रायपुर की यह लघु यात्रा बहुत सुखद थी। पाबला जी के घर वापस भिलाई लौटते रात हो चुकी थी। सात बजे होंगे। पहुँचते ही अवनीन्द्र का फोन आ गया। वह कह रहा था कि भोजन पर पाबला जी का परिवार भी साथ होगा। लेकिन बच्चे कुछ और कार्यक्रम बना चुके थे और पाबला जी कह रहे थे कि कल आप चले जाएँगे और अवनीन्द्र से संभवतः भिलाई में यह आखिरी मुलाकात हो इसलिए वे हमारे साथ नहीं जाएँगे। आप लोग घऱ परिवार की बातें कीजिए। मुझे वे हमारे साथ चलने को बिलकुल सहमत नहीं थे। मैं ने भी पाबला जी की सोच को सही पाया। पाबला जी ने आश्वासन दिया कि हम तो यहीं भिलाई में हैं। कभी भी एक दूसरे के घर भोजन पर आ जा सकते हैं। मैं ने अवनीन्द्र को कह दिया कि हम दोनों पिता-पुत्र ही आ रहे हैं। कुछ देर विश्राम कर तरोताजा हो मैं और वैभव अवनीन्द्र के घर पहुँचे।
कुछ देर हम घर परिवार की बातें स्मरण करते रहे, अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने शीघ्र ही भोजन के लिए बुला लिया। हम खाने की मेज पर बैठे जो भोज्य पदार्थों से सजी थी। लगता था कि ज्योति कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती थी। मेरा ज्योति के हाथ का पका भोजन पाने का यह पहला अवसर था। हम जब भी मिले किसी पारिवारिक भीड़ भरे आयोजन में। तब उस के हाथ का बना भोजन पाने का अवसर ही न होता था। भोजन आरंभ हुआ तो जल्दी ही पता लग गया कि ज्योति ने भोजन को स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रखी थी। हालत यह हुई कि मेरा सुबह से लिया व्रत कि आज बिलकुल भी जरूरत से अधिक भोजन नहीं लूंगा, जल्द ही फरार हो गया। मैं ने छक कर भोजन किया। मैं ने भोजन की थोड़ी बहुत तारीफ भी की लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि मेरी कितनी भी तारीफ ज्योति की उस शिकायत को कभी दूर नहीं कर पाएगी कि मैं उस के यहाँ ठहरने के स्थान पर पाबला जी के यहाँ क्यों रुका?
मैं ने बताया कि वैभव अभी अप्रेल अंत तक भिलाई में है, वह शीघ्र ही शायद होस्टल रहने चला जाएगा लेकिन यहाँ आता रहेगा। पर यह बात अभी तक अधूरी है। न वैभव होस्टल में गया और न ही वह अवनीन्द्र के यहाँ अभी तक जा सका। भोजन के बाद हम देर तक बातें करते रहे और लौट कर पाबला जी के यहाँ आने लगे तो अवनीन्द्र भी साथ हो लिया। मुझे पान की याद आ रही थी जो मुझे कोटा छोड़ने के बाद अभी तक नहीं मिला था। हम ने रास्ते में पान की दुकान तलाश करने की कोशिश की तो मुश्किल से एक दुकान मिली। हम बाजार से दूर जो थे। पान भी जैसा तैसा मिला लेकिन मिला बहुत सस्ता। हम पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो उन्हों ने अवनीन्द्र को कॉफी के लिए रोक लिया। हम पाबला जी के कम्प्यूटर कक्ष में जहाँ मैं पिछली रात सोया भी था, आ बैठे। पाबला जी ने webolutions.in के बैनर पर उन के पुत्र गुरप्रीत सिंह (मोनू) द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स बताना आरंभ किया तो पता ही नहीं चला कि कितना समय निकल गया। एक बार अवनीन्द्र को घर से फोन भी आ गया। उसे विदा किया तो तारीख बदल चुकी थी।
मेरा इस भिलाई यात्रा का एक सब से बड़ा स्वार्थ था कि मैं पाबला जी पुत्र गुरप्रीत से तीसरा खंबा डॉट कॉम की वेबसाइट डिजाइन करवा सकूँ। केवल आज की रात थी जब यह काम मैं गुरप्रीत से करवा सकता था। लेकिन समय इतना हो चुका था और दिन भर में दिमाग इतनी कसरत कर चुका था कि तीसरा खंबा की डिजाइनिंग के बारे में ओवरटाइम कर सकने की उस की हिम्मत शेष नहीं थी। मैं सोचता रह गया कि आखिर कब और कैसे यह डिजायनिंग हो सकेगी?
चित्र- 1. पाबला जी का घर 2. मैं और अवनीन्द्र 3 पाबला जी के घर का दालान
सोमवार, 2 मार्च 2009
शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
अनिल पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और पाबला जी के साथ दोपहर का भोजन
त्रयम्बक जी के जाने के पहले ही एक फोन पुसदकर जी के पास आया। फोन पर उत्तर देते हुए पुसदकर जी ने कहा कि वे किसी मेहमान के साथ प्रेस क्लब में व्यस्त हैं, अभी नहीं आ सकते हाँ मिलना हो तो वे खुद प्रेस क्लब आ जाएँ। खुद पुसदकर जी ने बताया कि यह रायपुर के मेयर का फोन था। मुझे बुला रहा था, मैं ने उसे यहाँ आने के लिए कह दिया है। कुछ देर में ही रायपुर के नौजवान मेयर सुनील सोनी अपने एक सहायक के साथ वहाँ विद्यमान थे। पुसदकर जी ने मेरा व पाबला जी का मेयर से परिचय कराया और फिर मेयर को कहने लगे कि वे प्रेस क्लब और पत्रकारों के लिए उतना नहीं कर रहे हैं जितना उन्हें करना चाहिए। उसी समय उन्हों ने संजीत त्रिपाठी को कुछ लाने के लिए कहा। संजीत जो ले कर आए वह एक खूबसूरत मोमेण्टो था। उन्हों ने मेयर को कहा कि प्रेस क्लब द्विवेदी जी के आगमन पर उन्हें मोमेंटो देना चाहता था। अब जब आप आ ही गए हैं तो यह आप के द्वारा ही दिया जाना चाहिए। आखिर मेयर ने मुझे प्रेस क्लब की वह मीठी स्मृति मोमेंटो भेंट की। कॉफी के बाद मेयर वहाँ से प्रयाण कर गए।
तब तक दो बजने को थे। पुसदकर जी ने हमें दोपहर के भोजन के लिए चलने को कहा। हम सभी नीचे उतर गए। पुसदकर जी की कार में हम तीनों के अलावा केवल संजीत त्रिपाठी थे। पुसदकर जी खुद वाहन ड्राइव कर रहे थे। वे कहने लगे अगर समय हो तो भोजन के बाद त्रिवेणी संगम है वहाँ चलें, यहाँ से तीस किलोमीटर दूर है। मैं ने और पाबला जी ने मना कर दिया इस में रात वहीं हो जाती। मैं उस दिन रात का खाना अपने भाई अवनींद्र के घर खाना तय कर चुका था, यदि यह न करता तो उसे खास तौर पर उस की पत्नी को बहुत बुरा महसूस होता। मैं पहले ही उसे नाराज होने का अवसर दे चुका था और अब और नहीं देना चाहता था। अगले दिन मेरा दुर्ग बार में जाना तय था और कोटा के लिए वापस लौटना भी। रास्ते मे पुसदकर जी रायपुर के स्थानों को बताते रहे, यह भी बताया कि जिधर जा रहे हैं वह वही क्षेत्र है जहाँ छत्तीसगढ़ की नई राजधानी का विकास हो रहा है। कुछ किलोमीटर की यात्रा के बाद हम एक गेस्ट हाऊस पहुंचे जो रायपुर के बाहर था जहाँ से एयरपोर्ट और उस से उड़ान भरने वाले जहाज दिखाई दे ते थे। बीच में हरे खेत और मैदान थे। बहुत सुंदर दृश्य था। संजीत ने बताया कि यह स्थान अभी रायपुर से बाहर है लेकिन जैसे ही राजधानी क्षेत्र का विकास होगा यह स्थान बीच में आ जाएगा।
किसी ने आ कर बताया कि भोजन तैयार है। बस चपातियाँ सेंकनी हैं। हम हाथ धोकर अन्दर सजी डायनिंग टेबुल पर बैठ गए। भोजन देख कर मन प्रसन्न हो गया। सादा सुपाच्य भोजन था, जैसा हम रोज के खाने में पसंद करते हैं। सब्जियाँ, दाल, चावल और तवे की सिकी चपातियाँ। पुसदकर जी कहने लगे भाई कुछ तो ऐसा भी होना चाहिए था जो छत्तीसगढ़ की स्मृति बन जाए, लाल भाजी ही बनवा देते। पता लगा लाल भाजी भी थी। इस तरह की नयी खाद्य सामग्री में हमेशा मेरी रुचि बनी रहती है। मैं ने भाजी के पात्र में हरी सब्जी को पा कर पूछा यह लाल भाजी क्या नाम हुआ। संजीत ने बताया कि यह लाल रंग छोड़ती है। मैं ने अपनी प्लेट में सब से पहले उसे ही लिया। उन का कहना सही था। सब्जी लाल रंग छोड़ रही थी। उसे लाल के स्थान पर गहरा मेजेण्टा रंग कहना अधिक उचित होगा। संजीत ने बताया कि यह केवल यहीं छत्तीसगढ़ में ही होती है, बाहर नहीं। सब्जी का स्वाद बहुत कुछ हरी सब्जियों की ही तरह था। सब्जी अच्छी लगी। उसे खाते हुए मुझे अपने यहाँ के विशेष कट पालक की याद आई जो पूरी सर्दियों हम खाते हैं। बहुत स्वादिष्ट, पाचक और लोह तत्वों से भरपूर होता है और जो हाड़ौती क्षेत्र में ही खास तौर पर होता है, बाहर नहीं। हम उसे देसी पालक कहते हैं। दूसरी चीज जिस की मुझे याद आई वह मेहंदी थी जो हरी होने के बाद भी लाल रंग छोड़ती है।
भोजन के उपरांत हमने करीब दो घंटों का समय उसी गेस्ट हाउस में बिताया। बहुत बातें होती रहीं। छत्तीसगढ़ के बारे में, रायपुर, दुर्ग और भिलाई के बारे में, बस्तर और वहाँ के आदिवासियों के बारे में माओवादियों के बारे में और ब्लागिंग के बारे में, ब्लागिंग के बीच समय समय पर उठने वाले विवादों के बारे में। माओवादियों के बारे में पुसदकर जी और संजीत जी की राय यह थी कि वास्तव में ये लोग किसी वाद के नहीं है, उन्हों ने केवल माओवाद और मार्क्सवाद की आड़ ली हुई है, ये पड़ौसी प्रान्तों के गेंगेस्टर हैं और यहाँ बस्तर के जंगलों का लाभ उठा कर अपने धन्धे चला रहे हैं। इन का आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है। आदिवासी भी एक हद तक इन से परेशान हैं। इन का आदिवासियों के जीवन और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। पुसदकर जी कहने लगे कि कभी आप फुरसत निकालें तो आप को बस्तर की वास्तविकता खुद आँखों से दिखा कर लाएँ। ब्लागिंग की बातों के बीच संजीत ने छत्तीसगढ़ में एक ब्लागर सम्मेलन की योजना भी बनाने को पुसदकर जी से कहा। उन्हों ने कोशिश करने को अपनी सहमति दी।
चार बजे के बाद कॉफी आ गई जिसे पीते पीते हमें शाम के वादे याद आने लगे। मैंने चलने को कहा। हम वहाँ से प्रेस क्लब आए तब तक सांझ घिरने लगी थी। हमने संजीत और पुसदकर जी से विदा ली। वे बार बार फुरसत निकाल कर आने को कहते रहे और मैं वादा देता रहा। मुझे भी अफसोस हो रहा था कि मैं ने क्यों रायपुर के लिए सिर्फ आधे दिन का समय निकाला। पर वह मेरी विवशता थी। मुझे शीघ्र वापस कोटा पहुँचना था। दो फरवरी को बेटी पूर्वा के साथ बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) जो जाना था। हम संजीत और पुसदकर जी से विदा ले कर पाबला जी की वैन में वापस भिलाई के लिए लद लिए।
कल के आलेख पर आई टिप्पणियों में एक प्रश्न मेरे लिए भारी रहा कि मैं ने संजीत के लिए कुछ नहीं लिखा। इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए आज भी कठिन हो रहा है। मुझे पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं। वे रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे। वार्तालाप भी खूब हुआ। लेकिन? पूरे वार्तालाप में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं था। उन के बारे में व्यक्तिगत बस इतना जाना कि वे पत्रकार फिर से पत्रकारिता में लौट आए हैं और किसी दैनिक में काम कर रहे हैं जिस का प्रतिदिन एक ही संस्करण निकलता है। वास्तव में उन के बारे में मेरी स्थिति वैसी ही थी जैसे किसी उस व्यक्ति की होती जो वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता। मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता? और राम के सन्मुख लक्ष्मण की गतिविधि होती भी कितनी? मुझे लगता है संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा। हालांकि संजीत खुद अपने बारे में कहते हैं कि वे जब से जन्मे हैं रायपुर में ही टिके हुए हैं। उन्हों ने अपना कैरियर पत्रकारिता को बनाया। उस में बहुत ऊपर जा सकते थे। लेकिन? केवल रायपुर न छोड़ने के लिए ही उन्हों ने पत्रकारिता को त्याग दिया और धंधा करने लगे। मन फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ा तो वे किसी छोटे लेकिन महत्वपूर्ण समाचार पत्र से जुड़ गए। उन की विशेषता है कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज हैं और आज भी उन्हीं मूल्यों से जुड़े हैं। खुद खास होते हुए भी खुद को आम समझते हैं। आप खुद समझ सकते हैं कि उन्हें समझने के लिए खुद कैसा होना होगा?
तब तक दो बजने को थे। पुसदकर जी ने हमें दोपहर के भोजन के लिए चलने को कहा। हम सभी नीचे उतर गए। पुसदकर जी की कार में हम तीनों के अलावा केवल संजीत त्रिपाठी थे। पुसदकर जी खुद वाहन ड्राइव कर रहे थे। वे कहने लगे अगर समय हो तो भोजन के बाद त्रिवेणी संगम है वहाँ चलें, यहाँ से तीस किलोमीटर दूर है। मैं ने और पाबला जी ने मना कर दिया इस में रात वहीं हो जाती। मैं उस दिन रात का खाना अपने भाई अवनींद्र के घर खाना तय कर चुका था, यदि यह न करता तो उसे खास तौर पर उस की पत्नी को बहुत बुरा महसूस होता। मैं पहले ही उसे नाराज होने का अवसर दे चुका था और अब और नहीं देना चाहता था। अगले दिन मेरा दुर्ग बार में जाना तय था और कोटा के लिए वापस लौटना भी। रास्ते मे पुसदकर जी रायपुर के स्थानों को बताते रहे, यह भी बताया कि जिधर जा रहे हैं वह वही क्षेत्र है जहाँ छत्तीसगढ़ की नई राजधानी का विकास हो रहा है। कुछ किलोमीटर की यात्रा के बाद हम एक गेस्ट हाऊस पहुंचे जो रायपुर के बाहर था जहाँ से एयरपोर्ट और उस से उड़ान भरने वाले जहाज दिखाई दे ते थे। बीच में हरे खेत और मैदान थे। बहुत सुंदर दृश्य था। संजीत ने बताया कि यह स्थान अभी रायपुर से बाहर है लेकिन जैसे ही राजधानी क्षेत्र का विकास होगा यह स्थान बीच में आ जाएगा।
किसी ने आ कर बताया कि भोजन तैयार है। बस चपातियाँ सेंकनी हैं। हम हाथ धोकर अन्दर सजी डायनिंग टेबुल पर बैठ गए। भोजन देख कर मन प्रसन्न हो गया। सादा सुपाच्य भोजन था, जैसा हम रोज के खाने में पसंद करते हैं। सब्जियाँ, दाल, चावल और तवे की सिकी चपातियाँ। पुसदकर जी कहने लगे भाई कुछ तो ऐसा भी होना चाहिए था जो छत्तीसगढ़ की स्मृति बन जाए, लाल भाजी ही बनवा देते। पता लगा लाल भाजी भी थी। इस तरह की नयी खाद्य सामग्री में हमेशा मेरी रुचि बनी रहती है। मैं ने भाजी के पात्र में हरी सब्जी को पा कर पूछा यह लाल भाजी क्या नाम हुआ। संजीत ने बताया कि यह लाल रंग छोड़ती है। मैं ने अपनी प्लेट में सब से पहले उसे ही लिया। उन का कहना सही था। सब्जी लाल रंग छोड़ रही थी। उसे लाल के स्थान पर गहरा मेजेण्टा रंग कहना अधिक उचित होगा। संजीत ने बताया कि यह केवल यहीं छत्तीसगढ़ में ही होती है, बाहर नहीं। सब्जी का स्वाद बहुत कुछ हरी सब्जियों की ही तरह था। सब्जी अच्छी लगी। उसे खाते हुए मुझे अपने यहाँ के विशेष कट पालक की याद आई जो पूरी सर्दियों हम खाते हैं। बहुत स्वादिष्ट, पाचक और लोह तत्वों से भरपूर होता है और जो हाड़ौती क्षेत्र में ही खास तौर पर होता है, बाहर नहीं। हम उसे देसी पालक कहते हैं। दूसरी चीज जिस की मुझे याद आई वह मेहंदी थी जो हरी होने के बाद भी लाल रंग छोड़ती है।
भोजन के उपरांत हमने करीब दो घंटों का समय उसी गेस्ट हाउस में बिताया। बहुत बातें होती रहीं। छत्तीसगढ़ के बारे में, रायपुर, दुर्ग और भिलाई के बारे में, बस्तर और वहाँ के आदिवासियों के बारे में माओवादियों के बारे में और ब्लागिंग के बारे में, ब्लागिंग के बीच समय समय पर उठने वाले विवादों के बारे में। माओवादियों के बारे में पुसदकर जी और संजीत जी की राय यह थी कि वास्तव में ये लोग किसी वाद के नहीं है, उन्हों ने केवल माओवाद और मार्क्सवाद की आड़ ली हुई है, ये पड़ौसी प्रान्तों के गेंगेस्टर हैं और यहाँ बस्तर के जंगलों का लाभ उठा कर अपने धन्धे चला रहे हैं। इन का आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है। आदिवासी भी एक हद तक इन से परेशान हैं। इन का आदिवासियों के जीवन और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। पुसदकर जी कहने लगे कि कभी आप फुरसत निकालें तो आप को बस्तर की वास्तविकता खुद आँखों से दिखा कर लाएँ। ब्लागिंग की बातों के बीच संजीत ने छत्तीसगढ़ में एक ब्लागर सम्मेलन की योजना भी बनाने को पुसदकर जी से कहा। उन्हों ने कोशिश करने को अपनी सहमति दी।
चार बजे के बाद कॉफी आ गई जिसे पीते पीते हमें शाम के वादे याद आने लगे। मैंने चलने को कहा। हम वहाँ से प्रेस क्लब आए तब तक सांझ घिरने लगी थी। हमने संजीत और पुसदकर जी से विदा ली। वे बार बार फुरसत निकाल कर आने को कहते रहे और मैं वादा देता रहा। मुझे भी अफसोस हो रहा था कि मैं ने क्यों रायपुर के लिए सिर्फ आधे दिन का समय निकाला। पर वह मेरी विवशता थी। मुझे शीघ्र वापस कोटा पहुँचना था। दो फरवरी को बेटी पूर्वा के साथ बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) जो जाना था। हम संजीत और पुसदकर जी से विदा ले कर पाबला जी की वैन में वापस भिलाई के लिए लद लिए।
कल के आलेख पर आई टिप्पणियों में एक प्रश्न मेरे लिए भारी रहा कि मैं ने संजीत के लिए कुछ नहीं लिखा। इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए आज भी कठिन हो रहा है। मुझे पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं। वे रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे। वार्तालाप भी खूब हुआ। लेकिन? पूरे वार्तालाप में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं था। उन के बारे में व्यक्तिगत बस इतना जाना कि वे पत्रकार फिर से पत्रकारिता में लौट आए हैं और किसी दैनिक में काम कर रहे हैं जिस का प्रतिदिन एक ही संस्करण निकलता है। वास्तव में उन के बारे में मेरी स्थिति वैसी ही थी जैसे किसी उस व्यक्ति की होती जो वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता। मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता? और राम के सन्मुख लक्ष्मण की गतिविधि होती भी कितनी? मुझे लगता है संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा। हालांकि संजीत खुद अपने बारे में कहते हैं कि वे जब से जन्मे हैं रायपुर में ही टिके हुए हैं। उन्हों ने अपना कैरियर पत्रकारिता को बनाया। उस में बहुत ऊपर जा सकते थे। लेकिन? केवल रायपुर न छोड़ने के लिए ही उन्हों ने पत्रकारिता को त्याग दिया और धंधा करने लगे। मन फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ा तो वे किसी छोटे लेकिन महत्वपूर्ण समाचार पत्र से जुड़ गए। उन की विशेषता है कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज हैं और आज भी उन्हीं मूल्यों से जुड़े हैं। खुद खास होते हुए भी खुद को आम समझते हैं। आप खुद समझ सकते हैं कि उन्हें समझने के लिए खुद कैसा होना होगा?
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
वेबोल्यूशन्स की लेब और रायपुर के प्रेस क्लब में पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और त्रयम्बक शर्मा से भेंट
पाबला जी के यहाँ पहली रात थी, फिर भी थके होने से नीन्द जल्दी ही आ गई। सुबह 5-6 बजे के बीच खटपट से नींद खुली तो देखा मोनू कुछ कर रहा था। मुझे उठा देख उस ने पूछा, अंकल आप के लिए कॉफी बनाऊँ? मैं ने आश्चर्य व्यक्त किया कि, तुम जाग भी गए! बोला, अंकल मैं तो कॉफी पी कर दस पन्द्रह मिनट काम करुंगा फिर सोने जाउंगा, मेरा तो यह रूटीन है। मैं इसी वक्त सोता हूँ और 11-12 बजे तक उठता हूँ। सारी रात तो मेरा काम ही चलता रहता है। वह webolutions.in के नाम से वेबसाइट डिजाइन करने और उन्हें संचालित करने का काम करता है। मैं भी अपनी वेबसाइट उसी से डिजाइन कराने का इरादा रखता था। मैं ने उसे कहा कि हम अपनी तीसरा खंबा के लिए कब बैठेंगे? अंकल आज शाम तो मेरे पास काम है हाँ आधी रात के बाद बैठ सकते हैं। मैं ने उसे हाँ कह दिया। तब तक उस ने मुझे कॉफी दे दी, वह अपना कप ले कर अपनी लेब में चला गया, वही उस के सोने का स्थान भी है। इसी लेब के साथ का टॉयलट मैं ने कल दिन भर प्रयोग किया था। इस लेब में एक पीसी और एक लेपटॉप था। पीसी पर मोनू का सहायक और लेपटॉप पर खुद मोनू काम करते थे। पूरे घर में ऐसी व्यवस्था थी कि किसी भी कंप्यूटर या लैपटॉप पर बिना कोई तार के इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता था।
संजीव तिवारी, मैं अभिभाषक वाणी के ताजा अंक हाथ में लिए,
शकील अहमद सिद्दीकी और बी.एस. पाबला
मेरी सफर और नए शहर की थकान नहीं उतरी थी कॉफी से भी आलस गया नहीं। मैं ने फिर से चादर ओढ़ ली और जल्दी ही नींद फिर से आ गई। अब की बार पाबला जी ने जगाया तब तक सात से ऊपर समय हो चुका था, वे घोषणा कर रहे थे कि हमें 10 बजे रायपुर के लिए निकलना है। मुझे तुरंत तैयार होना था। वे नाश्ते की पूछते इस से पहले ही मैं ने उन से उस के लिए माफी चाही, एक दिन पहले खाए-पिए से ही निजात नहीं मिल सकी थी। पाबला जी ने कुछ ना नुकर के साथ मुझे माफ कर दिया। कुछ देर बाद ही पता लगा कि साढ़े नौ बजे संजीव तिवारी के साथ दुर्ग के वकील शकील जो अधिवक्ता संघ दुर्ग के मासिक पत्र अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी साहब आ रहे हैं। मैं और वैभव शीघ्रता से तैयार हो गए। उन्हें आते आते 10 बज गए। मैं दोनों से पहली बार मिला। वे ऐसे मिले जैसे बिछड़े परिजन मिले हों। बीसेक मिनट उन से बात चीत हुई और 30 जनवरी को 2 बजे दुर्ग बार एसोसिएशन पहुँचने का कार्यक्रम तय हो गया।रायपुर के लिए पाबला जी के घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए थे। पाबला जी को वैन में एलाइनमेंट की समंस्या नजर आई। वैन को टायर वाले के यहाँ ले गए। पाबला जी के कहने पर उसने एलाइनमेंट का काम पन्द्रह मिनट में पूरा कर दिया। वैन बाहर आई तो अचानक ऐक्सीलेटर ने जवाब दिया। उसे दुरुस्त करा कर हम रायपुर के लिए रवाना हुए। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि भिलाई से रायपुर तक सड़क के दोनों ओर उद्योगिक इकाइयाँ और खाली भूमि नजर आई लेकिन खेती का नामोनिशान तक न था। लगता था दुर्ग से ले कर रायपुर तक सब जगह केवल उद्योग हैं या बस्तियाँ। भिलाई में जरूर सघन वृक्षावली नजर आती हैं लेकिन वह भिलाई स्टील प्लाण्ट और टाउनशिप के निर्माताओं के प्रारूपण का कमाल है। भिलाई 52 कारखाने और उन का प्रदूषण होते हुए भी उस का असर इस वृक्षावली के कारण ही कम नजर आता है। पता नहीं कब नगर नियोजकों को यह गुर समझ आएगा कि नगर में भी बीच बीच में खेती और बागवानी के लिए भूमि आरक्षित की जाए तो प्रदूषण का मुकाबला करना कितना आसान हो सकता है?
कार्टून वॉच का जनवरी अंक मेरे हाथ में, अनिल पुसदकर, त्रयम्बक शर्मा और वैभव
रायपुर प्रेसक्लब पहुँचे तो एक बज चुके थे। अनिल पुसदकर जी और संजीत त्रिपाठी कुछ अन्य पत्रकार साथियों के साथ बाहर ही प्रतीक्षा करते मिले। पुसदकर जी जैसे चित्र में लगते हैं, उस से कहीं कम उम्र के लगे। पहले उन्हों ने हमें प्रेस क्लब की पूरी इमारत का अवलोकन कराया। भूतल के एक हॉल में प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी। पूरी इमारत दिखाने के बाद प्रथम तल के एक बड़े कॉन्फ्रेन्स हॉल में मंच के दाहिनी और हम सब बैठे बतियाने लगे। सब से परिचय हुआ। वे बताने लगे कि कैसे उन्हों ने अपने पत्रकारिता जीवन में अनेक समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के लिए पत्रकारिता का कार्य किया है। पूरे विवरण में जो जरूरी बात नोट की जिसे वे छिपा रहे वह यह कि उन का छत्तीसगढ़ से बहुत लगाव रहा है। उन्हों ने छत्तीसगढ़, वहाँ की जनता और पत्रकारों के हितों के लिए अनेक बार अपने रोजगार को भी दाँव पर लगाया मुख्यमंत्री और उस स्तर तक के नेताओं से कभी समझौता नहीं किया। आज मोतीबाग के बीच प्रेस क्लब की जो शानदार और सुविधाजनक इमारत खड़ी है। उस में उन का योगदान सर्वोपरि है।ब्लागरी के बारे में बात चली तो अनिल जी कहने लगे कि यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ अपने विचार बिना किसी संकोच, दबाव और प्रभाव के स्वतंत्रता पूर्वक रखे जा सकते हैं। वहाँ हाजिर सभी व्यक्ति सहमत थे। वहीं कार्टून वॉच के संपादक त्रयम्बक शर्मा आ गए और चर्चा में सम्मिलित हो गए। उन्हों ने मुझे और पाबला जी को पत्रिका के जनवरी अंक की एक-एक प्रति भेंट की। कार्टून वॉच को इंटरनेट पर भी देखा है। लेकिन पत्रिका के रूप में देखना बहुत अच्छा लगा। मुझे बरसों पहले प्रकाशित होने वाली एक मात्र पत्रिका शंकर्स वीकली का स्मरण हो आया। जिस का मैं नियमित ग्राहक था। यहाँ तक कि उस में प्रकाशित होने वाले कार्टूनों की नकल कर के अपने कार्टून बनाने के प्रयास भी किए। लेकिन कुछ समय बाद वह पत्रिका बन्द हो गई और हमारे कार्टूनिस्ट कैरियर का वहीं अंत हो गया। मैं ने त्रयम्बक जी ने बताया कि पत्रिका 12 वर्षों से लगातार निकल रही है और देश की एकमात्र कार्टून पत्रिका है। मैं इस तथ्य से ही रोमांचित हो उठा। मैं ने त्रयम्बक जी को उसी समय वार्षिक शुल्क दिया। उन्होंने उस की रसीद देने में असमर्थता जताई। लेकिन रसीद के रूप में पत्रिका का फरवरी अंक मुझे समय पर मिल गया। मेरी सोच यह है कि ब्लागरों को इस पत्रिका का शुल्क दे कर इस का ग्राहक बनना चाहिए। जिस से इस एकमात्र कार्टून पत्रिका को आगे बढ़ने का अवसर मिले। त्रयंबक जी को कहीं और काम होने से वे जल्दी ही चले गए। ...........आगे अगली कड़ी में
कार्टून वॉच के लिए संपर्क
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
वसंत का अंत, इतनी जल्दी
जब भी वसंत आता है तो चार बरस की उमर में दूसरी कक्षा की पुस्तक का एक गीत स्मरण हो आता है....
आया वसंत, आया वसंत
वन उपवन में छाया वसंत
गैंदा और गुलाब चमेली
फूल रही जूही अलबेली
देखो आमों की हरियाली
कैसी है मन हरने वाली
जाड़ा बिलकुल नहीं सताता
मजा नहाने में है आता .....
इस के आगे की पंक्तियाँ अब स्मरण नहीं हैं। यह गीत भी इसलिए याद आता है कि माँ वसन्त पंचमी के दिन से ही स्कूल जाने के पहले मुझे नहलाने के पहले इसे जरूर सुनाती थी, और मैं इसे सुनते-गाते ताजे पानी की ठंडक झेल जाता था। वाकई वसंत खूबसूरत मौसम है। समस्या इस के साथ यह कि यह हमारे यहाँ बहुत जल्दी चला भी जाता है। 31 जनवरी को जब वसंत पंचमी थी तो फूल ठीक से खिलने भी नहीं लगे थे। उस के बाद शादियों का दौर चला कि भाग दौड़ में पता ही नहीं चला कि वसंत भी है और अब जब वसंत को चीन्हने की फुरसत हुई है तो देखता हूँ नीम में पतझऱ शुरू हो गया है। हमारे अदालत परिसर में नीम बहुत हैं। इन दिनों अदालत परिसर की भूमि इन गिर रहे पत्तों से पीली हुई पड़ी है। शहर की सड़कों का भी यही नजारा है जहाँ किनारे-किनारे नीम लगे हैं। पर यह पतझर भी नवीन के आगमन का ही संकेत है। कुछ दिनों में नयी कोंपलें फूटने लगेंगी और हमारा नया साल आ टपकेगा। उस दिन से कोंपलों की चटनी की गोलियाँ जो खानी है।
अभी नए साल में महीना शेष है। अभी तो होली के दिन हैं, फाग का मौसम। पर इस बार कहीं चंग की आवाज सुनाई नहीं देने लगी है। नगर के लोगों में गाने, बजाने और नाचने का शऊर नहीं, वे नाचेंगे भी तो कैसेट या सीडी बजा कर। वाद्य तो गायब ही हो चुके हैं। चमड़े का स्थान किसी एनिमल फ्रेण्डली प्लास्टिक ने ले लिया है, इस से आवाज तो कई गुना तेज हो गई है लेकिन मिठास गायब है। इस साल घर के आसपास किसी इमारत का निर्माण भी नहीं चल रहा है जिस में लगे मजदूर रात को देसी के सरूर में चंग बजाते फाग गाएँ और अपनी अपनी प्रियाओं को रिझाएँ। मुझे याद आता है कि दशहरा मैदान में नगर निगम के नए दफ्तर की इमारत बन रही है। रात को स्कूटर ले कर उधर निकलता हूँ तो कोई हलचल नजर नहीं आती। कुछ छप्परों में आग जरूर जल रही होती है। मैं वहाँ से निकल जाता हूँ। वापस लौटता हूँ तो चंग की आवाज सुनाई देती है। मजदूर इकट्ठे होने लगे हैं। कोई एक गाना शुरू करता है। उन में से एक चंग पर थाप दे रहा है। कुछ ही देर में प्रियाएँ भी निकल आती हैं वे भी सुर मिलाने लगती हैं और नाच शुरू हो जाता है। मैं सड़क किनारे अकेला स्कूटर रोक कर उस पर बैठा हूँ। लोग उन्हें देख कर नहीं, मुझे देख देख कर जा रहे हैं जैसे मैं कोई अजूबा हूँ। मैं अजूबा बनने के पहले ही वहाँ से खिसक लेता हूँ।
घर लौटता हूँ तो दफ्तर में कोई बैठा है। मैं उन से बात करता हूँ। वे जाने लगते हैं तो दरवाजे तक छोड़ने आता हूँ। दरवाजे के बाहर लगे सफेद फूलों से लदे कचनार पर उन की दृष्टि जाती है तो कहते हैं, फूल शानदार खिले हैं, खुशबू भी जोरदार है। मैं अपनी नाक में तेजी से फूलों की खुशबू घुसती मंहसूस करता हूँ। वे चल देते हैं। तभी छींक आती है। मैं अंदर दफ्तर में लौटता हूँ। कुछ ही देर में नाक में जलन आरंभ हो जाती है और समय के साथ बढती चली जाती है। मैं समझ जाता हूँ कि कचनार के फूलों से निकले पराग कणों ने प्रिया से न मिल पाने का सारा गुस्सा मुझ पर निकाला है। मैं जुकाम और "हे फीवर" की दवा में लग जाता हूँ। तीन दिन यह वासंती कष्ट भुगतने पर कुछ आराम मिलता है। शाम को बेटी से फोन पर बात करता हूँ तो उस की आवाज भारी लगती है। बताती है उसे जुकाम हो गया है। पत्नी कहती है, पापा को हुआ था तो बेटी को तो होना ही था। वह फोन पर बेटी को दवाओं के नामं और उन्हें लेने की हिदायतें देने लगी है। बेटी बताती है कि वह उन हिदायतों पर पहले ही अमल शुरू कर चुकी है। इधर दिन में तेज गर्मी होने लगी है। मेरे कनिष्ठ वकील नन्दलाल दिन में कह रहे थे, तापमान बढ़ जाने से इस बार फसलें एक माह से बीस दिन पहले ही पक गई हैं। मैं कहता हूँ, अच्छा है फसल जल्दी आ गई। वे बताते हैं, लेकिन फसल का वजन कम हो गया है।
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
तुम्हारी जय !
'गीत'
तुम्हारी जय!
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्रकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
- महेन्द्र नेह
तुम्हारी जय!
- महेन्द्र 'नेह'
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्रकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
- महेन्द्र नेह
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रविवार, 22 फ़रवरी 2009
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
की ये ग़ज़ल अपनी अनभिज्ञताओं के बारे में ......
मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता
इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता
वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता
*******************************
की ये ग़ज़ल अपनी अनभिज्ञताओं के बारे में ......
क्या पता ?
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता
इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता
वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
सच कहा........
महेन्द्र 'नेह' का एक और गीत
सच कहा
सच कहा
सच कहा
सच कहा
बस्तियाँ बस्तियाँ सच कहा
कारवाँ कारवाँ सच कहा
सच कहा जिंदगी के लिए
सच कहा आदमी के लिए
सच कहा आशिकी के लिए
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा और जहर पिया
सच कहा और सूली चढ़ा
सच कहा और मरना पड़ा
पीढ़ियाँ पीढ़ियाँ सच कहा
सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा फूल खिलने लगे
सच कहा यार मिलने लगे
सच कहा होठ हिलने लगे
बारिशें बारिशें सच कहा
आँधियाँ आधियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
-महेन्द्र नेह
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