@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अश्यी काँई ख्हे दी ब्हापड़ा नें

घणो बवाल मचायो! अश्यी काँईं ख्ह दी।  य्हा ई तो बोल्यो थरूर के कैटल क्लास म्हँ जातरा कर ल्यूंगो।  अब थें ई सोचो;  ब्हापड़ा नें घणी घणी म्हेनत करी। पैदा होबा के फ्हेली ई हिन्दुस्तान आज़ाद होग्यो जी सूँ बिदेस म्हँ पैदा होणी पड्यो। फेर बम्बई कलकत्ता म्हँ पढणी पड़्यो। इत्य्हास मँ डिगरी पास करी व्हा बी अंग्रेजी म्हँ प्हडर। फेर अमरीका ज्यार एम्में अर पीएचडयाँ करणी पड़ी। नरी सारी कित्याबाँ मांडी। जद ज्यार ज्यूएन म्हँ सर्णार्थ्याँ का हाई कमीस्नर बण्यो। फेर परमोसन लेताँ लेताँ कणा काँई सूँ कणा काँईं बण बैठ्यो।  फेर बडी मुसकिल सूँ जुगाड़ भड़ायो अर ज्यू एन का सेकरेटरी जर्नल को चुणाव ज्या लड्यो। ऊँम्हँ भी हारबा को अंदसो होयो तो नाम ई पाछो जा ल्यो।
अब यो अतनो ऊँचो कश्याँ बण्यो? थाँ ईँ याद होव तो बताओ! न्हँ तो म्हूँ बताऊँ छूँ। अतनो बडो आदमी अश्याँ  ई थोड़ी बण ज्याव छे। घणा पापड़ बेलणी पड़ छे, ज्यूएन म्हँ घुसबा कारणे। जमारा भर का मोटा मोटा सेठ पटाणी पड़े छे।  कान काईँ बण ज्याबा प व्हाँ की सेवा करणी पड़े छे। जद परमोसन मले छे। अब अश्याँ परमोसन लेताँ लेताँ दोन्यूँ को गठजोड़ो अतनो गाढ़ो हो ज्यावे छे जश्याँ फेवीकोल को जोड़। दोन्यूँ आडी हाथी अड़ा र खींचे  जद  भी न छूटे। 
अब थाँ ई बोलो! जमारा भर का सेठाँ सूं गठजोड़ो बांधे अर फेर भी व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास म्हाइनें जातरा करे। य्हा कोई जमबा हाळी बात छे कईँ। अब य्हा ई तो गलती होगी, के उँठी ज्यूएन छोडर अठी आ मर् यो। पण काँई करतो ब्हापड़ो, उँठी मंदी की मार पड़ री छी। गठजोड़ा हाळा सन्दा सेठा के ही व्हा गळा में आ री छी तो यो व्हाँ काई करतो। अठी इटली हाळी माता जी नें देखी के यो ज्यूएन को बंदो फोकट म्हँ पल्ले पड़ रियो छे तो ईं ने छोडो मती, पकड़ ल्यो।  व्हाँ ने पकड़्यो अर किसमत नें जोर मारि्यो, अर चुणाव में जीतग्यो। अठी जीत्यो अर उठीं उँ की पौ बारा।  झट्ट सूं सेकिण्ड बिदेस मंतरी जा बणायो। आखर कार ऊँ ने गठजोड़ा को धरम भी तो निभाणो छो। 
अब थें ई बताओ! अतनो बडो आदमी ज्ये जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ो बणावे अर व्हाँ के कारणे सैकिंड बिदेस मंतरी बण के दिखावे। ऊँ से था खेवो के भाया खरचा माथे व्हाई ज्हाज का थर्ड किलास में बैठणी पड़सी। अब माता जी को खेबो भलाईँ न्ह माने पण गठजोड़ा को धरम तो निभाणी पडे। अर माताजी न्हें भी थोड़ी आँख्याँ दखाणी पड़े; के थें यूँ मती सोच जो के म्हूँ थाँ के न्हाईं छूँ। थानें हिन्दूस्तानी व्हाई ज्हाज का डिरेवर सूँ गठजोड़ो बणायो, पण म्हंने तो जमारा भर का सेठाँ सू बणायो छे, आज ताईँ निभायो छे। अर आगे भी निभाबा को पक्को इरादो कर मेल्यो छे। 
थें ई बताओ, के ससी थरूर न्हें काँई झूट बोल्यो? हिन्दुस्तान का व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास गायाँ भैस्याँ के बरोबर छे क कोई न्हँ? थाईं तो याद छे के व्ह परदेसी गायाँ जे पच्चीस-पच्चीस सेर दूध देव व्हाँ के ताँई कूलर एसी म्हँ रखाणणी पड़े छे। अब ससी थरूर साइब के ताईं जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ा को सरूर न्हँ होवेगो तो काँईँ थारे ताँई होवेगो के ?

स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाने और साथ खाने का आनंद

पिताजी को भोजन बनाने, खिलाने और खाने का शौक था। वे अक्सर नौकरी पर रहते और केवल रविवार या किसी त्यौहार के अवकाश के दिन घर आते।  अक्सर मौसम के हिसाब से भोजन बनाते। हर त्यौहार का भोजन भिन्न  होता। गोगा नवमी को कृष्ण जन्मोत्सव पर मालपुए बनते, कभी लड्डू-बाटी कभी कुछ और। हर भोजन में उन के चार-छह मित्र आमंत्रित होते। उन्हें भोजन कराते साथ ही खुद करते।

 श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराने का नियम है। लेकिन उस से अधिक महत्व इस बात का है कि उस के उपरांत आप को परिजनों और मित्रों के साथ भोजन करना चाहिए। इस से हम अपने पूर्वजों के मूल्यों व परंपराओं को दोहराते हुए उन का का स्मरण करते है। श्राद्ध के कर्मकांड को एक तरफ रख दें, जिसे वैसे भी अब लोग विस्मृत करते जा रहे है, तो मुझे यह बहुत पसंद है।  मामा जी अमावस के दिन नाना जी का श्राद्ध करते थे। दिन में ब्राह्मण को भोजन करा दिया और सांयकाल परिजन और मित्र एकत्र होते थे तो उस में ब्राह्मणों की अपेक्षा बनिए और जैन अधिक हुआ करते थे। मुझे उन का इस तरह नाना जी को स्मरण करना बहुत अच्छा लगता था। नाना जी को या उन के चित्र को मैं ने कभी नहीं देखा, लेकिन मैं उन्हें इन्हीं आयोजनों की चर्चा के माध्यम से जान सका। लेकिन मेरे मस्तिष्क में उन का चित्र बहुत स्पष्ट है। 

यही एक बात है जो मुझे श्राद्ध को इस तरह करने के लिए बाध्य करती है। आज पिताजी का श्राद्ध था। सुबह हमारे एक ब्राह्मण मित्र भोजन पर थे। शाम को मेरे कनिष्ट, मुंशी और मित्र भोजन पर थे। नाटककार शिवराम भी हमारे साथ थे। उन की याद तो मुझे प्रातः बहुत आ रही थी। यहाँ तक कि कल सुबह की पोस्ट का शीर्षक और उस की अंतिम पंक्ति उन्हीं के नाटक 'जनता पागल हो गई है' के एक गीत से ली गई थी। रविकुमार ने उस गीत के कुछ अंश इस पोस्ट पर उद्धृत भी किए हैं। उन्हों ने न केवल इस पोस्ट को पढ़ा लेकिन यह  भी बताया कि अब नाटक में मूल गीत में एक पैरा और बढ़ा दिया गया है। मेरा मन उसे पूरा यहाँ प्रस्तुत करने का था। लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया क्यों कि अब बढ़ाए गए पैरा के साथ ही उसे प्रस्तुत करना उचित होगा। वह भी उस नाटक की मेरी अपनी स्मृतियों के साथ।  उन्हों ने बताया कि उन के दो नाटक संग्रहों का विमोचन 20 सितंबर को होने जा रहा है। उन पुस्तकों को मैं देख नहीं पाया हूँ। शिवराम ने आज कल में उन के आमुख के चित्र भेजने को कहा है। उन के प्राप्त होने पर उस की जानकारी आप को दूंगा।
फिलहाल यहाँ विराम देने के पूर्व बता देना चाहता हूँ कि शोभा ने पूरी श्रद्धा और कौशल के साथ हमें गर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ खिलाईं। शिवराम अंत में कहने लगे आलू की सब्जी इन दिनों बढ़िया नहीं बन रही है लेकिन आज बहुत अच्छी लगी। केवल आलू की सब्जी खा कर भोजन को विश्राम दिया गया। स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं। नगरीय जीवन में यह आनंद बहुत सीमित रह गया है।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

भूख लगे तो गाना गाsssss..आ.sssss.......

मानसून रूठ गया। बरसात नहीं हुई है। सूखा मुहँ बाए खड़ा है। महंगाई रोंद रही है। बहुत लोग हैं जो इस में कमाई का सतूना देख रहे हैं और कर रहे हैं। सरकार स्तब्ध है। कुछ कर नहीं पा रही है। कहती है .... हम इंतजाम कर रहे हैं पर कुछ तो बढ़ेगी। भुगतना होगा। सरकार को भी लगता है भुगतना होगा। सरकार परेशान है। सरकार में बैठी पार्टी परेशान है।

वह रास्ता निकालती है, कम खर्च करो बिजनेस की बजाय इकॉनॉमी में सफर करो। हवाई जहाज को छोड़ो ट्रेन में सफर करो। जनता के लिए यह संदेश है, तुम सफर करना बंद करो, पैसा बचाओ और उस से खाना खरीदो। सरकार मुश्किल में है। और बातें तो ठीक थीं पर मानसून यह न जाने क्यों गले पर आ कर बैठ गया। अब संकट है। वह संकट के उपाय तलाश रही है। 
मीडिया संकट का बड़ा साथी है। वह संकट पैदा करता है, वह संकट नष्ट करता है। उसे दुकान चलानी है। गड्ढा खोदो और फिर उसे भरो। तमाशा देखें उन को विज्ञापन दिखा कर पैसा वसूल करो। कुछ न हो तो पुराने पेड़ की खोह में आग लगा दो। जब तक पेड़ जल न जाए। ढोल पीट पीट कर लाइव दिखाते रहो। लोगों को बिजी कर दो और बिजनेस करो। रोटी कमाओ। 
पाकिस्तान परमानेंट इलाज है। जब कुछ काम न आए तो उधर से गोली चलने और गोला फेंकने की खबर दो। जब लोग पत्थर ले कर उधर फैंकने लगें तो कह दो ये तो उग्रवादियों की गतिविधि है। वह बेचारा खुदे ई उन से परेसान है। फिर औसामा को गाली दो। काम न चले तो डॉलर से उस की रिश्तेदारी का बखान करो। दो दिन निकल जाएंगे।
फिर चीन की तरफ झाँको। वह घुसा और लाल स्याही से पत्थरों पर चीन लिख गया। फिर चीन से तस्करी से आने वाले माल का उल्लेख करो, तस्करी को लाइव दिखाओ। कब से हो रही है? मीडिया जी अब तक कहाँ थे? यहीं थे। बस रिजर्व में रखा था इस माल को। अब जरूरत पड़ी तो दिखा रहे हैं। जब लोग बोर होने लगें तो दिखा दो कोई नहीं घुसा। वह तो अपने ही लोग पत्थरों पर चीन-चीन लिखना सीख रहे थे। 
लोग तमाशा देखेंगे, और रोटी को भूल जाएँगे, महंगाई को भूल जाएंगे, बेरोजगारी को भूल जाएंगे।  सीधे सतर खड़े हो कर जन, गण, मन गाएंगे। सीधे सतर न रहें तो भी तमाशा है उसे दिखाओ। हर ओर से चांदी है।  जब लोगों को भूख लगे, वे चिल्लाने लगें तो किसी अच्छे कंडक्टर को बुलाओ जो मंच पर खड़ा हो कर डंडी हिलाए और गाना गवाए - भूख लगे तो गाना गा, भूख लगे तो गाना गा...ssss...sssss....

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग सीखें, हिन्दी में काम की गति और शुद्धता बढ़ाएँ और अधिक काम करें

मनुष्य  प्रजाति को अपने संरक्षण और विकास के लिए यह आवश्यक था कि वह जाने कि  जिस दुनिया में वह रहता है उस में क्या है जो उस के श्रेष्ठ जीवन और उस की निरंतरता के लिए सहायक है, और क्या घातक है। कौन सी वनस्पतियाँ हैं जो जीवन के लिए पोषक हैं और कौन सी हैं जो घातक हैं? शिकार, भोजन संग्रह और मौसम से संबंधित वे क्या जानकारियाँ हैं जो उस के जीवन को सुरक्षित बनाती हैं। इन  जानकारियों के प्राप्तकर्ता के लिए यह भी आवश्यक था कि उन्हें वह अपने समूह को संप्रेषित करे। जिस से समूह को इन्हें  जुटाने में अपना समय जाया न करना पड़े।  जानकारियों और सूचनाओं के संप्रेषण की आवश्यकता ने बोली के विकास का मार्ग प्रशस्त किया और जब मनुष्य ने इन्हें संकेतों के माध्यम से संप्रेषित करने का आविष्कार कर लिया तो भाषा ने आकार ग्रहण किया।
अलग अलग समूहों ने अपनी अपनी भाषाएँ और लिपियाँ विकसित कीं।  जैसे जैसे समूहों में आपसी संपर्क हुए भाषाओं का विकास हुआ और आज की आधुनिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं। भाषाएँ कभी जड़ नहीं होतीं। वे लगातार विकासशील होती है। जिस भाषा में विकासशीलता का गुण नष्ट हो जाता है, जड़ता  आ जाती है वह शनैः शनैःअस्तित्व खोने लगती है। भाषा की आवश्यकता के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है कि उस की मनुष्य को कितनी और क्यों आवश्यकता थी और है? जो भाषा मनुष्य की  वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करती रहेगी, और भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिएविकसित होती रहेगी। उसे अधिकाधिक लोग अपनाते रहेंगे। किसी भी भाषा की उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि वह मनुष्य समाज की कितनी आवश्यकता की पूर्ति करती है। यदि कोई ऐसी भाषा विकसित हो सके जो  पूरी मनुष्य जाति की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दे और नई उत्पन्न हो रही आवश्यकताओं की पूर्ति करती रहे तो लगातार विकसित होती रहेगी और उस का अस्तित्व बना रहेगा।  इस तरह हम कह सकते हैं कि भाषा मनुष्य द्वारा आविष्कृत वह उपकरण है जिस की उसे संप्रेषण के लिए आवश्यकता थी। इस उपकरण का मनुष्य की नवीनतम आवश्यकताओं के लिए विकसित होते रहना आवश्यक है। 

हिन्दी हमारी मातृभाषा है। वह हमारे लिए सर्वाधिक संप्रेषणीय है और संज्ञेय भी।  हम अधिकांशतः उसी का उपयोग करते हैं। हमारी आवश्यकता की पूर्ति उस से न होने पर हम अन्य भाषाओं को सीखने की ओर आगे बढ़ते हैं। यदि हिन्दी हमारी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो क्यों कर हम अन्य भाषाओं को सीखने की जहमत क्यों उठाएँगे। लेकिन हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरी दूसरी भाषाओं को सीखना पड़ता है। जिस का सीधा सीधा अर्थ है कि हिन्दी को अभी मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकसित होना है।  यदि किसी दिन हिन्दी इतनी विकसित हो जाए कि वह मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे तो अधिकाधिक लोग हिन्दी सीखने लगेंगे और एक दिन वह हो सकता है जब कि वह मनुष्य जाति द्वारा सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली भाषा बन जाए। 
हम मन से चाहते हैं कि हिन्दी एक विश्व भाषा हो जाए। सारी दुनिया हिन्दी बोलने लगे। उस का दुनिया में एक छत्र साम्राज्य हो। दूसरी भाषाएँ संग्रहालय की वस्तु बन कर रह जाएँ। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है कि हम हिन्दी को इस योग्य बनाएँ। दुनिया में जितना भी ज्ञान है वह हिन्दी में संग्रहीत हो। हम अपना नवअर्जित ज्ञान हिन्दी में सहेजना आरंभ करें। हिन्दी का भविष्य इस पर निर्भर है कि हम हिन्दी वाले  नए ज्ञान को अर्जित करने मे कितना आगे बढ़ पाते हैं? अभी तो हालात यह हैं कि जो भी नया ज्ञान  हम हिन्दी वाले अर्जित करते हैं उसे सब से पहले अंग्रेजी में अभिव्यक्त  करते हैं। हम अंग्रेजी में सोचते हैं और फिर हिन्दी में अनुवाद करते हैं। कुछ लोग हिन्दी को भी उस दिशा में डाल रहे हैं कि एक हिन्दी भाषी को भी उसे समझने के लिए पहले अंग्रेजी में समझना पड़े।

 देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट
आज हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं क्यों कि 14 सितम्बर को इसे भारत की राजभाषा घोषित किया गया।  लेकिन वस्तुतः यह हिन्दी दिवस नहीं है अपितु हमारा राजभाषा दिवस है। हम हमेशा रोना रोते हैं कि सरकार इस के लिए कुछ नहीं करती, या करती है तो बहुत कम करती है और दिखावे भर के लिए करती है।  लेकिन हम खुद उस के लिए क्या कर रहे हैं। सरकार ने कंप्यूटर पर देवनागरी और तमाम भारतीय भाषाएं लिखने के लिए इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट विकसित करने के काम को कराया, उस के लिए  टंकण शिक्षक बनवाया जिस से केवल एक सप्ताह में  ही हिन्दी टाइपिंग सीखी जा सकती है। लेकिन हम  हिन्दी वाले जो कंप्यूटर पर काम करते हैं वे ही नहीं सीख पा रहे हैं।  उस के लिए हम हजारों लाखों हिन्दी शब्दों की रोमन वर्तनी सीखने को तैयार हैं लेकिन एक सप्ताह उंगलियों को कसरत कराने को तैयार नहीं हैं।

 आसान हिन्दी कम्प्यूटर-टंकण शिक्षक
यदि हिन्दी को विश्वभाषा बनना है तो वह हिन्दी की अंदरूनी ताकत से बनेगी। उस की अंदरूनी ताकत हम हिन्दी वाले हैं। हम कितना ज्ञान हिन्दी में सहेज पाते हैं? हम कितना नया ज्ञान हिन्दी में, सिर्फ और सिर्फ हिन्दी में अभिव्यक्त करते हैं। इसी पर हिन्दी का विकास निर्भर करेगा। इस बात को हिन्दी के शुभेच्छु जितना शीघ्र हृदयंगम कर लें और अपने पथ पर चलने लगें उतना ही इस का विकास तीव्र हो सकेगा। फिलहाल तो मेरा एक निवेदन है कि हम जो कंप्यूटर और इंटरनेट पर हिन्दी का काम कर रहे हैं, कम से कम अपना इनस्क्रिप्ट कुंजीपट का प्रयोग सीख लें। यह सीखने पर ही पता लग सकता है कि यह कितना आसान है और कितना उपयोगी और कितनी ही परेशानियों से एक बार में छुटकारा दिला देता है।  इस से हिन्दी में काम करने की गति और शुद्धता बढ़ेगी और हम हिन्दी का अधिकाधिक काम कर सकेंगे।   मैं आशा कर सकता हूँ कि अगले साल जब हम राजभाषा दिवस मनाएँ तो इन्स्क्रिप्ट कुंजीपट से टंकण कर रहे हों।

रविवार, 13 सितंबर 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ


नवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........





(1) 

पापा
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर जाते पापा
देर रात घर आते पापा

फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
*******





(2) 
भोर का तारा

  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

उठो सवेरे ने ललकारा
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...


डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...



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शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाया ! बैल बगाग्यो

पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास।  उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया।  पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी।  जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए।  पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए। 

व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई।  मुनाफा बढ़ गया।  गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।

खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान।  अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ?  बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' ।   व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा? 

किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ।  मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए।  किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे  कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया। 

पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'।  यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"। 

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

राजनैतिक स्वार्थों को साधने का घृणित अवसरवाद

मुझे पिछले दिनों दो बार जोधपुर यात्रा करनी पड़ी।  दोनों यात्राओं का सिलसिला एक ही था। एक उद्योग में नियोजित श्रमिकों ने अपनी ट्रेड यूनियन बना कर पंजीकृत कराई थी। जब उद्योग के दो तिहाई से भी अधिक श्रमिक इस यूनियन के सदस्य हो गए और उन्हों ने कानून के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं को लागू करने की मांग की तो उद्योग के मालिकों के माथे पर बल पड़ने आरंभ हो गए। उन्हों ने यूनियन का पंजीयन प्रमाणपत्र रद्द कर ने के लिए ट्रेड यूनियन पंजीयक के सामने एक आवेदन प्रस्तुत किया। इसी आवेदन में यूनियन का पक्ष रखने के लिए यह यात्रा हुई थी। उस का कानूनी पक्ष क्या था। यह यहाँ इस आलेख का विषय नहीं है। उसे फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किया जाएगा। पहली सुनवाई के दिन जोधपुर बंद था। मांग यह थी कि उदयपुर और बीकानेर के वकीलों की मांग पर राजस्थान हाईकोर्ट की बैंचे न खोली जाएँ और एक बार विभाजित हो चुके हाईकोर्ट को विभाजित न किया जाए। हाईकोर्ट की अधिक बैंचें स्थापित किए जाने का विषय भी विस्तृत है और यह आलेख उस के बारे में भी नहीं है। इन विषयों पर आलेख फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किए जाएँगे।

उस दिन सुनवाई के समय कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर से उद्योग के कोई सौ से अधिक मजदूर आए थे। वे अपने झंडे लिए जब ट्रेड यूनियन पंजीयक के कार्यालय की और जा रहे थे तो बंद कराने वालों का एक समूह वहाँ से गुजरा और उन्हों ने झंडे लिए मजदूरों को देखते ही नारे लगाने आरंभ कर दिए 'वकील-मजदूर एकता जिन्दाबाद !' मजदूरों ने भी उन के स्वर में स्वर मिलाया। कुछ देर नारेबाजी चलती रही फिर दोनों अपनी राह चल दिए। जब मजदूर पंजीयक कार्यालय पहुँचे तो वहाँ वे बाहर कुछ देर नारे लगाते रहे वहाँ बंद समर्थकों का एक और समूह आ निकला। फिर से नारे लगने लगे। मजदूरों ने भी वकील-मजदूर एकता के नारों में साथ दिया और साथ में अपने नारे भी लगाए जिस में उस समूह के लोगों ने भी साथ दिया। बंद समर्थक समूह में शिवसेना के कुछ कार्यकर्ता भी थे। जिन की पहचान गले में डाले हुए केसरिया रंग के पटके जिस पर लाल रंग से शिव सेना छपा था से स्पष्ट थी। उन्हों ने मारवाड़ के गौरव के संबंध में कुछ नारे लगाए। फिर यह भी कहा कि  उन्हें पृथक मारवाड़ राज्य  दे दिया जाए तो उन का अपना अविभाजित हाईकोर्ट वापस मिल जाएगा। फिर शेष राजस्थान का हाईकोर्ट वे कहीं भी ले जाएँ। इस तरह हाईकोर्ट को विभाजित नहीं किए जाने की मांग के बीच प्रदेश को ही विभाजित कर डालने की मांग पसरी दिखाई दी। 

कोटा वालों की यह पुरानी मांग है कि राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच के पास लम्बित मुकदमों मे चालीस प्रतिशत सिर्फ हाड़ौती से हैं, इस कारण से कोटा में भी एक बैंच स्थापित की जानी चाहिए। अपनी इस मांग के समर्थन में वे विगत छह वर्षों से माह के अंतिम शनिवार को हड़ताल रखते हैं। जब देखा कि हाईकोर्ट बैंच के लिए उदयपुर वाले पिछले दो माह से और बीकानेर वाले एक माह से अधिक से संघर्ष कर रहे हैं। यदि इस अवसर पर कोटा वाले चुप रहे तो कोटा में बैंच खोलने की उन की मांग कमजोर पड़ जाएगी। तो वे भी 31 अगस्त से हड़ताल पर आ गए हैं। वकीलों के काम न करने के कारण उदयपुर, बीकानेर और कोटा संभागों में अदालती काम पूरी तरह से ठप्प हो चुका है। 


आज सुबह जब मैं कोटा पहुँचा तो यहाँ हाईकोर्ट की बैंच कोटा में स्थापित करने के समर्थन में शिवसेना ने कलेक्ट्री के बाहर धरना दिया हुआ था। सुबह से ले कर शाम तक जोरों से भाषण होते रहे और नारे लगते रहे। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जोधपुर में शिवसेना हाईकोर्ट को विभाजित न करने के आंदोलन के साथ थी तो कोटा में उसे विभाजित करने के आंदोलन के साथ। एक ही दल के दो संभागों की शाखाएं आमने सामने खड़ी थीं। गनीमत यह थी कि जोधपुर की शिवसेना जो दबे स्वरों में मारवाड़ प्रांत अलग स्थापित करने की मांग कर रही थी। कोटा की शिवसेना ने पृथक हाड़ौती प्रांत जैसी कोई मांग नहीं उठा रही थी। मैं सोच रहा था कि राजनैतिक स्वार्थों को साधने का  इस से घृणित भी कोई अवसरवादी रूप हो सकता है क्या?