पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था। अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो। लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।
वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था। इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था। प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे। यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।
बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है। बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं। दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है। उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है। नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं। लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा। मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है। लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है। लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।
मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है। उन का कथन सही था। श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है। इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा। लेकिन इस काम को कौन करे। जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है। सरकारों पर देश में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं। यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं। लेकिन शायद इन कामों से नाम श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते। न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते। जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।
शनिवार, 27 जून 2009
शुक्रवार, 26 जून 2009
चार-चार बच्चों वाली औरतें
अदालत से वापस आते समय लालबत्ती पर कार रुकी तो नौ-दस वर्ष की उम्र का एक लड़का आया और विंड स्क्रीन पर कपड़ा घुमा कर उसे साफ करने का अभिनय करने लगा। बिना विंडस्क्रीन को साफ किए ही वह चालक द्वार के शीशे पर आ पहुँचा। उस का इरादा सफाई का बिलकुल न था। मैं ने शीशा उतार कर उसे मना किया तो पेट पर हाथ मार कर रोटी के लिए पैसा मांगा। आम तौर पर मैं भिखारियों को पैसा नहीं देता। पर न जाने क्या सोच उसे एक रुपया दिया। जिसे लेते ही वह सीन से गायब हो गया। तीस सैकंड में ही उस के स्थान पर दूसरे लड़के ने उस का स्थान ले लिया। इतने में लाल बत्ती हरी हो गई और मैं ने कार आगे बढा दी।
25 जून हो चुकी थी, लेकिन बारिश नदारद थी। रायपुर से अनिल पुसदकर जी ने रात को उस के लिए अपने ब्लाग पर गुमशुदा की तलाश का इश्तहार छापा। उसे पढ़ने के कुछ समय पहले ही भिलाई से पाबला जी बता रहे थे बारिश आ गई है। मैं ने पुसदकर जी को बताया कि बारिश को भिलाई में पाबला जी के घर के आसपास देखा गया है। रात को तारीख बदलने के बाद सोये। रात को बिजली जाने से नींद टूटी। पार्क में खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ आवाज कर रहे थे, तेज हवा चल रही थी। कुछ देर में बूंदों के गिरने की आवाज आने लगी। पड़ौसी जैन साहब के घर से परनाला गिरने लगा जिस ने बहुत सारे शोर को एक साथ पृष्ठभूमि में दबा दिया। गर्मी के मारे बुरा हाल था। लेकिन बिस्तर छोड़ने की इच्छा न हुई। आधे घंटे में बिजली लौट आई। इस बीच लघुशंका से निवृत्त हुए और घड़ी में समय देखा तीन बज रहे थे।
सुबह उठे, घर के बाहर झाँका तो पार्क खिला हुआ था। सड़क पर यूकेलिप्टस ने बहुत सारे पत्ते गिरा दिए थे और बरसात ने उन्हें जमीन से चिपका दिया था। नुक्कड़ पर बरसात का पानी जमा था। नगर निगम के ठेके दार ने वहाँ सड़क बनाते वक्त सही ही कसर रख दी थी। वरना रात को हुई बारिश का निशान तक नहीं रहता। मैं ने अन्दर आ कर सुबह की काफी सुड़की और नेट पर समाचार पड़ने लगा। बाहर कुछ औरतों और बच्चों की आवाजें आ रही थीं। पत्नी तुरंत बाहर गई और उन से निपटने लगी। कुछ ही देर में वह चार पाँच बार बाहर और अंदर हुई। मुझे माजरा समझ नहीं आ रहा था।
पत्नी इस बार अन्दर किचन में गई तो मैं ने बाहर जा कर देखा। हमारे और पड़ौसी जैन साहब के मकान के सामने की सड़क पर चिपके यूकेलिप्टस के पत्ते और दूसरी गंदगी साफ हो चुकी थी। नुक्कड़ पर पानी पहले की तरह भरा था। दो औरतें गोद में एक-एक बच्चा लिए तीन-तीन बच्चों के साथ जा रही थीं। माजरा कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। मैं किचन में गया तो पत्नी बरतन साफ करने में लगी थी। -तुम ने फ्रिज में पड़ा बचत भोजन साफ कर बाहर की सफाई करवा ली दिखती है। मैं ने कहा। -हाँ, किचन में पड़ा आटे की रोटियाँ भी बना कर खिला दी हैं उन्हें।
मुझे शाम वाले बच्चे याद आ गए। फिर सोचने लगा -एक औरत के साथ चार-चार बच्चे?
लेकिन कौन उन औरतों को बताएगा कि आबादी बढ़ाना ठीक नहीं और इस को रोकने का उपाय भी है। मुझे वे लोग भी आए जो भिखारी औरतों को देख कर लार टपकाते रहते हैं और कुछ अधिक पैसा देने के बदले आधे घंटे कहीं छुपी जगह उन के साथ बिता आते हैं। कौन जाने बच्चों के पिता कौन हैं? शायद माँएँ जानती ह या शायद वे भी नहीं जानती हों।
ब्लाग पढने आता हूँ। वहाँ बाल श्रम पर गंभीर चर्चा है, कानूनों का हवाला है। महिलाओं की समानता के लिए ब्लाग बने हैं। कोई कह रहा है महिलाओं का प्रधान कार्य बच्चे पैदा करना और उन की परवरिश करना है। ब्लाग लिखती महिलाओं में से एक उलझ जाती है। दंगल जारी है। देशभक्ति और देशद्रोह की नई परिभाषाएँ बनाई जा रही हैं, तदनुसार तमगे बांटे जा रहे हैं। लालगढ़ पर लोग चिंतित हैं कि कैसे सड़क, तालाब, पुलियाएँ आदिवासियों ने बना कर राज्य के हक में सेंध लगा दी है। वे लोग किसी को अपने क्षेत्र में न आने देने के लिए हिंसा कर रहे हैं। वे जरूर माओवादी हैं। माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लग गया है। तीन दिन में बंगाल की सरकार भी प्रतिबंध लगाने पर राजी हो गई है। बिजली चली जाती है और मैं ब्लाग की दुनिया से अपने घर लौट आता हूँ। कल लाल बत्ती पर मिले बच्चे और वे चार-चार बच्चों वाली औरतें और उन के बच्चे? सोचता हूँ, वे इस देश के नागरिक हैं या नहीं? उन का कोई राशनकार्ड बना है या नहीं? किसी मतदाता सूची में उन का नाम है या नहीं?
25 जून हो चुकी थी, लेकिन बारिश नदारद थी। रायपुर से अनिल पुसदकर जी ने रात को उस के लिए अपने ब्लाग पर गुमशुदा की तलाश का इश्तहार छापा। उसे पढ़ने के कुछ समय पहले ही भिलाई से पाबला जी बता रहे थे बारिश आ गई है। मैं ने पुसदकर जी को बताया कि बारिश को भिलाई में पाबला जी के घर के आसपास देखा गया है। रात को तारीख बदलने के बाद सोये। रात को बिजली जाने से नींद टूटी। पार्क में खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ आवाज कर रहे थे, तेज हवा चल रही थी। कुछ देर में बूंदों के गिरने की आवाज आने लगी। पड़ौसी जैन साहब के घर से परनाला गिरने लगा जिस ने बहुत सारे शोर को एक साथ पृष्ठभूमि में दबा दिया। गर्मी के मारे बुरा हाल था। लेकिन बिस्तर छोड़ने की इच्छा न हुई। आधे घंटे में बिजली लौट आई। इस बीच लघुशंका से निवृत्त हुए और घड़ी में समय देखा तीन बज रहे थे।
सुबह उठे, घर के बाहर झाँका तो पार्क खिला हुआ था। सड़क पर यूकेलिप्टस ने बहुत सारे पत्ते गिरा दिए थे और बरसात ने उन्हें जमीन से चिपका दिया था। नुक्कड़ पर बरसात का पानी जमा था। नगर निगम के ठेके दार ने वहाँ सड़क बनाते वक्त सही ही कसर रख दी थी। वरना रात को हुई बारिश का निशान तक नहीं रहता। मैं ने अन्दर आ कर सुबह की काफी सुड़की और नेट पर समाचार पड़ने लगा। बाहर कुछ औरतों और बच्चों की आवाजें आ रही थीं। पत्नी तुरंत बाहर गई और उन से निपटने लगी। कुछ ही देर में वह चार पाँच बार बाहर और अंदर हुई। मुझे माजरा समझ नहीं आ रहा था।
पत्नी इस बार अन्दर किचन में गई तो मैं ने बाहर जा कर देखा। हमारे और पड़ौसी जैन साहब के मकान के सामने की सड़क पर चिपके यूकेलिप्टस के पत्ते और दूसरी गंदगी साफ हो चुकी थी। नुक्कड़ पर पानी पहले की तरह भरा था। दो औरतें गोद में एक-एक बच्चा लिए तीन-तीन बच्चों के साथ जा रही थीं। माजरा कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। मैं किचन में गया तो पत्नी बरतन साफ करने में लगी थी। -तुम ने फ्रिज में पड़ा बचत भोजन साफ कर बाहर की सफाई करवा ली दिखती है। मैं ने कहा। -हाँ, किचन में पड़ा आटे की रोटियाँ भी बना कर खिला दी हैं उन्हें।
मुझे शाम वाले बच्चे याद आ गए। फिर सोचने लगा -एक औरत के साथ चार-चार बच्चे?
लेकिन कौन उन औरतों को बताएगा कि आबादी बढ़ाना ठीक नहीं और इस को रोकने का उपाय भी है। मुझे वे लोग भी आए जो भिखारी औरतों को देख कर लार टपकाते रहते हैं और कुछ अधिक पैसा देने के बदले आधे घंटे कहीं छुपी जगह उन के साथ बिता आते हैं। कौन जाने बच्चों के पिता कौन हैं? शायद माँएँ जानती ह या शायद वे भी नहीं जानती हों।
ब्लाग पढने आता हूँ। वहाँ बाल श्रम पर गंभीर चर्चा है, कानूनों का हवाला है। महिलाओं की समानता के लिए ब्लाग बने हैं। कोई कह रहा है महिलाओं का प्रधान कार्य बच्चे पैदा करना और उन की परवरिश करना है। ब्लाग लिखती महिलाओं में से एक उलझ जाती है। दंगल जारी है। देशभक्ति और देशद्रोह की नई परिभाषाएँ बनाई जा रही हैं, तदनुसार तमगे बांटे जा रहे हैं। लालगढ़ पर लोग चिंतित हैं कि कैसे सड़क, तालाब, पुलियाएँ आदिवासियों ने बना कर राज्य के हक में सेंध लगा दी है। वे लोग किसी को अपने क्षेत्र में न आने देने के लिए हिंसा कर रहे हैं। वे जरूर माओवादी हैं। माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लग गया है। तीन दिन में बंगाल की सरकार भी प्रतिबंध लगाने पर राजी हो गई है। बिजली चली जाती है और मैं ब्लाग की दुनिया से अपने घर लौट आता हूँ। कल लाल बत्ती पर मिले बच्चे और वे चार-चार बच्चों वाली औरतें और उन के बच्चे? सोचता हूँ, वे इस देश के नागरिक हैं या नहीं? उन का कोई राशनकार्ड बना है या नहीं? किसी मतदाता सूची में उन का नाम है या नहीं?
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गुरुवार, 25 जून 2009
जीन्स, टॉप, ड्रेस कोड और महिलाओं की सोच
समय का पहिया कैसे घूमता है इस का नमूना हमने पिछले दिनों देखा गया जब उत्तर प्रदेश में ड्रेस कोड का हंगामा बरपा होता रहा। कानपुर जिले में चार महिला कॉलेजों ने अपनी छात्राओं को कैंपस में जींस पहनकर आने पर पाबंदी लगा दी। कॉलेजों ने यह काम छात्राओं के साथ छेड़खानी रोकने का भला काम करने की कोशिश में किया। बात यहीं तक न रुकी छात्राओं के जींस , टॉप , स्कर्ट के साथ साथ कानों में बड़े बड़े इयर रिंग्स , गले में हार , फैन्सी अंगूठी और ऊंची एड़ी के सैंडिल पहनने पर भी रोक लगा दी गई। जब कि छात्राओं का कहना था कि कॉलेज प्रशासन का फैसला बेतुका है। वे छेड़खानी रोकना ही चाहते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते? कॉलेज छात्रों के बीच जींस पहनना आम बात है। मिनी स्कर्ट और शॉर्ट टॉप जैसे कपड़ों पर रोक की बात समझ में आती है , पर जींस?
इस के बाद पहिया आगे चला तो अध्यापिकाएँ भी इस की चपेट में आ गईं। कानपुर के महिला कॉलिजों की अध्यापिकाओं को सख्त निर्देश दिए गए कि वे स्लीवलेस ब्लाउज और भड़कीले सूट पहन कर कॉलिज न आयें। मोबाइल लेकर कॉलिज आने की अनुमति है लेकिन उसे स्विच ऑफ रखना होगा।
आप तो जानते ही हैं, लेकिन इन कॉलेजों का प्रशासन यह नहीं जानता था कि इस देश में प्रेस और मीडिया भी है और स्त्री-स्वातंत्र्य का आंदोलन भी; और यह भी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री भी एक स्त्री हैं। मंसूबे धरे के धरे रह गए। मायावती ने तुरंत कहा -कोई ड्रेस कोड नहीं चलेगा। फिर सरकारी फरमान निकला कि यूपी के किसी भी कॉलेज में ड्रेस कोड लगाने का समाचार मिला तो मामले की जांच की जाएगी और आरोप सही पाए जाने पर संबंधित कॉलेज के खिलाफ राज्य सरकार यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगी। इसके तहत मान्यता छिनने का खतरा पैदा हुआ ही, यूजीसी से मिलने वाली ग्रांट और दूसरी सरकारी सहायता भी खतरे में दिखाई दी। नतीजा यह हुआ कि ड्रेस कोड लागू होने के पहले ही गुजर गया।
यह तो हुआ ड्रेस कोड का हाल। महिलाएँ जीन्स और टॉप के बारे में क्या सोचती हैं। उस का असली किस्सा। एक प्रोजेक्ट में नई अफसर अक्सर जीन्स और टॉप पहनती है। उस से उम्र में कहीं बहुत बड़ी महिलाएँ वर्कर हैं जो उसे रिपोर्ट करती हैं। अचानक अफसर एक दिन सलवार सूट में दिखाई दी तो कुछ अच्छी वर्करों ने उसे सलाह दी कि -मैडम! आप इस सूट में उतनी अच्छी नहीं लगतीं। आप इसे मत पहना कीजिए। आप को जीन्स और टॉप ही पहनना चाहिए। उस में आप स्मार्ट लगती हैं। अगर आप ने कुछ दिन सूट पहन लिया तो सारी वर्कर्स आप को ढीली-ढाली समझने लगेंगी और फिर काम का क्या होगा वह तो आप जानती ही हैं।
मंगलवार, 23 जून 2009
संक्रमण, लालगढ़ और.... चलिए छोड़िए, आप तो गाना सुनिए....
प्रदूषित जल कोटा जैसे नगर में भी अब भी एक समस्या बना हुआ है। आजादी के पहले भी कोटा में पूरे नगर को नलों के माध्यम से चौबीसों घंटे जल का वितरण होता था। सड़कों के किनारे सुंदर सार्वजनिक नल लगे हुए थे। पानी ऐसा कि पीते ही प्यास को तृप्ति मिले। ऐसा क्यों न होता? आखिर कोटा रियासत की राजधानी थी। जितना सुंदर हो सकती थी बनाई गई थी और जो सुविधाएँ दी जा सकती थीं उपलब्ध कराई गई थीं।
बरसों पहले बिछाई गई पाइप लाइनें समय के साथ गलने लगीं, उन में लीकेज होने लगे। समय समय पर उन्हें बदला गया। नगर का विस्तार हुआ और आवश्यकता के अनुसार जल वितरण व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। अब पूरे नगर में उच्च जलाशय बनाए गए हैं। जिस से 24 घंटे जल वितरण को समयबद्ध जल वितरण में बदला जा सके। उन का प्रयोग भी आरंभ हो चुका है। लेकिन इस सब के बीच लाइनें लीकेज होती रहती हैं। भूमि की ऊपरी सतह में मौजूद जीवाणु युक्त जल का उस में प्रवेश भी होता ही है। हर साल प्रदूषित पानी से संबंधित बीमारियाँ भी इसी कारण से आम हैं।
मैं ठहरा अदालत का प्राणी। वहाँ पानी की उपलब्धता के अनेक रूप हैं। चाय की दुकानों पर, प्याउओं पर पानी उपलब्ध है। जहाँ जब जरूरत हो वहीं पी लो। यह कुछ मात्रा में तो प्रदूषित रहता ही है। इस से बचाव का एक ही साधन है कि आप अपने शरीर की इम्युनिटी बनाए रक्खें। वह बनी रहती है। पर कभी तो ऐसा अवसर आ ही जाता है जब इस इम्युनिटी को संक्रमण भेद ही लेता है। रविवार को एक पुस्तक के विमोचन समारोह में थे वहाँ जल पिया गया या उस से पहले ही कहीं इम्युनिटी में सेंध लग गई।
सोमवार उस की भेंट चढ़ा और मंगल भी उसी की भेंट चढ़ रहा है। लोग समझते हैं कि वकील ऐसी चीज है कि जब चाहे अदालत से गोल हो ले। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है। एक मुकदमे में नगर के दो नामी चिकित्सकों को गवाही के लिए आना था। जिन्हें लाने के लिए मैं ने और मुवक्किल ने न जाने क्या क्या पापड़ बेले थे। स्थिति न होते हुए भी अदालत गया। दोनों चिकित्सक अदालत आए भी लेकिन जज अवकाश पर थे। बयान नहीं हो सके। अब अदालत गया ही था तो बाकी मामलों में भी काम तो करना पड़ा ही।
अदालतों की हालत बहुत बुरी है। सब जानते हैं कि अदालतों की संख्या बहुत कम है। लेकिन उस के लिए आवाज उठाने की पहल कोई नहीं करता। वकीलों को यह पहल करनी चाहिए। इस से उन्हें कोई हानि नहीं अपितु लाभ हैं। पर एक व्यक्ति के बतौर वे असमंजस में रहते हैं कि इस से उन के व्यवसाय के स्वरूप पर जो प्रभाव होगा उस में वे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में टिक पाएँगे या नहीं।
भारतीय समाज वैसे भी इस सिद्धांत पर अधिक अमल करता है कि जब घड़ा भर लेगा तो अपने आप फूट लेगा। उसे लात मार कर अश्रेय क्यों भुगता जाए। लालगढ. की खबरों की बहुत चर्चा है। कोई कुछ तो कोई कुछ कहता है। सब के अपने अपने कयास हैं। लेकिन मैं जो न्याय की स्थिति को रोज गिरते देख रहा हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि जो व्यवस्था अपने पास आने वाले व्यक्ति को पच्चीस बरस चक्कर लगवा कर भी न्याय नहीं दे सकती। उस में न जाने कितने लालगढ़ उत्पन्न होते रहेंगे ?
दो दिनों से "प्यासा" फिल्म का यह गीत गुनगुना रहा हूँ। चलिए आप भी सुन लीजिए .......
बरसों पहले बिछाई गई पाइप लाइनें समय के साथ गलने लगीं, उन में लीकेज होने लगे। समय समय पर उन्हें बदला गया। नगर का विस्तार हुआ और आवश्यकता के अनुसार जल वितरण व्यवस्था का भी विस्तार हुआ। अब पूरे नगर में उच्च जलाशय बनाए गए हैं। जिस से 24 घंटे जल वितरण को समयबद्ध जल वितरण में बदला जा सके। उन का प्रयोग भी आरंभ हो चुका है। लेकिन इस सब के बीच लाइनें लीकेज होती रहती हैं। भूमि की ऊपरी सतह में मौजूद जीवाणु युक्त जल का उस में प्रवेश भी होता ही है। हर साल प्रदूषित पानी से संबंधित बीमारियाँ भी इसी कारण से आम हैं।
मैं ठहरा अदालत का प्राणी। वहाँ पानी की उपलब्धता के अनेक रूप हैं। चाय की दुकानों पर, प्याउओं पर पानी उपलब्ध है। जहाँ जब जरूरत हो वहीं पी लो। यह कुछ मात्रा में तो प्रदूषित रहता ही है। इस से बचाव का एक ही साधन है कि आप अपने शरीर की इम्युनिटी बनाए रक्खें। वह बनी रहती है। पर कभी तो ऐसा अवसर आ ही जाता है जब इस इम्युनिटी को संक्रमण भेद ही लेता है। रविवार को एक पुस्तक के विमोचन समारोह में थे वहाँ जल पिया गया या उस से पहले ही कहीं इम्युनिटी में सेंध लग गई।
सोमवार उस की भेंट चढ़ा और मंगल भी उसी की भेंट चढ़ रहा है। लोग समझते हैं कि वकील ऐसी चीज है कि जब चाहे अदालत से गोल हो ले। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है। एक मुकदमे में नगर के दो नामी चिकित्सकों को गवाही के लिए आना था। जिन्हें लाने के लिए मैं ने और मुवक्किल ने न जाने क्या क्या पापड़ बेले थे। स्थिति न होते हुए भी अदालत गया। दोनों चिकित्सक अदालत आए भी लेकिन जज अवकाश पर थे। बयान नहीं हो सके। अब अदालत गया ही था तो बाकी मामलों में भी काम तो करना पड़ा ही।
अदालतों की हालत बहुत बुरी है। सब जानते हैं कि अदालतों की संख्या बहुत कम है। लेकिन उस के लिए आवाज उठाने की पहल कोई नहीं करता। वकीलों को यह पहल करनी चाहिए। इस से उन्हें कोई हानि नहीं अपितु लाभ हैं। पर एक व्यक्ति के बतौर वे असमंजस में रहते हैं कि इस से उन के व्यवसाय के स्वरूप पर जो प्रभाव होगा उस में वे वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में टिक पाएँगे या नहीं।
भारतीय समाज वैसे भी इस सिद्धांत पर अधिक अमल करता है कि जब घड़ा भर लेगा तो अपने आप फूट लेगा। उसे लात मार कर अश्रेय क्यों भुगता जाए। लालगढ. की खबरों की बहुत चर्चा है। कोई कुछ तो कोई कुछ कहता है। सब के अपने अपने कयास हैं। लेकिन मैं जो न्याय की स्थिति को रोज गिरते देख रहा हूँ, एक ही बात सोचता हूँ कि जो व्यवस्था अपने पास आने वाले व्यक्ति को पच्चीस बरस चक्कर लगवा कर भी न्याय नहीं दे सकती। उस में न जाने कितने लालगढ़ उत्पन्न होते रहेंगे ?
दो दिनों से "प्यासा" फिल्म का यह गीत गुनगुना रहा हूँ। चलिए आप भी सुन लीजिए .......
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रविवार, 21 जून 2009
"टापू में आग" एक लघुकथा
'लघुकथा'
टापू में आग
- दिनेशराय द्विवेदी
साधु की झोपड़ी नदी के बीच उभरे वृक्ष, लताओं और रंग बिरंगे फूलों से युक्त हरे-भरे टापू पर थी। एक छोटी सी डोंगी। साधु उस पर बैठ कर नदी पार कर किनारे आता और शाम को चला जाता। कई लोग उस की झोंपड़ी देखने भी जाते। धीरे धीरे लोगों को वह स्थान अच्छा लगा कुछ साधु के शिष्य वहीं रहने लगे। लोगों ने देखा। साधु ने बहुत अच्छी जगह हथिया ली है, तो वे भी वहाँ झौंपडियाँ बनाने लगे। शिष्यों को अच्छा नहीं लगा, उन्हों ने लोगों से कुछ कहा तो वे साधु की निंदा करने लगे। शिष्यों ने साधु से जा कर कहा -लोग टापू पर आ कर बसने लगे हैं। आप की निंदा करते हैं। हम सुबह शाम कसरत करते हैं आप की आज्ञा हो तो निपट लें। साधु के मुहँ से निकला- साधु! साधु! और फिर कबीर की पंक्तियाँ सुना दीं-
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।।
लोगों की संख्या बढ़ती रही, निन्दकों की भी। साधु के आश्रम में सुबह, शाम, रात्रि हरिभजन होता। अखाड़े में शिष्य जोर करते रहते। लोग सोचने लगे, साधु टापू पर से चला जाए तो आराम हो, हमेशा जीवन में विघ्न डालते रहते हैं। लोगों में साधु के बारे में अनाप-शनाप कहा करते। साधु से उस के शिष्य जब भी इस बारे में कुछ कहते, साधु उन्हें कबीर का वही दोहा सुना देता - निन्दक नियरे राखिए......
एक दिन साधु शिष्यों सहित नदी पार बस्ती में गया हुआ था। बस्ती में ही किसी शिष्य ने बताया कि टापू पर आग लगी है। वे सभी नदी किनारे पहुंचे तो क्या देखते हैं लोग साधु की झौंपड़ी में लगी आग को बुझाने के बजाए उस में तेल और लकड़ियाँ झोंक रहे हैं। यहाँ तक कि टापू पर शेष डोंगियाँ भी उन्हों ने उस में झोंक दीं। शिष्य टापू पर जाने के लिए शीघ्रता से डोंगियों में बैठने लगे। साधु ने मना कर दिया। सब नीचे भूमि पर आ उतरे।
एक शिष्य ने प्रश्न किया -गुरू जी, आप ने टापू पर जाने से मना क्यों किया?
गुरूजी ने उत्तर दिया -अब वहाँ जाने से कुछ नहीं होगा। लोग तेल और लकड़ियाँ झौंक रहे हैं, अब कुछ नहीं बचेगा। यह कह कर साधु अपने शिष्यों सहित वहीं किनारे धूनी रमा कर बैठ गया।
लोगों ने देखा कि टापू की आग तेजी से भड़क उठी। टापू पर जो कुछ था सब भस्म हो गया। कुछ लोग ही बमुश्किल बची खुची डोंगियों में बैठ वहाँ से निकल सके। साधु बहुत दिनों तक वहीं किनारे पर धूनी रमा कर बैठा रहा। दिन में शिष्य बस्ती में जाते, साधु की वाणी का प्रचार करते और वापस चले आते। धीरे-धीरे जब टापू पर सब कुछ जल चुका तो आग स्वयमेव ही शांत हो गई। बची सिर्फ राख। टापू की सब हरियाली नष्ट हो गई, टापू काला पड़ गया। फिर बरसात आई राख बह गई। टापू पर फिर से अंकुर फूट पड़े, कुछ ही दिनों में वहाँ पौधे दिखने लगे। फिर रंग बिरंगे फूल खिले। दो एक बरस में ही फिर से पेड़ और लताएँ दिखाई देने लगीं। काला टापू फिर से हरियाने लगा। एक दिन देखा गया, साधु और उस के शिष्य फिर से डोंगी में बैठ टापू की ओर जा रहे थे।
शनिवार, 20 जून 2009
हम धरती के जाए "गीत" * महेन्द्र नेह
"गीत"
हम धरती के जाए
- महेन्द्र नेह
आज तुम्हारी बारी है
जो जी आए कर लो
कलजब वक्त हमारा आए
तो रोना मत भाई!
तुमने हमें निचोड़ा
जीना दूभर कर डाला
भाग हमारे मढ़ा
अंधेरा, मकड़ी का जाला
हम हैं धरती के जाए
हम सब कुछ सह लेंगे
अंधियारा कल तुम्हें सताए
तो रोना मत भाई!
तुमने जंगल, नदी, खेत
सब हमसे छीन लिए
संविधान के तंत्र मंत्र से
बाजू कील दिए
तंत्र-मंत्र के बल पर
अब तक टिका नहीं कोई
कल यह सब वैभव छिन जाए
तो रोना मत भाई!
तुमने हमें चबाया सदियों,
भूख न मिट पाई
हविश मनुज के लहू
पान की तनिक न घट पाई
.हम तो हैं मृत्युंजय
हम को मार न पाओगे
काल तुम्हारे सिर मंडराए,
तो रोना मत भाई!
*******************
बुधवार, 17 जून 2009
कहाँ से आते हैं? विचार!
सांख्य विश्व की सब से प्राचीन दार्शनिक प्रणाली है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि वह हमारे देश में पैदा हुई और हम उस के वारिस हैं। किन्तु जब मैं मूल सांख्य की खोज में निकला तो मुझे यह क्षोभ भी हुआ कि मूल सांख्य को लगभग नष्ट कर दिया गया है। आज सांख्य का मूल साहित्य विश्व में उपलब्ध नहीं है। प्राचीन काल में सर्वाधिक लोकप्रिय इस दर्शन की समझ भारतीय जनता में इतनी गहरी है कि आज बहुत से ग्रामीण बुजुर्गों के पास उस का ज्ञान परंपरा से उपलब्ध मिल जाता है।
इस संबंध में मुझे राजस्थान के वरिष्ठ गीतकार हरीश भादानी जी का सुनाया एक संस्मरण याद आ रहा है। उन्होंने प्रोढ़ शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों के साथ भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसी के दौरान वे प्रौढ़ शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए राजस्थान के किसी ग्राम में पहुँचे। वहाँ प्रोढ़ों और बुजुर्गों की एक बैठक बुलाई गई। ग्राम में कोई भी स्थान उपयुक्त न होने से यह बैठक किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए एक कमरे की इमारत की छत पर हुई जिसे धर्मशाला कहा जाता था। इस इमारत का रख-रखाव ग्रामसभा के जिम्मे था और यह सार्वजनिक कामों में ही आती थी। बैठक में भादानी जी के बोलने के उपरांत जब ग्राम के बुजुर्गों को बोलने को कहा गया तो उन में से एक 60 वर्षीय वृद्ध खड़ा हुआ और शिक्षा के महत्व पर धाराप्रवाह बोलने लगा। करीब एक घंटे के भाषण में उस ने सांख्य दर्शन की जो सहज व्याख्या की उस से भादानी जी सहित सभी श्रोता चकित रह गए। भादानी जी को उन दिनों व्याख्यान देने वालों को मानदेय़ देने का अधिकार था। उन्हों ने उन बुजुर्ग को प्रस्ताव दिया कि उन्हों ने सब की सांख्य की जो क्लास ली है उस के लिए वे मानदेय देना चाहते हैं। कुछ ना नुकुर के बाद बुजुर्ग ने वह मानदेय लेना स्वीकार कर लिया। उन को धन दिया गया जिसे बुजुर्गवार ने तुरंत उस धर्मशाला के रखरखाव की मद में दान कर दिया। हरीश जी ने अपने लिपिक को उस धन की रसीद बना कर हस्ताक्षर कराने को कहा। रसीद बन गई और जब बुजुर्गवार से हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्हों ने प्रकट किया कि वे तो लिखना पढ़ना नहीं जानते। अगूठा करेंगे।
सांख्य प्राचीन भारत में इतना लोकप्रिय था कि श्रीमद्भगवद्गीता में गीताकार ने एकोब्रह्म का प्रतिनिधित्व कर रहे श्रीकृष्ण से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। यही कपिल मुनि सांख्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। मूल सांख्य तो खो चुका है, उसे हमारे ही लोगों ने नष्ट कर दिया। वह कहीं मिलता भी है तो उन के आलोचकों के ग्रन्थों के माध्यम से, अथवा दूसरे ग्रंथों में संदर्भ के रूप में। मुनि बादरायण (कृत) ने ब्रह्मसूत्र (के शंकर भाष्य) में कपिल की आलोचना करते हुए कपिल के जगत-व्युत्पत्ति संबंधी सूत्र को इस प्रकार अंकित किया (गया) है .....
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्! -कपिलअर्थात् - कपिल कहते हैं कि अचेतन आदि-पदार्थ (प्रधान) ही स्वतंत्र रूप में जगत का कारण है।
इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी। विचार को धारण करने के लिए एक भौतिक मस्तिष्क की आवश्यकता है। इस भौतिक मस्तिष्क के अभाव में विचार का अस्तित्व असंभव है। मस्तिष्क होने पर भी समस्त विचार चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम से अर्थात इस भौतिक जगत और उस में घट रही घटनाओं से उत्पन्न होते हैं। उन के सतत अवलोकन-अध्ययन के बिना किसी प्रकार मस्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न हो सकना संभव नहीं। कोई लेखन, कविता, कहानी, लेख, आलोचना कुछ भी संभव नहीं; ब्लागिरी? जी हाँ वह भी संभव नहीं।
हरीश भादानी जी का एक गीत...
सौजन्य ...harishbhadani.blogspot.com/कल ने बुलाया है...
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
- हरीश भादानी
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