@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?

बुधवार, 9 जून 2010

भोपाल के इंसाफ ने राज्य के चरित्र को फिर से उघाड़ दिया है

भोपाल गैस कांड से उद्भूत अपराधिक मामले में आठ आरोपियों को मात्र दो वर्ष की कैद और मात्र एक-एक लाख रुपया जुर्माने के दंड ने एक बार फिर उसी तरह भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर दिया है जिस तरह भोपाल त्रासदी के बाद के कुछ दिनों में किया  था। इस घटना ने लोगों के मन में एक प्रश्न खडा़ किया है कि इस देश में कोई राज्य है भी? और है तो कैसा है और किन का है?
हले राज्य की बात की जाए, और उस के अपने नागरिकों के प्रति दायित्वों की। इस संदर्भ में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसरवानी की खुद बयानी को देखें -
वर्ष 1981 के दिसंबर महीने में कार्बाइड प्लांट में कार्यरत मोहम्मद अशरफ़ की फ़ास्जीन गैस की वजह से मौत हो गई. मैं चौंक गया। वहां पहले भी दुर्घटनाएं हुई थीं और वहां के मज़दूर और आसपास के लोग प्रभावित हुए थे। मैने एक पत्रकार के नाते इसे पूरी तरह जान लेना ज़रूरी समझा कि आख़िर ऐसा क्या होता है इस प्लांट में।
नौ महीने की जी-तोड़ कोशिशों के नतीजे में साफ़ साफ़ दिखाई दे गया कि यह कारखाना एक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह चल रहा है। सुरक्षा के सारे नियमों की धज्जियां उड़ाता हुआ। किसी दिन यह इस पूरे शहर की मौत का सबब बन सकता है. आख़िर को एमआईसी और फ़ास्जीन दोनों ही हवा से भारी गैस हैं.
19 सितंबर, 1982 को अपने छोटे से साप्ताहिक अख़बार ‘रपट’ में लिखा ‘बचाइए हुज़ूर, इस शहर को बचाइए’। एक अक्तूबर को फिर लिखा ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’।  आठ अक्तूबर तो चेतावनी दी ‘न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे’
जब देखा कोई इस संभावना को गंभीरता से नहीं ले रहा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखा और सर्वोच्च न्यायालय से भी दख़ल देकर लोगों की जान बचाने का आग्रह किया. अफ़सोस, कुछ न हुआ। हुआ तो बस इतना कि विधानसभा में सरकार ने इस ख़तरे को ही झुठला दिया और कार्बाइड को बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्था वाला कारखाना क़रार दिया। फिर हिम्मत जुटाई और 16 जून, 1984 को देश के प्रमुख हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ में फिर यही मुद्दा उठाया। फिर अनदेखी हुई। और फिर एक आधी रात को जब सोते हुए दम घुटने लगा तो जाना मेरी मनहूस आशंका बदनसीबी से सच हो गई है।
राजकुमार केसरवानी की यह खुद बयानी साबित करती है, कि राज्य की मशीनरी, जिस में सरकार, सरकार के वे विभाग जो कारखानों पर निगाह रखते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, न्यायपालिका और कानूनों को लागू कराने वाले अंग, सभी नागरिकों की बहुमूल्य जानों और स्वास्थ्य के प्रति कितने संवेदनशील हैं/थे। किसी को भी लेश मात्र भी नागरिकों की कोई चिंता न थी। एक पत्रकार राजकुमार केसरवानी चिंता में घुला जा रहे था। उस ने अखबारों में रपटें प्रकाशित की थीं। उन रपटों को सरकार के अधिकारियों ने अवश्य पढ़ा होगा, पढ़ा तो यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ताओं ने भी होगा। लेकिन शायद इस मामले में भी वही हुआ होगा जो आम तौर पर रोजाना होता है। जब भी किसी कारखाने या उद्योग के संबंध में कोई शिकायत सामने आती है। संबंधित अधिकारी उद्योगों के प्रबंधकों को फोन पर संपर्क करते हैं, उन्हें कार्यवाही करने को सचेत करते हैं और कार्यवाही न करने की अपनी कीमत बताते हैं। यह भी हो सकता है कि बात मंत्री स्तर तक भी पहुँची हो। लेकिन नकली जनतंत्र में जहाँ एक विधायक को टिकट प्राप्त करने से ले कर विधान सभा में पहुँचने तक करोड़ों खर्च करने पड़ते हों वहाँ वे भी ऐसे मौके मिल जाने पर अपनी कीमत वसूलने का अवसर नहीं  चूकते। मंत्रियों की तो बात ही कुछ और है। उन की कीमत शायद कुछ अधिक होती है। देश की व्यवस्था इसी तरह चल रही है, और जनतंत्र के मौजूदा ढाँचे में इसी तरह चलती रहेगी।


भोपाल में जिस दिन गैस रिसी उस दिन का हाल जानने के लिए आप हादसे की उस रात भोपाल के पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी की जुबानी जानिए, जिन की उस दिन शहर में अपनी ड्यूटी करने के नतीजे में ज़हरीली गैस से आँखें खराब हो गईं और फेफड़ों की क्षमता 25 प्रतिशत कम हो गई। ......
मुझे याद है कि दो दिसंबर की रात 11 बजे मैं अपने घर पहुँचा और सोने की तैयारी कर रहा था।  करीब 12 बजे बाहर एक गाड़ी आई। सब- इंस्पेक्टर चाहतराम ने बाहर से चिल्लाकर कहा, "सर, यूनियन कार्बाइड की टंकी फूट गई है। शहर में भगदड़ मच गई है"। मैंने टेलीफोन उठाया लेकिन टेलीफोन काम नहीं कर रहा था। इतने में टीआई सुरेन्द्र सिंह भी आ गए और उन्होंने बताया कि शहर में गदर मच रहा है।
मैंने एक जैकेट पहनी और यूनियन कार्बाइड की ओर गाड़ी दौड़ा दी।  मुझे याद आता है, सामने से रजाई-कंबल ओढ़े लोग, खाँसते हुए भाग रहे थे। मैंने महसूस किया कि मैं भी खाँस रहा हूँ। यूनियन कार्बाइड के गेट पर एक काला-सा आदमी था और ऊपर आकाश में गैस जैसा कुछ दिखने लगा था।  उस काले आदमी ने कहा, "सर, सभी लोग टंकी के पास गए हैं"। मैं कारख़ाने के सुरक्षा कार्यालय में गया पर वहाँ कोई नहीं था और तब तक गैस का असर भी बढ़ गया था। मैं कारख़ाने से निकलकर सामने की बस्ती, जेपी नगर गया, बाईं तरफ के भी टोला था. सब ओर भगदड़ मच गई थी। मेरी आँखों में जलन हो रही थी और गला बंद हो गया। हम लोगों ने कलेक्टर को ढूंढ़ना शुरु किया।  कंट्रोल रूम पहुँचा, वहाँ चौहान थे।  कंट्रोल रूम शहर के बीच में था।
भोपाल में वेपर लैंप लग गए थे। मैं कंट्रोल रूम के बाहर भागती भीड़ को रोकने लगा। तभी मेरी निगाह एक युवती पर पड़ी जो रात के कपड़ों में थी।  उसके हाथ में बच्चा था। मैं भीड़ के धक्के में दौड़ा ताकि बच्चे को बचा सकूँ पर भीड़ का रेला ऐसा था कि युवती के हाथ से बच्चा फिसल गया. सुबह छह बजे मैंने उस बच्चे की लाश सड़क पर पड़ी देखी। इस दुर्घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता।
सुबह साढ़े छह बजे कमिश्नर रंजीत सिंह का फोन आया कि रेलवे स्टेशन पर हालात ख़राब हैं।  रेलवे स्टेशन के सामने एक गोल चक्कर बना था।  पुलिस ऑफसर एसएस बिल्ला को देख मैं चिल्लाया कि ये लोग क्यों सो रहे हैं, इन्हें उठाओं। यह कहते हुए उन सारे लोगों के हाथों को मैं खींचने लगा।  बिल्ला ने कहा, "सर ये लाशें हैं।  36 हैं।"
सुबह मुख्यमंत्री के यहाँ एक मिटिंग हुई। अफ़वाह उड़ी थी कि एक टंकी और फूट गई है। फिर क्या था, लोग फिर भागने लगे। नीचे पोलिटेक्निक आया तो भीड़ पुराने भोपाल से नए भोपाल की ओर जा रही थी। मैं ट्रैफिक आईलेंड पर चढ़ गया और माइक पर मैंने लोगों से कहा कि वे घर लौट जाएँ और भीड़ को पुराने भोपाल जाने के लिए मैं ख़ुद उनके साथ चलने लगा।  ऐसी अनेकों घटनाएँ है जो उस रात बीतीं जब मन में असहायता का बोझ महसूस किया।  उस रात और अगले कुछ दिन ऐसे-ऐसे मंजर देखे-महसूस किए जो अब याद नहीं करूँ तो अच्छा है।
स. पी. साहब ने अपना कर्तव्य किया और उस की सजा भी पाई। लेकिन हजारों मनुष्यों का प्राण हर लेने वाला कारखाना उन्हीं के क्षेत्र में चल रहा था। यह जानते हुए भी कि वह कभी भी हजारों की मौत कारण बन सकता है। शायद उसे रोक पाना उन के कर्तव्य में शामिल नहीं था। यह राज्य कैसे अपने ही मालिकों के किसी कृत्य  को नियंत्रित करने का अधिकार कैसे प्रदान कर सकता था? पुलिस का अस्तित्व सिर्फ उन की रक्षा करने भर का जो है।
राज्य की सारी मशीनरी की यही हालत है। पिछले दिनों जब एक गरीब महिला ने उस की संपत्ति छीन लेने की शिकायत अदालत को की तो उस ने कहा कि उस के मामले को पुलिस को न भेजा जाए, क्यों कि वह तो इस में लीपापोती कर इसे बंद कर मुझे ही अपराधी घोषित कर देगी, तो जज की प्रतिक्रिया यह थी कि बात सही है पुलिस तो इस में पैसा ले लेगी और केस बंद कर देगी। उसी राज्य की मशीनरी की एक अंग, सरकार की प्रतिष्ठित जाँच ऐजेंसी सीबीआई कैसे एंडरसन नाम के आका को कैसे जेल में बंद और देश में रोके रख सकती थी।
क न्यायपालिका है जिस के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर दिया गया है। देश में जरूरत के सिर्फ एक चौताई न्यायालय हैं जिन में से 12-13 प्रतिशत में कोई जज नहीं है। वह कैसे देश की जनता को न्याय प्रदान कर सकता है। वह भी साम्राज्यवादियों द्वारा 1860 में निर्मित दंड संहिता के बल पर। उसे सिर्फ उपनिवेश की जनता को शासित करने के लिए निर्मित किया गया था। उस समय ऐसा कृत्य इस उपनिवेश का कोई निवासी कर ही नहीं सकता था। ऐसे कृत्य केवल ईस्ट इंडिया कंपनी कर सकती थी। जिस ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव डाली हो उस के किसी कृत्य को यह संहिता अपराध कैसे घोषित कर सकती थी। हालांकि आजादी के उपरांत इस संहिता में बदलाव हुए हैं।  लेकिन उस की आत्मा साम्राज्यवादी है। जो उन के साथ चले उन के लिए वह सुविधा जनक है।
ह हमारे राज्य का चरित्र है। राज्य का यह चरित्र उन चुनावों के जरिए नहीं बदल सकता जिस में सरपंच का उम्मीदवार एक करोड़ से अधिक खर्च कर रहा हो और उस के इस खर्चे को वसूल करने के लिए देश की सरकार नरेगा जैसी आकर्षक योजना चलाती हो। जनता को सोचना होगा कि इस राज्य के चरित्र को कैसे बदला जा सकता है। इस तरह के हादसे और बढ़ने वाले हैं। ये सदमे उसे इस दिशा में सोचने को हर बार विवश करते रहेंगे।

सोमवार, 7 जून 2010

आखिर किस से मापें? तेरा माप

आखिर किस  से मापें
तेरा माप
सारे पैमाने देख लिए
माप कर

भोपाल दुखांतिका के
अपराधियों को दंड
आज वह भी देख लिया
सरकारी आँकड़ों में
सिर्फ साढ़े तीन हजार
बचाव करने वालों के मुताबिक
पच्चीस हजार जानें लील लेने
हजारों और को
सदा के लिये बीमार
कर देने वालों को
दो वर्ष की कैद, 
जुर्माना सिर्फ एक-
एक लाख रुपया,
अपील करने का हक,
उस के फैसले तक के लिए
फौरन जमानत
अपील में लोगे
और कितना वक्त?
क्या कम थे?
तेईस बरस
क्या किया था?
सुखिया ने

खाली कटोरदान
ही तो उठा कर फेंका था
तीन दिन की
भूख से बिलखते
बेटे के सिर पर
कमबख्त!
अपनी माँ का प्यार और 
जमाने पर गुस्सा
नहीं झेल पाया
मर गया

सुखिया ने मान लिया
खुद ही, अपराध अपना
कोई काम शेष न था
जजों के पास
उसे सजा देने के पहले का

अब जेल में बंद है
पिछले पाँच बरस से, कि
कब खत्म हो
मुकदमे की सुनवाई?

वह तो मान चुकी है
इसे ही अपनी सजा

बाहर होती?
तो कब की मर जाती
छूट चुकी होती
जमाने के नर्क से

आखिर किस  से मापें
तेरा माप
सारे पैमाने देख लिए
माप कर
  • दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 5 जून 2010

'वीर भोग्या वसुन्धरा' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अष्टम सर्ग


नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सात सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का अष्टम सर्ग "वीर भोग्या वसुन्धरा" प्रस्तुत है ......... 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

  अष्टम सर्ग
'वीर भोग्या वसुन्धरा'

चम-चम चम-चम् तेगा चमके
बनी रहे तेगा की शान
उत्तर–दक्षिण – पूरब–पश्चिम 
चहुँ दिशि तेगा करे पयाम
बनी दाहिने रहे भैरवी
काली मैया रहें सहाय
पूजा करूँ काल मैं तेरी
कोई खाली वार न जाय
उबुक–डुबुक कर गर्म खून में
आज मुरा का दूध नहाय
इस के लेखे जाति–गोत क्या
उत्तम खून सर्द हो जाय
मर्दानी की असल कसौटी
बीच समर नंगी तलवार
असल बाप का रक्त–कि मारे
जो बढ़ कर दो टूका वार
बादल गरजे कभी न बरसे
गरजे का कब हुआ बखान
तुझे कसम है बून्द बाप की
आजा नन्द खुले मैदान
राजपूत की माँ की कितनी
कोख बली देते हज्जाम
अरे नाम लेवा बापू का
अपने बूते तेगा थाम-
राजपूत-ब्राह्मण का अब तक
इस धरती पर था अधिकार
लेकिन अब तो चन्द्रगुप्त की
धरती को नापे तलवार
भले देवता ब्राह्मण घर के
रूठें, होंय विधाता वाम
मैं तो भक्त काल का पूजक
निज पौरुष का दोनों शाम
हो जाऊंगा जो मैं दिग्पति
धर्म-कर्म सब देंगे साथ
अगर मुरा रह गई हजामिन
तो यह सब होंगे बेहाथ
लोक बना जिसका, उसका ही
सदा बना करता परलोक
जिसका बिगड़ा लोक, धर्म का
उस पर रहा सदा से कोप
लीक पकड़ कर चले कि जिसके
चलते सधे वर्ग का स्वार्थ
वेद अगर ब्राह्मण का जन्तर
गीता रचे कृष्ण और पार्थ
युग की मांग, वर्ग जनमा दे
अपने मन लायक भगवान
शासन-दण्ड बड़ा जादूगर
पल में रच दे नया विधान-
आग पाछ सब मुरा-सुत ने
परखा और हुआ तैयार
एक जिस्त में चन्द्रहास जा
घोड़े पर हो गया सवार
दरक–दरक कर धरती दरके
तड़–तड़–तड़–तड़के आकाश
दसों दिशाएँ थर–थर काँपें
बम–बम–बम बमके पाताल
घोड़ा उड़े हवा में जैसे
सधे भील का तीर चले
भगा जाय मुराज कि जैसे
बिजली घन को चीर चले
देखे चान्द दूज का तेगा
देखे और छपित हो जाए
देख–देख कौटिल्य शुद्र का
खेला, भड़के औ घबड़ाय

X X X X X X X X X X X X X X X X

अब प्रश्न यह दुर्दांत है
द्विज वर्ण निर्बल क्लान्त है
तूफान ध्रुव है, देख लो ....
आकाश गुम–सुम शान्त है

चाणक्य सब कुछ गुन रहा
जो क्षीण–सा मस्तिष्क में
है बज रहा स्वर–सुन रहा
‘होगी अशान्ति भविष्य में’

है प्रश्न दुस्तर स्वत्व का
और , द्विजगण खार खाए
जो कि बैठे थे युगों से,
–आज दोनों हार खाए

अब शूद्र की तलवार है,
तलवार में अधिकार है
अधिकार को दे मान्यता
वह धर्म भी तैयार है

वह धर्म है समुदाय का
समुदाय उस के साथ है
अब व्यक्ति का टिकना कठिन
उस के करोड़ों हाथ हैं

विद्रोह को जो दे दिशा
अनुकूल अपने–युक्ति क्या ? .......  
समुदाय की तलवार उसके
सिर उड़ादे–सूक्ति क्या ? .....     

यह नन्द अति मतिमन्द है
दुर्बुद्ध है, स्वच्छन्द है
इस से न द्विज–विधि रक्ष्य है
यह नीच, पामर, मन्द है

बस, शेष मात्र उपाय है
वह शूद्र अपनी पाँत तसे
हट कर, तिलक ले राज का
सब विधि, विहित द्विज हाथ से
यह दण्ड मर्यादित रहा है
जो युगों से, थाम ले
मेरे किये जो था कठिन
अब यह उसे अंजाम दे

X X X X X X X X X X X X X X X X

जब व्यक्ति का ‘हम’–सोचता  चाणक्य है
लांघ जाए पारधि को तब जान लो यह
टूट कर निज वर्ण से अपवर्ग का वह
पोषण करेगा रूढ़ियों का दास बन

दासत्व का यह रूप है मोहक घना
पर शूद्र इस को मानता सौभाग्य है
जब जाति गुण से हीन होगा नीच तब
दाव मेरे विधि–विधानों का चलेगा

मसि हमारी लोक पकड़े जो चली है
खड़्ग दौड़े शूद्र की उस राह पर, तब
नन्द के निज वर्ग को आपत्ति क्या, जब
पहरुआ, चारण बने संसार उसका ?

हाँ, है भयंकर यह कि मेरे मार्ग से
कोई अलग वह पंथ जब अलग बना
नव विधानों की करे रचना अलग
सारे सुधारों को भगा, धत्ता बता

चाणक्य के रहते मगर होगा नहीं
जो सोचता भवितव्य है, संसार है
हैं गलतियाँ लाखों मगर–संसार में
अनुकूल लखों बूटियाँ हैं, युक्तियाँ


हे वीर भोग्या मेदिनी जब तक यहाँ
है धर्म शास्वत वयक्ति की बस–वीरता,
चाणक्य है समझा रहा–हे वीर ¡  तू 
है आर्य कुल का रत्न, वर्गों के परे

देखो ¡ सिकंदर का पड़ा आदर्श जो
हम्मू रवी का बाबुली इतिहास या
है थेवसो का जो अमर मिस्री खड़्ग
है चंद्र ¡ ये सब खोलते हैं राज क्या?

इनकी भुजा में शक्ति है ये आर्य हैं
भूगोल पर ये अवतरित देवांश हैं
कुल, गोत्र, वर्गों से न लेते ब्याज जो
आद्यंत अहरह जगमगाते हंस ये

हर वर्ग के प्रत्यक्ष ही हैं देवता
देवत्व की रक्षा नृपों का धर्म है
तू भोग बन कर देवता सारी मही
हे व्यक्ति के अभिमान¡ शासन–दंड ले

मैं विधि–विधानों से तुझे
सज्जित किये हूँ दे रहा

X X X X X X X X X X X X X X X X

राजतिलक पड़ गए चन्द्र के
एक हुए बाभन–हज्जाम
देको पाते तख्त–ताज के
बदल गया नाऊ खान्दान
रातों–रात फौज जा नापे
पूरब दिशा–देश बंगाल
जीते हिमालया की घाटी
पश्चिम में सारा पंजाब
सिन्ध देश पर उड़े पताका
काश्मीर, काबुल, कन्धार
नापे दूर–दूर तक उत्तर
दक्षिण में सारा पट्ठार
बजे दुन्दुभी देव लोक मे
देश–देश की परी जवान
नाचे राज सभा में झम्-झम्
जमीं छोड़ कर मस्त उतान
महफिल में गन्धर्व सुनावें
राम छतीसा दोनों शाम
सरस्वती वीणा ले संगति
करें नियम से, बिना छदाम
लक्ष्मी चवँर ढुलावें, छिटके
चन्द्रगुप्त का तेज–अंजोर
बाभन राजे मन्त्री पद पर
नाऊ रहे–वही मुहँचोर
यादवचंद्र पाण्डेय
‘झोरा–छूरा कभी न छूटा
सदा बड़ों के ताबेदार
बड़े हार कर जीते, औ हम
खाये सदा जीत कर हार  
 

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।

शुक्रवार, 4 जून 2010

जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा

ल बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आए। भाकपा (मार्क्स.) के नेतृत्व वाले वाममोर्चे को करारी शिकस्त का मुहँ देखना पड़ा। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को अच्छी-खासी जीत मिली। आम तौर पर इस तरह के नतीजे देश के दूसरे भागों में आते रहते हैं, वहाँ भी, जहाँ वाम का अच्छा खासा प्रभाव है। केरल में कभी वाम मोर्चा सरकार में होता है, तो कभी कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा। लेकिन वहाँ कभी इतनी हाय-तौबा नहीं देखने को मिलती। जितनी कल देखने को मिली। उसका कारण है कि पिछले 33 वर्ष में बंगाल में वाम-शासन का जो दुर्ग रहा, उस में कोई  सेंध नहीं लगा पाया। इस के बावजूद कि केन्द्र में लगातार विरोधी-दलों की सरकारें विद्यमान रहीं। आज बंगाल में वाम की स्थानीय निकायों में हार पर जो हल्ला हो रहा है उस का कारण यही है कि उस दुर्ग में बमुश्किल एक छेद होता दिखाई दे रहा है। इस छेद के दिखाई देने में बाहरी प्रहारों का कितना योगदान है और कितने अंदरूनी कारण हैं, उन्हें एक सचेत व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मेरी मान्यता तो यह है कि किसी भी निकाय में परिवर्तन के लिए अंतर्वस्तु मुख्य भूमिका अदा करती है, बाह्य कारणों की भूमिका सदैव गौण और तात्कालिक होती है। वाम-मोर्चे को लगे आघात की भी यही कहानी है। तृणमूल काँग्रेस की भूमिका वहाँ तात्कालिक और गौण रही है।

स घटना ने राजनीतिक रूप से सचेत प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। मैं उस से अप्रभावित कैसे रह सकता था? मेरे मन-मस्तिष्क पर उस की जो भी प्रतिक्रिया हुई, मैं ने उसे कुछ शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया,।फलस्वरूप अनवरत पर कल की पोस्ट ने आकार लिया। एक सामयिक और कुछ चौंकाने वाले शीर्षक के कारण ही सही पर बहुत मित्र वहाँ पहुँचे। कइयों ने उस पर प्रतिक्रिया भी दी। मेरे लिए संतोष की बात यह थी कि मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया को सहज रूप में एक ईमानदार प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया। उन ने भी जो राजनैतिक सोच में मुझसे अधिक सहमत होते हैं, और उन ने भी जो अक्सर बहुत अधिक असहमत रहते हैं। चाहे इस घटना पर उन की प्रतिक्रिया कुछ भी रही हो। विशेष रूप से स्मार्ट इंडियन जी, सुरेश चिपलूनकर जी, अनुनाद  सिंह जी और अशोक पाण्डेय जी की घटना पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रियाएँ उन के अपने-अपने लगभग स्थाई हो चुके सोच के अनुसार ही थीं। मुझे उन पर किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब होता जब उन से ऐसी प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।  हो सकता है कि इन चारों मित्रों की धारणा यह बन चुकी हो कि उन की अपनी धारणाएँ इतनी सही हैं कि वे कभी बदल नहीं सकतीं। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा अपना दर्शन इस तरह सोचने की अनुमति नहीं देता।

मेरी मान्यता है कि कल जिन-जिन मित्रों ने अनवरत की पोस्ट पढ़ी और जिन ने उस पर  प्रतिक्रिया व्यक्त की उन सभी की मनुष्य और समाज के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं है। वे सभी चाहते भी हैं कि मनुष्य समाज अपने श्रेष्ठतम रूप को प्राप्त करे। यह दूसरी बात है कि मनुष्य समाज के श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारी अवधारणाएँ अलग-अलग हैं और वहाँ तक पहुँचने के हमारे मार्गों के बारे में भी गंभीर मतभेद हैं। लेकिन मनुष्य समाज का श्रेष्ठतम रूप तो एक ही हो सकता है। मेरी यह भी मान्यता है कि उस श्रेष्ठतम रूप के बारे में हमारे पास अभी तक केवल अवधारणाएँ ही हैं। वह ठीक-ठीक किस तरह का होगा? यह अभी तक पूरी तरह भविष्य के गर्भ में छुपा है। मनुष्य समाज के उस श्रेष्ठतम रूप तक पहुँचने के बारे में मतभेद अघिक गंभीर हैं, इतने कि हम उस के बारे में तुरंत तलवारें खींचने में देरी नहीं करते। हर कोई अपने ही मार्ग को सर्वोत्तम मानता है। बस यहीं हम गलती करते हैं। हम अपने-अपने मार्ग के बारे में यह तो सोच सकते हैं कि वह सही है, आखिर तभी तो हम उस पर चल रहे हैं। लेकिन हम अंतिम सत्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकते कि वही वास्तव में सही मार्ग है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे तय हो कि वास्तव में सही मार्ग कौन सा है? निश्चित ही आने वाला समय इस चीज को तय करेगा। मेरा यह भी मानना है कि एक समष्टि के रूप में जनता सदैव बुद्धिमान होती है। वह शायद अभी यह तय करने में समर्थ नहीं कि उस के लिए कौन सा मार्ग सही है। लेकिन वह सभी मार्गों को परखती अवश्य है। जब उसे लगता है कि कोई मार्ग सही है तो उस पर चल पड़ती है। उस मार्ग पर चलते हुए भी वह लगातार उसे परखती है। जब तक उसे लगता है कि वह सही चल रही है, चलती रहती है। लेकिन जब भी उसे यह अहसास होने लगता है कि कोई उसे गलत रास्ते पर ले आया है, या कि जिस रास्ते पर उस से ले जाने का वायदा किया गया था उस से भिन्न रास्ते पर ले जाया जा रहा है। तो उस अहसास को वह तुरंत प्रकट करती है। लेकिन नए मार्ग पर भी वह तुंरत नहीं चल पड़ती। उस के लिए वह रुक कर तय करती है कि अब उसे किधऱ जाना चाहिए?

बंगाल की जनता ने ऐसा ही कुछ प्रकट किया है। उसे अहसास हुआ है कि वह मंजिल तक पहुँचने के लिए पिछले अनेक वर्षों से जिस मार्ग पर चल रही थी वह एक चौराहे पर आ कर ठहर गया है, और उसे तय करना है कि कौन सा मार्ग उसे अपनी मंजिल तक पहुँचाएगा।
जिन मित्रों ने कल प्रतिक्रिया जनित मेरी रचना को पढ़ा है और उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए उस पर अपने हस्ताक्षर किये हैं, मैं उन सभी का आभारी हूँ, उन्हों ने मुझे यह अहसास कराया है कि मैं एक सही मार्ग पर हूँ।

बुधवार, 2 जून 2010

कामरेड! अब तो कर ही लो यक़ीन, कि तुम हार गए हो



कामरेड!
अब तो कर ही लो यक़ीन
कि तुम हार गए हो

अनेक बार चेताया था मैं ने तुम्हें
तब भी, जब मैं तुम्हारे साथ था
कदम से कदम मिला कर चलते हुए
और तब भी जब साथ छूट गया था
तुम्हारा और हमारा

याद करो!
क्या तय किया था तुमने?
छियालीस बरस पहले
जब यात्रा आरंभ की थी तुमने
कि तुम बनोगे हरावल
श्रमजीवियों के
तुम बने भी थे
शहादतें दी थीं बहुतों ने
इसीलिए
सोचा था बहुत मजबूत हो तुम

लेकिन, बहुत कमजोर निकले
आपातकाल की एक चुहिया सी
तानाशाही के सामने टूट गए
जोश भरा था जिस नारे ने किसानों में
'कि जमीन जोतने वालों की होगी'
तुम्हारे लिए रह गई
नारा एक प्रचार का
मैं ने कहा था उसी दिन
तुम हार गए हो
लेकिन तुम न माने थे

त्याग दिया मार्ग तुमने क्रांति का
चल पड़े तुम भी उसी मतपथ पर
चलता है जो जोर पर जो थैली का हो
या हो संगठन का
ज्यों ज्यों थैली मजबूत हुई
संगठन बिखरता चला गया
तुमने राह बदल ली
हो गए शामिल तुम भी
एकमात्र मतपथ के राहियों में
हो गए सेवक सत्ता के
भुला दिए श्रमजीवी और
झुलसाती धूप में जमीन हाँकते किसान
जिनका बनाना था एका
बाँट दिया उन्हें ही
याद रहा परमाणु समझौते का विरोध
और एक थैलीशाह के कार कारखाने
के लिए जमीन

अब मान भी लो
कि तुम हार गए हो
नहीं मानना चाहते
तो, मत मानो
बदल नहीं जाएगा, सच
तुम्हारे नहीं मानने से
देखो!
वह अब सर चढ़ कर बोल रहा है

नहीं मानते,
लगता है तुम हारे ही नहीं
थक भी गए हो
जानते हो!
जो थक जाते हैं
मंजिल उन्हें नहीं मिलती

जो नहीं थके
वे चल रहे हैं
वे थकेंगे भी नहीं
रास्ता होगा गलत भी
तो सही तलाश लेंगे
तुम रुको!
आराम करो
जरा, छांह में
मैं जाता हूँ
उन के साथ
जो नहीं थके
जो चल रहे हैं