1976 या 77 का साल था। मैं बी. एससी. करने के बाद एलएल.बी कर रहा था। उन्हीं दिनों राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिए पहली और आखिरी बार प्रतियोगी परीक्षा में बैठा। मैं ने अपने विज्ञान के विषयों के स्थान पर बिलकुल नए विषय इस परीक्षा के लिए चुने थे। उन में से एक भारत की प्राचीन संस्कृति और उस का इतिहास भी था। इस विषय का चयन मैं ने इसलिए किया था कि मैं इस विषय पर अपने पुस्तकें पढ़ चुका था जिन में दामोदर धर्मानंद कौसम्बी और के.एम. पणिक्कर की पुस्तकें प्रमुख थीं और जिन्हों ने मुझे प्रभावित किया था। कौसंबी जी की पुस्तक मुझे अधिक तर्कसंगत लगती थी जो साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करती थी।
मैं इस विषय का पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। घंटा बजते ही हमें प्रश्नपत्र बांट दिए गए। मैं उसे पढ़ने लगा। पहला ही प्रश्न था। "वर्तमान हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म और सिंधु सभ्यता के धर्म में से किस का अधिक प्रभाव है? साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए अपना उत्तर दीजिए।"
मैं उस प्रश्न को पढ़ते ही सोच में पड़ गया। मैं ने इस दृष्टि से पहले कभी नहीं सोचा था। मैं ने अपने अब तक के समूचे अध्ययन पर निगाह दौड़ाई तो उत्तर सूझ गया कि मौजूदा हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म की अपेक्षा सिंधु सभ्यता के धर्म का अधिक प्रभाव है।यहाँ तक कि सिंधु सभ्यता के धर्म के जितने प्रामाणिक लक्षण इतिहासकारों को मिले हैं वे सभी आज भी हिन्दू धार्मिक रीतियों में मौजूद हैं। जब कि हमारे हिन्दू धर्म ने आर्यों के धर्म के केवल कुछ ही लक्षणों को अपनाया है। मैं सभी साक्ष्यों पर विचार करने लगा। मुझे लगा कि मैं उस युग में पहुँच गया जब आर्यों का सिंधु सभ्यता के निवासियों से संघर्ष हुआ होगा। दोनों के धर्म, संस्कृति और क्रियाकलाप एक फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में दिखाई देने लगे। जैसे मैं उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। उक्त वर्णित दो प्रामाणिक पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक मुझे स्मरण आ रही थी जिस ने इस दृष्यीकरण ( visualisation) का काम किया था। वह पुस्तक थी डॉ. रांगेय राघव का ऐतिहासिक उपन्यास "मुर्दों का टीला"
मैं ने आगे के प्रश्नों को पढ़े बिना ही प्रश्न का उत्तर लिखना आरंभ कर दिया। मूल उत्तर पुस्तिका पूरी भर गई, उस के बाद एक पूरक उत्तर पुस्तिका भर गई और दूसरी पूरक उत्तरपुस्तिका के दो पृष्ठ लिख देने पर उत्तर पूरा हुआ। इस उत्तर में मैं सारे साक्ष्यों की विवेचना के साथ साथ इतिहास के तर्कशास्त्र के सिद्धांतो को भी अच्छी तरह लिख चुका था। मैं आगे के प्रश्नों को पढ़ता उस से पहले ही घंटा बजा। मैं ने घड़ी देखी दो घंटे पूरे हो चुके थे। केवल एक घंटा शेष था, जिस में मुझे चार प्रश्नों के उत्तर लिखने थे। मैं ने शेष प्रश्नों में से चार को छाँटा और उत्तर पुस्तिका में नोट लगाया कि - मैं पहले प्रश्न का उत्तर विस्तार से लिख चुका हूँ और इतिहास व उस के तर्कशास्त्र से संबद्ध जो कुछ भी मैं इस पहले प्रश्न के उत्तर में लिख चुका हूँ उसे अगले प्रश्नों के उत्तर में पुनः नहीं दोहराउंगा। शेष प्रश्नों के उत्तर के लिए केवल पौन घंटा समय शेष है इस लिए मैं उत्तर संक्षेप में ही दूंगा। मैं ने शेष प्रश्न केवल दो-दो पृष्ठों में निपटाए। समय पूरा होने पर उत्तर पुस्तिका दे कर चला आया । मैं सोचता था कि मैं पचास प्रतिशत अंक भी कठिनाई से ला पाउंगा। लेकिन जब अंक तालिका आई तो उस में सौ में से 72 अंक मुझे मिले थे। इन अंको का सारा श्रेय डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक " मुर्दों का टीला" को ही था।
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है। मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही कर्कट रोग के कारण उन्हें काल ने हम से छीन लिया। इस अल्पायु में ही उन्हों ने इतनी संख्या में महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं कि कोई प्रयास कर के ही उन के समूचे साहित्य को एक जीवन में पढ़ सकता है। बहुत लोगों ने उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। उन की पुस्तकें आगे भी पढ़ी जाएंगी और लोग उन से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे।
वे मेरे अनेक गुरुओं में से एक हैं। उन्हें उन के जन्मदिवस पर शत शत प्रणाम !
उन की पुस्तकों की एक सूची मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ --
रांगेय राघव की कृतियाँ
उपन्यास
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क
उपन्यास
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क
रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
आलोचना
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •
आलोचना
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •
40 टिप्पणियां:
सुन्दर एवं शिक्षाप्रद संस्मरण!
बहुत उम्दा संस्मरण लगे. ...
आर्य अनार्य/आक्रमण संघर्ष की अवधारणाएं अब पुरानी हो गई हैं। धर्मानन्द कोसाम्बी का घोंटा मैने भी एक जमाने में खूब लगाया।
... जिस विभूति का नाम आप ने लिया है, वह अद्भुत थे। उनको नमन।
संस्मरण बहुत उम्दा रहा।
आभार।
गिरजेश जी,
विभिन्न पद्धतियों के बीच संघर्ष तो हमेशा ही विद्यमान रहता है। सिन्धु सभ्यता निश्चित रूप से आर्य सभ्यता से भिन्न रही है। दोनों में संघर्ष अवश्य ही था। यह प्रभुत्व का भी था और संस्कृति का भी। संघर्ष ने समन्वय भी किया। संघर्ष का सब से बड़ा प्रमाण इंद्र का महाकाव्य और पौराणिक साहित्य में पद्दलित होना और उस के अनुज विष्णु का स्थापित किया जाना है। इस मामले में मेरी अपनी समझ यह विकसित हुई कि भारतीय संस्कृति मूल रूप में सिंधु सभ्यता की संस्कृति या जिसे हम द्रविड़ संस्कृति कहते हैं ही है। शेष तो आरोपित हैं। भारतीय जन सिंधु सभ्यता के मूल्यों को अब तक नहीं छो़ड़ सका है।
रांगेय राघव का स्मरण कराकर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि दी है।
नमन ,एक विभूति से मिलाने के लिए बहुत आभार .रांगेय राघव की कब तक पुकारूं मैंने कक्षा ६ या सात में पढी थी -अब तो भूल भी गया सब .इस यशश्वी रचनकार के बारे में कुछ और बताना था न की वे कहाँ पैदा हुए आदि आदि....३९ की अवशता में इतना महनीय अवदान .....!
पुनश्च ; आर्य /अनार्य/ सैन्धव/द्रविण की गुत्थी बहुत जटिल है .आपका इशारा सारगर्भित है -इंद्र को पतित बना देने के पीछे कुछ तो है अन्यथा वह ऋग्वेद का एक प्रतापी देव है जहाँ विष्णु ,रूद्र ,राम कृष्ण का नामोनिशान तक नहीं है .
क्या आपने इस लेख को नहीं देखा ?
http://mishraarvind.blogspot.com/2010/01/blog-post_10.html
वे आपमें 'बोध' का कारण बने ! स्मरण स्वाभाविक है !
िस पोस्ट को बुकमार्क कर लिया है अभी बैठा नहीं जा रहा बाद मे पढती हूँ धन्यवाद्
आपका संस्मरण बहुत रोचक लगा,साथ ही रांगेय राघव जी का स्मरण करा कर आपनें पुनीत कार्य किया है ,उनको मेरा भी नमन.
जहाँ तक उस प्रश्नपत्र में अच्छे नम्बरों की बात है,उसका मूल्यांकन निश्चित रूप से किसी विद्वान नें किया था,वर्ना आजकल परीक्षकों की निगाह रटे- रटाये लाइनों पर रहती है .
हर विषय की चुनिन्दा किताबें ही अब आधार वाक्य हो गईं हैं .
अपना तर्क और विश्लेष्ण अब परीक्षकों को नहीं भाता, काफी अवमूल्यन इस क्षेत्र में भी हो गया है.
सिन्धु / सरस्वती सभ्यता परवर्ती तथाकथित आर्य सभ्यता के जनक थे। द्रविड़ या आर्य जैसा विभेद भारतीय चिंतन के केन्द्र में कभी नहीं रहा। आर्य आक्रमण का सिद्धांत गलत सिद्ध हो चुका है।
रही बात विष्णु की तो एक बात ध्यान देने योग्य है कि वेदों में सूर्य को विष्णु कहा गया है और समूचे भारत में सूर्योपासना के मन्दिर केन्द्र बिखरे पड़े हैं। यह विष्णु ही कालांतर में नर-नारायण युग्म का नारायण हुआ। सूर्योपासना के सारे केन्द्र नारायण पूजा केन्द्र में बदले। उल्लेखनीय है कि काशी भी पहले वैष्णव केन्द्र थी। विष्णु के चार हाथों, क्षीर सागर आदि मिथकों का सूर्य से सम्बन्धित होने पर एक बहुत सुन्दर लेख मैंने नेट पर पढ़ा था।
सिन्धु घाटी से मिली पशुपति की प्रतिमा को संगीत के स्वरों और महाध्वनि ओंकार से भी जोड़ा गया है। ध्यातव्य है कि वेद ऋचाओं के गायन के लिए भी स्वर निर्धारित हैं ....
.. बहुत पहले किसी बौद्ध स्कॉलर के यहाँ माइक्रोफिल्म से उतारा गया एक बहुत ही उम्दा लेख पढ़ा था। दु:ख है कि सब गड्डमड्ड हो गया है, लिंक भूल भी गए हैं। ...
कई बार इस विषय पर मतभेद हो चुके हैं । एक बार 'समय' छ्द्मनामी से भी।
मार्क्सवादी सोच इस नई सोच का विरोध करती है क्यों कि दक्षिणप्ंथियों से इसे हाथो हाथ लिया। लेकिन मेरा मानना है कि किसी तर्क को राजनीति या विचार भेद मात्र से झुठला देना ठीक नहीं है।
सोच रहा हूँ कि विस्तृत अध्ययन कर एक लेखमाला डालूँ लेकिन फिलहाल तो समय ही नहीं है। ..
@गिरजेश जी,
यह बहस यहाँ चल पड़ेगी तो कुछ नए आलेख मांगेगी। सिंधु सभ्यता आर्य सभ्यता की जनक थी यही बात तो नहीं जमती है। यदि ऐसा है तो सिंधु सभ्यता की प्रतिमाओं को आर्यों ने कहाँ छोड़ दिया। फिर बाद में वे कैसे चली आईँ। आर्य सभ्यता विकास के पिछले दौर में थी जहाँ पशुपालन प्रमुख था। जब कि सिंधु सभ्यता विकसित थी जिस का आधार बड़ी मात्रा में खेती थी। फिर सिंधु सभ्यता का काल निश्चित है। जब कि ऋग्वेद हमें उस काल से बहुत पीछे ले जाता है। खैर यह एक लंबी बहस है कभी समय होने पर इस पर भी विचार करेंगे।
हार्दिक नमन हमारा भी..............
उत्तम आलेख
धन्यवाद !
"संघर्ष का सब से बड़ा प्रमाण इंद्र का महाकाव्य और पौराणिक साहित्य में पद्दलित होना और उस के अनुज विष्णु का स्थापित किया जाना है।"
विष्णु इंद्र के अनुज हैं? कौन से इंद्र के? यह प्रगतिवादी खोज किसकी है? कार्ल मार्क्स की तो लगती नहीं. वैसे भी आज के जम्बूद्वीपीय कम्युनिस्टों को ही संस्कृति के बारे में जानने की फुर्सत नहीं है तो भला मार्क्स को कहाँ रही होगी? अलबत्ता मार्क्स ने अंग्रेजों को भारतीयों से श्रेयस्कर ज़रूर कहा था
Arabs, Turks, Tartars, Moguls, who had successively overrun India, soon became Hindooized, the barbarian conquerors being, by an eternal law of history, conquered themselves by the superior civilization of their subjects. The British were the first conquerors superior, and therefore, inaccessible to Hindoo civilization. [~Karl Marx]
ओह.. मुझे पता नहीं था.. रागव जी के इस पुस्तक पर पहले भी आपसे घंटों फोन पर चर्चा हो चुकी है, और मैंने इसके अतिरिक्त उनकी और कोई पुस्तक पढ़ी नहीं है.. मगर यह एक काफी है उनका फैन बनने के लिये..
@Smart Indian-स्मार्ट इंडियन
बड़े भाई, यह खोज कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई हैं मेरी नहीं है। जरा ऋग्वेद और रामायण दोनों को ध्यान से पढ़िएगा। आप को खुद ही यह संदर्भ मिल जाएगा।
जब तथ्य और तर्क सही हों और पसंद न आएँ तो कम से कम उसे कम्युनिस्टों की वाणी कह कर न नकारिएगा वर्ना एक अच्छा भला गैर कम्युनिस्ट भी सोचने को बाध्य हो जाएगा कि आखिर यह कम्युनिस्ट क्या होता है? खोजते खोजते वह कम्युनिस्ट न हो जाए।
इतनी सुंदर और इससे बढकर गुरू दक्षिणा तो कोई हो ही नहीं सकती , किताब को दोबारा पढ के फ़िर ही इस बहस का हिस्सा बनना ठीक होगा , और आपकी परीक्षा संस्मरण का तो कहना ही क्या ,बहुत खूब बहुत खूब
अजय कुमार झा
डॉ. रांगेय राघव जी को नमन, आप के आज के लेख ने बांधे रखा, बहुत अच्छा लगा, ओर मै एक सांस मै ही सब पढ गया
अच्छा लेख ...कुछ बिंदु जिनपर ध्यान दिया जा सकता है ...
१>. सिन्धु घाटी सभ्यता में घुमंतू पशुपालकों के लिए कोई स्थान नही था.
२>. सिन्धु घाटी सभ्यता में शहरी बस्तियों में रहने वाले योद्धाओं के कोई ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं.
३>. ऋग्वेद की ऋचाओं का वर्णन उनसे मेल नहीं खाता जिन्होंने अनाज के विशाल भंडारण, सुव्यवस्थित नगरों, और उस समय की सबसे उन्नत जल और अपशिष्ट पदार्थों के निकास की व्यवस्था बनाई हो... साक्ष्य वहां पुरोहित वर्ग के होने का इशारा तो करते हैं परंतु सैन्यशक्ति एवं रथारूढ़ योद्धाओं का नही.
४>. वहीँ दूसरी ओर ऋग्वेद की ऋचाओं में कृषक समाज का वर्णन कम अथवा नही के बराबर है .
यह कुछ साक्ष्य है आक्रमण के पक्ष में...आगे मित्रों के लेख की प्रतीक्षा रहेगी इस विषय पर.
यह खोज कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई हैं मेरी नहीं है। जरा ऋग्वेद और रामायण दोनों को ध्यान से पढ़िएगा।
मैंने तो दोनों ही ग्रन्थ नहीं पढ़े हैं और इनके बारे में कोई भी दावा नहीं कर रहा हूँ. दावा आप कर रहे हैं और सन्दर्भ हम खोजें यह बात तो सही नहीं बैठती है. बेहतर यह होता कि आप
१. ऋग्वेद और रामायण दोनों के तथाकथित सन्दर्भ सामने रखें
२. अगर सन्दर्भ और उनके आधार पर आपके निष्कर्ष दोनों अकाट्य हैं तो यह बताएं कि इंद्र के अनुज के आगे आने भर से आर्य-सैन्धव संघर्ष की कल्पना किस तरह सिद्ध हुई?
... वर्ना एक अच्छा भला गैर कम्युनिस्ट भी सोचने को बाध्य हो जाएगा कि आखिर यह कम्युनिस्ट क्या होता है? खोजते खोजते वह कम्युनिस्ट न हो जाए।
समस्त पूर्वी यूरोप, उत्तर कोरिया, बर्मा, क्यूबा, चीन, तिब्बत, नेपाल, और भारत आदि में कम्युनिस्टों ने दानवी कृत्य कर के देश और जनता के क्या हाल किये हैं यह अब सारी दुनिया को पता है - मरे हुए फलसफे वाले इस टूटे-फूटे, जंग लगे और लगभग डूब चुके जहाज़ में आज
कौन सवार होना चाहेगा भला? चीन, बर्मा, क्यूबा और कोरिया जैसी जगहों में जहां बन्दूक के जोर पर कम्युनिज्म बच भी गया है वहां भी जनता उन्हें बहुत ज़्यादा दिन तक बर्दाश्त करने वाली नहीं है. और यह जनता जब खड़ी हो जाती है तो तानाशाहों का प्रोपेगैंडा दो दिन भी टिक नहीं पाता है, बर्लिन की दीवार इसे दिन की रोशनी जैसा स्पष्ट दिखा चुकी है.
आर्यों के बाहर से आकर भारत भूमि पर बसने की बहस ठण्डी पड़ गई है या इसके ठोस प्रमाण हैं कि आर्य बाहर से नहीं आए थे या फिर यह कि आर्य भारत से सारी दुनिया में फैले थे...वगैरह वगैरह....
इस संदर्भ में आप सबने जो महत्वपूर्ण पुस्तकें पढ़ी हैं जो उक्त तीनों प्रश्नों का समुचित जवाब देती हैं, कृपया मुझे अवश्य उनकी सूची भेजें। मेरा मानना है कि कुछ भी नतीजा अभी नहीं निकला है और इस बहस में ज्यादा उलझने का भी कोई अर्थ नहीं है। जिसे आप भारतभूमि मानते हैं वह सब तथाकथित आर्य ग्रंथों यानी वेदों में उल्लेखित शब्द हैं। उसका दायरा आप चाहें तो रूस तक बढ़ा दें, तो आक्रमण की बात गलत साबित हो जाती है। आप उसे सिर्फ हिन्दुकुश के इस पार तक रखते हैं तब आक्रमण की बात को कुछ आधार मिल जाता है। नस्ली भिन्नता एशिया में इतनी अधिक क्यों मिलती है? यूं तो सुदूर कामचट्का (साइबेरिया), मंगोलिया के भाषा भाषियों ने भी तमाम इलाकों पर अपने जैविक और भाषिक प्रभाव छोड़े हैं। उन पर इतनी ज्यादा बहस कभी नहीं हुई। आर्यों में क्या खास बात थी कि सभी उसके पीछे पड़े हैं और उससे रिश्तेदारी सिद्ध करने की होड़ में हैं?
चंगेज ने तो घोषित रूप से दुनिया को रोंदा...भारत की और दुनिया की हर नस्ल में मंगोल जीन ढूंढे जा सकते हैं...क्या किसी आर्य जीन की खोज भी हुई है?
ये तमाम भोले सवाल मेरे मन में हैं। विद्यार्थी हूं, आप सबसे जवाब चाहता हूं।
बेहतरीन पोस्ट...रांगेय राघव जी का दस वर्ष की आयु से पाठक हूं और अपने घर के पुस्तकालय के जरिये ही उनके प्रचंड लेखनकर्म से परिचित हुआ था। शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटकों से उनके अनुवादों के जरिये ही परिचित हुआ था और बच्चन के अनुवादों से उन्हें बेहतर मानता हूं।
आर्य और सिन्धु सभ्यता का संघर्ष अब भी अनसुलझी पहेली है .
डॉ राघव का 87वीं जयंती पर नमन...
जय हिंद...
सायण या ग्रिफिथ के भाष्यों से ही संतुष्ट रह कर निष्कर्ष निकालने वाले लोग अब पुराने हो चले हैं। आक्रमण का पूर्वग्रह मन में दबाए वैदिक ऋचाओं से मनमानी के जमाने लद गए।
आवश्यक है कि इतर भाष्य और विश्लेषण भी पढ़े जाँय। एन सी आर टी जैसी संस्था भी अब आर्य आक्रमण के सिद्धांत को नकार चुकी है।
लवली जी के 'आक्रमण के पक्ष' वाले तर्कों को देख तो हँसी आ गई।
समय मिला तो इस विषय पर अवश्य लिखूँगा लेकिन बात वहीं अटकती है - सतही टिप्पणी करने और लेख लिखने में अंतर होता है।
गिरिजेश राव जी,
आप इस विषय पर कुछ लिखेंगे तो अच्छा लगेगा। वैसे आक्रमण की बात तो आप ही ले कर आए हैं। मैं नहीं।
पर मेरी दृढ़ मान्यता है कि आर्य सभ्यता सिंधु सभ्यता की पश्चातवर्ती सभ्यता नहीं थी उस के समानांतर सभ्यता थी। आज की हमारी भारतीय संस्कृति का मूल सिंधु सभ्यता में है न कि आर्य सभ्यता में। इन दो निष्कर्षों को झुठला पाना असंभव है।
अच्छा संस्मरण द्विवेदी साहब ,
खैर, मैंने तो डॉ. रांगेय राघव जी की कोई कृति नहीं पढी, मगर आपके लेख के मुताविक उन्होंने ३९ साल की आयु में इतना कुछ रचा तो निश्चित तौर पर वे एक महान साहित्यकार थे ! उनके जन्म दिन पर मेरी भी उनको श्रधान्जली !
@गिरिजेश जी - मैंने सिर्फ तर्क दिए ..आपसे आगे लिखने का अनुरोध तो किया ही ...शेष हंसी मुझे भी आती है जब लोग पुरातन निरर्थक चीजों की बार -बार व्याख्या करके उसे प्रासंगिक बताने का प्रयास करते हैं, वैसे भी सीधे प्रमाणों और साक्ष्यों की बातजानी चाहिए व्याख्याओं और भाष्यों की नही ....फिर कहूँगी - इस विषय में आपके लेखों की प्रतीक्षा रहेगी.
...और एक बात रह गई..अगर मेरे मन में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह होता..मैं किसी चर्चा के लिए प्रस्तुत नही होती...आशा है मुझ अज्ञानी को आप आगे से पूर्वाग्रही समझने की गलतफहमी नही पालेंगे,पर इन विषयों पर चर्चा तो होनी ही चाहिए ..सबका भला होगा.
वैसे मैं अजित से इस बात पर सहमत हूँ की यह सब इस प्रकार से गड्मड है की कोई अंतिम निष्कर्ष निकल पाना असंभव है ..और न ही उसकी कोई आवश्यकता है, पर लोग अक्सर श्रेष्ट बोध अक्षुण रखने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं धर्म और संप्रदाय के नाम पर.
अरे वाह यहाँ तो बड़ी अच्छी चर्चा चल रही है !
अच्छी चर्चा.....सुन्दर पोस्ट . बचपन में प्राचीन भारत का इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा है. अब गड-हे मुर्दे उखाडने का का शौक जाता रहा. लेकिन इस पोस्ट के बाद मुर्दों का टीला पढ़्ने की इच्छा ज़रूर बलवती हुई है.
पूर्वग्रह + खीझ
- पहली टिप्पणी के चारो बिन्दु किसी भी तरह से कथित आर्य आक्रमण के साक्ष्य नही हैं।
अब आगे चलिए
- टिप्पणी के अंश देखिए:
- लोग पुरातन निरर्थक चीजों की बार -बार व्याख्या करके उसे प्रासंगिक बताने का प्रयास करते हैं, वैसे भी सीधे प्रमाणों और साक्ष्यों की बातजानी चाहिए व्याख्याओं और भाष्यों की नही
- लोग अक्सर श्रेष्ट बोध अक्षुण रखने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं धर्म और संप्रदाय के नाम पर.
विरोधाभास
- हंसी मुझे भी आती है जब लोग पुरातन निरर्थक चीजों की बार -बार व्याख्या करके उसे प्रासंगिक बताने का प्रयास करते हैं,
उसके बाद
ये
- इन विषयों पर चर्चा तो होनी ही चाहिए ..सबका भला होगा.
उसके तुरंत बाद
- इस बात पर सहमत हूँ की यह सब इस प्रकार से गड्मड है की कोई अंतिम निष्कर्ष निकल पाना असंभव है ..और न ही उसकी कोई आवश्यकता है,
और
- अगर मेरे मन में किसी प्रकार का पूर्वाग्रह होता..मैं किसी चर्चा के लिए प्रस्तुत नही होती...
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चर्चा के लिए मस्तिष्क को खोल कर उन सब बातों को भी स्वीकारना होता है जो आप की अब तक की सोच के उलट हों। उसमें कष्ट होता है क्यों कि आप की बनी बनाई इमारत की नींव दरकने का खतरा दिखता है।
'अज्ञान' का स्वीकार विनम्र बनाता है, अनावश्यक और निरर्थक रूप से उग्र नहीं।
द्विवेदी जी! सही कहा आप ने - "बहस यहाँ चल पड़ेगी तो कुछ नए आलेख मांगेगी।"
संतोष हुआ कि आप आर्य आक्रमण के सिद्धांत को नहीं मानते, संघर्ष को मानते हैं। और कथित आर्य सभ्यता को कथित सिन्धु सभ्यता का समकालीन मानते हैं। यहाँ से सही दिशा में बढ़ा जा सकता है। मेरी इस विषय में रुचि रही है क्यों कि ये 'गड़े मुर्दे' आधुनिक भारत के कई पूर्वग्रहों के जनक रहे हैं। बहुत पढ़ा लेकिन कभी यह सोच कर नहीं कि ब्लॉग पर टिप्पणी करूँगा :)
मुझे आशा थी कि एकेडमिक लोग मेरे द्वारा पढ़ी गई तमाम बातों से अवगत होंगे, इसलिए बस याद दिलाया लेकिन लगता है कि लोग अभी भी मैक्समूलर और औपनिवेशी मान्यताओं को ही पकड़े बैठे हैं।
...फिलहाल विदा लेता हूँ क्यों कि यदि इस दिशा में बहका तो हिन्दी ब्लॉगरी छोड़ कर इतिहास और छान्दस भाषा का ब्लॉग लिखना पड़ेगा। एक अनुरोध आप से और सबसे करूँगा कि थोड़ा सर्च करने पर इंटरनेट पर ही इतनी सामग्री अकाट्य तर्कों के साथ मिलेगी कि कथित सिद्ध मान्यताएँ छिन्न भिन्न हो जाती हैं, उन्हें पढ़िए। मैंने अपनी टिप्पणी में संकेत भर किया है। बात जितनी सीधी प्रतीत होती है, है नहीं।
आभार।
@गिरिजेश जी आपने सीधे पल्ला झाड़ लिया है चर्चा से ..अब कुछ भी कहने का फाईदा नही ...मैं उग्र नही थी, न ही कोई निष्कर्ष अंतिम होता है. यह सब सिर्फ अस्पस्ट साक्ष्यों के आधार पर लगाये अनुमान हैं, इसलिए मुझे नए तर्कों से कोई समस्या नही होती, पर शायद आपको हर बार मुझमे कोई पूर्वाग्रह दिख जाता है क्योंकि आप ऐसा देखने के प्रयास में होते हैं.
वैसे वक्त मिले तब प्रमाणिक पुस्तकों की एक लिस्ट इधर भी प्रेसित करें ..मैंने इतिहास नही पढ़ा है...पढ़ लूँ जरा टिप्पणियाँ करने में आसानी होगी. :-)
आधुनिक नृतत्वशास्त्रियों का ध्यान रूस के एन्द्रोनावो पर भी गया है। वैसे यह सब बहुत पेचीदा है। मानव समूह लगातार विचरते रहे हैं, जैसा कि अरविंदजी क्वचिदन्यतोअपि पर कह रहे हैं। काले भी और गोरे (आर्य) भी कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि वृहत्तर भारत की सीमाओं में थे। आकाश में बनते बादलों के वलयो-वर्तुलों को देखें। एक दूसरे में समाना, नई आकृतियां बनाना और फिर अलग होकर नए गुच्छों में तब्दील होना। यह सब जन समूहों में चलता रहा है-तब भी जब सभ्यताएं जन्मीं। आज तक जारी है यह क्रम। मनुष्य का गर्वबोध समूह से जुड़ा है और तब से नस्ली श्रेष्ठता ने इन तमाम विवादों को जन्म दिया। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति में जाएं तो वे असभ्य और जंगली कहलाते हैं। तब तक भारत भूमि पर कृषि संस्कृति पनप चुकी थी। एक नया शोध द्रविड़ों को जाति नहीं बल्कि खेतिहर कुऩबी ही मानता है। आर्य अर्थात वनवासी बंजारे भी सीमांत से होकर सदियों से इधर ही विचरते रहे थे। इनकी पहुंच तब तक सुदूर पश्चिम तक थी। कृष्णवर्णी लोग भी भूमध्यसागर तक बिखरे थे। किसी काल विशेष में वनवासी, यायावरों और खेतिहरों में संघर्ष हुआ होगा। यह बेहद सीमित क्षेत्र में रहा होगा पर इसकी चर्चा ही प्राचीन ग्रन्थों में श्रुतियों के आधार पर फूलती-फैलती चली गई। ऐसा लगता है। यह अनुमान है। इस विषय में ज्यादातर अनुमान ही प्रचलित हैं, किंचित प्रमाणों के तड़के के साथ।
यह चर्चा लगातार चलती रहेगी, मगर नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हां, खोज के दौरान बहुत सी अन्य प्राप्तियां होती रहती हैं, उन्हें ही हासिल माना जाना चाहिए।
अजित जी सही अनुमान लगा रहे है... ठीक भी है, जब अनुमान ही लगाने हैं तो क्यों न सकारात्मक अनुमान लगाए जाएं?
काफ़ी कुछ गुजर लिया है...
अब आपके समाहार की प्रतीक्षा है...
राघव जी की स्मृति को नमन...
आपका अनुभव पढकर बहुत खुशी हुई वैसे भी मै आपके लेख बहुत मन से पढता हू परसो ही रांगेय राघव पर बहुत मेहनत से एक लेख लिखा था आपकी नज़र पडेगी तो लिखना सार्थक मान लिय जायेगा.
http://hariprasadsharma.blogspot.com/
टिप्पणियॉं पढते-पढते अचानक ही हीनता बोध से भर उठा। मुझे तो इन सारी बातों की कोई जानकारी ही नहीं। आप सबने मुझे समृध्द किया है। आप सबका आभार।
रांगेय राघव को याद करने क लिए आपका आभार। उनकी 'कब तक पुकारूँ' अब भी 'हाण्ट' करती है।
रांगेय राघव को ख़ूब पढ़ा है
इस बहस में शामिल न हो पाने का मलाल है कि देर आये पर दुरुस्त नहीं!!
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