@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: महेन्द्र नेह
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बुधवार, 1 मई 2013

हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

मई दिवस 2013 पर गुनगुनाइए साथी महेन्द्र नेह का यह अमर गीत ...



हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ... 
                              - महेन्द्र नेह


म करवट लेते वक्त की जिन्दा गवाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म झुक नहीं सकते किसी तूफान के आगे
हम रुक नहीं सकते किसी चट्टान के आगे
कुर्बानियों की राह के जाँबाज राही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म को नहीं स्वीकार ये धोखे की तकरीरें
हम को नहीं मंजूर ये पाँवों की जंजीरें
हम लूट के ज़ालिम ठिकानों की तबाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

म ने बहुत से जार, कर बेजार छोड़े हैं
हम ने अनेकों हिटलरों के दाँत तोड़े हैं
हम शाहों को मिट्टी चटाती लोकशाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...

ह धार हँसिए की हमे बढ़ना सिखाती है
हम को हथौड़े की पकड़ बढ़ना सिखाती है
हम हर अंधेरे के मुकाबिल कार्यवाही हैं
हम लाल झण्डे के सिपाही हैं ...


रविवार, 28 अगस्त 2011

ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ?

न्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देश भर में जिस तरह का समर्थन प्राप्त हुआ वह अद्भुत था। लेकिन इस के पीछे उन हजारों कार्यकर्ताओं का श्रम भी था, जो गाँव गाँव, नगर नगर और गली गली में सक्रिय थे। ये वे कार्यकर्ता थे जो किसी न किसी रूप में अन्याय का लगातार विरोध करते रहे थे और जिन का एक न्याय संगत व्यवस्था की स्थापना में विश्वास था। महेन्द्र 'नेह' ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। जिन्हों ने न केवल इस आंदोलन में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका अदा की अपितु आंदोलन की कोटा इकाई को नेतृत्व प्रदान करने में प्रमुख रहे। उन के इस सक्रिय योगदान के साथ साथ उन के गीतों ने भी इस आंदोलन के लिए चेतना की मशाल जगाने का काम किया। कल मैं ने उन का एक गीत यहाँ प्रस्तुत किया था जो इन दिनों आंदोलन के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। आज मैं एक और गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गीत चालीस-बयालीस वर्ष पहले रचा गया था। शायद तब जब लोकपाल बिल का विचार सब से पहले पैदा हुआ था। समय समय पर इसे लोकप्रियता मिली और आज इस आंदोलन के बीच फिर से लोकप्रिय हो उठा।


ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ? 
  • महेन्द्र 'नेह'
 
ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ 
भूखों को यहाँ गोलियाँ प्यासों को बर्छियाँ!

है पैसा बड़ा, आदमी छोटा बहुत यहाँ
इन्सान से दस्तूर है खोटा बहुत यहाँ 
मलबा समझती आदमी को ऊँची हस्तियाँ!

मेहनत यहाँ दौलत के शिकंजों में कसी है
जनता यहाँ महंगाई के जबड़ों में फँसी है
बालू के ढेर पर तड़पती जैसे मछलियाँ!

घर-घर से उभरती है  मुफलिसी की कहानी
सड़कों में भटकती है परेशान जवानी
कैंसर से सिसकती हैं यहाँ बीमार बस्तियाँ!

कर्जे के मकाँ में उम्मीदें क़ैद हैं यहाँ 
डण्डा लिए दरोगाजी मुस्तैद हैं यहाँ 
हैं आदमी पे हावी यहाँ खाकी वर्दियाँ!

जनतंत्र नाम का यहाँ गुण्डों का राज है
इन्सानी खूँ के प्यासे दरिन्दों का राज है 
ज़िन्दा चबा रहे हैं आदमी की बोटियाँ!

बदलेंगी उदास ये तारीक फ़िजाएँ
होंगी गरम ये धमनियाँ ये सर्द हवाएँ
लाएंगी रंग एक दिन ये सूखी अँतड़ियाँ!

उट्ठेंगे इस ज़मीन से जाँबाज जलजले
मिट जाएंगे जहान से नफरत के सिलसिले
जीतेगा आदमी जलेंगी मोटी कुर्सियाँ!