भोपाल गैस त्रासदी संबंधित अदालत के निर्णय और उस के बाद जिस तरह से परत-दर-परत तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ है उस ने मौजूदा शासकवर्ग (भारतीय पूंजीपति-भूस्वामी-और साम्राज्यी पूंजीपति) को संकट में डाल दिया है। भारत में उन का सब से बड़ा पैरोकार राजनैतिक दल कांग्रेस संकट में है। बचने की गुंजाइश न देख कर उन की सरकार के विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने अब अपनी पार्टी के गुनाहों को न्यायपालिका के मत्थे थोपना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस पार्टी इस संकट से पूरी तरह बौखला गई है। क्यों कि उन के पूर्व प्रधानमंत्री मिस्टर क्लीन स्व. राजीवगांधी पर उंगलियाँ उठ रही हैं। उन के पास इस का कोई जवाब नहीं है। एंडरसन को फरार करने के लिए जिम्मेदार तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपना मुहँ सिये बैठे हैं।
सचाई को छुपाने के लिए इस जमाने के शासक कथित जनतंत्र की जिस धुंध का निर्माण करते हैं, उसे जनतंत्र के एक अंग पत्रकारिता ने पूरी तरह छाँट दिया है। किस तरह राजनेता न केवल देशी पूंजीपतियों की चाकरी करते हैं बल्कि उन के बड़े आकाओं की सेवा करते हैं, यह सामने आ चुका है। मध्यप्रदेश पुलिस ने भोपाल मामले में मुकदमा धारा 304 भाग-2 में दर्ज किया था जो कि संज्ञेय और अजमानतीय अपराध है, जिस का विचारण केवल सेशन न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है। परंपरा के अनुसार सेशन न्यायालय से नीचे का कोई न्यायालय अभियुक्त की जमानत नहीं ले सकता। पुलिस तो कदापि नहीं।
इस अपराध में यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार दिखाया और फिर खुद ही जमानत पर रिहा कर दिया। इतना ही नहीं खुद पुलिस कप्तान और जिला कलेक्टर उसे छोड़ने हवाईअड्डे ही नहीं गए, अपितु कार की ड्राइविंग भी खुद ही की, शायद इसलिए कि कहीं कोई ड्राइवर देश के लिए की जा रही गद्दारी का गवाह न बन जाए। तत्कालीन पुलिस कप्तान और कलेक्टर जो इस देश की जनता से वेतन प्राप्त करते थे, उन्हों ने उस की कोई अहमियत नहीं समझी, वे केवल राजनेताओं के हुक्म की तामील करते रहे। राजनेताओं ने वारेन एंडरसन से प्रमाण पत्र हासिल किया "गुड गवर्नेस"। यह एक दिन में नहीं हो जाता। यह वास्तविकता है कि अधिकांश आईएएस और आईपीएस अफसर जनता के धन पर राजनेताओं की चाकरी करते हैं, उन से भी अधिक वे वारेन एंडरसन जैसे लोगों की चाकरी करते हैं, उस के बदले उन को क्या मिलता है? इस से जनता अब अनभिज्ञ नहीं है।
पुलिस द्वारा वारेन एंडरसन की जमानत तभी ली जा सकती थी जब कि उस के विरुद्ध लगाए गए आरोपों को दंड संहिता की धारा 304 भाग-2 से 304-ए के स्तर पर ले आया जाता। पुलिस इस हकीकत को जानती थी कि दंड संहिता में 304-ए के अतिरिक्त कोई और उपबंध ऐसा नहीं कि जिस का आरोप भोपाल त्रासदी के अभियुक्तों लगाया जा सके। जनता के दबाव के सामने कानून की इस कमी को छिपाया गया। वारेन एंडरसन को तो फरार दिखा दिया गया, शेष अभियुक्तों के विरुद्ध धारा 304 भाग-2 और कुछ अन्य धाराओं के अंतर्गत अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया गया। एक ऐसा आरोप जिस में से धारा-304 भाग-2 को हटना ही था। आरोपी सक्षम थे और सुप्रीमकोर्ट तक अपना मुकदमा ले जा सकते थे। देश के सब से बड़े वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कर सकते थे। उन्हों ने अशोक देसाई, एफ.एस. नरीमन और राजेन्द्र सिंह जैसे देश के नामी वरिष्ट वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कीं और आरोप दंड संहिता की धारा धारा-304 भाग-2 के अंतर्गत नहीं ठहर सका। (यह पूरा निर्णय यहाँ पढ़ा जा सकता है) आज मोइली जी कह रहे हैं कि सुप्रीमकोर्ट ने गलती की। हजारों लोगों की जानें लील लेने और हजारों को अपंग बना देने वाली त्रासदी को ट्रक एक्सीडेंट बना दिया गया। लेकिन जब सुप्रीमकोर्ट ने ऐसा किया तब केन्द्र सरकार के अधीन चलने वाली सीबीआई क्या सो रही थी? न्यायमूर्ति अहमदी के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल क्यों नहीं की गई? क्या मोइली साहब इस सवाल का उत्तर देना पसंद करेंगे? शायद नहीं? क्यों कि तब उंगली फिर उन की ही और उठेगी। स्पष्ट है सरकार की नीयत अपराधियों को सजा दिलाने की नहीं अपितु उन्हें बचाने की थी। राजद सरकार ने तो इस से भी आगे बढ़ कर एक कदम यह उठाया कि वारेन एंडरसन के बाद सब से जिम्मेदार अभियुक्त केशव महिंद्रा को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की पेशकश कर दी। न पक्ष और न ही विपक्ष, राजनीति का कोई हिस्सेदार इस त्रासदी की कालिख से अपने मुहँ को नहीं बचा सका। यह कालिख हमेशा के लिए उन के मुहँ पर पुत चुकी है, जिस से वे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
भोपाल मेमोरियल अस्पताल ट्रस्ट की स्थापना सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से की गई थी, सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से ही न्यायमूर्ति अहमदी को उस का आजीवन मुखिया बनाया गया था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के समक्ष वे इस ट्रस्ट में अपने पद से त्यागपत्र प्रस्तुत कर चुके थे जो कि अभी तक सु्प्रीमकोर्ट की रजिस्ट्री के पास कार्यवाही के लिए मौजूद है, वे पुनः उस पद को छोड़ देने की पेशकश कर चुके हैं। अदालत में दिए गए एक निर्णय के लिए उन्हें या न्यायपालिका को मोइली द्वारा दोषी बताना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उस स्थिति में तो बिलकुल भी नहीं जब कि केंद्र सरकार के पास उस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अवसर उपलब्ध था, जिस का उसने कोई उपयोग नहीं किया। मोइली विधि मंत्री हैं, न्यायपालिका को सक्षम और मजबूत बनाए रखने की जिम्मेदारी उन की है। उन्हों ने कांग्रेस को बचाने के लिए न्यायपालिका के विरुद्ध जो बयान दिया है वह न्यायपालिका के सम्मान और गरिमा को चोट पहुँचाता है। इस के लिए उन्हें तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे कर सर्वोच्च न्यायालय और देश से क्षमा याचना करनी चाहिए।
भोपाल मेमोरियल अस्पताल ट्रस्ट की स्थापना सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से की गई थी, सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से ही न्यायमूर्ति अहमदी को उस का आजीवन मुखिया बनाया गया था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के समक्ष वे इस ट्रस्ट में अपने पद से त्यागपत्र प्रस्तुत कर चुके थे जो कि अभी तक सु्प्रीमकोर्ट की रजिस्ट्री के पास कार्यवाही के लिए मौजूद है, वे पुनः उस पद को छोड़ देने की पेशकश कर चुके हैं। अदालत में दिए गए एक निर्णय के लिए उन्हें या न्यायपालिका को मोइली द्वारा दोषी बताना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उस स्थिति में तो बिलकुल भी नहीं जब कि केंद्र सरकार के पास उस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अवसर उपलब्ध था, जिस का उसने कोई उपयोग नहीं किया। मोइली विधि मंत्री हैं, न्यायपालिका को सक्षम और मजबूत बनाए रखने की जिम्मेदारी उन की है। उन्हों ने कांग्रेस को बचाने के लिए न्यायपालिका के विरुद्ध जो बयान दिया है वह न्यायपालिका के सम्मान और गरिमा को चोट पहुँचाता है। इस के लिए उन्हें तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे कर सर्वोच्च न्यायालय और देश से क्षमा याचना करनी चाहिए।