@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ

रविवार, 13 सितंबर 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ


नवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........





(1) 

पापा
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर जाते पापा
देर रात घर आते पापा

फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
*******





(2) 
भोर का तारा

  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

उठो सवेरे ने ललकारा
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...


डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...



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10 टिप्‍पणियां:

हेमन्त कुमार ने कहा…

बेहतरीन बाल कविताएं जो अपने पीछे कई सवाल छोड़ गये । आभार ।

Arvind Mishra ने कहा…

सशक्त बोधमयी कवितायें !

Himanshu Pandey ने कहा…

पहली कविता में सहज बाल-जिज्ञासा और बाल मनोविज्ञान का सुन्दर प्रकाशन है । यकीन साहब की रचनायें इस चिट्ठे की अमूल्य संपदा हैं । आभार ।

Ghost Buster ने कहा…

बढ़िया है. सहज, सौम्य और भावप्रवण.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

लाजवाब रचना.

रामराम.

निर्मला कपिला ने कहा…

वाह बहुत सुनदर् सहज रचनायें हैं यकीन जी को बधाई

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर, पहली कविता मै बाल मन की उलझन दिखाई है,
धन्यवाद

कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra) ने कहा…

सवेरे का आमंत्रण कितने लोग स्वीकारते हैं, यह देखने की बात है| अधिकांश लोगों को तो आलस्य का तम ही ज्यादा भाता है|

समयचक्र ने कहा…

बहुत सुन्दर आभार प्रस्तुति के लिए .

शरद कोकास ने कहा…

ज़्यादा नहीं कमाते पापा ,चार पंक्तियों मे व्यवस्था श्रम और् शोषण का चित्र खींच कर रख दिया यकीन जी ने ।