इधर मैं अपनी यात्रा के बारे में लिख रहा था। इस बीच साले साहब के बेटे की शादी आ गई। 16 को ही कोटा से निकलना पड़ा। इस बीच 16 और 17 के लिए आलेख सूचीबद्ध किए हुए थे। महेन्द्र 'नेह' का गीत और पुरुषोत्तम 'यक़ीन' ग़ज़ल पर अच्छी प्रतिक्रियाएँ पढ़ने को मिली हैं। रौशन जी की टिप्पणी थी कि, 'इसे पढने के बाद यकीन जी की और ग़ज़लें पढने का मन होने लगा है।' वाकई पुरुषोत्तम 'यक़ीन' बहुत समर्थ ग़ज़लकार हैं। उन की पाँच काव्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अगली बार जब भी उन की ग़ज़ल ले कर आऊंगा तो उन का पूरा परिचय, उन की पुस्तकों के बारे में जानकारी के साथ आलेख को सचित्र बनाने की कोशिश रहेगी।
मेरी ससुराल जयपुर जबलपुर राजमार्ग क्रमांक 12 पर राजस्थान के झालावाड़ जिले में स्थित अकलेरा कस्बे में है, यह मध्य प्रदेश सीमा से पहले अंतिम कस्बा है। अब तक तो वहाँ पूछने पर पता लगता था कि वहाँ भी इंटरनेट का प्रयोग आरंभ हो चुका है। लेकिन जब तलाशने की बारी आती थी तो पता लगता था कि कुछ व्यवसायी केवल रिजल्ट आदि देखने के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हुए धनोपार्जन करते हैं। इस बार वहाँ एक साइबर कैफे खुला मिला। इस में चार कम्प्यूटर लगे थे, उनमें से भी एक दो हमेशा और कभी-कभी सभी खाली मिल जाते थे। पूछने पर पता लगा कि अभी छह माह पहले ही आरंभ किया है। वह नैट उपयोग के लिए 20 रुपए प्रतिघंटा शुल्क लेता था। मुझे यह महंगा लगा, मैं ने मालिक को कहा भी। तो उस ने बताया कि अभी तो हम खर्चा भी बमुश्किल निकाल पा रहे हैं। धीरे धीरे लोग इस का उपयोग करने लगें तो सस्ता कर देंगे।
मैं ने वहीं मेल खोल कर देखी। कुछ पोस्टें पढ़ीं। टिप्पणी करना चाहा तो इन्स्क्रिप्ट हिन्दी टाइप करने की सुविधा नहीं थी। रोमन से हिन्दी टाइप करने में मुझे अब परेशानी आने लगी है और समय बहुत लगता है। इस लिए कोशिश की गई कि कम से कम एक कंप्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग की व्यवस्था बना ली जाए। संचालक की मदद से वह काम हमने कर लिया। लेकिन विवाह ससुराल का था और मेरे अनेक स्नेही संबंधी वहाँ मौजूद थे। मैं ने नैट का उपयोग करने के स्थान पर अपना दो दिनों का समय उन के सानिध्य में ही बिताने का प्रयत्न किया। यह सुखद भी रहा। इस के कारण मैं अधिक से अधिक लोगों के संपर्क में रह सका और उन की वर्तमान की समझ को जान सका।
वैसे मैं 18 फरवरी की रात्रि को कोटा पहुँच गया था। इसी दिन मुझे एक मित्र के बेटे के विवाह के समारोह में शामिल होना पड़ा। कल 19 फरवरी को मेरी फुफेरी और भिलाई में पोस्टेड अवनींद्र की बहिन के बेटे के समारोह में भाग लेना था। लेकिन व्यवसायिक कामों से शाम को फुरसत मिली भी तो टेलीफोन ने रात दस बजे तक व्यस्त रखा और विवाह में रात साढ़े दस बजे ही पहुँच सका। तसल्ली यह रही कि तब तक बरात पहुँची ही थी और मैं अधिक देरी से नहीं था।
आज दिन में अदालती कामों को करने के बाद ही आज लिखने बैठ पाया हूँ। सोचा तो था कि भिलाई से आगे का यात्रा विवरण जो बीच में अधूरा छूट रहा उसे ही पूरा किया जाए लेकिन कल का ही दिन बीच में हैं। फिर से रवि-सोम दो दिन बाहर रहना पड़ेगा। उस में फिर से व्यवधान आए इस से अच्छा है उसे अभीस्थगित ही रखा जाए। आज के लिए इतना ही बहुत। कल मिलते हैं एक नए आलेख के साथ।
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
मेरे सीने में आग पलती है
और आज पढिए पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल "मेरे सीने में आग पलती है"
ग़ज़ल
मेरे सीने में आग पलती है
अपने उद्गम से जब निकलती है
हर नदी तेज़-तेज़ चलती है
टकरा-टकरा के सिर चटानों से
धार क्या जोश में उछलती है
गोद पर्वत की छोड़ कर नदिया
आ के मैदान में सँभलती है
जाने क्या प्यास है कि मस्त नदी
मिलने सागर से क्या मचलती है
ख़ुद को कर के हवाले सागर के
कोई नदिया न हाथ मलती है
शैर मेरे कहाँ क़याम करें
अब ग़ज़ल की ज़मीन जलती है
नाम सूरत लिबास सब बदला
फिर भी सीरत कहाँ बदलती है
कैसे तुझ को बसा लूँ दिल में ‘यक़ीन’
मेरे सीने में आग पलती है
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ग़ज़ल
मेरे सीने में आग पलती है
अपने उद्गम से जब निकलती है
हर नदी तेज़-तेज़ चलती है
टकरा-टकरा के सिर चटानों से
धार क्या जोश में उछलती है
गोद पर्वत की छोड़ कर नदिया
आ के मैदान में सँभलती है
जाने क्या प्यास है कि मस्त नदी
मिलने सागर से क्या मचलती है
ख़ुद को कर के हवाले सागर के
कोई नदिया न हाथ मलती है
शैर मेरे कहाँ क़याम करें
अब ग़ज़ल की ज़मीन जलती है
नाम सूरत लिबास सब बदला
फिर भी सीरत कहाँ बदलती है
कैसे तुझ को बसा लूँ दिल में ‘यक़ीन’
मेरे सीने में आग पलती है
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सोमवार, 16 फ़रवरी 2009
माटी के बेटों की खामोशी टूटी
पिछले साल पानी की मांग पर राजस्थान के टोंक जिले में पानी की मांग कर रहे किसानों पर गोली चली। देश में ऐसी घटनाएँ हर साल बहुत घटती हैं। प्रस्तुत है इन्हीं घटनाओं से प्रेरित महेन्द्र नेह का एक गीत ...
'गीत'
"माटी के बेटों की खामोशी टूटी"
- महेन्द्र नेह
फिर माटी के बेटो की
खामोशी टूटी
सूखे खेतों ने थोड़ा सा
पानी माँगा
नये आधुनिक राजाओं का
माथा ठनका
लोकतंत्र ने
बारूदी भाषा अपनाई !
खेत नहीं बेचेंगे अपने
हलधर बोले
जड़ें नही छोड़ेंगे अपनी
तरूवर बोले
राजनीति के अंधे विषधर
फिर फुंकारे
धन-सत्ता ने
अमरीकी बन्दूक उठाई !
खलिहानों में पगडंडी पर
लाश बिछी हैं
कंधों पर किसान की बेटी
उठा रही हैं
चारों ओर लाठियाँ, गोली
हिंसा नत्र्तन
घायल बचपन
घायल गाँवो की तरूणाई !
गोलबंद हैं वृक्ष जमीं पर
तने हुए हैं
सत्ता के हिंसक ताँडव
से डरे नहीं है
जीवित सदा रहेंगे सपने
नही मरेंगे
पूरब में उगती
अरूणाई !
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रविवार, 15 फ़रवरी 2009
अवनीन्द्र को सरप्राइज और रेस्टोरेंट केवल परिवार के लिए
मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले। रास्ते में पाबला जी ने बताया कि रायपुर से संजीत त्रिपाठी पूछ रहे थे कि द्विवेदी जी रायपुर कब आ रहे हैं। संजीव तिवारी ने फोन पर बताया कि दुर्ग बार चाहती है कि मैं वहाँ आऊँ। लेकिन वह कल व्यस्त रहेगा। मैं ने रास्ते में ही गणित लगाई कि 30 को शाम पांच बजे मेरी वापसी ट्रेन है इसलिए उस दिन रायपुर जाना ठीक नहीं, हाँ दुर्ग जाया जा सकता है। मैं ने उन्हें बताया कि कल रायपुर और परसों दुर्ग चलेंगे। कोई दो-तीन सौ मीटर पर ही हम दूर संचार कॉलोनी पहुँच गए। गेट पर पूछताछ पर पता लगा कि आखिरी इमारत की उपरी मंजिल के फ्लेट में अवनीन्द्र का निवास है।
निचली मंजिल के दोनों फ्लेट के दरवाजों के आस पास कोई नाम पट्ट नहीं था। इस से यह पहचानना मुश्किल था कि किस फ्लेट में कौन रहता होगा। ऊपर की मंजिल पर भी यही आलम हुआ तो गलत घंटी भी बज सकती है। ऊपर पहुंचे तो एक फ्लेट पर अवनींन्द्र के नाम की खूबसूरत सी नाम पट्टिका देख कर संतोष हुआ। घंटी बजाने पर अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने दरवाजा खोला। मुझे और पाबला जी को देख वह आश्चर्य में पड़ गई। मैं ने मौन तोड़ा, पूछा-अवनीन्द्र है? हाँ कहती हुई उस ने रास्ता दिया। अवनीन्द्र ड्राइंग रूम में मिला। देखते ही जो आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उस के चेहरे पर दिखाई दी उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। मैं ने बताया ये पाबला जी हैं। उस ने पाबला जी से हाथ मिलाये। मेरे संदर्भ से पाबला जी और अवनींद्र फोन पर बतिया चुके थे।
हम अवनीन्द्र के यहाँ कोई डेढ़ घंटा रुके। इस बीच अवनींद्र के बारे में मैं ने पाबला जी को बताया कि वह पढ़ने में शुरू से आखिर तक सबसे ऊपर रहा। एक वक्त तो उस की हालत यह थी कि महिनों वह बिस्तर पर नहीं सोता था। टेबल कुर्सी पर पढ़ते पढते तकिया टेबल पर रखा और उसी पर सिर टिका कर सो लेता। सुबह उठता तो हमें लगता कि जैसे वह जल्दी उठ कर नहा धो कर तैयार हो लिया है। उस का राज बुआ ने बताया कि यह नींद से जागते ही मुहँ धोता है और बाल गीले कर, पोंछ तुरंत कंघी कर लेता है। जिस से वह हमेशा तरोताजा रहता है। मैं ने भी आज तक ऐसा विलक्षण विद्यार्थी नहीं देखा। वहाँ से चलने के पहले पाबला जी ने अपने कैमरे से हमारे चित्र लिए।
हम वापस पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो पाबला जी की बिटिया सोनिया (रंजीत कौर) से भेंट हुई। सुबह उस से ठीक से भेंट न हो सकी थी वह कब तैयार हो कर अपने कॉलेज चली गई थी हमें पता ही नहीं लगा। वह बहुत छोटी लग रही थी। मैं समझा वह ग्रेजुएशन कर रही होगी। पता लगा वह मोनू से कुछ मिनट बड़ी है और अक्सर यह बात अपने भाई को जब-तब याद दिलाती रहती है। वह एमबीए कर रही है। पाबला जी ने संजीत और संजीव को मेरा कार्यक्रम बता दिया। संजीव ने बताया कि वह सुबह कुछ वकीलों के साथ आएँगे। कुछ ही देर में पाबला जी ने घोषणा की कि भोजन के लिए बाहर चलना है। हम चारों मैं, पाबला जी, मोनू और वैभव वैन में लद लिए। जिस रेस्टोरेंट में हम गए वह बहुत ही विशिष्ठ था। मंद रोशनी और धीमे मधुर संगीत में भोजन हो रहा था और सभी टेबलों पर परिवार ही हमें दिखाई दिए। मैं ने पूछा तो बताया गया कि इस रेस्टोरेंट में बिना महिलाओं के प्रवेश वर्जित है। मैं समझ गया कि यह सार्वजनिक स्थल पर शांति बनाए रखने का सुगम तरीका है। हमारे एक लीडर का वक्तव्य याद आ गया कि किसी भी संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में फालतू बातों को रोकना हो तो एक दो महिलाएँ सदस्याएं होना चाहिए।
हमारे साथ कोई महिला न थी फिर भी हम वहाँ थे। पाबला जी ने बताया कि प्रवेश करने के पहले द्वार पर मैनेजर ने टोका था और उसे यह कहा गया है कि बिटिया पीछे आ रही है। लेकिन बाद में फोन पर रेस्टोरेंट के संचालक से बात करने पर ही भोजन का आदेश लिया गया। भोजन स्वादिष्ट था। हम घर लौटे तो ग्यारह बजे होंगे। इतना थक गए थे कि वेबसाइट का काम कर पाना संभव नहीं था। उसे अगली रात के लिए छोड़ दिया गया। वैभव मोनू के कमरे में चला गया। मैं भी कुछ देर नेट पर बिताने के बाद बिस्तर के हवाले हुआ।
निचली मंजिल के दोनों फ्लेट के दरवाजों के आस पास कोई नाम पट्ट नहीं था। इस से यह पहचानना मुश्किल था कि किस फ्लेट में कौन रहता होगा। ऊपर की मंजिल पर भी यही आलम हुआ तो गलत घंटी भी बज सकती है। ऊपर पहुंचे तो एक फ्लेट पर अवनींन्द्र के नाम की खूबसूरत सी नाम पट्टिका देख कर संतोष हुआ। घंटी बजाने पर अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने दरवाजा खोला। मुझे और पाबला जी को देख वह आश्चर्य में पड़ गई। मैं ने मौन तोड़ा, पूछा-अवनीन्द्र है? हाँ कहती हुई उस ने रास्ता दिया। अवनीन्द्र ड्राइंग रूम में मिला। देखते ही जो आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उस के चेहरे पर दिखाई दी उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। मैं ने बताया ये पाबला जी हैं। उस ने पाबला जी से हाथ मिलाये। मेरे संदर्भ से पाबला जी और अवनींद्र फोन पर बतिया चुके थे।
चित्र में अवनीन्द्र, मैं और वैभव
मैं ने बताया, तुम्हें सूचना न देना और अचानक आ कर सरप्राइज देना पाबला जी की योजना का अंग था जिसे मैं ने स्वीकार कर लिया। पानी आ गया। ज्योति ने कॉफी के लिए पूछा। तो हमने हाँ कह दी। बातें चल पड़ी घर परिवार की। इस बीच कुछ मीठा, कुछ नमकीन आ गया। परिवार की बातों के बीच पाबला जी कुछ अप्रासंगिक होने लगे तो मैं चुप हुआ फिर भिलाई के बारे में पाबला जी और अवनींद्र बातें करते रहे। शहर के बारे में, बीएसपी के बारे में, बीएसएनएल के बारे में और भिलाई के एक शिक्षा केन्द्र बनते जाने के बारे में। पता लगा कि कोटा के सभी प्रमुख कोचिंग संस्थानों की शाखाएँ भिलाई में भी हैं। भिलाई को कोटा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी था। इन संस्थानों में कोटा के लोग काम कर रहे थे। ज्योति कॉफी ले आई। उस ने भोजन के लिए पूछा तो मैं ने कहा आज पाबला जी ने इतना खिला दिया है कि खाने का मन नहीं है। कल शायद दुर्ग या रायपुर जाना हो, तो कल शाम को यहाँ खाना पक्का रहा। उस ने उलाहना दिया कि मुझे वहीं उस के यहाँ रहना चाहिए था। उस की बात वाजिब थी। मैं ने बताया कि मुझे पाबला जी से वेबसाइट का काम कराना है तो वहीं रुकना सार्थक होगा। उस की शिकायत का यह सही उत्तर नहीं था, शिकायत अब भी उस की आँखों में मौजूद थी।हम अवनीन्द्र के यहाँ कोई डेढ़ घंटा रुके। इस बीच अवनींद्र के बारे में मैं ने पाबला जी को बताया कि वह पढ़ने में शुरू से आखिर तक सबसे ऊपर रहा। एक वक्त तो उस की हालत यह थी कि महिनों वह बिस्तर पर नहीं सोता था। टेबल कुर्सी पर पढ़ते पढते तकिया टेबल पर रखा और उसी पर सिर टिका कर सो लेता। सुबह उठता तो हमें लगता कि जैसे वह जल्दी उठ कर नहा धो कर तैयार हो लिया है। उस का राज बुआ ने बताया कि यह नींद से जागते ही मुहँ धोता है और बाल गीले कर, पोंछ तुरंत कंघी कर लेता है। जिस से वह हमेशा तरोताजा रहता है। मैं ने भी आज तक ऐसा विलक्षण विद्यार्थी नहीं देखा। वहाँ से चलने के पहले पाबला जी ने अपने कैमरे से हमारे चित्र लिए।
हम वापस पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो पाबला जी की बिटिया सोनिया (रंजीत कौर) से भेंट हुई। सुबह उस से ठीक से भेंट न हो सकी थी वह कब तैयार हो कर अपने कॉलेज चली गई थी हमें पता ही नहीं लगा। वह बहुत छोटी लग रही थी। मैं समझा वह ग्रेजुएशन कर रही होगी। पता लगा वह मोनू से कुछ मिनट बड़ी है और अक्सर यह बात अपने भाई को जब-तब याद दिलाती रहती है। वह एमबीए कर रही है। पाबला जी ने संजीत और संजीव को मेरा कार्यक्रम बता दिया। संजीव ने बताया कि वह सुबह कुछ वकीलों के साथ आएँगे। कुछ ही देर में पाबला जी ने घोषणा की कि भोजन के लिए बाहर चलना है। हम चारों मैं, पाबला जी, मोनू और वैभव वैन में लद लिए। जिस रेस्टोरेंट में हम गए वह बहुत ही विशिष्ठ था। मंद रोशनी और धीमे मधुर संगीत में भोजन हो रहा था और सभी टेबलों पर परिवार ही हमें दिखाई दिए। मैं ने पूछा तो बताया गया कि इस रेस्टोरेंट में बिना महिलाओं के प्रवेश वर्जित है। मैं समझ गया कि यह सार्वजनिक स्थल पर शांति बनाए रखने का सुगम तरीका है। हमारे एक लीडर का वक्तव्य याद आ गया कि किसी भी संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में फालतू बातों को रोकना हो तो एक दो महिलाएँ सदस्याएं होना चाहिए।
हमारे साथ कोई महिला न थी फिर भी हम वहाँ थे। पाबला जी ने बताया कि प्रवेश करने के पहले द्वार पर मैनेजर ने टोका था और उसे यह कहा गया है कि बिटिया पीछे आ रही है। लेकिन बाद में फोन पर रेस्टोरेंट के संचालक से बात करने पर ही भोजन का आदेश लिया गया। भोजन स्वादिष्ट था। हम घर लौटे तो ग्यारह बजे होंगे। इतना थक गए थे कि वेबसाइट का काम कर पाना संभव नहीं था। उसे अगली रात के लिए छोड़ दिया गया। वैभव मोनू के कमरे में चला गया। मैं भी कुछ देर नेट पर बिताने के बाद बिस्तर के हवाले हुआ।
शनिवार, 14 फ़रवरी 2009
पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में
पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है। मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था। मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों। और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया। बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए। पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके। इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए। पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया। अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी। उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले। उस ने एक बार मुड़ कर पाबला की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने। डॉगी बहुत ही प्यारी थी।
लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई। बहुत ही आत्मीयता से मिले। मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं। उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता। जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ। पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया। बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा। जिस में एक टेबल पर पीसी था। पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है। अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।
कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए। तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था। दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे। हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया। फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं। तकनीकी तो थी हीं, कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं। रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे। बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे। पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका। मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे। कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था। इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था। वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था। हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।
घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं। मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी। अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था। माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते। हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे। इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं। भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए। वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया। यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं। पंखा चल रहा था। नींद आ गई।
आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी। बाहर देखा तो शाम होने को थी। मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे? बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे। अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है। मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था। पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे। सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा। मैं उन से सहमत हो गया। समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया। मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई। बहुत ही आत्मीयता से मिले। मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं। उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता। जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ। पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया। बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा। जिस में एक टेबल पर पीसी था। पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है। अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।
कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए। तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था। दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे। हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया। फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं। तकनीकी तो थी हीं, कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं। रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे। बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे। पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका। मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे। कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था। इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था। वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था। हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।
घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं। मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी। अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था। माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते। हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे। इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं। भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए। वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया। यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं। पंखा चल रहा था। नींद आ गई।
आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी। मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ। पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई। पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया? -नहीं केवल पहचान कर रही थी। बाहर देखा तो शाम होने को थी। मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे? बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे। अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है। मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था। पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे। सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा। मैं उन से सहमत हो गया। समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया। मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
चित्र
1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल, 2. पाबला जी के पिता जी और माता जी, 3. भिलाई स्टील प्लाण्ट, 4. पाबला जी का घर बाहर से और 5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
हबीबगंज से भिलाई तक
यह भोपाल का हबीबगंज स्टेशन था। उपयुक्त प्लेटफार्म पर पहुंचने के कुछ ही देर बाद छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस आ गई और हम उस में लद लिए। यह ट्रेन रोज अमृतसर से शाम साढ़े चार बजे चलती है और तीसरे दिन दोपहर 11.50 बजे बिलासपुर जंक्शन पहुंचती है। इस नाम की एक डाउन और एक अप ट्रेन हमेशा ट्रेक पर रहती है। गाड़ी चली तो आधे घंटे से कुछ अधिक ही लेट थी। एकाध घंटे हम बैठे रहे। पर जैसे जैसे रात गहराती गई मिडल बर्थ खुलने लगी और दस बजते बजते मैं भी मिडल बर्थ पर पहुंच लिया। चाय की आवाजों से नींद खुली तो ट्रेन नागपुर स्टेशन पर खड़ी थी। कोई चार से साढ़े चार का समय था। मैं ने वैभव से पूछा चाय पियोगे तो उस ने मना किया। लेकिन मैं उतर कर नागपुर प्लेटफार्म देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। प्लेटफॉर्म पर आया तो कोई सर्दी नहीं थी। प्लेटफॉर्म नगर अपनी प्राचीनता की कहानी स्वयं कह रहा था। ट्रेन बहुत देर वहाँ रुकी रही। मैं वापस अपनी बर्थ में आ कर कंबल में दुबक लिया।
अगली बार नीन्द दो स्त्रैण ध्वनियों ने भंग की कूपा लगभग खाली था, सुबह की रोशनी खिड़कियों से प्रवेश कर रही थी। सामने वाली मिडल बर्थ को गिराया जा चुका था ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शायद वे दोनों वहीं से बैठी थीं और उन्हें छोड़ने वाले प्लेटफॉर्म पर खड़े उन्हें हिदायतें दे रहे थे। उन में एक अधेड़ होने का आतुर विवाहिता और दूसरी किशोरावस्था की अंतिम दहलीज पर खड़ी कोई छात्रा थी। मैं ने स्टेशन का नाम पूछा तो गोंदिया बताया गया। मुझे बीड़ियों का स्मरण हो आया, ब्रांड शायद तीस छाप रहा होगा। कोई कह रहा था, ट्रेन कोई एक घंटा लेट हो गई है, या हो जाएगी। तभी मोबाइल ने पाबला जी की धुन गुन गुनाई। पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची। मैं ने बताया, गोंदिया में खड़ी है। नागपुर में आधे घंटे से कुछ अधिक लेट थी। यहाँ लोग एक घंटे के करीब बता रहे हैं। बाकी का अनुमान आप खुद लगाएँ। उन्हों ने बताया कि वे दुर्ग प्लेटफॉर्म पर हमें खड़े मिलेंगे। अभी ढाई घंटों का मार्ग शेष था। मुझे नींद की खुमारी थी। मैं फिर से कंबलशरणम् गच्छामि हो गया।
इस बार आँखें खुली तो तुरंत मोबाइल में समय देखा गया। अभी आठ बीस हो रहे थे। डब्बे में विद्यार्थियों, विशेष रुप से छात्राओं की भारी संख्या थी। जैसे वह शयनयान न हो कर जनरल डब्बा हो। गाड़ी की देरी के स्वभाव को देखते हुए दुर्ग पहुँचने में अभी पौन घंटा शेष था। कुछ ही देर में किसी गाड़ी नगरीय सीमा में प्रवेश करती दिखाई दी। मैं ने ऐतिहातन पूछ लिया कौन नगर आया? जवाब दुर्ग था। मैं एक दम चैतन्य हो उठ बैठा। कंबल आदि समेट कर बैग के हवाले किए और उतरने को तैयार।
प्लेटफॉर्म पर उतरे तो इधर उधर निगाहें दौड़ाई कि कही कोई पगड़ीधारी सिख किसी का इंतजार करता दिखा तो जरूर पाबला जी होंगे। कुछ सिख दिखे तो, लेकिन उन में से किसी के पाबला होने की गुंजाइश एक फीसदी भी नहीं थी। उतरी हुई सवारियाँ सब चल दीं, फिर ट्रेन भी। आखिर मोबाइल का सहारा लिया। पाबला जी पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची? मैं ने बताया हमें दुर्ग स्टेशन पर उतार कर आगे चल दी। वे बोले- हम तो अभी घर से निकले ही नहीं। देरी के हिसाब से तो अभी पहुँचने में पौन घंटा होना चाहिए। मैं ने कहा कम्बख्त ने गोंदिया के बाद सारी देरी कवर कर ली। आप चलिए हम प्लेटफॉर्म छोड़ कर स्टेशन के बाहर निकलते हैं। वे बोले मैं बीस मिनट में पहुँचता हूँ।
हम दोनों स्टेशन के बाहर निकल कर वहाँ आ गए जहाँ कारों की पार्किंग थी। कुछ दूर ही स्टेशन का क्षेत्र समाप्त हो रहा था और बाहर की दुकानें दिखाई दे रही थीं। वहाँ जरूर कोई चाय-कॉफी की दुकान होगी। सुबह की कॉफी नहीं मिली थी। पर मुझे यह गवारा न था कि पाबला जी को हमें तलाशने में परेशानी हो। हम वहीं उन का इंतजार करते रहे। मैं हर आने वाली वैन में पगड़ी धारी सिख को देखने लगा। आखिर वह वैन आ ही गई। हमने अपने बैग उठाए और उसकी और बढ़े। हमारी बढ़त देख पाबला जी ने भी हमें पहचान लिया। पाबला जी के साथ उन का पुत्र मोनू (घरेलू नाम) था। दोनों ने हमारे हाथों से बैग लगभग छीने और वैन के हवाले किए। वैभव को चालक सीट पर बैठे मोनू के साथ बिठाया और पाबला जी मेरे साथ पीछे बैठे। हम चल दिए भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिप में स्थित पाबला जी के घऱ की ओर।
2. दुर्ग रेलवे स्टेशन है
3. पाबला जी।
अगली बार नीन्द दो स्त्रैण ध्वनियों ने भंग की कूपा लगभग खाली था, सुबह की रोशनी खिड़कियों से प्रवेश कर रही थी। सामने वाली मिडल बर्थ को गिराया जा चुका था ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शायद वे दोनों वहीं से बैठी थीं और उन्हें छोड़ने वाले प्लेटफॉर्म पर खड़े उन्हें हिदायतें दे रहे थे। उन में एक अधेड़ होने का आतुर विवाहिता और दूसरी किशोरावस्था की अंतिम दहलीज पर खड़ी कोई छात्रा थी। मैं ने स्टेशन का नाम पूछा तो गोंदिया बताया गया। मुझे बीड़ियों का स्मरण हो आया, ब्रांड शायद तीस छाप रहा होगा। कोई कह रहा था, ट्रेन कोई एक घंटा लेट हो गई है, या हो जाएगी। तभी मोबाइल ने पाबला जी की धुन गुन गुनाई। पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची। मैं ने बताया, गोंदिया में खड़ी है। नागपुर में आधे घंटे से कुछ अधिक लेट थी। यहाँ लोग एक घंटे के करीब बता रहे हैं। बाकी का अनुमान आप खुद लगाएँ। उन्हों ने बताया कि वे दुर्ग प्लेटफॉर्म पर हमें खड़े मिलेंगे। अभी ढाई घंटों का मार्ग शेष था। मुझे नींद की खुमारी थी। मैं फिर से कंबलशरणम् गच्छामि हो गया।
इस बार आँखें खुली तो तुरंत मोबाइल में समय देखा गया। अभी आठ बीस हो रहे थे। डब्बे में विद्यार्थियों, विशेष रुप से छात्राओं की भारी संख्या थी। जैसे वह शयनयान न हो कर जनरल डब्बा हो। गाड़ी की देरी के स्वभाव को देखते हुए दुर्ग पहुँचने में अभी पौन घंटा शेष था। कुछ ही देर में किसी गाड़ी नगरीय सीमा में प्रवेश करती दिखाई दी। मैं ने ऐतिहातन पूछ लिया कौन नगर आया? जवाब दुर्ग था। मैं एक दम चैतन्य हो उठ बैठा। कंबल आदि समेट कर बैग के हवाले किए और उतरने को तैयार।
प्लेटफॉर्म पर उतरे तो इधर उधर निगाहें दौड़ाई कि कही कोई पगड़ीधारी सिख किसी का इंतजार करता दिखा तो जरूर पाबला जी होंगे। कुछ सिख दिखे तो, लेकिन उन में से किसी के पाबला होने की गुंजाइश एक फीसदी भी नहीं थी। उतरी हुई सवारियाँ सब चल दीं, फिर ट्रेन भी। आखिर मोबाइल का सहारा लिया। पाबला जी पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची? मैं ने बताया हमें दुर्ग स्टेशन पर उतार कर आगे चल दी। वे बोले- हम तो अभी घर से निकले ही नहीं। देरी के हिसाब से तो अभी पहुँचने में पौन घंटा होना चाहिए। मैं ने कहा कम्बख्त ने गोंदिया के बाद सारी देरी कवर कर ली। आप चलिए हम प्लेटफॉर्म छोड़ कर स्टेशन के बाहर निकलते हैं। वे बोले मैं बीस मिनट में पहुँचता हूँ।
हम दोनों स्टेशन के बाहर निकल कर वहाँ आ गए जहाँ कारों की पार्किंग थी। कुछ दूर ही स्टेशन का क्षेत्र समाप्त हो रहा था और बाहर की दुकानें दिखाई दे रही थीं। वहाँ जरूर कोई चाय-कॉफी की दुकान होगी। सुबह की कॉफी नहीं मिली थी। पर मुझे यह गवारा न था कि पाबला जी को हमें तलाशने में परेशानी हो। हम वहीं उन का इंतजार करते रहे। मैं हर आने वाली वैन में पगड़ी धारी सिख को देखने लगा। आखिर वह वैन आ ही गई। हमने अपने बैग उठाए और उसकी और बढ़े। हमारी बढ़त देख पाबला जी ने भी हमें पहचान लिया। पाबला जी के साथ उन का पुत्र मोनू (घरेलू नाम) था। दोनों ने हमारे हाथों से बैग लगभग छीने और वैन के हवाले किए। वैभव को चालक सीट पर बैठे मोनू के साथ बिठाया और पाबला जी मेरे साथ पीछे बैठे। हम चल दिए भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिप में स्थित पाबला जी के घऱ की ओर।
चित्र -
1. हबीबगंज (भोपाल) रेलवे स्टेशन 2. दुर्ग रेलवे स्टेशन है
3. पाबला जी।
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
अजित वडनेरकर के साथ चार घंटे
शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं। मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी। लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है। हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया। अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे। अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है, पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले, ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।
भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना। वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था। पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था। पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी। रवि रतलामी जी से मिल सकता था। पर वे भी दूर थे। अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था। मैं ने किसी को बताया भी नहीं। मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे। पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।
26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए। पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी। हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए। ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी। ट्रेन चलते ही हम सो लिए। आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी। कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी? बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी। उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर। मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है? बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी। यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था। ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया। स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया। लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए। ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे। वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।
सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर। एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ। बरबस ही आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे। कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर। मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो। जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है। जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं। हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था। कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा। मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।
दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था। हम दोनों और अजित बैठ गए। दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई। हम भोजन के साथ बातें करते रहे। अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे। ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई। इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए। तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है। अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए। भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं। पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार। इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।
अब चलने का समय हो चला था। अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए। अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है। उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं। चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है। फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था। मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।
जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ। मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया। धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा।
मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी। कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे। हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे। अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी। मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया। वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे। अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले। ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।
भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना। वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था। पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था। पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी। रवि रतलामी जी से मिल सकता था। पर वे भी दूर थे। अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था। मैं ने किसी को बताया भी नहीं। मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे। पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।
26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए। पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी। हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए। ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी। ट्रेन चलते ही हम सो लिए। आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी। कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी? बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी। उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर। मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है? बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी। यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था। ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया। स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया। लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए। ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे। वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।
सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर। एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ। बरबस ही आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे। कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर। मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो। जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है। जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं। हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था। कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा। मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।
दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था। हम दोनों और अजित बैठ गए। दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई। हम भोजन के साथ बातें करते रहे। अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे। ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई। इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए। तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है। अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए। भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं। पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार। इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।
अब चलने का समय हो चला था। अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए। अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है। उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं। चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है। फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था। मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।
जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ। मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया। धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा।
मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी। कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे। हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे। अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी। मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया। वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे। अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले। ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।
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