@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: रात इतनी भी नहीं है सियाह

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

रात इतनी भी नहीं है सियाह

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता ...

 'कविता'
रात इतनी भी नहीं है सियाह 
                                     शिवराम




चंद्रमा की अनुपस्थिति के बावजूद
और बावजूद आसमान साफ नहीं होने के
रात इतनी भी नहीं है सियाह
कि राह ही नहीं सूझे

यहाँ-वहाँ आकाश में अभी भी
टिमटिमाते हैं तारे
और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है 
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर! 
उत्तर इधर है


न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो 
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों 
लहराती मशालें


हमारे कदम हों 
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।

 

 

14 टिप्‍पणियां:

siddheshwar singh ने कहा…

*
निश्चित रूप से रात इतनी सियाह नहीं !

**
ये वही शिवराम हैं न नाटककार?

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया रचना प्रेषित की है।आभार।

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

आदरणीय
दिनेशराय द्विवेदी जी
सादर अभिवन्दन.
अपनी रचनाएँ और अपना साहित्य प्रदर्शन तो सभी करते हैं, परंतु विरले होते हैं कि जो दूसरों के उत्कृष्ट साहित्य को सम्मान देते हुए उसे समाज के समक्ष लाते हैं.
आप ने श्री शिव राम जी कि सुंदर और आशावादी रचना से हमें भी आशान्वित किया . उन्हें तो हमारी ढेर सारी बधाई तो आप प्रेषित करें ही, आप भी हमारा आभार स्वीकरें--- इस नेक कार्य के लिए.
कुछ हृदय स्पर्शी पंक्तियाँ :-


जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों
लहराती मशालें


हमारे कदम हों
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।

अच्छी लगीं.

- विजय

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हमारे कदम हों
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।
साधुवाद.

Udan Tashtari ने कहा…

आनन्द आया शिवराम जी को पढ़कर हमेशा की तरह!!

अजय कुमार झा ने कहा…

सर शिवराम जी कविता तो अद्भुत लगी ..एक दम हटके ..विशेष ..मजा आ गया ॥

उम्मतें ने कहा…

अच्छी कविता

निर्मला कपिला ने कहा…

न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों
लहराती मशालें
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है श्री शिवराम जी को बधाई और आपका भी धन्यवाद इतनी सुन्दर रचना पढवाने के लिये।

Himanshu Pandey ने कहा…

"और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर!
उत्तर इधर है.."

प्रेरणा भरती पंक्तियाँ । मैं मूक हूँ । चला पड़ा हूँ ।

Khushdeep Sehgal ने कहा…

द्विवेदी सर,
कितना अच्छा हो ब्लॉगिंग को लोकाचारी बनाने के लिए सभी ब्लॉगर इस कविता को आत्मसात कर लें...एक-दूसरे की टांग खिंचाई बंद कर टीम की तरह आगे बढ़ें...

जय हिंद...

vandana gupta ने कहा…

dwivedi ji aapko aur shivram ji ko hardik badhayi itni sundar aur hridaysparshi kavita padhwane ke liye..........aabhar.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

जय आशावाद!
बाकी मशाल रोशनी के हेतु हो, राख करने को नहीं!

शरद कोकास ने कहा…

शिवराम जी की कविताओं में देशज शब्दों का प्रयोग बहुत अच्छा लगता है ।

विष्णु बैरागी ने कहा…

ऐसी कविताऍं निराश होने से बचाती हैं।