@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मौजूदा किसान आन्दोलन : काँट्रेक्ट फार्मिंग और 1859 का नील विद्रोह

शनिवार, 2 जनवरी 2021

मौजूदा किसान आन्दोलन : काँट्रेक्ट फार्मिंग और 1859 का नील विद्रोह


भारत सरकार द्वारा बनाए गए तीन तथाकथित कृषि कानून (जो वास्तव में व्यापारिक कानून हैं) किसानों पर थोपे जाने के विरुद्ध चल रहे किसान आन्दोलन के दौरान भारत के इतिहास में हुए किसान आन्दोलनों की भी तफ्तीश करनी चाहिए। जिनसे हम समझ सकें कि वास्तव में भारत सरकार जो बड़े पूंजीपतियों की एजेण्ट बनी हुई है किस तरह से उनके लाभ के लिए किसानों को ही नहीं तमाम मेहनतकश जनता को दाँव पर लगाने का निश्चय कर चुकी है और उसके लिए हिटलर से भी अधिक क्र्रूर हो सकती है। 


यहाँ प्रस्तुत हैं 1859 में हुए किसानों के नील विद्रोह से सम्बन्धित जानकारियाँ :  
  •  बंगाल में नील की खेती 1777 में शुरू हुई. नील की खेती कराने वाले बागान मालिकों ने जो लगभग सभी यूरोपियन थे, स्थानीय किसानों को बाध्य किया कि वे अधिक लाभदायक धान की फसल करने के स्थान पर नील की खेती करें। उन्होंने किसानों को बाध्य किया कि वे अग्रिम राशि ले लें और फर्जी संविदाओं पर दस्तखत करें जिन्हें बाद में उनके विरुद्ध उपयोग में लिया जा सके। 
  • बागान मालिकों ने किसानों को उनके अपहरण, अवैध बन्दीकरण, मारपीट, उनके बच्चों और औरतों पर हमलों, जानवरों को बन्द करके, उनके घरों को जला कर और फसलों को नष्ट कर के डराया धमकाया।
  • किसानों की नाराजगी नाडिया जिले में 1859 में दिगम्बर बिस्वास और बिशनू बिस्वास के नेतृत्व में सामने आई और किसानों ने नील उगाने से इन्कार कर दिया और बागान मालिकों और उनके साथ लगी पुलिस और अदालतों का विरोध किया। 
  • उन्होने बागान मालिकों के अत्याचारों के विरुद्ध एक प्रतिबल संगठित किया। बागान मालिकों ने किसानों को जमीनों से बेदखल और लगान बढ़ाना आरम्भ किया। किसानों ने जमीनों से बेदखल किए जाने का विरोध किया और लगान जमा कराना बन्द कर दिया। 
  • बाद में उन्हों ने धीरे धीरे कानूनी मशीनरी का उपयोग करना भी सीखा।
  • बंगाल के बुद्धिजीवियों ने किसानों के पक्ष में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने समाचार पत्रों, जन सभाओं का आयोजन किया और किसानों की ओर से के लिए दावे और आवेदन तैयार किए उनकी कानूनी लडाई को मदद की। हरिश्चन्द्र मुखोपाध्याय, ने अपने अखबार हिन्दू पेट्रियट में किसानों के उत्पीड़न की कहानियाँ प्रकाशित कीं। दीनबन्धु मित्र का 1859 का नाटक नील दर्पण किसानों के उत्पीड़न पर आधारित था। माइकल मधुसुदन दत्त ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया जिसे आयरिश पादरी जेम्स लोंग ने प्रकाशित किया जिसने इंग्लेण्ड में लोगों को बहुत आकर्षित किया। जिससे इंग्लेण्ड के नागरिक अपने लोगों के इस आचरण से बहुत क्षुब्ध हुए। ब्रिटिश सरकार ने जेम्स लोंग को फर्जी मुकदमा चला कर दंडित किया और उसे जेल भेजा और जुर्माना भी लगाया। 
  • यह नील विद्रोह पूरी तरह अहिंसक था जिसके कारण उसे सफलता मिली। इसी अहिंसा के सिद्धान्त को बाद में गान्धी जी ने अपनाया। विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया और उसे एक नील कमीशन जाँच के लिए भारत भेजना पड़ा जिसकी सिफारिशों पर नवम्बर 1860 में एक नोटिफिकेशन जारी किया कि रैयत (लगान पर खेती करने वाले किसान) को नील की खेती के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सभी विवादों अनिवार्य रूप से कानून द्वारा स्थापित अदालतों द्वारा किए जाएंगे। लेकिन बागान मालिकों ने फैक्ट्रियाँ बन्द कर दीं और नील की खेती 1960 से बंगाल से समाप्त हो गयी। 

5 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०४-०१-२०२१) को 'उम्मीद कायम है'(चर्चा अंक-३९३६ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

अर्थपूर्ण जानकारी के साथ प्रथम कृषक आंदोलन का इतिहास आपने प्रभावशाली लेखनी से दर्शाया है - - साधुवाद। ' नील दर्पण' नाटक से सम्बंधित एक तथ्य साझा करना चाहूंगा कि जब ये नाटक कोलकाता के मिनर्वा थिएटर में मंचित हो रहा था, तब समाज सुधारक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् ईश्वरचंद्र विद्यासागर दर्शक दीर्घा में मौजूद थे, अंग्रेज़ों के अत्याचार को मंचित होते देख कर इतने उद्वेलित हो उठे कि उन्होंने अपने खड़ाऊ उतार कर मंच में दे मारा।

Manisha Goswami ने कहा…

Your blog is very nice👏👏👏👏

Manisha Goswami ने कहा…

Please visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Manisha Goswami ने कहा…

Please visit my blog and share your opinion🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏