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बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

खुली कलई, निकला पीतल

सुमल सिरुमलानी एक साधारण आदमी। काम-धंधे की तलाश, अपराधिक गतिविधियों और अध्यात्म के अभ्यास के बीच उसे जीवन का रास्ता मिल गया। सीधे-सादे, भोले-लोग अपने जीवन के कष्टों के बीच सहज ही साधु-संत टाइप के लोगों पर विश्वास करने लगते हैं कि शायद वे उन के जीवन में कुछ सुख और आनन्द की सृष्टि कर दें, और नहीं तो कम से कम परलोक ही सुधार दें। इसके लिए वे अपना थोड़ा बहुत से ले कर सब कुछ तक समर्पित सकते हैं। उसने अध्यात्म, औषध, योग, संगीत, नृत्य, पुराण आदि आदि... सब को मिला कर घोल बनाया। भक्ति का उद्योग चल निकला, उसके उत्पादन की बाजार में मांग हो गई।

सुमल के आसाराम में रूपान्तरण से उत्पन्न उस का यह उद्योग-व्यापार अच्छा चला तो साधारण आदमी की इच्छाएं जोर मारने लगीं। सबको पूरा करने का साधन जो जुट गया था। अब वह कुछ भी कर सकता था। कोई व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता उस के समकक्ष नहीं रहा, वह उन सबसे ऊपर उठ गया। खुद को भगवान के समझने लगा। शायद यह भी समझने लगा हो कि जिन्हें लोगों ने अब तक भगवान समझा है वे भी ऐसे ही बने हों। वह साधारण से विशिष्ट होते-होते खुद को समष्टि समझने लगा। ऊपर उठा तो खुद को विष्णु समझा तो पत्नी लक्ष्मी हो गई, बेटा नारायण साईं और बेटी भारती। सब के सब... सब से ऊपर। लोग, समाज, कानून, राज्य, पुलिस, अदालत, जेल... सब से ऊपर।




र जो ऊपर होते हैं वे ऊपरवालों जैसा व्यवहार भी करते हैं। वह जब भी फंसता तब ऊपराई से काम चलाता लोग झांसे में आ जाते। लेकिन इस बार फंसा तो यह हथियार न चला, पुलिस ने बुलाया तो अपनी ऊपराई से काम चलाने की कोशिश की वह काम न आई तो डर गया। बचने की कोशिश की तो लोगो को फांसने को बनाए गए खुद के जाल में फंसता चला गया। पीछे बचे परिवार ने बचाने की कोशिश की तो वे भी अपनी ऊपराई छोड़ कर साधारण हो गए। कलई खुली तो पीतल नजर आने लगी। उबलती चाशनी में दूध पड़ गया, शक्कर का मैल अपने आप ऊपर आने लगा।

खुद को ऊपर समझने और ऊपराई दिखाने वाले जब साधारण होते हैं तो साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं। जब बाकी तीनों के खिलाफ पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली है और उनसे पूछताछ का सिलसिला शुरू हुआ है तो वे तीनों भी गायब हैं। मूर्ख, ये भी नहीं जानते कि वे कहीं नहीं बचेंगे। आखिर हाथ पड़ ही जाएंगे। वे चाहते तो सीधे पुलिस के पास जा कर कह सकते थे कि जो पूछना है पूछ लो, जो करना है कर लो। हम सच्चे हैं। ईसा ने बादशाह के फैसले से भागने की कोशिश नहीं की थी, फांसी पर चढ़ गया। तब ईसा के अनुयाइयों की संख्या आसाराम के अनुयाइयों के लाखवें हिस्से से भी कम रही होगी। लेकिन आज इक्कीस शताब्दियों के बाद भी वह दुनिया में करोड़ों लोगों का आदर्श है। पर जो सच्चे नहीं हैं, वे कैसे फांसी या जेल की राह का सामना कर सकते हैं? उनमें तो दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधी हिटलर जैसा भी साहस नहीं कि जब अपराधों की सजा मिलने की स्थिति बने तो खुद का जीवन समाप्त कर लें।

रविवार, 24 जून 2012

किसान और आम जनता की क्रय शक्ति की किसे चिंता है?


किसी भी विकासशील देश का लक्ष्य होना चाहिए कि वह जितनी जल्दी हो सके विकसित हो, उस की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो। लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी है कि यह विकास किस के लिए हो? किसी भी देश की जनता के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य व चिकित्सा तथा शिक्षा प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। विकास की मंजिलें चढ़ने के साथ साथ यह देखना भी आवश्यक है कि इन सब की स्थितियाँ देश में कैसी हैं? वे भी विकास की ओर जा रही हैं या नहीं? और विकास की ओर जा रही हैं तो फिर उन के विकास की दिशा क्या है?

भोजन की देश में हालत यह है कि हम अनाज प्रचुर मात्रा में उत्पन्न कर रहे हैं।  जब जब भी अनाज की फसल कट कर मंडियों में आती है तो मंडियों को जाने वाले मार्ग जाम हो जाते हैं।  किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कई कई दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है।  इस के बाद भी जिस भाव पर उन की फसलें बिकतीं हैं वे किसानों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं हैं।  अनाज की बिक्री की प्रतीक्षा के बीच ही बरसात आ कर उन की उपज को खराब कर जाती है।  सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर अनाज की खरीद करती है। लेकिन अनाज खरीदने वाले अफसर अनाज की खरीद पर रिश्वत मांगते हैं।  मंडी के मूल्य और सरकारी खरीद मूल्य में इतना अंतर है कि मध्यम व्यापारी किसानों की जरूरत का लाभ उठा कर उन से औने-पौने दामों पर अनाज खरीद कर उसे ही अफसरों को रिश्वत दे कर सरकारी खरीद केंद्र पर विक्रय कर देते हैं।  दूसरी और किसान अपने अनाज को बेचने के लिए अपने ट्रेक्टर लाइन में खड़ा कर दिनों इंतजार करता रहता है।  उसे कभी सुनने को मिलता है कि बारदाना नहीं है आने पर तुलाई होगी, तो कभी कोई अन्य बहाना सुनने को मिल जाता है।  एक किसान कई दिन तक ट्रेक्टर ले कर सरकारी खरीद में अनाज को बेचने के लिए खड़ा रहा।  उस ने रिश्वत दे कर भी अपना माल बेचने की जुगाड़ लगाने की कोशिश की लेकिन अनाज बेचने के पहले उस के पास रिश्वत देने को धन कहाँ?  तो वह हिसाब भी न बना।  आसमान पर मंडराते बादलों ने उस की हिम्मत को तोड़ दिया और वह सस्ते में अपना माल व्यापारी को बेच कर गाँव रवाना हुआ।  उसे क्या मिला?  बीज, खाद, सिंचाई, पेस्टीसाइड और मजदूरी का खर्च निकालने के बाद इतना भी नहीं कि जो श्रम उस ने उस फसल की बुआई करने से ले कर उसे बेचने तक किया वह न्यूनतम मजदूरी के स्तर तक पहुँच जाए।

सल बेच कर किसान घर लौटा है। अब अगली फसल की तैयारी है। बुआई के साथ ही खाद चाहिए, पेस्टीसाइड्स चाहिए।  लेकिन जब वह खाद खरीदने पहुँचता है तो पता लगता है उस के मूल्य में प्रति बैग 100 से 150 रुपए तक  की वृद्धि हो चुकी है।  उसे अपनी जमीन परती नहीं रखनी।  उसे फसल बोनी है तो खाद और बीज तो खरीदने होंगे।  वह मूल्य दे कर खरीदना चाहता है लेकिन तभी सरकारी फरमान आ जाता है कि खाद पर्याप्त मात्रा में नहीं है इस कारण किसानों को सीमित मात्रा में मिलेगा।

किसान को खेती के लिए खाद, बीज, बिजली, डीजल और आवश्यकता पड़ने पर मजदूर की जरूरत होती है।   इन सब के मूल्यों में प्रत्येक वर्ष वृद्धि हो रही है, खेती का खर्च हर साल बढ़ता जा रहा है लेकिन उस की उपज? जब वह उसे बेचने के लिए निकलता है तो उस के दाम उसे पूरे नहीं मिलते।   नतीजा साफ है, किसानों की क्रय क्षमता घट रही है। पैसा खाद, बीज पेस्टीसाइडस् बनाने वाली कंपनियों और रिश्वतखोर अफसरों की जेब में जा रहा है।

देश की 65-70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है जिस की आय में वृद्धि होने के स्थान पर वह घट रही है।  उस की खरीद क्षमता घट रही है।  वह रोजमर्रा की जरूरतों भोजन, वस्त्र, चिकित्सा और स्वास्थ्य तथा शिक्षा पर उतना खर्च नहीं कर पा रहा है जितना उसे खर्च करना चाहिए। उस से हमारे उन उद्योगों का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है जो किसानों की खरीद पर निर्भर है।  उन का बाजार सिकुड़ रहा है।

देश की सरकार आर्थिक संकट के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को बाजार की सिकुड़न के लिए जिम्मेदार बता कर किनारा करती नजर आती है।   देश के काबिल अर्थ मंत्री को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। लेकिन इस बात की चिंता किसी राजनैतिक दल को नहीं है कि देश की इस 65-70 प्रतिशत आबादी की क्रय क्षमता को किस तरह बनाए ही नहीं रखा जाए, अपितु उसे विकसित कैसे किया जाए।   देश के उद्योंगों का विकास और देश की अर्थ व्यवस्था इसी आबादी की खरीद क्षमता पर निर्भर करती है।   कोई राजनैतिक दल इस समय इस के लिए चिंतित दिखाई नहीं देता।   इस समय राजनैतिक दलों को केवल एक चिंता है कि क्या तिकड़म की जाए कि जनता के वोट मिल जाएँ और किसी तरह सत्ता में अपनी अच्छी हिस्सेदारी तय की जा सके।