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शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मजदूरों के पास लड़ने और मर मिटने के सिवा रास्ता क्या है?

सेमकोर ग्लास लि. और सेमटल कलर लि. के पिक्चर ट्यूब बनाने वाले दो कारखाने कोटा में हैं। पिछली नवम्बर में दोनों कारखानों को चलता छोड़ कर प्रबंधन चलता बना। कारखाना रह गया और मजदूर रह गए। कारखाना बंद हो गया। प्रबंधन ने अनेक दस्तावेजों में खुद यह माना कि कारखाना बंद हो गया है और अब वह नहीं चला सकता। लेकिन कारखाना सरकार से इजाजत लिए बिना बंद करना अपराध है। इस लिए बाद में कारखाना बंद करने की अनुमति के लिए सरकार के पास प्रबंधन ने आवेदन प्रस्तुत किया। मई और जून 2013 में कारखाने को बंद करने की अनुमति मांगी गई। राजस्थान सरकार ने न तो अनुमति दी और न ही इन्कार किया। कुल मिला कर प्रबंधन को अनुमति मिलना मान लिया गया क्यों कि कानून यह है कि यदि राज्य सरकार आवेदन देने के 60 दिन में आवेदन को निरस्त करने का आदेश प्रबंधन को न पहुँचाए तो प्रबंधन को यह मानने का अधिकार है कि उसे कारखाना बंद करने की अनुमति मिल गई है। यानी सरकार ने अनुमति नहीं दी, उस में सरकार को आदेश लिखना पड़ता जिस में कलम घिसती ऊपर से मजदूरों का बुरा बनना पड़ता। इसलिए सरकार चुप हो गयी। अब जबर किसी को मारे और राजा जी चुप रहें इसे राजा जी का अन्याय थोड़े ही कहा जाएगा। अब कारखाने के मालिक खुश हैं और मजदूर साँसत में। 

कारखाने अभी कागज में बंद नहीं है। एक मई में और दूसरा जून में बंद होगा। मजदूरों को अक्टूबर 2012 से वेतन नहीं मिला है। मजदूर खूब आंदोलन कर चुके हैं। उन्हों ने सब किया है। सरकार और प्रशासन कहता है कि वे उन की पूरी मदद करेंगे। लेकिन कोई करता नहीं है। परदे के पीछे से सब मालिक की मदद करने पर उतारू हैं। अब मजदूर न सरकार का पेट भर सकता है और न अफसरों का वह तो केवल कारखाने का मालिक ही भर सकता है। मजदूर पहले मार्च 2013 में पानी की टंकी पर चढ़ गए थे। तब मुख्यमंत्री के आश्वासन पर उतरे थे। आज तक कुछ नहीं हुआ तो आज फिर टंकी पर चढ़े हुए हैं। सरकार ने इस बार कुछ ठान लिया है। टंकी के नीचे जो मजदूर इकट्ठे थे उन्हें पकड़ कर शहर के विभिन्न थानों में बैठा दिया गया है। विपक्षी दल भाजपा की भी इस मामले में वही नीति है जो मौजूदा कांग्रेस सरकार की है। उस ने भी मजदूरों से सहानुभूति दिखाने के सिवा पिछले सात महीने में कुछ नहीं किया, यहाँ तक कि मजदूरों के साथ खड़ा तक न हुआ। उसे अपना राज लाना है। ताकि मौजूदा सरकार के स्थान पर वे मालिकों की चाकरी बजा सकें।  मजदूरों के पास लड़ने और मर मिटने के सिवा रास्ता क्या है?

जदूर जानते हैं कि कारखाने नहीं चलेंगे। वे केवल कारखाना बंद होने की अनुमति जिस दिन के लिए मिली है उस दिन तक का वेतन उन्हें मिले, छंटनी का मुआवजा मिल जाए और उनकी ग्रेच्यूटी व प्रोवीडेण्ट फण्ड का पैसा मिल जाए। ये सब उन के कानूनी अधिकार हैं।  फिर वे जाएँ और कहीं और रोजगार तलाशें। लेकिन मालिक केवल नवम्बर 2013 तक का वेतन देना चाहता है और उसी हिसाब से मुआवाजा आदि। वह भी तब देगा जब मजदूर इस पर  समझैौता कर लें उस के आठ-दस महिने बाद। तब तक मजदूर क्या करें? मालिक जानता है कि कानूनी हक वह न देगा तो मजदूर अदालत जाएंगे जहाँ अगले बीस साल फैसला नहीं होने का। तब तक मजदूर कहाँ बचेंगे। इस लिए कानूनी हक क्यों दिया जाए। सरकार में इतना दम नहीं कि वह मालिक से मजदूरों का हक दिलवा दे। उसे सिर्फ मजदूरों पर लाठी भाँजना, गोली दागना, उन्हें जेल भेजना, दंडित करना आता है वही कर रही है। मजदूर समझ रहे हैं कि अब जब तक निजाम को बदला नहीं जाता। खुद एक राजनैतिक ताकत बन कर इस पर कब्जा नहीं किया जाता तब तक उन्हें न्याय नहीं मिलेगा। वे जानते हैं कि ये रास्ता दुष्कर है लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं। कब तक ऐसे ही पिटते लुटते रहेंगे?

रविवार, 28 अगस्त 2011

ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ?

न्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देश भर में जिस तरह का समर्थन प्राप्त हुआ वह अद्भुत था। लेकिन इस के पीछे उन हजारों कार्यकर्ताओं का श्रम भी था, जो गाँव गाँव, नगर नगर और गली गली में सक्रिय थे। ये वे कार्यकर्ता थे जो किसी न किसी रूप में अन्याय का लगातार विरोध करते रहे थे और जिन का एक न्याय संगत व्यवस्था की स्थापना में विश्वास था। महेन्द्र 'नेह' ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। जिन्हों ने न केवल इस आंदोलन में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका अदा की अपितु आंदोलन की कोटा इकाई को नेतृत्व प्रदान करने में प्रमुख रहे। उन के इस सक्रिय योगदान के साथ साथ उन के गीतों ने भी इस आंदोलन के लिए चेतना की मशाल जगाने का काम किया। कल मैं ने उन का एक गीत यहाँ प्रस्तुत किया था जो इन दिनों आंदोलन के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। आज मैं एक और गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गीत चालीस-बयालीस वर्ष पहले रचा गया था। शायद तब जब लोकपाल बिल का विचार सब से पहले पैदा हुआ था। समय समय पर इसे लोकप्रियता मिली और आज इस आंदोलन के बीच फिर से लोकप्रिय हो उठा।


ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ? 
  • महेन्द्र 'नेह'
 
ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ 
भूखों को यहाँ गोलियाँ प्यासों को बर्छियाँ!

है पैसा बड़ा, आदमी छोटा बहुत यहाँ
इन्सान से दस्तूर है खोटा बहुत यहाँ 
मलबा समझती आदमी को ऊँची हस्तियाँ!

मेहनत यहाँ दौलत के शिकंजों में कसी है
जनता यहाँ महंगाई के जबड़ों में फँसी है
बालू के ढेर पर तड़पती जैसे मछलियाँ!

घर-घर से उभरती है  मुफलिसी की कहानी
सड़कों में भटकती है परेशान जवानी
कैंसर से सिसकती हैं यहाँ बीमार बस्तियाँ!

कर्जे के मकाँ में उम्मीदें क़ैद हैं यहाँ 
डण्डा लिए दरोगाजी मुस्तैद हैं यहाँ 
हैं आदमी पे हावी यहाँ खाकी वर्दियाँ!

जनतंत्र नाम का यहाँ गुण्डों का राज है
इन्सानी खूँ के प्यासे दरिन्दों का राज है 
ज़िन्दा चबा रहे हैं आदमी की बोटियाँ!

बदलेंगी उदास ये तारीक फ़िजाएँ
होंगी गरम ये धमनियाँ ये सर्द हवाएँ
लाएंगी रंग एक दिन ये सूखी अँतड़ियाँ!

उट्ठेंगे इस ज़मीन से जाँबाज जलजले
मिट जाएंगे जहान से नफरत के सिलसिले
जीतेगा आदमी जलेंगी मोटी कुर्सियाँ!
 


शनिवार, 27 अगस्त 2011

सच के ठाठ निराले होंगे

धर अन्ना हजारे बारह दिनों से अनशन पर हैं। दिन में अनेक बार चिकित्सक उन की देह परीक्षा करते हैं। छठे सातवें दिन से ही सरकार इस प्रतीक्षा में थी कि चिकित्सक रिपोर्ट करें तो कुछ अन्ना के साथ लगे लोगों का मनोबल टूटे और सरकार अन्ना जी को अस्पताल पहुँचा दे। लेकिन जब जब भी चिकित्सकों ने उन की परीक्षा की तब तब सरकार को निराश होना पड़ा। वजन जरूर कम हो रहा था। लेकिन शरीर सामान्य था। रक्तचाप सामान्य, गुर्दे सामान्य, उन्हें काम करने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। ऊपर से वे बीच बीच में मंच पर आ कर जिस जोश से नारे लगाते थे। अन्ना इस्पात पुरुष साबित हुए। आज भी उन्हें यह कहते सुना गया कि अभी तीन-चार दिन उन्हें कुछ नहीं होगा। लालू यादव उन के 12 दिनों के अनशन पर रिसर्च कराना चाहते हैं कि उन में ऐसा क्या है जो भोजन का एक अंश भी ग्रहण किए बिना भी 12 दिनों तक सामान्य रह सकते हैं? संसद का प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद जब अन्ना ने घोषणा की कि यह आधी जीत है तो उस के साथ ही उन्हों ने लालू जी की शंका का समाधान भी कर दिया कि यह ब्रह्मचर्य का प्रताप है, इसे वे समझ सकते हैं जिन्हों ने हमेशा स्त्री को माँ, बहिन व बेटी समझा हो। वे तो कदापि नहीं समझ सकते जो अपनी शक्ति बारह संतानों को जन्म देने में व्यय कर देते हैं। 

धी जीत का जश्न देश भर में आरंभ हो चुका है। नगर में पटाखों की आवाजें गूंज रही हैं। 28 अगस्तजश्न का रविवार होगा। सोमवार को जब सब संस्थान खुलेंगे तो वह दिन एक नया दिन होगा। जिन लोगों ने इस आंदोलन को पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ जिया है उन के लिए आने वाले दिन आत्मविश्वास के होंगे। वे कोशिश करेंगे तो इस आत्मविश्वास का उपयोग वे अपने आसपास फैली भ्रष्टाचार की गंदगी को साफ करने में कर सकते हैं। जिन लोगों ने सदाचार को अपने जीवन में आरंभ से अपनाया और जमाने की लय में न चल कर अपने आप को अलग रखते हुए छुटका कद जीते रहे, उन का कद लोगों को बढ़ा हुआ दिखाई देने लगेगा। जो लोग गंदगी में सने हुए धन बल के मोटे तले के जूते पहन कर अपना कद बड़ा कर जीते रहे। कल से अपने जूते कहीं छुपाएंगे। धीमे स्वर में यह भी कहेंगे कि यह सब कुछ दिन की बात है राजनीति उन के रास्ते के बिना चल नहीं सकती, नई बिसात पर काले घोड़े फिर से ढाई घर कूदने लगेंगे। ऐसे लोगों से सावधान रहने और उन्हें किनारे लगाने के काम में लोगों को जुटना होगा। 

हाँ कोटा में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कमान एक नौजवान के हाथों में थी जो कभी गणित का स्कॉलर रहा। एक धनिक परिवार से होते हुए भी अपने मूल्यों से समझौता करना स्वीकार नहीं कर के अपना पारिवारिक कारोबार त्याग कर नौकरी करने चल पड़ा था।  परिवार को उस के मूल्य अपनाने पड़े। अप्रेल से आज तक वही नौजवान अपने साथियों के साथ राजनीति की चालों को दरकिनार करते हुए दृढ़ता से आंदोलन का संचालन करता रहा। हमारे जनकवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने भी इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका अदा की उन के संघर्षों के लंबे अनुभवों का लाभ आंदोलन ने उठाया। एक चिकित्सक 16 अगस्त से ही अनशन पर थे। दो दिन पहले पुलिस मजिस्ट्रेट का आदेश ले कर उन्हें उठाने आई लेकिन उन्हें उन के निश्चय से नहीं डिगा सकी। लेकिन चिकित्सक समुदाय ने उन्हे अगले दिन समुदाय के हितों को ध्यान में रखते हुए अत्यावश्यक चिकित्सा लेने को बाध्य किया। लेकिन आज फिर वे क्रमिक अनशन पर पाण्डाल में उपस्थित थे। महेन्द्र भी आज अनशन पर थे। इस बीच उन के कुछ पुराने गीतों को कार्यकर्ता ले उड़े और उन की हजारों प्रतियाँ बना कर लोगों के बीच वितरित कीं। मैं आज महेन्द्र से मिलने अनशन स्थल पर पहुँचा तो मुझे भी वे गीत छपे पर्चे मिले। उन्हीं में से एक गीत से आप को रूबरू करवा रहा हूँ। यह गीत कोई बारह वर्ष पूर्व लिखा गया था। आज इसे पढ़ कर लगता है कि कवि केवल भूतकाल और वर्तमान की ही पुनर्रचना नहीं करता, वह भविष्यवाणियाँ भी करता है। 
सच के ठाठ निराले होंगे
  • महेन्द्र 'नेह'
सच के ठाठ निराले होंगे
झूठों के मुहँ काले होंगे!

जाने कब धनिया के घर में
सुचमुच ही उजियाले होंगे!

बूढ़ी अम्मा - दादाजी के 
खत्म आँख के जाले होंगे!

आग लगेगी काले धन में
तार-तार घोटाले होंगे!

आने वाले दिन बस्ती में
आफ़त के परकाले होंगे!

सत्ता की संगीनें होंगी
करतब देखे भाले होंगे!

दुबके होंगे कायर घर में
सड़कों पर दिलवाले होंगे!



रविवार, 21 अगस्त 2011

भट्टी में जाने के पहले, ईंट ये गल-बह जाए

त्ताधीश का कारोबार बहुत जंजाली होता है। उसे सदैव भय लगा रहता है कि कहीं सत्ता उस के हाथ से छिन न जाए। इस लिए वह अपने जंजाल को लगातार विस्तार देता रहता है। ठीक मकड़ी की तरह, जो यह सोचती है कि उस ने जो जाल बनाया है वह उसे भोजन भी देगा और रक्षा भी। ऐसा होता भी है। उस के भोज्य जाल में फँस जाते हैं, निकल नहीं पाते और प्राण त्याग देते हैं। तब मकड़ी उन्हें आराम से चट करती रहती है। लेकिन मकड़ी के जाल की अपनी सीमा है। जिस दिन बारिश से सामना होता है, जाल भी बह जाता है और साथ ही मकड़ी भी। बारिश न भी हो तो भी एक दिन मकड़ी का बनाया जाल इतना विस्तृत हो जाता है कि वह खुद ही उस से बाहर नहीं निकल पाती, उस का बनाया जाल ही उस के प्राण ले लेता है। 


ब देश में सत्ता किस की है? यह बहुत ही विकट प्रश्न है। किताबों में बताती हैं कि सत्ता देश की जनता की है। आखिर इकसठ साल पहले लिखे गए संविधान के पहले पन्ने पर यही लिखा था "हम भारत के लोग ...." लेकिन जब जनता अपनी ओर देखती है तो खुद को निरीह पाती है। कोई है जो केरोसीन, पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ा देता है, फिर सारी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। जनता है कि टुकर-टुकुर देखती रहती है। समझ आने लगता है कि सत्ता की डोरी उन के आसपास भी नहीं है। सत्ता को सरकार चलाती है। हम समझते हैं कि सरकार की सत्ता है। जनता सरकार को कहती है कानून बनाने के लिए तो सरकार संसद का रास्ता दिखाती है। हम समझते हैं कि संसद की सत्ता है। सरकार कहती है संसद सर्वोच्च है तो संविधान का हवाला दे कोई कह देता है कि संसद नहीं जनता सर्वोच्च है। संसद को, सरकार को जनता चुनती है। जनता मालिक है और संसद और सरकार उस के नौकर हैं। 

जरीए संविधान, यह सच लगता है कि जनता देश की मालिक है। यह भी समझ आता है कि संसद और सरकार उस के नौकर हैं। लेकिन ये कैसे नौकर हैं। तनख्वाह तो जनता से लेते हैं और गाते-बजाते हैं पैसे रुपए (पैसा तो अब रहा ही कहाँ)  वालों के लिए, जमीन वालों के लिए। तब पता लगता है कि सत्ता तो रुपयों की है, जमीन की है। जिस का उस पर कब्जा है उस की है। बड़ा भ्रष्टाचार है जी, तनखा हम से और गीत रुपए-जमीन वालों के। इन गाने वालों को सजा मिलनी चाहिए। पर सजा तो कानून से ही दी जा सकती है, वह है ही नहीं। जनता कहती है -कानून बनाओ, वे कहते हैं -बनाएंगे। जनता कहती है -अभी बनाओ। तो वे हँसते है, हा! हा! हा! कानून कोई ऐसे बनता है? कानून  बनता है संसद में। पहले कच्चा बनता है, फिर संसद में दिखाया जाता है, फिर खड़ी पंचायत उसे जाँचती परखती है, लोगों को दिखाती है, राय लेती है। जब कच्चा, अच्छे से बन जाता तब  जा कर संसद के भट्टे में पकाती है। गोया कानून न हुआ, मिट्टी की ईंट हुई।  जनता कहती है अच्छे वाली कच्ची ईंट हमारे पास है, तुम इसे संसद की भट्टी में पका कर दे दो। वे कहते हैं -ऐसे कैसे पका दें? हम तो अपने कायदे से पकाएंगे। फिर आप की ईंट कैसे पका दें? हमें लोगों ने चुना है हम हमारी पकाएंगे और जब मरजी आएगी पकाएंगे। देखते नहीं भट्टे में ऐसी वैसी ईँट नहीं पक सकती। कायदे से बनी हुई पकती है। 42 साल हो गए हमें अच्छी-कच्ची बनाते। भट्टे में पक जाए ऐसी अब तक नहीं बनी। अब तुरत से कैसे बनेगी? कैसे पकेगी?


 सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो। मुखौटा मनमोहक होता है, ऐसा कि जनता समझती रहे कि सत्ता उसी की है। उसे मनमोहन मिल भी जाते हैं। वे पाँच-सात बरस तक जनता का मन भी मोहते रहते हैं। जब सत्ता संकट में फँसती है तो संकट-हरन की भूमिका भी निभाते हैं। वे कहते हैं -हम ईंट पकाने के मामले पर बातचीत को तैयार हैं, उस के लिए दरवाजे हमेशा खुले हैं।  लेकिन हम सर्वसम्मति से बनाएंगे। सर्व में राजा भी शामिल हैं और कलमाड़ी भी। उन की बदकिस्मती कि वे तो जेल में बंद हैं। बहुत से वे भी हैं, जो खुशकिस्मत हैं और जेल से बाहर हैं। उन सब की सम्मति कैसे होगी? मनमोहन मन मोहना चाहते हैं। तब तक जब तक कि बारिश न आ जाए।  ये जनता जिस ईंट को पकवाना चाहती है वह बारिश के पानी में गल कर बह न जाए।  वे गा रहे हैं रेन डांस का गाना ....

इन्दर राजा पानी दो
इत्ता इत्ता पानी दो 

मोटी मोटी बूंदो वाली
तगड़ी सी बारिश आए
भट्टी में जाने के पहले 
ईंट ये गल-बह जाए



शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सर्वोच्च संसद, आंदोलन और संकल्प

संसद सर्वोच्च है। पर कौन सी संसद? जिसे जनता को चुन कर भेजे। मौजूदा संसद को क्या जनता ने चुना है? क्या जनता के पास अपनी पसंद का सांसद चुनने का अधिकार था? अब सांसद चुने जाने के लिए कम से कम दस करोड़ रूपया चाहिए। ये दस करोड़ कहाँ से आता है?  दस करोड़ की रस्सी का एक सिरा सांसद के गले में बंधा है ओर दूसरा दस करोड़ के स्रोत पर। चुने जाने के पहले सांसद की प्रतिबद्धता निश्चित हो जाती है। जिस संसद के सांसदों की प्रतिबद्धताएँ दस करोड़ की रस्सी से बंधी हों वह सर्वोच्च कैसे हो सकती है? सर्वोच्च तो वे हैं जिन के हाथों में ये रस्सियाँ बंधी हैं। चुने जाने के बाद कोई इस रस्सी को तुड़ाना चाहे तो करोड़ों वाली एक-दो रस्सियाँ और बांध दी जाती हैं। संसद का चुनाव होता है, तो लगता है जैसे 'पेट मंकी शो' हो रहा हो। बंदरों की सजावट और करतब देख कर चुनना हो कि किस के बंदर को चुनना है? अब बंदर संसद में बैठ कर तो यही बोलेगा कि संसद सर्वोच्च है। जोकर के लिए सर्कस सर्वोच्च है। वही उस का जीवन है। सर्वोच्च संसद का तर्क बहुत जोरों से दिया जा रहा है। कुछ लोगों को वह प्रभावित भी करता है। बंदरों को सिखाया-पढ़ाया याद रहता है। संसद का अस्तित्व संविधान से है। बंदरों ने संविधान की पहली पंक्ति को या तो कभी पढ़ा ही नहीं, पढ़ा होगा तो वे भूल गए  कि वहाँ लिखा है "हम भारत के लोग ....... आत्मार्पित करते हैं।"
खैर, आने वाले दिन तय करेंगे कि संसद सर्वोच्च है या संविधान के निर्माता। अन्ना के अनशन को तीन दिन हो चुके हैं। दिल्ली के बीच हो कर गुजर रही यमुना में कितना ही पानी बह कर जा चुका है। 16 अगस्त को कोटा की कलेक्ट्रेट पर धरना था। बहुत वकील भी वहाँ पहुँचे थे। उन्हों ने जोर शोर से नारे लगाए। उन्हें देख मुझे हँसी छूट रही थी। उन में अधिकांश ऐसे थे जिन्हें अपना काम कराने के लिए अदालतों के बाबुओँ और चपरासियों को धन देते देखा था। उन में से एक मुखर वकील से मैंने एक तरफ बुला कर कहा -आज संकल्प यहाँ आए वकीलों को संकल्प लेना चाहिए कि वे किसी को रिश्वत नहीं देंगे। उस का कहना था कि ये संभव नहीं है। हम तो काम ही न कर पाएंगे। मैं ने कहा -फिर तुम्हारा यहाँ आना बेकार है। कल कलेक्ट्री पर कोई धरना नहीं था। हाँ प्रदर्शन दिन भर होते रहे। वकीलों के बीच प्रस्ताव आया था कि जन लोकपाल के बिल व अन्ना के समर्थन में हड़ताल रखी जानी चाहिए। लेकिन कार्यकारिणी ने उसे ठुकरा दिया। तीन दिन का अवकाश आरंभ होने के एक दिन पहले किसी कारण से काम बंद रहा था। 16 अगस्त को उच्च न्यायालय  की भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश के देहांत के कारण काम बन्द रहा था।  पाँच दिनों से अदालतों में काम नहीं हो सका था। बहुत से आवश्यक काम रुके पड़े थे। कम से कम एक दिन में आवश्यक काम तो निपटा लिए जाएँ। लेकिन दोपहर भोजनावकाश के समय अचानक ढोल बजा, वकीलों को जलूस के लिए एकत्र किया जाने लगा। मुझे भी बुलाया गया। मैंने जाने से इन्कार कर दिया। आप लोग संकल्प लेने को तैयार हों तो ही साथ चल सकता हूँ।
अन्ना -आंदोलन के समर्थन में कोटा के वकीलों की रैली
धे घंटे में जलूस निपट लिया। मैं ने एकत्र वकीलों के बीच कहा कि कम से कम पाँच वकील तो संकल्प में मेरा साथ दे सकते हैं? कम से कम वे तो साथ दे ही सकते हैं जिन्हों ने कभी रिश्वत नहीं दी। मुझे पता था कि कोटा में कभी रिश्वत न देने वाले लोगों की संख्या इस से अधिक ही है। मैं ने उन्हें कोटा के ही श्रम न्यायालय का उदाहरण दे कर प्रश्न किया कि जब हम उस अदालत को 32 वर्षों तक रिश्वत विहीन बनाए रख सकते हैं तो बाकी अदालतों को क्यों नहीं ऐसा बना सकते? अभिभाषक परिषद कोटा के अध्यक्ष राजेश शर्मा और बार कौंसिल के सदस्य महेश गुप्ता ने मेरा साथ दिया। कम से कम हम तीन वहाँ थे जिन का अनुभव था कि बिना किसी तरह की रिश्वत दिए भी सफलता पूर्वक आजीवन वकालत का पेशा किया जा सकता है। आखिर तय हुआ कि कल काम बंद भी रखेंगे और संकल्प भी लेंगे। आज अदालत के चौक में सभा हुई और उपस्थित वकीलों, वकीलों के लिपिकों और टंकणकर्ताओं ने शपथ ली कि वे जीवन में कभी रिश्वत न देंगे, न किसी को रिश्वत देने के लिए प्रोत्साहित करेंग और अन्य लोगों को प्रोत्साहित करेंगे कि वे भी रिश्वत न दें।

हो सकता है संकल्प लेने वाले लोगों में से बहुत से इस संकल्प का पालन न करें। लेकिन कम से कम इतना तो हुआ कि लोग उन से पूछेंगे कि आप ने सार्वजनिक रूप से संकल्प लिया था, उस का क्या हुआ? मुझे तो बहुत दिनों से पक्का यक़ीन है कि हम तीन व्यक्ति भी मुखर हो जाएँ तो लोग हमारा अनुसरण करेंगे। कम से कम कोटा की अदालतों को भ्रष्टाचार मुक्त बना सकते हैं। बस इस आरंभ का अवसर नहीं मिल रहा था। धन्यवाद! अन्ना आप ने यह अवसर प्रदान किया।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अवसर को निजि हित में इस्तेमाल करने वालों से बचे

भ्रष्टाचार विरोधी जन अभियान की आँच देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। ऐसे में मेरा नगर कोटा कैसे चुप रह सकता था। यहाँ भी गतिविधियाँ आरंभ हो गई हैं। गतिविधियों की एक रपट अख्तर खान अकेला ने अपने ब्लाग पर यहाँ प्रस्तुत की है। कल शाम बहुत से गैर राजनैतिक संगठनों के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाई गई है। उस में कोटा में इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने की योजना पर विचार होगा। इस बैठक में उपस्थित रहने का मेरा पूरा प्रयास रहेगा।
ज कोटा न्यायालय में भी इस आंदोलन की सुगबुगाहट रही। वकील आपस में बातें करते रहे कि उन्हें भी इस मामले में कुछ करना चाहिए। किसी ने कहा कि कल वकीलों को न्यायिक कार्य का बहिष्कार कर धरने पर बैठ जाना चाहिए। कुछ देर बाद दो वकील एक आवेदन पर वकीलों के हस्ताक्षर कराते दिखाई दिए। हर स्थान पर वकीलों का एक वर्ग होता है जो  इस तरह के मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें मुकदमे का निर्णय न होने में अधिक लाभ होता है। ये दीवानी मामलों के वे पक्षकार होते हैं जिन के विरुद्ध न्यायालय से राहत मांगी गई होती है। या फिर वे अभियुक्त होते हैं जिन्हें सजा का भय सताता रहता है और मुकदमे के निर्णय को टालते रहते हैं। यह वर्ग हमेशा इस तलाश में रहता है कि कोई मुद्दा मिले और वे न्यायिक कार्य का बहिष्कार (वकीलों की हड़ताल) कराएँ। वकीलों की हड़ताल कभी दो-चार लोगों या वकीलों के एक समूह के आव्हान पर नहीं होती। वह हमेशा अभिभाषक परिषद के निर्णय पर होती है। ये दोनों वकील अभिभाषक परिषद को कल की हड़ताल रखने के लिए परिषद को दिए जाने वाले ज्ञापन पर वकीलों के हस्ताक्षर प्राप्त करने का अभियान चला रहे थे।
वे मेरे पास भी आए। मैं ने आवेदन पढ़ा और उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। उन्हों ने पूछा -आप अण्णा के आंदोलन का समर्थन करते हैं?  मैं ने कहा -हाँ। -तो फिर आप को इस आवेदन पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। मैंने उन्हें कहा कि अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते, आप अण्णा की शुचिता के विरुद्ध काम कर रहे हैं। आप को अण्णा के आंदोलन का समर्थन करना है तो अभिभाषक परिषद की आम-सभा बुलवाइए और उस में संकल्प लीजिए कि कोई भी वकील और उस का मुंशी अदालत के किसी भी क्लर्क, चपरासी, न्यायाधीश, सरकारी अभियोजक और पुलिसकर्मी को जीवन में कभी कोई रिश्वत नहीं देगा। यदि किसी वकील या उस के मुंशी का ऐसा करना प्रमाणित हुआ तो उसे त्वरित कार्यवाही कर के अभिभाषक परिषद की सदस्यता से जीवन भर के लिए निष्कासित कर दिया जाएगा और बार कौंसिल को यह सिफारिश की जाएगी कि वह उस का वकालत करने का अधिकार सदैव के लिए समाप्त कर दे। इतना सुनने पर दोनों वकील अपना आवेदन ले कर आगे बढ़ गए।
मैं जानता था कि यदि सौ लोगों से हस्ताक्षर युक्त आवेदन भी अभिभाषक परिषद के पास पहुँचा तो कार्यकारिणी दिन भर के न्यायिक कार्य के बहिष्कार की घोषणा कर देगी। मैं तुरंत अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष के पास पहुँचा और उन्हें एक लिखित पत्र दिया, कि कुछ लोग अण्णा के आन्दोलन का समर्थन करने के बहाने आप से कल न्यायिक कार्य स्थगित करने का निर्णय लेने के लिए वकीलों से हस्ताक्षर करवा रहे हैं। आवेदन कुछ ही देर में आप तक पहुँचेगा। किन्तु अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते। यदि अभिभाषक परिषद इस आंदोलन का समर्थन करती है तो सब से पहले उस के प्रत्येक सदस्य को यह संकल्प करना होगा कि वह स्वयं को आजीवन भ्रष्टाचार से मुक्त होने की घोषणा करे। इस के बाद ही इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा हो और कामबंदी  बिलकुल न की जाए।
शाम को अभिभाषक परिषद की कार्यकारिणी की बैठक हुई। मैं ने अभी परिषद के अध्यक्ष को फोन पर पूछा कि क्या  निर्णय लिया गया? तो उन्हों ने बताया कि केवल दोपहर 12 बजे से 2 बजे तक न्यायिक कार्य को स्थगित किया जाएगा और सभी अभिभाषक इस अवधि में धरने पर उपस्थित हो कर अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करेंगे। उन्हों ने बताया कि मेरे पत्र पर विचार किया गया था। लेकिन इस सम्बन्ध में आम राय होने पर ही कोई प्रस्ताव लिया जाना संभव है। 
मेरा अपना मत है कि जो व्यक्ति स्वयं भ्रष्टाचार से दूर रहने का संकल्प नहीं करता है उसे इस आंदोलन का समर्थन करने और उस में शामिल होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे लोगों के समर्थन और आंदोलन में  शिरकत से आंदोलन को मजबूती नहीं मिलेगी। ऐसे लोग आंदोलन को कमजोर ही कर सकते हैं। आम लोगों में हर घटना, हर अवसर को अपने निजि स्वार्थ के लिए उपयोग कर लेने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन इस आंदोलन की सफलता इसी बात पर निर्भर करेगी कि वह ऐसी प्रवृत्ति पर काबू करने की समुचित व्यवस्था बनाए रखी जाए। हमारे यहाँ व्यवस्था गिराऊ आंदोलन सफलता प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन एक व्यवस्था के गिरने पर कोई भी देश किसी निर्वात में नहीं जी सकता। उसे एक वैकल्पिक व्यवस्था दिया जाना आवश्यक है। यदि मजूबत वैकल्पिक व्यवस्था न मिले तो जिन प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए विजय प्राप्त की जाती है वे ही फिर से हावी हो कर नई व्यवस्था को पहले से अधिक प्रदूषित कर देती हैं।