पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं। लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती।
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें। फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
इसी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं?
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।
23 टिप्पणियां:
ज्ञानदत्त जी को शुभकामनाएं
विषय संदर्भित टिप्पणियां पूरी समझ की झलक देती हैं...
वे इसे सामने रखते हैं...यह विशेष है...
वे वाकई अनुकरणीय हैं ! आभार आपका !
मुझे भी पसंद है.. आमीन
एक समय सीमा तो तय की जा सकती है...
हमें भी बहुत पसंद हैं ज्ञानदत्त जी...
बहुत सुंदर बात जी, जेसे गरीबो की बात कर के लोग अपनी गरीबी तो दुर कर लेते जे पुरुषकार हासिल कर लेते हे, ओर गरीब बेचारा वही का वही रहता हे, यह हाल किसानो का भी हे
चिंतन मौलिक हो तो मानसिक हलचल अनवरत बनी रहती है।
ज्ञानजी तो मेरे गुरेदेव हैं। मुझे ब्लॉगरी का ककहरा सिखाने वाले। आज भी उनसे बहुत कुछ सीखने का प्रयास करता हूँ। आपकी बात से सौ प्रतिशत सहमत।
एक और प्रतिभा आजकल मुझे प्रभावित कर रही है- प्रवीण पांडेय जी। यहाँ उनकी टिप्पणी और उसका समय देखिए
“चिंतन मौलिक हो तो मानसिक हलचल अनवरत बनी रहती है।
17 January 2011 1:50 AM”
रात के पौने दो बजे ब्लॉगिंग... मान गये।
त्रुटि सुधार : गुरेदेव= गुरुदेव
यह पोस्ट 'सार्थक टिप्पणियां' या 'टिप्पणियों की सार्थकता' जैसे लेबल के साथ याद रहेगा.
अभी अभी मैंने भी कहीं कहा है ...अरे उन्ही की पोस्ट पर की उनकी पोस्ट/टिप्पणियाँ उनके ब्लॉग के नामकरण को सार्थकता प्रदान करती हैं -वे निश्चय ही ब्लॉग जगत के यमला पगला दीवाना यानि धर्मेन्द्र यानी सदाबहार हीरो हैं !
@दिनेश जी और सिद्धार्थ जी ,कुछ और प्रतिभाएं भी हैं ब्लाग जगत में :) सारा सुदामा का चावल बस प्रवीण को ही नहीं वे तो सदियों से झटकते रहे हैं !
मेरे पास दो कारण हैं जी इन्हें पसन्द करने के लिये
1> इनकी टिप्पणीयां एकदम पोस्ट की आत्मा से सम्बन्ध रखती हैं।
2> नये शब्द गढने के लिये
प्रणाम
पाण्डेय चचा का मैं भी प्रशंसक हूँ..
खासकर उनके नए शब्दों की रेसिपी का... अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत और ठेठ गंवई शब्दों को हाब्रिड करके बड़े मजेदार शब्द बना देते हैं कभी कभी..
दूसरा उनकी पोस्ट पढ़ने के दौरान दो चार बार पाठक को डिक्शनरी न देखनी पड़े तो उनको लगता है कि उनका लिखना सफल नहीं रहा.. ;) इसलिए उनको पढ़ने से शब्द ज्ञान बहुत बढ़ता है...
और पोस्ट लिखने के बाद जब हम अपने आप को अरस्तू समझ कर चौड़े हो रहे होते हैं तो वो ८ शब्दों की ऐसी टिप्पणी गिराके चल देते हैं कि उसके बाद आपको लगेगा कि मामला गडबडा गया शायद..... हाहाहा
अब चलूँगा नहीं तो इधर पिटने का डर है...
ज्ञानजी तो ज्ञान का सागर है जी.. क्या कहें :)
हम भी ज्ञान दद्दा को पसन्द करते हैं।
ग़रीब किसानो के हित को देखते एक बेहतरीन पोस्ट
सही कह रहे हैं,मैं तो पुराना फैन हूँ.
कितना अच्छा होता, ज्ञानजी सराकरी नौकरी में नहीं होते। तब उनका 'वास्तविक' अपने मूल स्वरूप में प्रकट हो पाता।
'नोन, तेल, लकडी' ने कइयो को बॉंध दिया।
कम शब्दो मे ज्यादा बात ,उनकी विशेषता है .
आपको मानना पड़ेगा द्विवेदी जी, जो अपनी पसन्दगी को वैचारिक सहमति का दास नहीं बनाते!
आप सभी को धन्यवाद मित्रवर, मेरे प्रति शुभ भाव रखने के लिये।
बैरागी जी सही कह रहे हैं। नौकरी का बन्धन है। यह ब्लॉगिंग 10-15 हजार महीना भी दे सकती तो नौकरी छोड़ देता, सहर्ष! :)
@बड़े भाई!
बहुत से लोगों की वैचारिक सहमति दंभ और अहंकार उत्पन्न कर सकती है। वैचारिक असहमतियाँ ही हमें अपने विचार को सही करने और मार्ग का सही निर्धारण करने का अवसर प्रदान कर सकती हैं।
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