@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 24 सितंबर 2011

गरीबी संख्या से हटती है।

ब से यह निठल्ला जनतंत्र आया है तब से गरीबों की सहायता करना सरकार के लिए सब से बड़ी समस्या बनी हुई है। उन्हें सारा हिसाब किताब रखना पड़ता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं? फिर उन की नियमित रूप से सहायता करनी पड़ती है। जनतंत्र न होता तो ये समस्या होती ही नहीं। तब राज करना आसान था। बस तलवार का जोर चाहिए था। अब तो एक निर्धारित अंतराल के बाद जनता से वोट हासिल करने जाना होता है। अब जब जनतंत्र का पल्ला पकड़ ही लिया है तो जाना तो होगा ही। जब जब भी जाना पड़ता है जनता से मुकाबला भी करना पड़ता है। जनता के पास जाते हैं तो गरीब से भी पाला पड़ता ही है। तब गरीब से कहना पड़ता है कि बस उन की सरकार बन जाए तो फिर वे गरीबी को हटा देंगे। उन के राज में कोई गरीब न रहेगा। कोई चार दशक पहले जब यह बात भारत में पहली बार वोट मांगने के लिए इस्तेमाल की गई थी तो जो सरकार बनी वह टाटा की स्टील से भी कई गुना मजबूत थी। ऐसा लगा था कि अब गरीबी कुछ ही दिनों की मेहमान है। उस के बाद जनता दिन गिनती रह गई। दिन गिनते-गिनते साल निकल गए, गरीबी बहुत हटीली निकली हटी नहीं। सरकार ने पाँच के बजाए छह साल लिए फिर भी नहीं हटी। सरकार गरीबी हटाते हटाते गरीबों को हटाने में जुट गई। गरीबों ने सरकार को हटा दिया।तब से यह कायदा हो गया है कि वोट मांगने लिए गरीबी हटाने की बात करना जरूरी है। 

सा नहीं है कि गरीबी को हटाने के प्रयास न किए जाते हों। कई सरकारें बदलीं, अलग-अलग रंगों की सरकारें बनीं। कई मेल के रंगों की सरकारें बनीं। हर सरकार ने प्रयोग किए, पर सफल कोई न हुआ। फिर अचानक एक विद्वान प्रधानमंत्री के दिमाग में अचानक सौदामिनी दमक उठी। गरीबी इसलिए नहीं हट रही है कि हम उस पर जरा अधिक ध्यान दे रहे हैं। हमें ध्यान देना चाहिए अमीरी बढ़ाने पर। जब अमीरी बढ़ेगी तो गरीबी क्या खा कर बचेगी। उसे तो रसातल में जाना ही पड़ेगा। अमीरी के भारत प्रवेश के लिए खिड़की दरवाजे खोले जाने लगे। नई नई चीजें देश में दिखाई देने लगीं। गरीब खुश हो गया, नई नई चीजों का आनन्द लेने लगा। उसे लगा कि अब गरीबी गई, अब उसका बचना नामुमकिन है। अखबारों में, टीवी चैनलों में खबरें आने लगी। अब देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ गई है। अब अरबपति भी होने लगे हैं। दुनिया के सब से अमीर लोगों की सूची में स्थान पाने लगे हैं। गरीब की खुशी और बढ़ गई। 

रीब समाचार पढ़ सुन कर प्रसन्न था। फिर सुनने को मिलने लगा कि गरीब भारत में ही नहीं अमरीका इंग्लेण्ड में भी होते हैं। उस की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। वाह! क्या बात है? अमरीका और इंग्लेंड में भी गरीब रहते हैं! प्रसन्नता समाती भी कैसी उस की इज्जत बढ़ रही थी वह अमरीका इंग्लेंड से मुकाबला कर रहा था। अब गरीबी उन्हें रास आने लगी। गरीबों को ही क्यों वह तो अब अच्छे-अच्छों को रास आ रही थी। इस बात का पक्का सबूत भी लगातार मिलने लगा। सरकार ने जब गरीबों को बीपीएल नाम का पहचान पत्र देना आरंभ किया तो गरीब ही क्यों गरीबी की रेखा के उस पार दूर दूर तक विराजमान लोगों ने इस पहचान पत्र को बनवाने के लिए मशक्कत की और बनवा भी लिए। लेकिन सरकार उदास हो गई। वह तो चली थी गरीबी हटाने बीपीएल कार्ड तो गरीबों की संख्या बढ़ाने लगे। चिन्ता बढ़ने लगी, इतनी बढ़ी कि उसे घबराहट होने लगी। तुरंत योजना आयोग को बताया गया कि इस का इलाज करना होगा। योजना आयोग प्राण-प्रण से जुट गया। उस ने सारे देश में अपने जासूस भेज दिए आखिर उस ने तोड़ निकालने के लिए पता लगा ही लिया कि देश के किसी भी नगर में 32 और गाँव में 26 रुपए रोज खर्च करने तक की क्षमता रखने वाला गरीब नहीं हो सकता। उस ने यह बात छुपा कर भी नहीं रखी। सुप्रीमकोर्ट तक को बता दी। पर इस से गरीब बहुत नाराज हैं। इस तरह तो उन की संख्या कम हो जाएगी, जो उन्हें कतई पसन्द नहीं है।  आखिर जनतंत्र में संख्या का ही तो खेल है। संख्या से ही तो गरीबी मिटती है। अब झारखंड वाली पार्टी के पास संख्या न होती तो कोई सरकार बचाने को उन की गरीबी हटाता?

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

आज जन्मदिन की शुभकामनाएँ! किसे दें ?

आज  हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन ब्लाग के ब्लागर

हर दिल अजीज बी.एस. पाबला जी का जन्मदिन है

बुधवार, 21 सितम्बर, 2011










पाबला जी को असीम, अनन्त, अशेष शुभकामनाएँ!!!

सोमवार, 19 सितंबर 2011

उपवास-1, एकादशी महात्म्य


मैं ने बचपन से ही घर के बड़ों को एकादशी का उपवास करते देखा। हर एकादशी को वे भोजन नहीं करते। केवल दूध, चाय और पानी पीते। दुपहरी कट जाने के बाद अम्माँ एकादशी करने वालों के लिए आलू के चिप्स और साबूदाने के पापड़ तलती, सैंधा नमक और काली मिर्च से उन में स्वाद पैदा करती। सिंघाड़े या आलू का हलुआ भी उन के साथ बनाया जाता। ठाकुर जी को भोग लगाया जाता। फिर उपवासी एक साथ या एक एक कर के शाकाहार करते। हम बच्चों को भी इस शाकाहार में भाग मिलता। आलू के चिप्स और हलुआ अच्छा लगता, लेकिन सिंघाड़े का हलुआ कतई अच्छा नहीं लगता। कभी कभी कोई अम्माँ से पूछता -आप सारी ही एकादशी करती हैं क्या? अम्माँ का जवाब होता -करनी पड़ती हैं, पिछली साल दादी सास का देहान्त हुआ तब पंडित ने संकल्प करने को कहा था। मैं ने चौबीस एकादशी उन को दे दीं। अब वे तो करनी ही पड़ेंगी। जब तक चौबीस एकादशी पूरी होती कोई और निकट संबंधी परलोक गमन कर जाता। एकादशी के कर्ज खाते में कुछ एकादशी और दर्ज हो जाती। पिछले पचास वर्ष में कोई समय ऐसा नहीं आया कि अम्माँ का एकादशी कर्ज खाता कभी चुकता हो गया हो। 

कुछ बड़ा हुआ तो पता लगा कि भारत में किसान का कर्जा कभी नहीं चुकता वह कर्जे में ही पैदा होता है और कर्जे में ही परलोक चला जाता है। कर्जे की इस चक्की में महाजन माल बनाता रहता है और एक दिन ऐसा आता है कि किसान की जमीन महाजन के नाम हो जाती है। फिर किसान अपनी ही जमीन पर महाजन का कर्जदार हो कर बेगारी करने लगता है। मुझे लगने लगा था कि किसान की और मेरी अम्माँ की कर्ज की समस्या में कोई गंभीर संबंध है। फिर बहुत बाद में मैं ने भारतीय देव परिवार का विकास पढ़ा तो समझ आया कि वैदिक देवता होते हुए भी विष्णु की कोई खास पूछ नहीं थी। आर्यों और लिंगपूजकों में संघर्ष के दौरान सर्वोपरि आर्य देवता इन्द्र अपने कारनामों (गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के शील भंग जैसे कांड, जिस में उसे ऋषि गौतम के शाप के कारण अपने अंडकोष खोने पड़े थे। वापस देवलोक पहुँचने पर वहाँ के शल्य चिकित्सकों को मेंढे के अंडकोष लगा कर उसे फिर से वीर्यवान बनाना पड़ा, आखिर बिना अंडकोषों के वह देवताओँ का राजा कैसे बना रह सकता था, तीनों लोंकों में उस की भद्द न पिट जाती।) से बदनाम हो गया। शल्य चिकित्सा से वह भौतिक सुखों के योग्य तो हो गया लेकिन दुनिया में भद्द तो पिट ही गई। आर्यों द्वारा तो उसे स्वीकार करना मजबूरी थी। लेकिन अनार्य, विशेष रूप से लिंगपूजक उसे कैसे स्वीकार करते? लिंग पूजकों पर आर्यों ने भौतिक विजय तो हासिल कर ली थी लेकिन सांस्कृतिक विजय के बिना तो वह अधूरी ही रहती।

ब आर्यों के पास कोई उपाय शेष नहीं था। उधर लिंगपूजकों का पशुपति आर्यों में आदर पाने लगा था। उस की रुद्र से समानता भी थी। आखिर इंद्र के अनुज विष्णु को मैदान में उतारना पड़ गया। वह सीदा सादा था। उस पर जलंधर का रूप रख उस की पत्नी वृन्दा को छलने के सिवा कोई आरोप न था। पर उस के लिए तो आर्यों के पास उपयुक्त बचाव था, कि यदि विष्णु ऐसा न करता तो जलंधर को परास्त कर पाना असंभव था। तो विष्णु को लाँच किया गया। उस में तत्काल असफलता हासिल न हुई तो उसे भटकती मृतात्माओं के तारनहार के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह पासा चल निकला। कौन था जो अपने पूर्वजों की मृतात्माओं को भटकता देखना चाहता। कम से कम उस हालत में तो कतई नहीं जब कि वे अपने वंशजों के शरीर में आ कर उत्पात मचाती हों और उन के जीवन को नर्क बना देती हों। तब से अपने पूर्वजों की मृतात्माओं से मुक्ति और मृतात्माओं की मुक्ति के लिए एकादशी का उपवास चल रहा है, आज कल तो यह दौड़ रहा है। नगरों में तो दुकानों पर तरह तरह के स्वादिष्ट और सामान्य भोजन से कई गुना अधिक कैलोरी ऊर्जा प्रदान करने वाले फलाहारी व्यंजन उपलब्ध हैं। जिन के कारण मृतात्माओं से और मृतात्माओं की मुक्ति को अत्यन्त सरल और आनंदपूर्ण बना दिया है।

म्माँ अभी भी उपवास के कर्ज तले दबी है। मैं जान चुका हूँ कि जन्म से पहले और मृत्यु के उपरान्त आत्मा का कोई भाव नहीं, शरीर के बिना उस का अस्तित्व संभव ही नहीं। मैं सदेह मुक्त हूँ। अम्माँ का कार्यभार श्रीमती जी ने संभाल लिया है, लेकिन वे कर्जा नहीं करतीं। वे पहले से एकादशी का उपवास कर के बैंक में रखती हैं। जब भी जरूरत होती है उस में से चैक काट देती हैं। लेकिन यह उपयोगितावाद का युग है। एक वस्तु या व्यवहार का एक उपयोग आज के इंसान को बर्दाश्त नहीं। उसने उपवास के भी अनेक उपयोग निकाल लिए हैं .....

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

वकील बाबू क्या हुआ?

कुछ दिनों से कान में सुरसुराहट हो रही थी, लग रहा था पेट्रोल के दाम अब बढ़े, अब बढ़े। दिन भर अदालत में व्यस्त रहे वकील बाबू शाम को थक कर घर पहुँचे तो खबर इंतजार ही कर रही थी। कान की सुरसुराहट बंद हो चुकी थी। पेट्रोल के दाम में तीन रुपए का इज़ाफा होने की घोषणा हो चुकी थी। आधी रात के बाद नए भाव से मिलना शुरू हो जाना था। वकील बाबू की कार की टंकी फुल करवाने का अभी आधी रात तक तो मौका था। हिसाब लगाना शुरू किया। 28 लीटर की टंकी, जिस में कम से कम तीन लीटर तो अभी भी भरा होगा, खाली स्थान बचा 25 लीटर। अभी दाम है 67.40 रुपए प्रति लीटर। 25 लीटर के लिए चाहिए 1685/- । जेब टटोली तो वहाँ निकले पाँच सौ के पाँच नोट। पेट्रोल भरवा लिया तो एक ही बचेगा, तीन सौ-सौ के नोटों के साथ। यकायक जेब का इतनी हलकी हो जाना दिल को गवारा न था। वकील बाबू बचत का हिसाब लगाने लगे। कुल तीन-साढ़े तीन रुपए बढ़ने हैं। अधिक से अधिक 75-80 रुपए का फायदा होना था। बस! इतनी सी बचत होगी?

कील बाबू ने कार लेकर पंप पर जाने का इरादा त्याग दिया। शाम को भोजन के समय टीवी समाचार पर नजर पड़ी तो 75-80 रुपए का लालच सताने लगा। मन कह रहा था, कार ले कर निकल पड़। दो-तीन किलोमीटर ही तो है आना-जाना। ज्यादा से ज्यादा से ज्यादा 10-12 रुपए का पेट्रोल जलेगा, फिर भी 65-70 तो बच ही लेंगे। फिर ख्याल आ गया। पिछली बार तीन पेट्रोल पंपों ने लौटा दिया था तब जा कर चौथे पर पर पेट्रोल मिला था। वह भी आधा घंटा लाइन में लगे रहने के बाद। कम से कम आठ बार इंजन को चालू बंद करना पड़ा था। 40 रुपए का पेट्रोल तो इसी में फुँक गया था। पर तब 5.32 रुपए प्रति लीटर का सवाल था। इस बार इतना ही पेट्रोल फूँकना पड़े और कम से कम एक घण्टा टाइमखोटी किया जाए तो भी टंकी फुल करा कर बचेगा क्या? सिर्फ 30 रुपल्ली। वकील बाबू ने फाइनली तय कर लिया कि कार को गैराज से बाहर निकालना फिज़ूल है, इस से अच्छा तो ये है कि वकालत का काम देखा जाए।

णित, वकील बाबू की पुरानी प्रेयसी जब दिमाग में घुस जाती है तो आसानी से निकलती नहीं। गणना बराबर चल रही थी। कार महीने में 50-55 लीटर पेट्रोल पीती है। कुल मिला कर दो सौ रुपए का पेट्रोल खर्च बढ़ेगा। इतना और कूटना पड़ेगा मुवक्किलों से। वैसे मुफ्त सलाह लेने वाले लोगों में से एक से भी फीस वसूल ली तो घाटा पट जाएगा। इत्ती गणना हुई कि भोजन निपट लिया। वकीलाइन ने सब्जी के भाव बताना शुरू कर दिया। भाव बता चुकने पर पूछा -बाजार सामान लेने कब चलना है? रसोई के डिब्बे खाली हो चले हैं। गणना फिर शुरू हो गई। पेट्रोल खरचा तो सब्जी वाले का भी बढ़ा है। कल सब्जी में पाँच रूपया किलो बढ़ जाना है। दूध वाला कल से दाम तो नहीं बढ़ाएगा, पर पानी बढ़ा देगा। किराने वाला, और .......... ये सब भी तो कहीं न कहीं कसर निकालेंगे। नहीं निकालेंगे तो जिएंगे कैसे। वकील बाबू का महिने में एक मुवक्किल से सलाह की फीस लेने का फारमूला फेल हो गया। अब तो हर मुवक्किल ट्राई करना पड़ेगा।

वैसे ये बहुत बुरी बात है। ये सरकार ... सॉरी! तेल कंपनियाँ हर तीसरे महीने 3-5 रुपए बढ़ा देती हैं। कभी कच्चे के दाम बढ़ने के कारण, तो कभी रुपए का दाम घटने के कारण। सरकार कुछ सोचती ही नहीं। इस तरह दाम बढ़ाने पड़े तो तीन बरस में बारह बार बढ़ाने पड़ेंगे। फिर चुनाव आ जाएगा। लोगों को ताजा ताजा याद रहती है। एक साथ ही दाम 100 रुपए लीटर कर दिए होते तो ठीक था। वकील बाबू भी उस का तोड़ एक बार में ही निकाल लेते। 3 साल में जनता भूल जाती कि दाम 100 रुपए किया था। गुंजाइश निकलती तो ठीक चुनाव के पहले 5-10 रुपए कम किए जा सकते थे। वकील बाबू ने पिछली बार भी कहा था कि दाम सीधे ही 100 रुपया लीटर कर देना चाहिए। पर सरकार के नक्कार खाने में वकील बाबू की तूती कौन सुनता? 
कील बाबूने आज फैसला कर लिया है। कल अदालत में वकीलों, टाइपिस्टों, क्लर्कों, मुवक्किलों.... आदि आदि से बात करेंगे कि मोर्चा जमाया जाए। पेट्रोल का दाम सीधे 100 रुपए किया जाए। बार-बार दाम बढ़ाने से बहुत तकलीफ होती है। धीरे-धीरे गंजा होने से अच्छा है एक बार ही नाई से उस्तरा फिरवा लिया जाए। कम से कम लोग पूछेंगे तो वकील बाबू क्या हुआ?

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत

र्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के बाद छह करोड़ गुजरातियों के नाम खुली चिट्ठी लिखने वाले नरेन्द्र मोदी के नाम गुजराती आईपीएस अधिकारी संजीव राजेन्द्र भट्ट ने खुली चिट्ठी लिखी है। इस चिट्ठी के अंत में भट्ट ने महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के अपने सहपाठी भूचुंग डी. सोनम की एक कविता उदृत की है। यहाँ उस कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है ... 

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
  • भूचुंग डी. सोनम

मेरे पास सिद्धांत है, बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सिद्धांत कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए
 
मेरे साथ सत्य है, कोई बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सत्य कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए

तुम तोड सकते हो
मेरा सिर
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम फो़ड़ सकते हो
मेरी हड्डियाँ
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम मुझे जिंदा दफन कर सकते हो
फिर भी
तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए

करूंगा मैं युद्ध
अपनी रगों में दौड़ते हुए सत्य के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
सचाई के हर अंश के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
जीवन के अंतिम श्वास तक

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
धराशाई न हो जाए जब तक
असत्य की ईंटों से निर्मित तुम्हारा दुर्ग

घुटने न टिका दे जब तक  
तुम्हारे असत्यों से पूजित शैतान  
सचाई के फरिश्ते के सामने 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

उपभोक्ता के रूप में क्या आप हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं?

दो दिन पहले सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनी के शाखा कार्यालय जाना हुआ। बीमा कंपनी हर वर्ष 14 सितम्बर से एक सप्ताह तक हिन्दी सप्ताह मनाती है। इस के लिए कुछ बजट भी शाखा में आता है। इस सप्ताह में कर्मचारियों के बीच निबंध, हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रश्नोत्तरी जैसी कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित कराई जाती हैं और अंतिम दिन पुरस्कार वितरण होता है। जिस के उपरान्त जलपान का आयोजन होता है और इस तरह हिन्दी को कुछ समृद्धि प्रदान कर दी जाती है। दो वर्षों से इस सप्ताह के अंतिम दिन जब हिन्दी प्रश्नोत्तरी और पुरस्कार वितरण का आयोजन किया जाता है तो वे मुझे बुलाते हैं। इस बार भी उन्हों ने मुझे आने को कहा। मैं ने उन्हें अपनी सहमति दे दी। इन प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुछ नवीनता आए और हिन्दी में काम करने के प्रति लोगों का रुझान पैदा हो इस के लिए मैं ने कुछ सुझाव भी दिए। सुझावों को गंभीरता से सुना तो गया। लेकिन उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जो उत्साह होना चाहिए वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। मुझे लगा कि इस वर्ष फिर पिछले वर्षों की तरह ही बनी बनाई लकीर पर एक और लकीर खींच कर हिन्दी सप्ताह संपन्न हो लेगा।

कुछ देर और मुझे शाखा प्रबंधक के कक्ष में रुकना पड़ा तो मैं ने उन्हें बताया कि उन के कंप्यूटरों में हिन्दी भाषा का उपयोग करने की सुविधा है लेकिन उसे चालू नहीं किया हुआ है। यहाँ तक कि वे इस सुविधा को चालू कर के पूरे कंप्यूटर को हिन्दी रूप प्रदान कर सकते हैं। मैं ने उन के कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर लगे आईकॉन के नाम देवनागरी में बदले। उन्हें बताया कि कैसे फाइल और फोल्डर्स के नाम नागरी में अंकित किए जा सकते हैं। उन्हों ने पूछा कि हिन्दी तो उन के कंप्यूटर पर पहले भी टाइप की जाती रही है, लेकिन जब वे उस पर हिन्दी फोन्ट में फाइल का नाम लिखते थे तो रोमन में अजीबोगरीब शब्द आ जाते थे, लेकिन आप ने यह सब कैसे लिखा? 

मैंने उन्हें बताने लगा कि उन का कंप्यूटर उन सब भाषाओं को समझ सकता है जो कि कंट्रोल पैनल के 'क्षेत्र और भाषा' विकल्प में दर्ज हैं, लेकिन वे उस विकल्प का उपयोग नहीं करते। वे केवल अंग्रेजी विकल्प का ही प्रयोग करते हैं जब कि उन का कंप्यूटर एक साथ अनेक भाषाओं और लिपियों में काम कर सकने की क्षमता रखता है। जब वे केवल अंग्रेजी के विकल्प का उपयोग भी आरंभ कर दिया जाता है तो जो कंप्यूटर केवल अंग्रेजी समझता था वह हिंदी भी समझने लगता है। लेकिन कंप्यूटर केवल यूनिकोड के हिन्दी फोन्ट को ही हिंदी के फोन्ट के रूप में मान्यता देता है, अन्य फोंट को नहीं। उस का कारण यह है कि अन्य फोंट वास्तव में अंग्रेजी कोड पर आधारित हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि उन में किसी खास रोमन अक्षर के स्थान पर देवनागरी के किसी अक्षर, अर्धाक्षर या मात्रा का चित्र विस्थापित कर दिया गया है जिस से देवनागरी के अक्षर को भी कंप्यूटर रोमन का ही कोई अक्षर समझता रहता है।

मेरे इतनी बात करने का लाभ यह हुआ कि शाखा प्रबंधक ने यूनिकोड हिन्दी टाइप करने के औजारों के संबंध में बात करना आरंभ किया। सब कुछ अल्प समय में बताना संभव नहीं था इसलिए मैं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे हिन्दी सप्ताह में कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करने के तरीकों के बारे में उन की शाखा में क्यों नहीं एक कक्षा आयोजित करते हैं? उन्हों ने आश्वासन दिया कि वे उस के लिए प्रयत्न करेंगे। मैं ने उन्हें यह भी बताया कि वे जो काम अंग्रेजी में करते आए हैं उसे हिन्दी में भी कर सकते हैं। जैसे ग्राहकों से हिन्दी में पत्र व्यवहार करना या भुगतान के चैक आदि हिन्दी में बनाना है। मैं ने उन्हें बताया कि मैं यह सब व्यवहार हिन्दी में ही करता हूँ और अंग्रेजी का उपयोग तभी करता हूँ जब कि वह अपरिहार्य हो जाता है। हिन्दी में चैक आदि बनाने पर राशियाँ लिखना बड़ा आसान है। इस बीच शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक को देने के लिए चैक बनाया तो उसे हिन्दी में लिखा और मुझे बताया। मैं ने उन्हें कहा कि यह चैक अंग्रेजी में लिखे गए चैक से अधिक सुंदर लग रहा है और गड़बड़ की गुंजाइश भी और कम हो गई है। जिस ग्राहक को यह चैक मिलेगा उसे भी हिन्दी में यह काम करने की प्रेरणा मिलेगी। शाखा प्रबंधक ने बताया कि वे प्रयत्न करेंगे कि अधिक से अधिक काम हिन्दी में करें। इस बीच सहायक ने उन्हें बताया कि बीमा पॉलिसी को हिन्दी में छापने की सुविधा भी उपलब्ध है। तो प्रबंधक जी कहने लगे कि जब तक ग्राहक अंग्रेजी में पॉलिसी छापने का खुद आग्रह न करे उसे पॉलिसी हिन्दी में छाप कर दी जानी चाहिए। उन्हों ने कहा कि मुझे अब तक खुद यह बात पता नहीं थी। लेकिन वे अब इस काम को भी हिन्दी में चालू करना चाहेंगे। 

गभग सभी व्यवसायिक संस्थाओं और उपक्रमों में हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं लोग परंपरा के कारण अंग्रेजी में का्म करते रहते हैं। यदि उपभोक्ता खुद हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो यह काम हिन्दी में हो सकते हैं। मैं तो हर स्थान पर हिन्दी में काम करने की मांग करता हूँ। आप चाहें तो आप भी कर सकते हैं। मुझे लगता है कि उपभोक्ता हिन्दी में काम करने की मांग करने लगें तो हिन्दी को उस का उचित स्थान प्राप्त करने में वे महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। क्या आप भी उपभोक्ता के रूप में हिन्दी में काम करने की मांग करते हैं? यदि नहीं तो क्या अब करेंगे?