@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बाल कविता
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बुधवार, 18 नवंबर 2009

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की एक बाल कविता 'गुटर गुटर गूँ'

मैं चार दिन कोटा से बाहर यात्रा पर रहा। इन चार दिनों में दिल्ली में अनेक ब्लागरों से मिलना हुआ। आप को उस यात्रा के बारे में बताता लेकिन कल रात यहाँ पहुँचने के पहले ही जोधपुर से संदेश मिला कि कल ही वहाँ पहुँचना है और तुरंत टिकट कट गया। अब शनिवार को कोटा पहुँचने पर ही मुलाकात होगी। इस बीच बाल दिवस निकल गया। पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की यह बाल कविता बाल दिवस पर छूट गई। चलिए देर 'आयद दुरुस्त आयद' सही। इस कविता को आज पढ़ लीजिए .....


गुटर गुटर गूँ
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
गुटर गुटर गूँ, गुटर गुटर गूँ
श्वेत सलौना एक कबूतर
नाच रहा था अपनी धुन में
गीत प्रीत के अलमस्ती के
सुना रहा था झूम-झूम कर
मौसम सरगम छेड़ रहा था
गुटर गुटर गूँ, गुटर गुटर गूँ

म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
क़दम दबा कर पूँछ उठा कर
बिल्ली आई और ग़ुर्राई
म्याऊँ म्याऊँ तुझ को खाऊँ

बेचारा मासूम कबूतर
भूल गया सब प्रेम तराने
गुटर गुटर गूँ, ठुमके सारे
डर के मारे आँख मूँद लीं
कानों वाली गर्दन दुबका ली
काँधों में, उसे लगा बस
ख़तरा टला मुसीबत छूटी

म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
बिल्ली मन ही मन मुस्काई
कैसा है नादान कबूतर
आँख मूँद कर सोच रहा है
ओझल हुई नज़र से बिल्ली
इस का मतलब चली गई मैं
और बच गया वो मरने से

अपनी मूँछों पर बिल्ली ने
पंजा फेरा बड़ी शान से
और कबूतर आसानी से
अपने मुँह में दबा लिया फिर
मन ही मन ऊपर वाले का
शुक्र मनाया म्याऊँ म्याऊँ

देखा बच्चो ! गया जान से
बेचारा मासूम कबूतर
और बिल्ली का काम गया बन
सीना उस का और गया तन

अच्छा बच्चो! अब तुम बोलो
कोई ख़तरा अगर तुम्हारे
सम्मुख आए तब तुम अपनी
समझ-बूझ से बचने की कुछ
राह करोगे ; आने वाले
हर ख़तरे से लोहा लोगे
या ख़तरों से आँख मूँद कर
अपने दुश्मन आप बनोगे

सोचो बच्चो! बडे़ ध्यान से
पहले सोचो फिर बतलाओ
पहले सोचो फिर बतलाओ


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रविवार, 13 सितंबर 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ


नवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........





(1) 

पापा
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर जाते पापा
देर रात घर आते पापा

फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
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(2) 
भोर का तारा

  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

उठो सवेरे ने ललकारा
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...


डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...



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