बैचेन हो भड़क उठते। रोज दिन में झगड़ा करते कि धोती और निक्कर साथ नहीं चलेगी। आखिर ढाई साल गुजरते-गुजरते दोनों वायरस अपने जत्थे समेत अलग हो लिए। उधर चौधरी चाचा ने भी अलग ढपली बजाने का ऐलान कर दिया। गुजराती भाई ने स्तीफा दे चलते बने। बेचारी लट्ठा सरकार असमय ही चल बसी।
हे, पाठक !
एक उल्लेख पहले छोड़ आए थे, अब उस का समय आ गया है। हुआ यूँ कि चाचा की बेटी पर जो संकट आया था उस में अदालत का फैसला भी तात्कालिक कारण था, जिस ने चाचा की बेटी को चुनाव में सरकारी अमले के इस्तेमाल का दोषी करार दिया था। मुकदमा करने वाले थे, चौधरी चाचा के हनुमान। उन्हों ने ही चाचा की बेटी की लंका में आग लगाई थी। पर चाचा की बेटी रावण से भी बड़ी कूटनीतिक निकली। उस ने इस हनुमान के राम को ही कंधा दे कर कुर्सी पर जा बिठाया। चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हुई, जाट खुश हुए। आखिर जाट परधानमन्तरी हुआ। पर चाचा की बेटी ने कुर्सी पर बिठा कर कुर्सी खेंच ली। हाय! नौ माह भी पूरे न हुए, एक बार भी पंचायत न बैठी कि सरकार गिरने की नौबत आ गई। लो फिर चुनाव आ गए।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
लट्ठों की नाव, पार लग ही गई। सवारियाँ सतरंगी थीं। झण्डा एक हो गया था। ऊपर के वस्त्र भी बदल गए थे। पर अंतर्वस्त्र पुराने ही रहे, उन की तासीर भी वही रही। सब से बुजुर्ग और अनुभवी गुजराती भाई को नेता चुना गया और सरकार चल निकली। इस सरकार ने बड़े बड़े काम किए। उत्तर के पड़ौसी से रिश्ते और पच्छिम के पड़ौसी से आपसी संबंध बनाए, तो आफत के वक्त हुए अत्याचारों की जाँच और गुनहगारों को सजा के लिए अधिकरण भी बनाए। इस बीच बूढ़ा अगिया बैताल बीमार हो चला। लोगों ने उस की शरम करना बंद कर दिया। लोग कपड़े उतार-उतार अपने रंगबिरंगे अन्तर्वस्त्र दिखाने लगे। चौधरी चाचा और राम बाबू, गुजराती भाई के काम काज पर गुर्राने लगे। सबूतों के अभाव में चाचा की बेटी के खिलाफ मुकदमा चलाने के मंसूबे ख्वाब होने लगे। कानूनदाओं के मुकाबले एक असहाय महिला के रूप में चाचा की बेटी के लिए जनता की सहानुभूति अँकुराने लगी। गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक तंगी के खिलाफ गुजराती भाई मजबूती से कुछ नहीं कर पाए। जनता में असंतोष उमड़ने लगा।
हे, पाठक!
इन सब से अलग लाल स्कर्ट वाली दो बहनें अलग ही खेल रही थीं। बड़ी बहन आफत काल में चाचा की बेटी के साथ थी। तो छोटी वाली बूढ़े अगिया बैताल के अगल-बगल चल रही थी, आखिर उस ने भी चाचा की बेटी के कोड़े खाए थे। चुनाव में चार परसेंट की हकदार वह भी हो गई थी। पर वह किसी तरफ न थी। उस ने पूरब और दक्खिन में तीन बड़े खंड हथिया लिए। एक तो ऐसा हथियाया कि सब ने बहुत हाथ पैर मारे पर आज तक छोड्या ही नहीं।
हे, पाठक!
ऐसे मौसम में चौधरी चाचा के हनुमान और मधु बाबू को रोज सुबह मुहँ अँधेरे वायरस पार्टी के नेताओं की निक्कर दिख जाती और वे बैचेन हो भड़क उठते। रोज दिन में झगड़ा करते कि धोती और निक्कर साथ नहीं चलेगी। आखिर ढाई साल गुजरते-गुजरते दोनों वायरस अपने जत्थे समेत अलग हो लिए। उधर चौधरी चाचा ने भी अलग ढपली बजाने का ऐलान कर दिया। गुजराती भाई ने स्तीफा दे चलते बने। बेचारी लट्ठा सरकार असमय ही चल बसी।
हे, पाठक !
एक उल्लेख पहले छोड़ आए थे, अब उस का समय आ गया है। हुआ यूँ कि चाचा की बेटी पर जो संकट आया था उस में अदालत का फैसला भी तात्कालिक कारण था, जिस ने चाचा की बेटी को चुनाव में सरकारी अमले के इस्तेमाल का दोषी करार दिया था। मुकदमा करने वाले थे, चौधरी चाचा के हनुमान। उन्हों ने ही चाचा की बेटी की लंका में आग लगाई थी। पर चाचा की बेटी रावण से भी बड़ी कूटनीतिक निकली। उस ने इस हनुमान के राम को ही कंधा दे कर कुर्सी पर जा बिठाया। चौधरी चाचा की तमन्ना पूरी हुई, जाट खुश हुए। आखिर जाट परधानमन्तरी हुआ। पर चाचा की बेटी ने कुर्सी पर बिठा कर कुर्सी खेंच ली। हाय! नौ माह भी पूरे न हुए, एक बार भी पंचायत न बैठी कि सरकार गिरने की नौबत आ गई। लो फिर चुनाव आ गए।
आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।
हे, पाठक!
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
हे! पाठक,
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
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