@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 1 अगस्त 2011

भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?

र्वत्र लूट मची है। जिसे जहाँ अवसर मिल रहा है लूट रहा है। कोई लूट नहीं पा रहा है तो खसोट ही रहा है। बहुत सारे ऐसे भी हैं, जो न लूट पा रहे हैं और न खसोट पा रहे हैं। उन में से कुछ मसोस रहे हैं, अपने मन को कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें इस बात का संतोष है कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे इस से बचने के प्रयत्न में शामिल हैं और दुःखी हैं कि वे बच नहीं पा रहे हैं। इन दुःखी लोगों में से बहुत से ऐसे भी हैं जो इसके विरुद्ध लड़ाई के ख्वाब देखते हैं लेकिन सपना तो सपना है वह अक्सर सच नहीं होता। उसे सच करने के लिए पहले बहुत से ऐसे ही सपना देखने वालों को इकट्ठा करना पड़ता है। काम बहुत मेहनत का है, इसलिए सपने को सपना रहने देते हैं। सपना देखना क्या बुरा है, नींद में देखो या फिर जागते कुछ तो राहत देता ही है। कुछ ऐसे भी हैं जो इस सपने को सच करने के लिए जुट पड़ते हैं। बहुत हैं जो अपनी-अपनी जगह जुटे पड़े हैं, इस विश्वास से कि  कभी तो यह लड़ाई परवान चढ़ेगी, इस लूट खसोट से मुक्ति मिलेगी। 

ब जानते हैं, हमारा तंत्र पूंजीवादी है। पूंजीपति इस के स्वामी हैं, वे महान हैं, उन्हों ने सामंती तानाशाही से लड़ाई लड़ी और जनतंत्र लाए। लोगों को वोट डालने का अधिकार मिला। लोग खुश हैं कि वे वोट डालते हैं और सरकार चुनते हैं, भले ही उन्हें चुनने के लिए वही भले लोग मिलते हैं जो लूट-खसोट में सब से आगे हैं। पर इस से क्या जनतंत्र तो है, वोट तो है, कोसने की आजादी तो है, कोसने से काम नहीं चलता तो गालियाँ देने की आजादी तो है और चाहिए भी क्या, दो जून की रोटी वह तो इस देश में किसी के द्वारे हाथ फैलाने से मिल जाती है। यदि साधारण तरीके से न मिले तो कुछ तरकीब अपनाई जा सकती है। कटोरे में सोमवारी या मंगलवारी देवी-देवता की तस्वीर रख कर मांगी जा सकती है। और रिफाइंड तरीका भी है, आप किसी रंग के कपड़े पहनें गले में कुछ मनकों वाली माला डालें फिर दो जून के भोजन का इंतजाम हो ही जाएगा। किसी जमीन पर कब्जा कर वहाँ कोई मूर्ति या मजार बना डालें, फिर तो मौज है। कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। लोग खुद चल के आएंगे, न केवल दो जून की रोटी की व्यवस्था करेंगे बल्कि साथ में धुआँ उड़ाने और पिन्नक में पड़े रहने का इंतजाम भी कर देंगे। और भी अनेक मार्ग हैं, आप सब जानते हैं। 

हुत से लोगों को ये रास्ता पसंद नहीं। वे दो जून की रोटी नहीं मांगते, वे काम मांगते हैं। काम मिल जाता है तो न्यूनतम मजदूरी मांगते हैं। न्यूनतम मजदूरी मिल जाती है तो जीने लायक वेतन मांगते हैं, वह भी मिल जाता है तो महंगाई का भत्ता मांगते हैं। उस के बाद न जाने क्या क्या मांगते हैं। ये लोग भी सपने देखते हैं और उन के लिए लड़ते भी हैं। जो काम देता है, सब से पहले उसी से लड़ते हैं। उन्हें सपने के रास्ते में सब से पहले वही दिखता है। जब लड़ते हैं तो रास्ते में पुलिस आती है, सरकारी अफसर आते हैं, नेता आते हैं। वे इन सब से लड़ नहीं पाते लड़ाई हार जाते हैं। सपने भूल जाते हैं, फिर काम करने लगते हैं। लेकिन सपने तो सपने हैं फिर आने लगते हैं। वे फिर इकट्ठे होते हैं, फिर लड़ते हैं। इस बार उन की लड़ाई कुछ बेहतर होती है। वे कुछ हासिल करते हैं, लेकिन कानून सामने आ जाता है, वे लड़ाई हार जाते हैं।  कानून से कैसे लड़ें? कानून तो चुने हुए लोग बनाते हैं जिन्हें वे ही चुनते हैं। वे दूसरे लोग चुनना चाहते हैं जो उन के लिए कानून बनाएँ। वे कोशिश करते हैं, कुछ को बदल भी लेते हैं। पर जिन्हें बदलते हैं, वे उन का साथ नहीं देते। चुने जाने पर, चुने हुए लोग बदल जाते हैं। वे भी वैसे ही हो जाते हैं जैसे बदले जाने के पहले वाले थे। 

ब वे सोचने लगते हैं, चुनाव से क्या फायदा, वे अब वोट डालने नहीं जाते। उन में से कुछ को मनाया जाता है, कुछ को कुछ ले-दे कर, कुछ को खिला-पिला कर पटाया जाता है। उन में से कई वोट डालने चले जाते हैं। वोट डालते हैं, और पछताते हैं। कई वोट डालने नहीं जाते। लगातार सपने देखते हैं, आपस में मिलते हैं, इकट्ठा होते हैं, वोट का तोड़ ढूंढते हैं। आप ने कहीं देखा है ऐसे लोगों को? हो सकता है आप ने उन्हें देखा हो, या हो सकता है नहीं देखा हो। मैं ने उन्हें देखा है, अपने ही आस-पास। जहाँ जाता हूँ वहाँ मिल जाते हैं। आप जरा तलाश करेंगे और मेरी नजर से देखेंगे तो आप को भी दिख जाएंगे। जब दिखने लगेंगे तो बहुत दिखेंगे, छोटे-छोटे समूहों में। आप इन्हें देखने की कोशिश तो करें। मैं तो देख रहा हूँ, कुछ इधर हैं इस मुहल्ले में, कुछ उधर हैं उस मुहल्ले में, कुछ कारखानों में हैं तो कुछ मंडियों और बाजारों में, कुछ खेतों में हैं तो कुछ खलिहानों में हैं। आप देखिए तो सही, एक बार पहचान लेंगे तो सर्वत्र दिखाई देंगे। सब जुटे हैं, अलग-अलग छोटे-छोटे समूहों में वोट का तोड़ तलाशने में। मैं भी सपना देखने लगता हूँ। ये समूह आपस में मिल रहे हैं, मिल कर बड़े हो रहे हैं। एक न एक दिन तोड़ ढूंढ ही लेंगे। मैं भी निकल पड़ता हूँ सपने को हकीकत बनाने में जुट जाता हूँ। तो,  भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?


रविवार, 31 जुलाई 2011

रेलवे ने 90वें दिन के बाद के भी आरक्षित टिकट जारी किए

भारतीय रेलवे भारत में यात्रा का उपयुक्त साधन है। हर तरह के यात्री इस में यात्रा करते हैं। लंबी दूरियों की यात्रा करने वाले सभी यात्री रेल में यात्रा करना चाहते हैं। भारतीय रेलवे की अधिकांश गाड़ियों में पूर्व आरक्षण सुविधा है। रेलवे ने आरक्षण के लिए अनेक व्यवस्थाएँ की हैं। आरक्षण कार्यालयों की खिड़की से आरक्षण प्राप्त किया जा सकता है, यदि आप ने रेलवे आरक्षण की साइट https://www.irctc.co.in/ पर पंजीकरण किया हुआ है तो आप वहाँ से ई-टिकट और आई-टिकट प्राप्त कर सकते हैं, किसी अधिकृत एजेंट से टिकट बुक करवा सकते हैं, आदि आदि।  मैं स्वयं बहुत कम यात्राएँ करता हूँ।  इस कारण आरक्षण-तंत्र से बहुत अधिक परिचित भी नहीं हूँ। लेकिन बेटा और बेटी दोनों अपने अपने नियोजनों के कारण बाहर रहते हैं और उन्हें घर आने के लिए रेलवे का ही सहारा होता है। दोनों के पास इंटरनेट पर जाने के लिए अपने-अपने साधन हैं। फिर भी कभी जब उन्हें आना-जाना होता है और त्योहारों के कारण टिकिट की मांग बहुत अधिक होती है तो वे मुझे टिकट प्राप्त करने के लिए कहते हैं। बेटे को दीवाली पर घर आना है। उस ने मुझे टिकट के लिए कहा तो मैं ने एक एजेंट को टिकट बनाने के लिए बोल दिया। जिस दिन का हम चाहते थे टिकट नहीं मिला, एक दिन पहले का मिला। अब उसे एक दिन पहले आने के लिए एक दिन का अवकाश अधिक लेना होगा।

र आने का टिकट प्राप्त हो जाने के बाद वापसी का टिकट भी तो चाहिए। उस के लिए हमें कुछ दिन प्रतीक्षा करनी थी। रेलवे किसी भी दिन का आरक्षित टिकट प्राप्त करने की सुविधा उस दिन से 90 दिन पहले सुबह 8:00 बजे आरंभ करती है। उस से पहले कोई टिकट रेलवे जारी नहीं करती। बेटे को 30 अक्टूबर का टिकट चाहिए था। लेकिन मैं ने टिकटों की मारा-मारी के कारण यह उचित समझा कि 29 अक्टूबर का टिकट ले लिया जाए। यदि 30 का भी मिल जाएगा तो हम 29 अक्टूबर का निरस्त करवा लेंगे। 29 अक्टूबर के टिकट के लिए आरक्षण आज खुलना था। इस लिए सुबह सुबह ही एजेंट को फोन कर के बताया कि वह टिकट बना ले। मैं ने सोचा कि मैं स्वयं क्यों न कोशिश करूं? मैं ने सुबह आठ बजे irctc पर लोग-इन किया। लेकिन वहाँ पता लगा कि 'क्विक बुक' की सुविधा सुबह 8 से 9 बजे तक बंद रहती है। फिर 'प्लान माई ट्रेवल' में गए तो सब  औपचारिकताएँ पूरी कर देने के उपरांत स्टेशन सूची के लिए चटका लगाया तो साइट ने स्टेशन सूची खोलने से इन्कार कर दिया। सुबह 8 बजे से प्रयत्न करता रहा,  9 बजने तक स्टेशन सूची खुल ही नहीं रही थी। 

खिर 9 भी बजे। अब मैं 'क्विक बुक' सुविधा का उपयोग कर सकता था। रेलवे की सामान्य साइट पर आज 29 अक्टूबर तक के ही टिकट जारी होना बताया जा रहा था। लेकिन जब मैं टिकटों की उपलब्धता पर गया तो पता लगा कि 31 अक्टूबर तक के टिकट बुक हो चुके हैं। इस का अर्थ था कि आज 92वें दिन तक के टिकट भी बुक किए जा चुके थे। यह रेल नियमों का उल्लंघन है। क्यों कि नियमों में यह बताया गया है कि टिकट 90 दिन पहले ही जारी किया जा सकता है, उस से पहले नहीं। मैं ने इन नियमों को रेलवे की साइट पर जा कर जाँच भी लिया। वहाँ अंग्रेजी में दो स्थानों पर 90 दिन पूर्व की सूचना अंकित है, लेकिन हिन्दी साइट पर पहले 60 दिन और फिर 90 दिन अंकित है। शायद हिन्दी साइट पर यह त्रुटि दुरुस्त नहीं की गई है। किसी ने ध्यान भी नहीं दिलाया है कि उसे दुरुस्त किया जा सके। 

खैर, मुझे आशंका हो चली थी कि अब 29-30 अक्टूबर का शायद ही कोई टिकट मिल पाए। यही हुआ भी, जिस गाड़ी में मैं टिकट लेना चाहता था उस में कोई भी टिकट इन दो दिनों का उपलब्ध नहीं था। मैं गाड़ियाँ बदल बदल कर देखने लगा कि किसी अन्य गाड़ी में इन दिनों का टिकट मिल जाए। इसी बीच एजेंट का फोन आ गया कि 29-30 अक्टूबर को दोनों दिन प्रतीक्षा सूची 6 और 10 तक जा चुकी है क्या टिकट ले लिया जाए? मैंने उसे 30 अक्टूबर का प्रतीक्षा टिकट लेने को कहा और फिर से तलाश में जुट गया। एक अन्य ट्रेन में 30 अक्टूबर का पुष्ट टिकट मिल रहा था। मैं ने तुरंत उस के लिए कार्यवाही की और उसे पुष्ट कर लिया। अब मैं निश्चिंत था कि बेटे का दीवाली पर घर आने का ही नहीं वापसी की व्यवस्था भी हो गई है। 

रेलवे टिकट के लिए मारामारी आम बात है। अक्सर ही यह अनुभव हुआ है कि 90 दिन पहले आरक्षण खिड़की पर पंक्ति में सब से आगे खड़े व्यक्ति को भी पुष्ट टिकट नहीं मिल पाता है। कैसे एक मिनट से भी कम समय में ही पूरी गाड़ी की सारी आरक्षित शैयाओं के टिकट जारी हो जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं मिल पाया है। तुरंत यात्रा कार्यक्रम वालों के लिए दो दिन पहले कुछ अधिक धन खर्च कर के टिकट प्राप्त करने की सुविधा भी है लेकिन उस का भी अपना कड़वा अनुभव है। जब हम गाड़ी पर पहुँचते हैं तो वहाँ आरक्षित डब्बों के बाहर अक्सर कुछ लोग दिखाई दे जाते हैं जिन के हाथों में आरक्षण खिड़की से प्राप्त किए हुए दर्जनों टिकट होते हैं और वे अपने मुवक्किलों को प्लेटफार्म पर ही टिकट देते हैं और पैसे वसूल करते हैं। यह रेलवे की कौन सी सुविधा है यह आज तक पता नहीं है। हाँ इतना जरूर पता है कि टिकट ले कर खड़े रहने वाला यह व्यक्ति रेलवे का कर्मचारी या एजेंट नहीं होता है। मैं ने आज जो अनियमितता देखी है उस का तो कोई स्पष्टीकरण मुझे सूझ नहीं रहा है। इस का स्पष्टीकरण रेलवे को करना ही चाहिए कि जब आरक्षित टिकट केवल 90 दिन पहले तक के ही जारी किए जा सकते हैं, तब 90 वें दिन से पहले के टिकट कैसे जारी किए गए हैं?

पुनश्चः
2:33 अपरान्ह
क खबरिया चैनल बता रहा है कि आज सुबह 29 अक्टूबर के रेल टिकटों का आरक्षण जारी करना आरंभ हुआ और 10 मिनट में 100 गाडि़यों के सभी शायिकाएँ आरक्षित हो गईं।
ह प्रश्न अब भी बना हुआ है कि मुझे 30 अक्टूबर की टिकट का आरक्षण कैसे मिला?

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मौजूदा जमाने के उसूल

ज के स्थानीय दैनिकों में समाचार है कि राज्य सरकार ने सफाई ठेकों पर महापौर की आपत्ति खारिज कर दी है और मुख्य नगरपालिक अधिकारी को  राजस्थान नगर पालिका अधिनियम की धारा 49 (2) पढ़ा कर निर्देश दिया है कि 75 लाख रुपए तक के ठेके देने पर वे स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इस तरह इस समाचार ने जहाँ महौपौर के रुतबे को कम करने का काम किया है वहीं राज्य सरकार और महापौर के बीच एक अन्तर्विरोध उत्पन्न करने का काम भी किया है। यह दीगर बात है कि कानून जो कुछ कहता है, उसे इन समाचार पत्रों में समाचार लिखने वालों ने समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। ऐसा लगा जैसे किसी ने एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और समाचार पत्रों ने उसे जैसे का तैसा प्रकाशित कर दिया। ऐसा अक्सर होता है, अक्सर नहीं हमेशा होता है। आखिर मुख्य नगरपालिक अधिकारी कम शक्तिशाली पदाधिकारी नहीं होता। नगर निगम की ओर से सब अखबारों को वही तो विज्ञापन प्रेषित करता है। इस से यह स्पष्ट है कि समाचार पत्र जनता के प्रति दायित्वपूर्ण होने का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं लेकिन वास्तव में वे भी अपने मालिकों का ही हित साधते हैं, वही उन की प्रमुख चिंता है। जो भी मालिकों के हित की अनदेखी कर पत्रकार होने का दायित्व निभाने की हिमाकत करता है वह जल्दी ही उस अखबार के दफ्तर के बाहर दिखाई देता है। 

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सला ये था कि वर्ष भर के लिए सफाई कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके होने थे। 121 ठेकेदार फर्मों ने निविदाएँ प्रस्तुत कीं, सभी की दर 135 रुपया प्रतिदिन प्रति श्रमिक है। समस्या यह खड़ी हुई कि जब सब निविदाओं की दरें एक जैसी हों तो ठेकेदारों का चुनाव कैसे किया जाए। तब नगर निगम की अफसरशाही ने तय हुआ कि लाटरी निकाल ली जाए। जिस की लाटरी निकल जाए उसे ही ठेका दे दिया जाए। लेकिन महापौर ने उस में आपत्ति यह दर्ज कर लाटरी निकालने को रोक दिया गया कि पहले सब निविदादाताओं द्वारा उन की निविदाओं में प्रदर्शित संसाधनों का भौतिक सत्यापन किया जाए। लेकिन भौतिक सत्यापन कराने को कोई ठेकेदार तैयार नहीं हुआ। शायद सभी ठेकेदारों ने संसाधन न होने पर भी दर्ज कर दिए थे। अब कहा जा रहा है कि शायद शनिवार को लाटरी निकाल कर ठेकेदारों को कृतार्थ कर दिया जाएगा। 
ब हम इस कृतार्थता पर  कुछ विचार करें उस से पहले  यह देखें कि आखिर 135 रुपए के आँकड़े में क्या है कि सभी ठेकेदारों ने इस से कम या अधिक राशि की निविदा प्रस्तुत नहीं की। राजस्थान राज्य सरकार ने अकुशल दैनिक मजदूर के लिए न्यूनतम वेतन 135 रुपए प्रतिदिन निर्धारित कर रखा है, इस से कम वेतन मजदूर को नहीं दिया जा सकता। इस तरह रुपए 135 से कम की निविदा प्रस्तुत ही नहीं की जा सकती थी। इस से अधिक की निविदा प्रस्तुत करने में निविदा के अमान्य होने का खतरा मौजूद था। अब आप समझ सकते हैं कि नगर निगम से प्रति श्रमिक प्रतिदिन जो 135 रुपया ठेकेदार को मिलेगा वह पूरा का पूरा श्रमिक को भुगतान कर दिया जाएगा। इस के बाद जो सेवा कर ठेकेदार को देना पड़ेगा, इन मजदूरों को लगाने पर होने वाला प्रशासनिक व्यय और अन्य खर्चे जो कि लगभग 40 रुपए प्रति श्रमिक और होंगे उन्हें ठेकेदार स्वयं भुगतेगा। इस के बाद नगर निगम के अफसरों और राजनेताओं को प्रसन्न रखने के खर्चे अलग हैं। सच में कोटा नगर में ऐसे ठेकेदार मौजूद हैं जो लगभग 50-60 रुपया प्रति श्रमिक अपनी जेब से खर्च कर के नगर की सफाई के लिए बलिदान देने को तैयार हैं। 


र सच इस के विपरीत है। होगा यह कि जितने श्रमिक कागज पर उपलब्ध कराए जाएंगे उन से 50-60 प्रतिशत ही वास्तव में उपलब्ध कराए जाएंगे। जो श्रमिक उपलब्ध कराए जाएंगे उन्हें मात्र 65-70 रुपए प्रतिदिन मजदूरी भुगतान की जाएगी। इस तरह जो राशि बचेगी वह सेवा कर से ले कर अन्य सभी प्रसन्नता करों में लगाई जाएगी। उसी में से ठेकेदार अपना मुनाफा निकालेगा। उपलब्ध कराए गए श्रमिकों को आधी मजदूरी मिलेगी तो वे भी केवल आधे समय, अर्थात केवल चार घंटे प्रतिदिन काम करेंगे। कागजों में नगर साफ होता रहेगा। एक दम चमचमाएगा। लेकिन यदि आप नगर में निकलेंगे तो स्थान स्थान पर गंदगी के ढेर दिखाई देंगे। जिस में गाएँ, कुत्ते और सुअर मुहँ मारते मिलेंगे। नगर बीमारियों के लिए पर्यटन स्थल बना रहेगा। इस से डाक्टरों और अस्पतालों की चाँदी होती रहेगी। जनता पहले की तरह इन सब को भुगतती रहेगी। विपक्षी सरकारी दल को कोसने का मौका पाएंगे। सरकारी दल कहेगा उन की सफाई व्यवस्था विपक्षी दल के जमाने से अच्छी थी। जनता दोनों को सुनेगी। पाँच बरस तक सुनती रहेगी। फिर चुनाव आएँगे तब वह यह सब भूल जाएगी और ये देखेगी कि नगर निगम के पार्षद के लिए कौन सा उम्मीदवार उन की जात का है, कौन उन का नजदीकी है। देखे भी क्यों न यदि चोरों में से एक को ही चुनना हो तो हर कोई अपना नजदीकी ही चुनेगा। कानून की चिंदियाँ उड़ती रहेंगी। पर क्या यह हमेशा चलता रह सकेगा? कभी जनता चोरों को पकड़ कर सजा नहीं देगी? एक पार्षद ने इन सवालों के जवाब में कहा -जब देगी तब देखेंगे, तब तक तो मौजूदा जमाने के उसूल पर ही चलना होगा।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

हमें ये परंपराएँ बदलनी होंगी


पूर्वाराय एक जनसांख्यिकीविद (Demographer) है, और वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। अनवरत पर प्रकाशित उन के आलेख लड़कियों का घर कहाँ है?  पर Mired Mirage, की प्रतिक्रिया से आरंभ उन का आलेख पुनः समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ।  उसे ही यहाँ पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है। 

हमें परंपराएँ बदलनी होंगी  
- पूर्वाराय द्विवेदी


टते लिंगानुपात पर बात करते हुए एक महिला ने बताया कि "उनकी दो बेटियाँ हैं और उन्हें अच्छे से याद है कि दूसरी बेटी के जन्म पर एक एंग्लो इंडियन सहेली के सिवाय किसी ने उनके जन्म की बधाई नहीं दी थी। दूसरी बेटी के जन्म के तुरन्त बाद जब पति बिटिया की फोटो पर फोटो लिए जा रहे थे और हस्पताल से घर जाते समय आया-नर्सों को बक्शीश दे रहे थे तो वे दंग थीं। बिना बेटा हुए परिवार नियोजन का ऑपरेशन करने को कहा डॉक्टर दंग थी। मैं हस्पताल में सारा दिन चहकती हुई नवजात बिटिया से बतियाती लाड़ लड़ाती थी तो सब देखते रह जाते थे। हम खुश थे, यह बात लोगों के गले नहीं उतरती थी। शायद स्वाभाविक यह होता कि हम दुखी होते। इस पर भी लोग पूछते हैं कि क्या सच में भारत स्त्रियों के लिए खतरनाक स्थान है? समाज में लड़कियों का अनपात हम सही करना चाहते हैं तो केवल एक ही उपाय है। हर लड़की कमाकर अपने माता पिता को दे, उनकी बुढ़ापे की लाठी बने। शायद हमारे समाज में रुपया ही बोलता है, संतान स्वार्थ के लिए पैदा की जाती है। बेटी माता पिता को इतना दे और कुछ न ले कि लालची माता पिता बेटियों को जन्म देने लगें। कड़वा तो है यह किन्तु शायद यही सच है।"

जॉन काल्डवेल (जनसांख्यिकिविद)
क्त महिला की इस बात पर मुझे एक मास्टर्स में पढ़ा हुआ जनसांख्यिकीविद (डेमोग्राफर) जॉन कॉल्डवेल द्वारा 1976 वेल्थ प्रजनन पर एक सिद्धांत याद आया जो विकासशील देशों के प्रजनन आचरण को समझाती था। उन्होंने वेल्थ-फ्लो यानि धन प्रवाह, माल (सामान), पैसा और सेवाओं को बच्चों से माता-पिता तथा माता-पिता से बच्चों के सन्दर्भ में परिभाषित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक समाज में, अगर बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से उपयोगी हों तो प्रजननता अधिक होती है और यदि बच्चे माता-पिता के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद ना हों तो वह कम हो जाती है। धन का यह प्रवाह सभी परंपरागत समाजों में युवा पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी में होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन समाजों में बच्चे माता–पिता की लिए शुद्ध आर्थिक परिसम्पति होते हैं। इस प्रसंग में ज्यादा बच्चे मतलब ज्यादा धन।

नके अनुसार किसान समाज बड़े विस्तृत संयुक्त परिवार में बच्चे, बहुएँ, पोते इत्यादि घर के कामों में बहुत योगदान देते हैं, और बच्चे कृषि, इंधन-संग्रह, पानी-भरने, सामान और सन्देश लाने ले जाने, छोटे भाई बहनों को संभालने, जानवरों की देखभाल करने जैसे कामों में बहुत मदद करते हैं। आदवासी समाज में बच्चे शिकार और भोजन इकठा करने के साथ ही साथ बुजुर्गों की देखभाल में भी मदद करते हैं। बचपन से युवा होने तक वो काफी सारे कामों में मदद करते हैं। इन समाजो में ज्यादा बच्चे होना लाभदायक है। आधुनिक समाज में देखें तो परिवार में भावनाएँ और आर्थिक एकलता (nucleation) बहुत है। यहाँ सामान्यतः माता-पिता अपने और अपने बच्चों के बारे में ही सोचते हैं तथा विस्तृत परिवार से परहेज रखते हैं। काल्डवेल का यह सिद्धांत प्रजनन आचरण दर्शाने की लिए था। किन्तु ये सिद्धांत कहीं न कहीं ऊपर महिला द्वारा कही गई बात से बहुत मिलता है और उस की व्याख्या करता है।

क्या हम बच्चों को विशेषकर बेटों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा की रूप में नहीं देखते? हम भले ही इस सचाई को मानने से इनकार कर दें, पर क्या बेटा के पैदा होने पर माता-पिता ये नहीं सोचते की वो हमारा सहारा बनेगा? बचपन से लेकर युवा होने तक माता-पिता हर संभव कोशिश करते हैं जिससे उनका बेटा अच्छे से स्थापित हो सके। क्योंकि माता पिता का भविष्य भी उनके बेटों के भविष्य से ही जुड़ा हुआ रहता है। वे सोचते हैं कि ढलती उम्र में बेटा ही उनका सहारा हो सकता है। तभी तो माँ-बाप बच्चों के लिए भविष्य के बारे में सोचते-सोचते कई बार अपने ही भविष्य की आर्थिक व्यवस्था के लिए कुछ नहीं करते। जिस का खामियाजा उन्हें आगे जाकर तब भुगतना पड़ता है जब बच्चे अपने भविष्य की बारे में सोचते समय अपने माता-पिता को भूल जाते हैं क्योंकि वहाँ से उन्हें किसी तरह का लाभ नहीं होता।

स सब से ये लगता है कि बेटा माता-पिता के लिए भविष्य का आर्थिक निवेश है। सिर्फ आर्थिक ही क्यों वह भावनात्मक सहारा भी होता है क्यों कि वह उनके साथ रहेगा। तभी तो बहुत दुःख और दर्द होता है जब एक बेटा माता–पिता को उनकी ढलती उम्र में सहारा नहीं देता, या कहें कि उनका किया गया निवेश असफल हो जाता है। देखा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं है। जब सारा समाज एक जैसा व्यवहार कर रहा हो तो वो गलत तो नहीं होता है। जब माता-पिता अपने बच्चों के लिए कुछ कर रहे हैं तो बच्चों का भी फ़र्ज़ बनता है उनके लिए कुछ करने का। आखिर ये दुनिया आदान प्रदान पर ही तो निर्भर है। पर यह गलत तब होता है जब इससे किसी का नुकसान हो, किसी को दुख पहुँचे। अब क्योंकि बेटा आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है, तो स्वाभाविक ही है कि सभी बेटे की उम्मीद करेंगे। पर क्या ये सब एक बेटी नहीं दे सकती? आज कल तो बेटियां भी आर्थिक रूप से इतनी सक्षम होती है कि वे अपने माँ बाप को सहारा दे सकती हैं। कई बार तो बेटी अपने माता-पिता के बेटे से ज्यादा भावनात्मक रूप से करीब होती है। फिर बेटे और बेटी में इतना फर्क क्यों होता है कि बेटी को पैदा होने से पहले ही उसको खत्म कर दिया जाता है। उसे तो मौका भी नहीं मिलता कुछ करने का, कुछ बनने का। कम से कम उसे मौका तो मिलना ही चाहिए। जब बेटे को मौका मिल रहा है, तो बेटी को क्यों नही? आज जिस तरह से लड़कियों की संख्या कम हो रही है उसके लिए तो ज़िम्मेदार हमारा समाज ही है, जिसे हमने ही बनाया है। जब एक बच्चा बिगडता है तो उसके लिए माता-पिता को उसकी परवरिश के लिए उसका जिम्मेदार बताया जाता है, तो जब हमारे समाज में हमारी बनाई कुछ परम्पराओं की वजह से कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए भी हम ही ज़िम्मेदार हैं।

रम्पराएँ जो कहती हैं कि बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुक्सान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तो फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, इस से लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी। जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता।

क्या हम ऐसा समाज नहीं बना सकते? जहाँ सब बराबर हों, लड़के और लड़की में कोई फर्क ना हो। माता-पिता जो एक बेटे के लिए करे, वही बेटी के लिए भी करे। जहाँ बेटी को अधिकार हो की शादी के बाद भी वो अपने माता पिता की सहायता कर सके। अगर माता पिता बेटे के साथ रह सकते हैं, तो बेटी के साथ भी रह सकते हैं। जहाँ एक बेटी को अपने ही माता पिता की छुप कर मदद ना करनी पड़े। किसी को अपनी ही बेटी की शादी के लिए पैसा न देना पड़े। फिर शायद माँ-बाप बेटी होने पर भी वही खुशी मनाने लगेंगे, जो बेटे के होने पर मनाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे माता-पिता नहीं हैं, आज भी कई माता-पिता हैं, जो बेटी होने की उतनी ही खुशी मनाते हैं जितना बेटे होने की, जो बेटे के लिए करते हैं वही बेटी के लिए भी। पर उन की संख्या कितनी है? ज्यादा नहीं, वरना आज ये नौबत ना आती कि सरकार पैसा दे रही है, ताकि लड़की पैदा हो सके। ये सरकार का काम नहीं बल्कि हमारा, उस समाज का काम है जिसमें हम रहते हैं, जिसे हमने ही बनाया है, और हमने जो गलत किया है उसे ठीक भी हमें ही करना होगा।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

पेट का दर्द

हुत दिनों के बाद अदालत आबाद हुई थी। जज साहब अवकाश से लौट आए थे। जज ने कई दिनों के बाद अदालत में बैठने के कारण पहले दिन तो काम कुछ कम किया। दो-तीन छोटे-छोटे मुकदमों में बहस सुनी। उसी में 'कोटा' पूरा हो गया। लेकिन वकीलों और मुवक्किलों को पता लग गया कि जज साहब आ गए हैं और अदालत में सुनवाई होने लगी है। लोगों को आस लगी कि अब काम हो जाएगा। इस बार उन के मुकदमे में अवश्य सुनवाई हो जाएगी। जज साहब ने दूसरे दिन कुछ अधिक मुकदमों में सुनवाई की। एक बड़े मुकदमे में भी बहस सुन ली लेकिन वह किसी कारण से अधूरी रह गई। शायद जज साहब ने एक पक्ष के वकील को यह कह दिया कि वे किसी कानूनी बिंदु पर किसी ऊँची अदालत का निर्णय दिखा दें तो वे उन का तर्क मान कर फैसला कर देंगे। वकील के पीछे खड़े मुवक्किल को जीत की आशा बंधी तो उस ने वकील को ठोसा दिया कि वह नजीर पेश करने के लिए वक्त ले ले। वकील समझ रहा था कि जज ने कह दिया है कि यदि ऐसा कोई फैसला ऊँची अदालत का पेश नहीं हुआ तो उस के खिलाफ ही निर्णय होगा। पर मुवक्किल की मर्जी की परवाह तो वकील को करनी होती है। कई बार तो जज कह देता है कि वह उन की बात को समझ गया है, वह वकील को बता भी देता है कि उस ने क्या समझा है। पर फिर भी वकील बहस करता रहता है, ऊँची और तगड़ी आवाज में। तब जज समझ जाते हैं कि वकील अब मुवक्किल को बताने के लिए बहस कर रहा है, जिस से वह उस से ली गई फीस का औचित्य सिद्ध कर सके।  

दूसरे दिन शाम को ही मेरा भी एक मुवक्किल दफ्तर में धरना दे कर बैठ गया। उस का कहना था कि इस बार उस की किस्मत अच्छी है जो जज साहब उस की पेशी के दो दिन पहले ही अवकाश से लौट  आए हैं। वरना कई पेशियों से ऐसा होता रहा है कि उस की पेशी वाले दिन जज साहब अवकाश पर चले जाते हैं या फिर वकील लोग किसी न किसी कारण से काम बंद कर देते हैं। उसे कुछ शंका उत्पन्न हुई तो पूछ भी लिया कि कल वकील लोग काम तो बंद नहीं करेंगे? मैं ने उसे उत्तर दिया कि अभी तक तो तय नहीं है। अब रात को ही कुछ हो जाए तो कुछ कहा नहीं जा सकता है। मैं ने भी मुवक्किल के मुकदमे की फाइल निकाल कर देखी। मुकदमा मजबूत था। वह  पेट दर्द के लिए डाक्टर को दिखाना चाहता था। नगर के इस भाग में एक लाइन से तीन-चार अस्पताल थे। पहले अस्पताल बस्ती की आबादी के हिसाब से होते थे। लेकिन दस-पंद्रह सालों से ऐसा फैशन चला है कि जहाँ एक अस्पताल खुलता है और चल जाता है, उस के आसपास के मकान डाक्टर लोग खरीदने लगते हैं और जल्दी ही अस्पतालों और डाक्टरों का बाजार खड़ा हो जाता है। वह किसी जनरल अस्पताल में जाना चाहता था, उस ने एक अस्पताल तलाश भी लिया था। वह अस्पताल के गेट से अंदर जाने वाला ही था कि उसे एक नौजवान ने नमस्ते किया और पूछा किसी से मिलने आए हैं। जवाब उस ने नहीं उस के बेटे ने दिया -पिताजी को जोरों से पेट दर्द हो रहा है। वे किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना चाहते हैं। 

नौजवान ने जल्दी ही उस से पहचान निकाल ली। वह उन की ही जाति का था और उन के गाँव के पड़ौस के गाँव में उसकी रिश्तेदारी थी। उस ने नौजवान का विश्वास किया और उस की सलाह पर उस के साथ  नगर के सब से प्रसिद्ध अस्पताल में पहुँच गया। नौजवान इसी अस्पताल में नौकर था और उस ने आश्वासन दिया था कि वह डाक्टर से कह कर फीस कम करवा देगा। इस अस्पताल में दो-तीन बरसों से धमनियों की बाईपास की जाने लगी थी। देखते ही देखते अस्पताल एक मंजिल से चार मंजिल में तब्दील हो गया था। छह माह से वहाँ एंजियोप्लास्टी भी की जाने लगी थी। उसे एक डाक्टर ने देखा, फिर तीन चार डाक्टर और पहुँच गए। सबने उसे देख कर मीटिंग की और फिर कहा कि उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए,जाँचें करनी पडेंगी, हो सकता है ऑपरेशन भी करना पड़े। उन्हें उस की जान को तुरंत खतरा लग रहा है, जान बच भी गई तो अपंगता हो सकती है। वह तुरंत अस्पताल में भर्ती हो गया। बेटे को पचासेक हजार रुपयों के इन्तजाम के लिए दौड़ा दिया गया। जाँच के लिए उसे मशीन पर ले जाया गया। शाम तक कई कई बार जाँच हुई। फिर उसे एक वार्ड में भेज दिया गया। आपरेशन की तुरंत जरूरत बता दी गई। दो दिनों तक रुपए कम पड़ते रहे, बेटा दौड़ता रहा। कुल मिला कर साठ सत्तर हजार दे चुकने पर उसे बताया गया कि उस का ऑपरेशन तो भर्ती करने के बाद दो घंटों में ही कर दिया गया था। उस की जान बचाने के लिए जरूरी था। फीस में अभी भी पचास हजार बाकी हैं। वे जमा करते ही अस्पताल से उस की छुट्टी कर दी जाएगी। उस के पेट का दर्द फिर भी कम नहीं हुआ था। वह दर्द से कराहता रहता था। डाक्टर और नर्स उसे तसल्ली देते रहते थे। उस ने बेटे से हिंगोली की गोली मंगा कर खाई तो गैस निकल गई, उसे आराम आ गया। उसे लगा कि अस्पताल ने उसे बेवकूफ बनाया है। वह मौका देख बेटे के साथ अस्पताल से निकल भागा। 


दूसरे डाक्टर को दिखाया तो उसे पता लगा कि उस की एंजियोप्लास्टी कर दी गई है, जब कि वह कतई जरूरी नहीं थी। अब तो उसे जीवन भर कम से कम पाँच सात सौ रुपयों की दवाएँ हर माह खानी पडेंगी। उसे लगा कि वह ठगा गया है। उस ने अपने परिचितों को बताया तो लोगों ने अस्पताल पर मुकदमा करने की सलाह दी जिसे उस ने मान लिया। इस तरह वह मेरे पास पहुँचा। मैं ने देखा यह तो जबरन लूट है। बिना रोगी की अनुमति के ऑपरेशन करने का  मामला है। मैं ने मुकदमा किया। साल भर में मुकदमा बहस में आ गया। फिर साल भर से लगातार पेशियाँ बदलती रहीं। मैं भी सोच रहा था कि कल यदि बहस हो जाए तो मुकदमे में फैसला हो जाए। 

गले दिन मैं, मेरा मुवक्किल और डाक्टरों व बीमा कंपनी के वकील अदालत में थे। जज साहब बता रहे थे कि बड़ी लूट है। उन का एमबीबीएस डाक्टर बेटा पीजी करना चाहता था। बमुश्किल उसे साठ लाख डोनेशन पर प्रवेश मिल सका है। रेडियोलोजी में प्रवेश लेने के लिए एक छात्र को तो सवा करोड़ देने पड़े। वैसे भी आजकल एमबीबीएस का कोई भविष्य नहीं है, इसलिए पीजी करना जरूरी हो गया है। ये कालेज नेताओं के हैं, और ये सब पैसा उन की जेब में जाता है। अब डाक्टर इस तरह पीजी कर के आएगा तो मरीजों को लूटेगा नहीं तो और क्या करेगा? मैं समझ नहीं पा रहा था कि जज लूट को अनुचित बता रहा है या फिर उस का औचित्य सिद्ध कर रहा है। 


खिर हमारे केस में सुनवाई का नंबर आ गया। जज ने मुझे आरंभ करने को कहा। तभी डाक्टरों का वकील बोला कि पहले उस की बात सुन ली जाए। मैं आरंभ करते करते रुक गया। डाक्टरों का वकील कहने लगा -वह कल देर रात तक एक समारोह में था। इसलिए आज केस तैयार कर के नहीं आ सका है। आज इन की बहस सुन ली जाए, वह कल या किसी अन्य दिन उस का उत्तर दे देगा। जज साहब को मौका मिल गया। तुरंत घोषणा कर डाली। आज की बहस अगली पेशी तक कैसे याद रहेगी? मैं तो सब की बहस एक साथ सुनूंगा। आखिर दो सप्ताह बाद की पेशी दे दी गई। मैं अपने मुवक्किल के साथ बाहर निकल आया। मेरा मुवक्किल कह रहा था। अच्छा हुआ, आज पेशी बदल गई। अब इस जज के सामने बहस मत करना। यह  दो माह में रिटायर हो लेगा। फिर कोई दूसरा जज आएगा उस के सामने बहस करेंगे। मैं उसे समझा रहा था कि आने वाले जज का बेटा या दामाद भी इसी तरह डाक्टरी पढ़ रहा हआ तो क्या करेंगे? इस से अच्छा है कि बहस कर दी जाए। यदि जज गलत फैसला देगा तो अपील कर देंगे। मुवक्किल ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय कहा कि अभी पेशी में दो हफ्ते हैं, तब तक हमारे पास सोचने का समय है कि क्या करना है?

रविवार, 17 जुलाई 2011

हम कहाँ से आरंभ कर सकते हैं?

'जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा' पर आई टिप्पणियों में सामान्य तथ्य यह सामने आया कि समाज का मौजूदा शासन गंभीर रूप से रोगी है। उसे इतने-इतने रोग हैं कि उन की चिकित्सा के प्रति किसी को विश्वास नहीं है। इस बात पर लगभग लोग एकमत हैं कि रोग असाध्य हैं और उन से रोगी का पीछा तभी छूट सकता है जब कि रोगी का जीवन ही समाप्त हो जाए। यह विषाद सञ्जय झा  की टिप्पणी में बखूबी झलकता है। वे कहते हैं, - जो रोग आपने ऊपर गिनाए हैं वे गरीब की मौत के बाद ही खत्म होंगे क्यों कि अब बीमारी गहरी ही इतनी हो चुकी है।
क निराशा का वातावरण लोगों के बीच बना है। ऐसा कि लोग समझने लगे हैं कि कुछ बदल नहीं सकता। इसी वातावरण में इस तरह की उक्तियाँ निकल कर आने लगती हैं-
सौ में से पिचानवे बेईमान,
फिर भी मेरा भारत महान...
या फिर ये-
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी था,
याँ हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्ताँ क्या होगा
निराशा और बढ़ती है तो यह उक्ति आ जाती है -
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी।

निराशा के वातावरण में कुछ लोग, कुछ आगे की सोचते हैं-
देखना तो यह है कि अपने रोज के झमेलों को पीछे छोड कर कब आगे आते हैं ऐसे लोग।
जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही क्रांति करनी होती है... बाकी तो सुविधा भोगी हैं...
और ये भी -
निश्चय ही, ऐसे नहीं चल सकता है, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो?
शायद उपरोक्त नियम का समय आया ही समझिये।

में यहाँ भिन्न भिन्न विचार देखने को मिलते हैं। सभी विचार मौजूदा परिस्थितियों से उपजे हैं। सभी तथ्य की इस बात पर सहमत हैं कि शासन का मौजूदा स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, यह वैसा नहीं जैसा होना चाहिए। उसे बदलना चाहिए। लेकिन जहाँ बदलाव में विश्वास की बात आती है तो तुरंत दो खेमे दिखाई देने लगते हैं। एक तो वे हैं जिन्हें बदलाव के प्रति विश्वास नहीं है। सोचते हैं कि बदलाव के नाम पर सिर्फ नाटक होगा। उन का सोचना गलत भी नहीं है। वे बदलाव को पाँच वर्षीय चुनाव में देखते हैं। चुनाव के पहले वोट खींचने के लिए जिस तरह की नौटंकियाँ राजनैतिक दल और राजनेता करते रहे हैं, उस का उन्हें गहरा अनुभव है। लेकिन क्या पाँच वर्षीय चुनाव ही बदलाव का एक मात्र तरीका है? 
 
हीं कुछ लोग ऐसा नहीं सोचते। वे सोचते हैं कि बदलाव के और तरीके भी हैं। वे कहते हैं, हमें कुछ करना चाहिए,  जो लोग बदलना चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा। इस का अर्थ है कि ऐसे लोग बदलाव में विश्वास करते हैं कि वह हो सकता है। लेकिन वे भी पाँच वर्षीय चुनाव के माध्यम से ऐसा होने में अविश्वास रखते हैं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो परिवर्तन को जगत का नियम मानते हुए और उन का यह विश्वास है कि वक्त आ रहा है परिवर्तन हुआ ही समझो। यहाँ एक विश्वास के साथ साथ आशा भी मौजूद है। 

लेकिन, फिर प्रश्न यही सामने आ खड़ा होता है कि ये सब कैसे होगा? निश्चित रूप से राजनेताओं और नौकरशाहों के भरोसे तो यह सब होने से रहा। जब बात शासन परिवर्तित करने की न हो कर सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने मात्र की है तो भी यह बात सामने आ रही है कि ये सिविल सोसायटी क्या है और इस सिविल सोसायटी को इतनी बात करने का क्या हक है? क्या वे चुने हुए लोग हैं? हमें देखो, हम चुने हुए लोग हैं, इस जनतंत्र में वही होगा जो हम चाहेंगे। यह निर्वाचन में सभी तरह के निकृष्ठ से निकृष्टतम जोड़-तोड़ कर के सफल होने की जो तकनीक विकसित कर ली गई है उस का अहंकार बोल रहा है। सिविल सोसायटी कुछ भी हो। उसे किसी का समर्थन प्राप्त हो या न हो। वे इस विशाल देश की आबादी का नाम मात्र का हिस्सा ही क्यों न हों। पर वे जब ये कहते हैं कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कारगर तंत्र बनाओ, तो ठीक कहते हैं। सही बात सिविल सोसायटी कहे या फिर एक व्यक्ति कहे। उन चुने जाने वाले व्यक्तियों को स्वीकार्य होनी चाहिए। यदि यह स्वीकार्य नहीं है तो फिर समझना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के पक्ष में नहीं हैं। 

निर्वाचन के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने की तकनीक के स्वामियों का अहंकार इसलिए भी मीनार पर चढ़ कर चीखता है कि वह जानता है कि सिविल सोसायटी की क्या औकात है? उन्हों ने भारत स्वाभिमान के रथ को रोक कर दिखा दिया। अब वे अधिक जोर से चीख सकते हैं। उन्हों ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानून के मसौदे पर सिविल सोसायटी से अपनी राय को जितना दूर रख सकते थे रखा। उस के बाद राजनैतिक दलों के नेताओं को बुला कर यह दिखा दिया कि वे सब भी भले ही जोर शोर से सिविल सोसायटी के इस आंदोलन का समर्थन करते हों लेकिन उन की रुचि इस नियंत्रण कानून में नहीं मौजूदा सरकार को हटाने और सरकार पर काबिज होने के लिए अपने नंबर बढ़ाने में अधिक है। इस तरह उन्हों ने एक वातावरण निर्मित कर लिया कि लोग सोचने लगें कि सिविल सोसायटी का यह आंदोलन जल्दी ही दम तोड़ देगा। इस सोच में कोई त्रुटि भी दिखाई नहीं देती। 

ज ही जनगणना 2011 के कुछ ताजा आँकड़े सामने आए हैं। 121 में से 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। आज भी दो तिहाई से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और कृषि या उस पर आधारित कामों पर निर्भर है। इस ग्रामीण आबादी में से कितने भूमि के स्वामी हैं और कितनों की जीविका सिर्फ दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर करती है? यह आँकड़ा अभी सामने नहीं है, लेकिन हम कुछ गाँवों को देख कर समझ सकते हैं कि वहाँ भी अपनी भूमि पर कृषि करने वालों की संख्या कुल ग्रामीण आबादी की एक तिहाई से अधिक नहीं। नगरीय आबादी के मुकाबले ग्रामीण आबादी को कुछ भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। उन का जीवन किस तरह चल रहा है। हम नगरीय समाज के लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी तरह नगरों में भी उन लोगों की बहुतायत है जिन के जीवन यापन का साधन दूसरों के लिए काम करना है। दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवनयापन करने वालों की आबादी ही देश की बहुसंख्यक जनता है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस देश में दो तरह के जनसमुदाय हैं, एक वे जो जीवन यापन के लिए दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर हैं। दूसरे वे जिन के पास अपने साधन हैं और जो दूसरों से काम कराते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस देश में ये दो देश बसते हैं। 

स वक्त बदलाव की जरूरत यदि महसूस करता है तो वही बहुसंख्यक लोगों का देश करता है जो दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवन चलाता है। यह भी हम जानते हैं कि दूसरा जो देश है वही शासन कर रहा है। पहला देश शासित देश है। हम यह भी कह सकते हैं कि बहुसंख्यकों के देश पर अल्पसंख्यकों का देश काबिज है। यह अल्पसंख्यक देश आज भी गोरों की भूमिका अदा कर रहा है। बहुसंख्यक देश आज भी वहीं खड़ा है जहाँ गोरों से मुक्ति प्राप्त करने के पहले, मुंशी प्रेमचंद और भगतसिंह के वक्त में खड़ा था। इस देश के कंधों पर वही सब कार्यभार हैं जो उस वक्त भारतीय जनता के कंधों पर थे। अब हम समझ सकते हैं कि बदलाव की कुञ्जी कहाँ है। यह बहुसंख्यक देश बहुत बँटा हुआ है और पूरी तरह असंगठित भी। उस की चेतना कुंद हो चुकी है। इतनी कि वह गर्मा-गरम भाषणों पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करती। इस देश को जगाने की हर कोशिश नाकामयाब हो जाती है। 

ह चेतना कहीं बाहर से नहीं टपकती। यह लोगों के अंदर से पैदा होती है। यह आत्मविश्वास जाग्रत होने से उत्पन्न होती है। लेकिन यह आत्मविश्वास पैदा कैसे हो। आप सभी दम तोड़ते हुए पिता का आपस में लड़ने-झगड़ने वाली संतानों को दिए गए उस संदेश की कहानी अवश्य जानते होंगे जिन से पिता ने एक लकड़ियों का गट्ठर की लकड़ियाँ तोड़ने के लिए कहा था और वे नाकामयाब रहे थे, बाद में जब उन्हें अलग अलग लकड़ियाँ दी गईं तो उन्हों ने सारी लकड़ियाँ तोड़ दीं। निश्चित रूप से संगठन और एकता ही वह कुञ्जी है जो बहुसंख्यकों के देश में आत्मविश्वास उत्पन्न कर सकती है। हम अब समझ सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए? हमें इस शासित देश को संगठित करना होगा। उस में आत्मविश्वास पैदा करना होगा। यह सब एक साथ नहीं किया जा सकता। लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में किया जा सकता है। हम जहाँ रहते हैं वहाँ के लोगों को संगठित कर सकते हैं, उन्हें इस शासन से छोटे-छोटे संघर्ष करते हुए और सफलताएँ अर्जित करते हुए इन संगठनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयत्न कर सकते हैं। बाद में जब काम आगे बढ़े तो इन सभी संगठित इकाइयों को जोड़ सकते हैं। 

ब सब कुछ स्पष्ट है, कि क्या करना है? फिर देर किस बात की? हम जुट जाएँ, अपने घर से, अपनी गली से, अपने मुहल्ले से, अपने गाँव और शहर से आरंभ करें। हम अपने कार्यस्थलों से आरंभ करें। हम कुछ करें तो सही। कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे.

शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।