जब भी वसंत आता है तो चार बरस की उमर में दूसरी कक्षा की पुस्तक का एक गीत स्मरण हो आता है....
आया वसंत, आया वसंत
वन उपवन में छाया वसंत
गैंदा और गुलाब चमेली
फूल रही जूही अलबेली
देखो आमों की हरियाली
कैसी है मन हरने वाली
जाड़ा बिलकुल नहीं सताता
मजा नहाने में है आता .....

अभी नए साल में महीना शेष है। अभी तो होली के दिन हैं, फाग का मौसम। पर इस बार कहीं चंग की आवाज सुनाई नहीं देने लगी है। नगर के लोगों में गाने, बजाने और नाचने का शऊर नहीं, वे नाचेंगे भी तो कैसेट या सीडी बजा कर। वाद्य तो गायब ही हो चुके हैं। चमड़े का स्थान किसी एनिमल फ्रेण्डली प्लास्टिक ने ले लिया है, इस से आवाज तो कई गुना तेज हो गई है लेकिन मिठास गायब है। इस साल घर के आसपास किसी इमारत का निर्माण भी नहीं चल रहा है जिस में लगे मजदूर रात को देसी के सरूर में चंग बजाते फाग गाएँ और अपनी अपनी प्रियाओं को रिझाएँ। मुझे याद आता है कि दशहरा मैदान में नगर निगम के नए दफ्तर की इमारत बन रही है। रात को स्कूटर ले कर उधर निकलता हूँ तो कोई हलचल नजर नहीं आती। कुछ छप्परों में आग जरूर जल रही होती है। मैं वहाँ से निकल जाता हूँ। वापस लौटता हूँ तो चंग की आवाज सुनाई देती है। मजदूर इकट्ठे होने लगे हैं। कोई एक गाना शुरू करता है। उन में से एक चंग पर थाप दे रहा है। कुछ ही देर में प्रियाएँ भी निकल आती हैं वे भी सुर मिलाने लगती हैं और नाच शुरू हो जाता है। मैं सड़क किनारे अकेला स्कूटर रोक कर उस पर बैठा हूँ। लोग उन्हें देख कर नहीं, मुझे देख देख कर जा रहे हैं जैसे मैं कोई अजूबा हूँ। मैं अजूबा बनने के पहले ही वहाँ से खिसक लेता हूँ।
