@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा



कोटा, 16 अप्रेल 2010

मित्रों!
आज व्यस्तता रही। अदालत से आने के बाद बाहर जाने की तैयारी करनी पड़ी। अब कम से कम दो दिन और अधिक से अधिक चार दिनों तक कोटा से बाहर रहना हो सकता है, वहीं जहाँ के ये दोनों चित्र हैं। चाहें तो आप पहचान सकते हैं. ये दोनों चित्र अनवरत की पिछली पोस्टों पर उपलब्ध हैं।

लगभग ढाई वर्ष से हिन्दी ब्लागीरी में हूँ, और यहाँ नियमित बने रहने का प्रयास रहता है। पर फैज़ सही कह गए हैं -और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा।

तो उन का भी खयाल तो रखना होता है।

यदि समय मिला और आप से जुड़ने का साधन तो इस बीच भी आप से राम-राम अवश्य होगी।


--- दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कुछ दिनों के शहंशाह से मुलाकात

प नौकरी करते हैं, हर माह वेतन मिल जाता है। भविष्य की सुरक्षा के लिए भी कुछ न कुछ पीएफ आदि में जमा होता है। चिकित्सा और दुर्घटना के वक्त की भी कुछ न कुछ सुरक्षा रहती है है। आप कोई ठीक ठीक व्यवसाय करते हैं तो भी कुछ न कुछ जमा कर के रखते हैं या फिर जमा को कहीं नियोजित कर अपनी सुरक्षा कर लेते हैं। मगर दुनिया में बहुत लोग ऐसे होते हैं जो सुबह कमाने निकलते हैं और शाम कुछ लेकर आते हैं तो जिन्दगी चलती है। इन में से कुछ तो बचत कर रखते हैं। इस श्रेणी के कुछ लोग कुछ ऐसे धंधों में उलझे रहते हैं जिस में कभी मालामाल तो कभी कंगाल वाली स्थिति रहती है। ये सटोरिए, जुआरी या लाटरीबाज कुछ भी हो सकते हैं। इन्हीं में से एक से इन दिनों मुझे मिलने का अवसर मिला।
 मैं एक मुकदमा लड़ रहा हूँ। जिस में एक विधवा स्त्री ने एक मकान के बंटवारे का मुकदमा किया हुआ है। मकान की कीमत कोई 24-25 लाख है। उस विधवा स्त्री का हिस्सा भी 1/24 ही है। इतना ही उस की दो बेटियों और उस के पुत्र का है,  बाकी हिस्से उस के देवरों के हैं। मुकदमा करने के बाद जब प्रतिवादियों को समन मिले तो उन में से एक देवर सीधे मेरे पास चला आया कहने कि आप ही मेरा मुकदमा लड़ लें। मैं ने मना कर दिया कि मैं तो आप की भाभी का वकील हूँ और आप प्रतिवादी हैं। दूसरा वकील करना पड़ेगा। उस ने मेरे नजदीक बैठने वाले एक वकील को तय कर लिया, उन्हों ने उस की ओर से वकालतनामा दाखिल कर जवाब पेश करने के लिए समय ले लिया। अगली पेशी पर वह नहीं आया, न ही वकील से संपर्क किया और न ही उन्हें फीस दी। वकील साहब ने एक पेशी ले ली, वह फिर भी नहीं आया। मुकदमे में उस का जवाब पेश करने का अवसर समाप्त कर दिया गया। विवाद्यक बन गए और मुकदमा साक्ष्य में आ गया। मैं ने अपनी मुवक्किल की ओर से गवाह सबूत पेश कर दिए। मुकदमा प्रतिवादियों की गवाही के लिए निश्चित हो गया। 
चार दिन पहले इस मुकदमे में पेशी थी। सुबह अदालत के लिए रास्ते में ही फोन आया कि आप अभी तक कोर्ट नहीं आए और हम यहाँ आप का इंतजार कर रहे हैं, मैं ने फोन करने वाले को नहीं पहचाना। अदालत पहुँचने पर मेरे कनिष्ठ ने बताया कि एक आदमी आप को तीन बार पूछ गया है, पागल सा लगता है और उस महिला के मुकदमे से संबंधित है। मैं उसी मुकदमे में अदालत जाने वाला था कि वह व्यक्ति आ गया। आते ही बोला -आप मुझे मुकदमे की फाइल दे दें। मैं ने पूछा -भाई तुम कौन हो? उस ने बताया कि वह उस विधवा स्त्री का देवर है। मैं ने उस से कहा -तुम तो हमारे प्रतिवादी हो तुम्हें फाइल कैसे दे दूँ? तुम मेरी मुवक्किल को भेज दो उसे दे दूंगा। इस पर वह बिफर उठा -आप ने कुछ नहीं किया, साल भर हो गया। आप फाइल कैसे नहीं देंगे? मैं ने उसे कहा कि तुम हमारे मुवक्किल नहीं हो, मैं तुम्हारे खिलाफ वकील हूँ। तुम्हें मुझ से बात नहीं करनी चाहिए। तुंम यहाँ से जाओ। इस पर वह लड़ने को उतारू हो गया। मुझे भी कुछ गुस्सा आया। मैं ने उसे डांटा भी। एक बारगी तो मन में आया कि उसे एक-दो हाथ जड़ दूँ। पर उस से क्या होगा? यह सोच रुक गया। इतने में मेरे कनिष्ठ उसे पकड़ कर ले गए और दूर छोड़ आए। इस बीच हो-हल्ला सुन कर भीड़ इकट्ठी हो गई। 
कुछ देर बाद मैं अदालत में पहुँचा वहाँ एक और प्रतिवादी के वकील मिले। उन्हों ने बताया कि वह कल शाम दारू पी कर उन के दफ्तर पहुँचr था और उन्होंने उसे भगा दिया था। मुझे कहने लगे उस की तो पिटाई कर देनी चाहिए थी। मैं ने उन्हें कहा कि इस का हमें क्या हक है? हर किसी को सिर्फ न्यूसेंस को हटाने का हक है वह हम ने हटा दिया। कुछ देर बाद वह व्यक्ति भी एक वकील के साथ न्यायालय में आ गया। जिस वकील को साथ ले कर आया था वह कहने लगा कि उन्हें तो केवल हमारी केस फाइल की प्रतिलिपि चाहिए ताकि वे आगे कार्यवाही कर सकें। मैं ने उन्हें बताया कि पहले एक और वकील इन के वकील रह चुके हैं, उन के पास इस की फाइल होगी और उन की अनुमति य़ा अनापत्ति के बिना दूसरा वकील इस में आ नहीं सकता। आप के मुवक्किल को उन से संपर्क करना चाहिए। मुकदमे में उस दिन की कार्यवाही के बाद अगली पेशी हो गई। 
ज सुबह मैं एक नए मुकदमे में अपने मुवक्किल की ओर से वकालतनामा दाखिल करने के लिए उस अदालत में जा रहा था कि सीढ़ियों के नीचे वही व्यक्ति मुझे दिखाई दे गया। उस ने मुझे नमस्ते किया और मेरी ओर आने लगा तो पास में खड़े सिपाही ने उस का हाथ पकड़ लिया। सिपाही के साथ ही वह मेरे नजदीक आया, तो मैं ने देखा कि उस के हाथ, पैऱ चेहरा सब सूजे हुए हैं, जैसे उसे खूब मारा गया हो। मैं ने पूछा -ये क्या हुआ?  सिपाही ने जवाब दिया कि इस के खिलाफ 4/25 शस्त्र अधिनियम का मुकदमा बना है। वह कहने लगा -साहब मुझे तो घर से उठा कर ले गए, थाने और वहाँ खूब पिटाई की है, मुझे पूरा सुजा दिया है और मेडीकल भी नहीं करवा रहे हैं। मैंने उसे कहा -तुम्हें मजिस्ट्रेट को ये सब बताना चाहिए। उस ने कहा -मजिस्ट्रेट के सामने तो मुझे पेश ही नहीं किया। सिपाही ने मुझे बताया कि -इस की जमानत देने वाला कोई नहीं आया इसलिए इसे जेल ले जाना पड़ेगा। फिर कहने लगे -इस का मामला ऐसा ही है, यह साल में कम से कम एक बार तो अंदर हो ही जाता है।  यूँ तो अपनी जरूरत के मुताबिक कमाने में ही इस का इतना समय निकल जाता है कि यह केवल शरीफ ही बना रह सकता है।  लेकिन यह थोड़ा बहुत सट्टा वगैरा लगाता रहता है। कभी लग गया, तो इकट्ठा पैसा मिलते ही यह बादशाह और थोड़ी शराब गले से नीचे उतरते ही शहंशाह हो जाता है। फिर किसी को कुछ नहीं समझता। किसी से लड़ पड़ता है, मारपीट कर देता है। जिस से लड़ेगा वह पुलिस के पास ही आएगा। फिर हम इसे पकड़ लाते हैं। नशे की हालत में यह पुलिस को भी कुछ नहीं समझता। ऐसे बात करता है  जैसे पुलिस कमिश्नर लगा हो। तब इस की यह हालत होती है और कुछ दिन बड़े घऱ का मेहमान बन कर लौटता है।
मैं कहानी समझ गया था कि हर बार पुलिस इसे पुलिस एक्ट में या शांति भंग के आरोप में पकड़ती होगी और यह एक-दो दिन में छूट जाता होगा और मुकदमा भी वहीं समाप्त हो जाता होगा। इस बार पुलिस ने इस से  कोई धारदार हथियार या तो वाकई बरामद कर लिया है और नहीं तो बरामद करना दिखा कर लंबा तान दिया है ताकि कम से कम तारीखें तो करेगा। शायद इसी से इस की ये आवारगी काबू में आ जाए।

हो सकता है राजस्थान सरकार को अब शर्म आए

 ज अखबारों में खबर थी .....

कोटा न्यायालय होगा ऑनलाइन

कोटा. राजस्थान के अन्य न्यायालयों के साथ ही अगले वर्ष मार्च तक कोटा न्यायालय भी ऑनलाइन हो जाएगा। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट मुकेश भार्गव ने बताया कि अभी वर्तमान में मुख्य जोधपुर राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर सेशन न्यायालय एवं जयपुर खंडपीठ हाईकोर्ट ऑनलाइन किया हुआ है।
आगामी मार्च 2011 तक पूरे राजस्थान के न्यायालय के साथ-साथ कोटा जिले की सभी न्यायालयों में कम्प्यूटर लगा दिए जाएंगे। प्रकरणों के फैसले, नकलें, कॉज लिस्ट सहित अन्य न्यायिक कामकाज कम्प्यूटर के जरिए पूरे होंगे।
उन्होंने बताया कि कोटा न्यायालय में बिजली फिटिंग का कार्य तेजी से चल रहा है। प्रत्येक कोर्ट में चार-चार कम्प्यूटर व प्रिंटर लगाए जाएंगे। एक-एक कम्प्यूटर स्टेनो, रीडर एवं क्लर्क को दिए जाएंगे। न्यायिक कर्मचारियों को कम्प्यूटर की ट्रेनिंग भी दी जाएगी।
 अब इस खबर को पढ़ कर मुझे प्रसन्नता होनी चाहिए थी। हुई भी, कि चलो अब कुछ तो काम तेजी से होने लगेगा। अभी तो आलम ये है कि मुकदमे में फैसला हो जाता है, अक्सर दो-तीन दिन  बाद, जब वह टाइप हो जाता है और जज द्वारा उस की एक एक हिज्जे जाँच कर दस्तखत कर दिए जाते हैं तब पढ़ने को मिलता है। अब तुरंत पढ़ने को मिलने लगेगा। किसी मुकदमे की तारीख और नंबर तलाश करने में पसीना आ जाता है। निर्णयों और अन्य दस्तावेजों की नकलें लेने में सप्ताह भर लग जाता है। शायद अब इस समय में कटौती हो जाए और काम तुरंत होने लगे। निश्चित रूप से कंप्यूटर अदालत के कामकाज को बेहतर और तेज करेगा।
कंप्यूटर लगाने के लिए अदालत में और जजों के चैम्बरों में लाइन की फिटिंग हो रही है।  यह सब हो रहा है केंद्र द्वारा कंप्यूटरों की स्थापना के लिए दिए गए अनुदान से। लेकिन तभी मेरा ध्यान यहाँ के श्रम न्यायालय की ओर गया। इस न्यायालय में करीब 4000 हजार मुकदमे में हैं और एक वरिष्ठ उच्च न्यायिक सेवा अधिकारी यहाँ पद स्थापित किया जाता है। लेकिन इस अदालत को इस की स्थापना 1978 के समय दो मैनुअल टाइपराइटर प्रदान किए गए थे, अब तक उन्हीं से काम चलाया जा रहा है। एक टाइपराइटर की उम्र 15 से 20 वर्ष से अधिक की नहीं होती। यदि उस से लगातार काम लिया जाए तो वह इतने वर्ष भी नहीं चल सकता। लेकिन इस अदालत का स्टॉफ उसी से काम चला रहा है। 
दिन में अदालत के निजि सहायक मुझे मिल गए। मैं ने पूछा अपनी अदालत में कंप्यूटर कब आ रहे हैं? तो वे बड़ी मायूसी से कहने लगे कि छह साल हम को कंप्यूटरों के लिए राज्य सरकार को लिखते हो गए हैं। श्रम विभाग वित्तीय स्वीकृति के लिए वित्त विभाग को लिख देता है वहाँ से स्वीकृति नहीं मिलती। मैं ने राज्य की दूसरे श्रम न्यायालयों के लिए पूछा तो वे बता रहे थे कि जयपुर के श्रम न्यायालय के सभी टाइपराइटर टूट गए तो राज्य सरकार ने वहाँ एक कंप्यूटर दिया है। वाकई स्थिति बहुत निराशा जनक है। हो सकता है अब जब सब से निचले न्यायालय में भी चार-चार कंप्यूटर स्थापित हो जाएँ तब शायद राजस्थान सरकार को भी शर्म आने लगे और और वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों में भी कंप्यूटर स्थापित करे और इन में भी काम की गति और गुणवत्ता में कुछ सुधार हो सके।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

जलियाँवाला बाग के शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि!!!

ज बैसाखी (वैशाखी) है। यह दिन अधिकांशतः 13 अप्रेल को ही होता है क्यों कि यह उस दिन होता है जिस दिन सूर्य की मेष संक्रांति होती है। इस दिन सूर्य मीन राशि के क्षेत्र को छोड़ कर मकर राशि के क्षेत्र में प्रवेश करता है। हमारा ग्रीगेरियन कलेंडर भी सौर गणना से बनता है। इस कारण से सूर्य की सभी संक्रांतियाँ हर वर्ष एक ही तिथि को आती हैं। हालांकि लीप इयर के आस पास इस में एक दिन का अंतर हो सकता है। 
मेष राशि राशिचक्र की पहली राशि है इस कारण से हम कह सकते हैं कि यह सौर वर्ष का पहला दिन भी है। इन्हीं दिनों खेतों से रबी की फसलें आती हैं तो किसानों के घर प्रसन्नता का वातावरण रहता है। पंजाब में बैसाखी को सब से अधिक उत्साह और समारोह पूर्वक मनाया जाता है। वहाँ स्थान स्थान पर मेले लगते हैं। लोग सरोवरों व नदियों में स्नान करते हैं और मंदिरों व गुरुद्वारों में शीश नवातेहैं। लंगर लगते हैं और लोग प्रसन्न दिखते हैं विशेष रूप से किसान का मन गेहूं की खडी फसल को देखकर नाचने लगता है। गेहूं को पंजाबी कनक माने सोना कहते हैं और यह फसल किसान के लिए सोना ही है। बैसाखी पर कनक की कटाई शुरू हो जाती है। पंजाबी कहीं भी रहें, बैसाखी को नहीं भूलते। 
गुरु गोविंद सिंह ने 1699 ई. की बैसाखी पर आनंदपुर साहिब में विशेष समागम किया। इसमें देश भर की  सिख संगतों ने शामिल होकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। उन्हों ने इस मौके पर संगत को ललकार कर कहा था "देश की गुलामी की कडियां तोडने के लिए मुझे एक शीश चाहिए। गुरु साहिब की ललकार सुनकर पांच सूरमाओं दया सिंह खत्री, धर्म सिंह जट, मोहकमसिंह छीवां,साहिब सिंह व हिम्मत सिंह ने अपने शीश गुरु साहिब को भेंट किए। ये सिंह गुरु साहिब के पांच प्यारे हुए। गुरु साहिब ने पहले इन्हें अमृत पान करवाया फिर उनसे खुद अमृत पान किया। इस तरह खालसा पंथ का जन्म हुआ। हर वर्ष बैसाखी पर खालसा का जन्म दिवस मनाया जाता है।बैसाखी पंजाबियों का सबसे बडा मेला है।  इसका नाम लेते ही उन के दिलों की धडकनें बढ जाती है, शरीर थिरकने लगते हैं और भंगडा शुरू हो जाता है।
13अप्रैल, 1919 को ही जलियांवालाबाग में देश की आजादी के लिए  रही सभा जनरल डायर के सिपाहियों  ने  अपनी बंदूकों के मुहँ खोल दिए। लोग गोलियों के आगे सीना ताने खडे रहे और शहीद हो गए। जो आग उस दिन देश के सीनों में सुलगी उसी के कारण आज हम अंग्रेजों के पंजों से आजाद भारत में साँस ले रहे हैं।  इसी जलियाँवाला बाग की शहादत ने भगतसिंह को एक क्रांतिकारी बनने को प्रेरित किया था। क्या हम आज भी शहीद भगत सिंह के उस लक्ष्य को हासिल कर पाए हैं जिस में एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी का और एक देश द्वारा दूसरे के शोषण की समाप्ति निहित थी। निश्चय ही यह लक्ष्य अभी बहुत दूर है। उस के लिए दुनिया के बहुत लोगों को अभी बलिदान देने शेष हैं। हम आज के दिन संकल्प कर सकते हैं कि हम उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने जीवन का कुछ समय अवश्य देंगे।

 
 अंत में
जलियाँवाला बाग के शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि!!!

होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है

मैं ने सहज ही डॉ हैनिमेन जन्मदिवस पर अपनी बात अपने अनुभव  के साथ रखी थी। उस पर आई टिप्पणियों में होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और अंधविश्वास होने की हद तक आपत्तियाँ उठाई गईं। तब मैं ने अपनी अगली पोस्ट में एक सवाल खड़ा किया कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है
स पोस्ट पर उन्हीं मित्रों ने पुनः होमियोपैथी को अवैज्ञानिक बताया और कुछ ने उस पर विश्वास को अंधविश्वास भी कहा। भाई बलजीत बस्सी ने तो यहाँ तक कहा कि---
"दावे पर दावा ठोका जा रहा है. मैं हैरान हूँ हमारे देश का पढ़ा लिखा तबका अंध-विश्वास में पूरी तरह घिर चूका है. यहाँ तो विज्ञानं पर से ही विश्वास उठ चूका है. मनुष्य के शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत होती है और ६०% प्लेसीबो प्रभाव भी होता है"।
डॉ. अमर की प्रारंभिक टिप्पणी बहुत संयत थी कि -
"मैं विरोधी तो नहीं, किन्तु इसे लेकर अनावश्यक आग्रहों से घिरा हुआ भी नहीं !
सिबिलिया सिमिलिस आकर्षित तो करती है, और इसमें मैंनें मगजमारी भी की है ।
ऍलॉस पैथॉस के सिद्धान्त को लेकर आलोच्य ऎलोपैथिक से जुड़े विज्ञान सँकाय, आज जबकि मॉलिक्यूलर मेडिसिन की ओर उन्मुख हो रहा है । होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है । लक्षणों के आधार पर दी जाने वाली दवायें सामान्य स्थिति में उन्हीं लक्षणों के पुनर्गठन में असफ़ल रही हैं । अपने को स्पष्ट करने के लिये मैं कहूँगा कि The results of any scientific experiment should be repeatedly reproducible in universality ! जहाँ बात जीवित मानव शरीर से छेड़खानी की हो, वहाँ सस्ते मँहगे और मुनाफ़े से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर, उपचार की तार्किकता देखनी चाहिये ।" 
लेकिन बाद की टिप्पणियों में वे भी संयम तोड़ गए। 
मैं मानता हूँ कि होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है। होमियोपैथी का अपना सैद्धांतिक पक्ष है। उस का अपना एक व्यवहारिक पक्ष भी है। ऐलोपैथी के समर्थकों का एक ही तर्क होमियोपैथी पर भारी पड़ता है कि आखिर उस की 30 शक्ति वाली दवा इतनी तनुकृत हो जाती है कि उस की एक खुराक में मूल पदार्थ के एक भी अणु के होने की संभावना गणितीय रूप से समाप्त हो जाती है। इस तर्क पर होमियोपैथी के समर्थकों की ओर से जो तर्क दिए जाते हैं वे निश्चित रूप से आज गले उतरने लायक नहीं हैं। उन्हीं तर्कों के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक करार दिया जाता है।
दि हम बलजीत बस्सी के कथन पर ध्यान दें कि शरीर में स्वयं खुद को ठीक करने की शक्ति होती है और 60 प्रतिशत प्लेसबो प्रभाव होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। मनुष्य के अतिरिक्त इस हरित ग्रह पर संपूर्ण जीवन बिना किसी चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहा है और उस ने अपना विकास किया है। लेकिन यह कह देने से काम नहीं चल सकता। हम स्वयं जानते हैं कि मनुष्य को चिकित्सा की आवश्यकता है और यदि चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं होती तो आज मानव विश्व पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं होता। निश्चित रूप से ऐलोपैथी ने मानव को आगे बढ़ने, उस की आबादी में वृद्धि करने और उस की उम्र बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन ऐलोपैथी की इस विश्वविजय के उपरांत भी दुनिया भर में अन्य औषध पद्धतियाँ मौजूद हैं और समाप्त नहीं हुई हैं। ऐलोपैथी का यह साम्राज्य भी उन्हीं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की नींव पर खड़ा हुआ है। आज भी विभिन्न प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों से ऐलोपैथी निरंतर कुछ न कुछ ले कर स्वयं को समृद्ध करती रहती है। 
ह भी एक तथ्य है कि स्वयं डॉ. हैनीमेन एक एलोपैथ थे। ऐलोपैथी के लिए ही मैटीरिया मेडीका लिखते समय अनायास पदार्थो (प्राकृतिक अणुओं) के व्यवहार पर ध्यान देने और फिर उस व्यवहार को परखने के फलस्वरूप ही होमियोपैथी का जन्म हुआ। होमियोपैथी कोई प्राचीन पद्धति नहीं है। उस का जीवन काल मात्र दो सौ वर्षों का है। मेरे विचार में होमियोपैथी के प्रति कठोर आलोचनात्मक और उसे सिरे से खारिज कर देने वाला रुख उचित नहीं है। वह भी तब जब कि वह बार बार अपनी उपयोगिता प्रदर्शित करती रही है। मैं स्वयं अवैज्ञानिक पद्धतियों का समर्थक नहीं हूँ। यदि मैं ने उसे प्रभावी नहीं पाया होता तो शायद मैं आज यह आलेख नहीं लिख रहा होता। मैं ने पिछले अट्ठाईस वर्षों में अनेक बार और बार बार इसे परखा है और प्रभावी पाया है। मैं भी होमियोपैथ चिकित्सकों से सदैव ही यह प्रश्न पूछता हूँ कि आखिर होमियोपैथी दवा काम कैसे करती है? 
मुझे इस प्रश्न का उत्तर आज तक भी प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन मैं ने होमियोपैथी को प्रभावी पाया है और बारंबार प्रभावी पाया है। मैं यह भी जानता हूँ कि होमियोपैथी मात्र एक औषध पद्धति है। ऐलोपैथी ने अनेक परंपरागत और प्राचीन औषध पद्धतियों के अंशो को अपनाया है। यह नवीन पद्धति भी खारिज होने योग्य नहीं है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, इस पर शोध की आवश्यकता है, इस के उपयोगी तत्वों को साबित कर उन्हें विज्ञान सम्मत साबित करने की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे धार्मिक मान्यताओं को आज के विज्ञान पर खरा उतरने की आवश्यकता है। अधिक कुछ नहीं कहूँगा पर समय-समय पर होमियोपैथी के अपने उन अनुभवों को अवश्य साझा करना चाहूँगा जो मेरे लिए उसे विश्वास के योग्य बनाते हैं।  भाई सतीश सक्सेना जी को यह अवश्य कहूँगा कि मैं किसी भी तरह का डाक्टर नहीं हूँ। मुझे वकील ही रहने दें। एक प्रश्न यह भी कि हिन्दी ब्लाग जगत में कुछ होमियोपैथी चिकित्सक भी हैं, वे क्यों इस बहस से गायब रहे?

रविवार, 11 अप्रैल 2010

क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है?

ल मैं ने इस विषय पर पोस्ट लिखी थी कि विश्व होमियोपैथी दिवस और डॉ. हैनिमैन के जन्मदिवस पर होमियोपैथी का मेरे जीवन में क्या स्थान रहा है? इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निशांत मिश्र ने कहा कि यह पद्धति जड़ संदेहियों के लिए नहीं बनी है। डॉ. अरविंद मिश्र, प्रवीण शाह और बलजीत बस्सी ने उन का समर्थन ही नहीं किया अपितु इसे अवैज्ञानिक बताया। प्रवीण शाह ने यह भी कहा कि "किसी भी वैज्ञानिक ट्रायल में यह पद्धति अपने आपको साबित नहीं कर पाई है।" जब मैं ने उन्हें इसे साबित करने को कहा तो उन्हों ने मुझे ब्रिटिश हाउस ऑव कॉमन्स की साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी कमेटी की 275 पृष्टों की रिपोर्ट भेज दी। निश्चित रूप से मैं उसे इतने कम समय में आद्योपांत पढ़ कर राय कायम नहीं कर सकता था। फिर कोई प्रोफेशनल होमियोपैथ इस काम को बेहतर ढंग से कर सकता है, मैं नहीं। फिर भी उस रिपोर्ट का चौथा पैरा इस प्रकार है।

4. This inquiry was an examination of the evidence behind government policies on homeopathy, not an inquiry into homeopathy. We do not challenge the intentions of those  homeopaths who strive to cure patients, nor do we question that many people feel they have benefited from it. Our task was to determine whether scientific evidence supports government policies that allow the funding and provision of homeopathy through the NHS and the licensing of homeopathic products by the MHRA.

4. यह होमियोपैथी की जाँच नहीं, अपितु होमियोपैथी के संबंध में सरकारी नीतियों के पीछे उपलब्ध साक्ष्यों की एक परीक्षा थी। हम होमियोपैथ चिकित्सकों के रोगियों का इलाज करने के प्रयासों को चुनौती नहीं दे रहे हैं  और न ही उन रोगियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं जो होमियोपैथी चिकित्सा से खुद को लाभान्वित होना पाते या महसूस करते हैं। हम केवल यह पता लगा रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से सरकार की वित्तीय सहायता की नीतियों और औषध व स्वाथ्यरक्षक उत्पाद नियंत्रक एजेंसी द्वारा होमियोपैथिक उत्पादों को अनुज्ञप्ति प्रदान करने का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक साक्ष्यों का पता लगाना है।
स पैरा को पढ़ने से ही पता लगता है कि हाउस ऑफ कॉमन्स की इस कमेटी का विषय होमियोपैथी की वैज्ञानिक जाँच करना नहीं था। इस रिपोर्ट के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। हम यह भी जान सकते हैं कि विश्व में दवा बाजार पर ऐलोपैथी दवाओं का एक छत्र साम्राज्य है। उन के उत्पादक किस तरह होमियोपैथी जैसी मात्र दो सौ वर्ष पुरानी और सस्ती पद्धति को स्वीकार कर सकते हैं जब तक उस में मुनाफा कूटने की पर्याप्त संभावनाएँ उत्पन्न न हो जाएँ। इधर होमियोपैथी का प्रभाव बढ़ना आरंभ हुआ है और उधर सरकारों के माध्यम से उन पर इतने प्रतिबंध आयद किए गए हैं कि पिछले चार-पाँच वर्षों में होमियोपैथिक दवाओं के दामों में दो से चार गुना तक वृद्धि हो गई है। जिस दिन यह लगने लगेगा कि इस दवा उत्पादन में ऐलोपैथी जैसा या उस से अधिक मुनाफा कूटा जा सकता है। यही जाँच कमेटियाँ इस पद्धति को वैज्ञानिक घोषित करने लगेंगी। 
लते चलते एक अनुभव और बताता जाता हूँ। हमारी बेटी पूर्वा जन्म के बाद से ही होमियोपैथी पर निर्भर थी। लेकिन हम दोनों पति-पत्नी को दवाओं की कम ही आवश्यकता होती थी। यदि कभी होती भी थी तो मेडीकल स्टोर से लाई गई पूर्व परिचित सामान्य दवाओं से काम चल जाता था।  उन दिनों तक घर में पच्चीसेक होमियोपैथी दवाएँ आ चुकी थीं।उस दिन पिताजी घर पर आए हुए थे। मेरी बगल में एक फुंसी उभर आई थी जो तनिक दर्द कर रही थी। मुझे उस हाथ को कुछ ऊँचा कर चलना पड़ रहा था। पिताजी ने देखा तो पूछ लिया हाथ ऐसे क्यों किए हो? मैंने बताया कि शायद काँख में कोई फुंसी निकल आई है। उन्हों ने उसे जाँचा और मुझे डाँट दिया। तुम्हारे आयुर्वेद और जीवविज्ञान स्नातक होने का यही लाभ है क्या कि तुम इस की चिकित्सा भी नहीं कर सकते। मेडीकल स्टोर से बैलाडोना प्लास्टर तो ला कर चिपका सकते थे। मैं तुरंत घर से बाहर भागा और मेडीकल स्टोर की ओर देखा। लेकिन वह बंद हो चुका था। आसपास किसी और मेडीकल स्टोर के खुले होने की कोई संभावना नहीं थी। 
मैं उलटे पैरों वापस लौटा। पिताजी ने मेरी और प्रश्ववाचक निगाहों से देखा। मैं ने उन्हें कहा कि मेडीकल स्टोर तो बंद हो चुका है, बैलाडोना प्लास्टर तो अब सुबह मिलेगा। मेरे पास होमियोपैथिक बैलाडोना 200 पोटेंसी का डायल्यूशन घर पर है तो एक खुराक खा लेता हूँ। मैं ने यही किया। हालांकि मैं नहीं जानता था कि इस का असर क्या होगा? सुबह सो कर उठा तो सामान्य कामकाज में लग गया। मुझे ध्यान ही नहीं आया कि मैं उस फुंसी को जाँच लूँ। पिताजी ने ही पूछा फुंसी का क्या हाल है। मैं ने कहा दर्द तो नहीं है पर फुंसी तो आप ही देख सकते हैं। उन्हों ने फुंसी को देखा तो उसे सिरे से गायब पाया। मैं चौंका। मैं ने होमियोपैथी की किताब उठाई और बेलाडोना के लक्षण पढ़े तो वहाँ अंकित था कि इन लक्षणों में बैलाडोना का उपयोग सही है। उस के उपरांत मैं कम से कम पाँच सौ बार बैलाडोना का समान परिस्थितियों में अपने लिए और औरों के लिए उपयोग कर चुका हूँ। एक बार भी यह प्रयोग असफल नहीं हुआ। अब इस के उपरांत होमियोपैथी को अवैज्ञानिक कम से कम मैं तो नहीं कह सकता था।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

होमियोपैथी हमारी स्वास्थ्यदाता हो गई

ज डॉ. सैम्युअल हैनिमेन  का जन्म दिवस था जिसे दुनिया होमियोपैथी दिवस के रूप में मनाती है। निश्चित रूप से डॉ. हैनिमेन एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिन्हों ने एक नई चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। जो मेरे विचार में सब से सस्ती चिकित्सा पद्धति है। इसी पद्धति से करोड़ों गरीब लोग चिकित्सा प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं करोड़पति भी जब अन्य चिकित्सा पद्धतियों से निराश हो जाते हैं तो इस पद्धति में उन्हें शरण मिलती है।
वैसे मेरे परिवार में आयुर्वेद का चलन था। दादा जी कुछ दवाइयाँ खुद बना कर रखते थे। पिताजी अध्यापक थे ,लेकिन आयुर्वेदाचार्य भी और अच्छे वैद्य भी थे। अपने पास सदैव दवाइयों का किट रखते थे और निशुल्क चिकित्सा करते थे। वैद्य मामा जी तो इलाके के सब से विद्वान वैद्य थे। उन्हों ने अपना आयुर्वेद महाविद्यालय भी चलाया। अब मामा जी खुद महाविद्यालय के प्राचार्य हों तो हमें तो उस में भर्ती होना ही था। सुविधा यह थी कि हम जीव विज्ञान में बी.एससी. करते हुए भी उस महाविद्यालय के विद्यार्थी हो सकते थे। नतीजा यह हुआ कि बी.एससी. होने के साथ ही हम वैद्य विशारद भी हो गए। मामा जी के डंडे से भय लगता था इस कारण हर रविवार उन के चिकित्सालय में अभ्यास के लिए भी जाना होता था। 
बी.एससी के उपरांत हम ने वकालत की पढ़ाई की और वकालत करने अपने गृह नगर को छोड़ कर कोटा चले आए। हमने पिताजी और मामाजी के अलावा किसी चिकित्सक की दवा अब तक नहीं ली थी। वैसे भी उस उम्र में बीमारी कम ही छेड़ती थी। लेकिन पहली बेटी हुई तो उस के लिए चिकित्सक की जरूरत पड़ने लगी। मेरे एक साथी के बड़े भाई होमियोपैथ थे। मैं उन्हीं के पास बेटी को ले जाने लगा। वे साबूदाने जैसी मीठी गोलियों को अल्कोहल के घोल में बनी दवाइयों से भिगोकर देते थे। कुछ ही दिनों में देखा कि वे शक्कर की गोलियाँ अदुभुत् असर करती हैं। मैं ने उसे जानने का निश्चय कर लिया।  इस तरह होमियो पैथी की पहली किताब घर में आई। 
 हमने घर बदला तो डाक्टर साहब दूर पड़ गए। पडौस के एक दूसरे होमियोपैथ को दिखाने लगे। लेकिन उस की दवा अक्सर असर नहीं करती थी। तब तक मैं कुछ कुछ समझने लगा था। मुझे लगा कि डाक्टर दवा का चुनाव गलत कर रहा है। एक दिन परेशान हो कर मैं होमियो स्टोर से पच्चीस चुनिंदा दवाओं के डायल्यूशन और गोलियाँ खरीद लाया और किताब से पढ़ पढ़ कर खुद ही चिकित्सा करने लगा। अपनी चिकित्सा चलने लगी। जो भी दवा देते उस का असर होता। धीरे धीरे आत्मविश्वास बढ़ता गया और डाक्टरों से पीछा छूटा। 
ब जब भी किसी नई दवा की जरूरत होती उस का डायल्यूशन घऱ में आ जाता। इस तरह घर में दो-तीन सौ तरह के डायल्यूशन इकट्ठे हो गए। मैं दिन में अदालत चला जाता। पीछे जरूरत पड़ती तो पत्नी  किताब पढ़ कर दवा देती। वह एक ऐलोपैथ चिकित्सक की बेटी है। धीरे-धीरे उस ने मेरा चिकित्सा का काम संभाल लिया। अब वह तभी मुझ से राय करती है जब वह उलझन में पड़ जाती है। नतीजा यह हुआ कि बच्चे हमारी दवाओं के सहारे बड़े हो गए। अब वे बाहर रहते हैं. लेकिन उन के पास चालीस-पचास दवाइयों का एक-एक किट होता है। जब भी उन्हें जरूरत होती है वे टेलीफोन पर अपनी माँ से या मुझ से राय करते हैं और दवा लेते हैं। मेरी बेटी तो एम्स के एक ट्रेनिंग सेंटर से जुड़ी है। जहाँ चिकित्सा की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। लेकिन जरूरत पड़ने पर हमेशा होमियोपैथी की दवा का प्रयोग करती है और वह भी अपनी माँ की राय से ही।